Home Blog Page 553

गुरु तेग बहादुर जी का 400वाँ प्रकाश पर्व

महामारी में बढ़ी गुरु जी की शिक्षाओं की प्रासंगिकता

‘हिन्द दी चादर’ के नाम से मशहूर और सिखों के नौवें गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी का 400वाँ प्रकाश पर्व मनाया जा रहा है। गुरु तेग बहादुर जी ने हँसते-हँसते अपनी ज़िन्दगी इंसानियत के लिए कर्बान कर दी थी। उन्होंने कहा- ‘सुखु दु:खु दोनों सम करि जानै अउरु मानु अपमाना। हरख सोग ते रहै अतीता तिनि जगि ततु पछाना।।’ यानी सुख-दु:ख और आदर-निरादर को समान समझने वाला, ख़ुशी और ग़म से विरक्त मनुष्य ही जीवन का रहस्य समझ सकता है। वर्तमान में जब हम महामारी का सामना कर रहे हैं, तो गुरु जी के सन्देश कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो गये हैं। आने वाले व$क्त में यह प्रासंगिकता और बढ़ जाएगी। भारत हितैषी की रिपोर्ट :-

गुरु तेग बहादुर सिंह जी ने जीवन का मक़सद बताया कि कैसे हम समानता, सद्भाव और त्याग का रास्ता अख्तियार करें। नौवें गुरु तेग बहादुर को सभी धर्मों की आज़ादी के अधिकारों का समर्थन करने के तौर पर जाना जाता है। उनके प्रभाव के बिना पिछली चार सदी की कल्पना नहीं की जा सकती। हालाँकि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति (एसजीपीसी) ने भाई गुरदास जी नगर में होने वाले भव्य कार्यक्रम रद्द कर दिये और कोरोना वायरस के मरीज़ो के इलाज के लिए अपने गुरु राम दास चैरिटेबल अस्पताल को समर्पित कर दिया है। यह समारोह अब स्वर्ण मंदिर में गुरुद्वारा श्री मंजी साहिब के दीवान हॉल में आयोजित किया जाएगा। अमृतसर में नौवें गुरु के जन्म-स्थान गुरुद्वारा गुरु के महल में कई कार्यक्रम आयोजित किये गये।

400वें प्रकाश पर्व पर पूरे वर्ष डिजिटल माध्यम से गुरु तेग बहादुर जी के शबद, उनकी शिक्षाएँ लोगों तक पहुचायी जा रही हैं। इससे नयी पीढ़ी की पहुँच उन तक आसानी से होगी और वह प्रेरणा ले सकेगी। गुरु नानक देव जी के साथ गुरु तेग बहादुर जी और सिख धर्म के अन्तिम गुरु ‘गुरु गोविंद सिंह जी’ के साथ शुरू होने वाली सिख गुरु परम्परा अपने आप में जीवन का एक पूर्ण दर्शन है। इससे पहले राष्ट्र ने गुरु नानक देव जी के 550वें प्रकाश पर्व, गुरु तेग बहादुर जी की 400वीं जयंती और गुरु गोविंद सिंह जी के 350वें प्रकाश पर्व के रूप में उत्सव मनाया और देशवासियों को उनके जीवन-दर्शन की शिक्षाओं से अवगत कराया। गुरुओं के जीवन के बाद-उनके जीवन में सर्वोच्च बलिदान के साथ-साथ उनमें सब्र भी था। इससे उनके जीवन में ज्ञान के प्रकाश हुआ और उन्हें आध्यात्मिक क़द भी हासिल हुआ।

अब समय आ गया है कि गुरु तेग बहादुर जी के जीवन और शिक्षाओं के साथ-साथ मानवता को प्रेरित करने के लिए दुनिया भर में गुरु परम्परा को अपनाया जाए। परम्पराओं को समझकर अगर हम सिख समुदाय और हमारे गुरुओं के लाखों अनुयायियों के नक़्श-ए-क़दम पर चलते हैं, तो हम पाएँगे कि कैसे सिख समुदाय समाज-सेवा कर रहा है और गुरुद्वारे मानव-सेवा का केंद्र बने हुए हैं। पिछले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये श्री गुरु तेग बहादुर जी की 400वीं जयंती (प्रकाश पर्व) मनाने के लिए उच्च स्तरीय समिति की बैठक की अध्यक्षता की। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इस विशेष कार्यक्रम की रूपरेखा पर चर्चा करने के लिए बैठक में शिरकत की थी। पंजाब के मुख्यमंत्री पहले ही गुरु तेग बहादुर जी के राज्य स्तरीय 400वीं जयंती समारोह के लोगो का अनावरण कर चुके हैं। 23 अप्रैल को ही अमृतसर में गुरु तेग बहादुर जी के जन्म स्थान ‘गुरु का महल’ पर नगर कीर्तन का आगारा हुआ और बाबा बकाला में समापन हुआ। आनंदपुर साहिब और कीरतपुर में अलग-अलग कार्यक्रम और कोष (फंड) बनाये गये हैं, जिसकी ज़िम्मेदारी मुख्य सचिव विनी महाजन को सौंपी गयी है; जो विकास परियोजनाओं का विभागीय समन्वय कर रहे हैं। गुरु तेग बहादुर को 17वीं शताब्दी के उस क़ानून के ख़िलाफ़ सिखों और हिन्दुओं को प्रदान की गयी सुरक्षा के लिए जाना जाता है, जिसमें लोगों को जबरन इस्लाम धर्म अपनाने को मजबूर किया जाता था। वे गुरु नानक के सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए देश में कश्मीर और असम जैसे राज्यों के लम्बे सफर के लिए भी मशहूर हैं। इस्लाम धर्म अपनाने से इन्कार करने पर मुगल बादशाह औरंगजेब के आदेश पर दिल्ली में उन्हें मृत्यु दण्ड दे दिया गया। उनके पुत्र गुरु गोविंद सिंह (सिखों के अन्तिम गुरु) ने मुगलों की ता$कत का मुक़ाबला करने के लिए समुदाय को एक मार्शल रेस में तब्दील कर दिया।

एसजीपीसी की अध्यक्ष बीबी जागीर कौर के अनुसार, चौथी शताब्दी समारोह के लिए संगतों में बहुत उत्साह था; लेकिन कोविड-19 के कारण बड़ा आयोजन नहीं हो पा रहा है। अमृतसर में नौवें गुरु के जन्मस्थान गुरुद्वारा गुरु के महल से विभिन्न प्लेटफार्मों के माध्यम से लाइव टेलीकास्ट के ज़रिये कई कार्यक्रम किये जा रहे हैं। इस दौरान कई कार्यक्रमों का सीधा प्रसारण किया गया, ताकि देश और दुनिया के संगतों को ऐतिहासिक उत्सव के साथ जोड़ा जा सके। शताब्दी समारोह के दौरान चैनलों को घटनाओं के लाइव कवरेज के लिए लिंक प्रदान किये गये। उन्होंने कहा कि कोविड-19 नेपूरी दुनिया को प्रभावित किया है और हमेशा की तरह एसजीपीसी इस संकट के समय में भी मानवता की भलाई के लिए काम कर रही है।

बता दें कि एसजीपीसी अपने स्वास्थ्य संस्थानों में पहले से ही कोरोना के मरीज़ो को बेहतर उपचार प्रदान कर रही है। अब हालात गम्भीर होने पर चटविंद गेट स्थित श्री गुरु राम दास चैरिटेबल अस्पताल पूरी तरह से कोरोना रोगियों के लिए समर्पित कर दिया गया है। उन्होंने बताया कि यहाँ कुल 100 बेड उपलब्ध कराये गये हैं और कोरोना-टीकाकरण की सुविधा भी मुफ्त में दी जा रही है। एसजीपीसी ने श्री गुरु राम दास मेडिकल कॉलेज वल्लाह, श्री गुरु राम दास चैरिटेबल अस्पताल अमृतसर, बाबा बुद्ध जी अस्पताल बीर साहिब और फुहारा चौक, अमृतसर में भी टीकाकरण की व्यवस्था की है। गुरु तेग बहादुर जी का सर्वोच्च बलिदान यह महत्त्वपूर्ण सन्देश देता है कि सार्वभौमिक रूप से मानवीय गरिमा, स्वतंत्रता, उपासना, शिक्षा और जीने की ज़रूरतों आदि जीवन मूल्यों का अधिकार हर इंसान को है।

नौवें गुरु से जुड़े कुछ तथ्य :-

 गुरु तेग बहादुर का पैदाइशी नाम त्याग मल था। गुरु तेग बहादुर नाम उन्हें गुरु हरगोबिंद सिंह जी ने दिया था।

 गुरु तेग बहादुर को भाई बुद्ध ने धनुर्विद्या और घुड़सवारी में महारत हासिल करायी और भाई गुरदास ने पौराणिक ज्ञान से अवगत कराया।

 बकाला में गुरु तेग बहादुर ने $करीब 26 साल 9 महीने 13 दिन तक ध्यान लगाया। उन्होंने अपना अधिकांश समय ध्यान में ही बिताया।

 उन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब में श्लोकों और दोहों सहित कई भजनों का योगदान दिया।

 उनकी रचनाओं में 116 शबद और 15 राग हैं, जो दुनिया भर के लिए प्रेरणास्रोत हैं।

 उनकी रचनाओं को गुरु ग्रन्थ के अलावा कई अन्य ग्रन्थों में शामिल किया गया है।

 गुरु तेग बहादुर को नानक के उपदेश फैलाने के लिए लम्बी यात्राएँ करने के लिए जाना जाता है।

 सन् 1675 में मुगल बादशाह औरंगजेब के आदेश पर ग़ैर-धर्म न अपनाने पर दिल्ली में गुरु तेग बहादुर का बलिदान विश्वविख्यात है।

गुरु तेग बहादुर जी ने इंसानियत का पाठ पढ़ाया कि जो दु:ख के समय दु:खी नहीं होता और सुख में बहकता नहीं और जो भय और मोह से मुक्त है, उसके लिए सोना और धूल समान है। जिसने स्तुति और दोषारोपण (चापलूसी और अपशब्द) दोनों का त्याग किया है; और लालच, सांसारिक आसक्ति व अभिमान से अपने आपको बचा लिया, तो समझो सभी दयालु गुरु अपने ऐसे शिष्य को आशीर्वाद प्रदान करते हैं। ऐसा शिष्य धन्य आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त करता है और ईश्वर में उसी तरह लीन हो जाता है, जैसे दो गिलासों का पानी एक में मिला दिया जाए।

गुरु तेग बहादुर जी ने उपदेश दिया कि यह दु:ख और सुख क्षणिक होते हैं। चापलूसी और दोषों से निजात पाकर ही दूसरे संसार का सुख हासिल किया जा सकता है। ऐसा तभी सम्भव हो सकता है, जब काई शख़्स आत्म-नियंत्रण की कला में महारत हासिल कर ले; यानी अध्यात्म की दुनिया में डूब जाए। हे संत! अहंकार का त्याग करो; और हमेशा वासना, क्रोध व बुरे लोगों से दूर रहो। किसी के ख़ुशी और $गम में बराबर शिरकत करनी चाहिए। सम्मान और अपमान के साथ प्रशंसा और दोषारोपण से मुक्त होना चाहिए; भले ही आप मोक्ष की तलाश में हों। यह एक बेहद कठिन रास्ता है। इसके लिए दुर्लभ रास्ता गुरुमुख में है, जिसमें बताया गया है कि कैसे इसे हासिल किया जा सकता है?

जनादेश के मायने

श्वेत सादा पहनावा और एक योद्धा! इस महिला ‘ममता बनर्जी के पास आज विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद वाम, दक्षिण और मध्य रु$ख वाले तमाम दलों को हराने की अनूठी उपलब्धि है। देश के सबसे शक्तिशाली पुरुषों के खिलाफ़ उभरने का अनूठा गौरव भी उन्होंने पाया है। विधानसभा चुनाव में जीत की उनकी हैट्रिक साबित करती है कि चुनाव प्रचार में उनके लिए ‘दीदी-ओ-दीदी’ कहने वालों पर जनता का उलटा वार हुआ है, जिसके चलते ममता अब विपक्षी एकता का केंद्र बन गयी हैं। यद्यपि वह नंदीग्राम के एक कड़े मुक़ाबले में मामूली अन्तर से पिछड़ गयीं; लेकिन ‘खेला होबे’ के नारे के साथ विरोधी के गढ़ में जाकर चुनौती देने की उनकी हिम्मत ने उनके क़द को और ऊँचा कर दिया है। बड़ी जीत के बाद अब समय है कि वह कोरोना वायरस की दूसरी लहर को परास्त करने के लिए अपनी जीवटता दिखाएँ।

चुनाव परिणामों का एक स्पष्ट सन्देश है कि ध्रुवीकरण केवल एक सीमित स्तर तक ही काम करता है और यह भी कि क्षेत्रीय दल अगर दम दिखाएँ, तो एक बार अजेय भाजपा को फिर परास्त कर सकते हैं। ममता, स्टालिन और विजयन जैसे नेताओं ने पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु में जीत दर्ज की है। तमिलनाडु में एम.के. स्टालिन के रूप में एक और पुत्र का ‘उदयÓ है। दिवंगत द्रविड़ क्षत्रप पिता एम. करुणानिधि के पुत्र और वारिस स्टालिन अब सत्ता में हैं। भाजपा ने असम में सत्ता को बर$करार रखा है और स्थानीय क़द्दावर नेता और पूर्व कांग्रेस नेता एन. रंगास्वामी के साथ गठबन्धन करके केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी में जीत दर्ज की है। केरल में नया इतिहास लिखा गया है; क्योंकि वामपंथी गठबन्धन (एलडीएफ) ने केरल में चार दशक के बाद पहली बार दोबारा सत्ता हासिल करने का कीर्तिमान बनाया है। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी केरल से ही सांसद हैं और उन्होंने राज्य में कड़ी मेहनत की थी; लेकिन वे पार्टी को जीत नहीं दिला पाये। दरअसल विपक्ष में सत्ता-संतुलन अब कांग्रेस के हाथ से निकलकर क्षेत्रीय दलों के पास के चला गया है। असम में अपने नागरिकता क़ानून के कारण रक्षात्मक भाजपा के सामने कांग्रेस का हार जाना इसे प्रमाणित करता है। इस तरह के क्षेत्रीय दल अब 2024 के आम चुनावों में महत्त्वपूर्ण ताक़त होंगे। भाजपा का वैचारिक रूप से विरोध करने वाले राजनीतिक दलों की जीत का मतलब है कि अब संघीय अधिकारों के लिए उनका केंद्र के सामने इन्हें वास्तविक और समान रूप से लागू करने पर अधिक-से-अधिक ज़ोर होगा।

कांग्रेस के लिए दीवार पर लिखी इबारत यह है कि वह लुप्त होती जा रही है। सबसे पुरानी पार्टी इस तथ्य से कुछ सांत्वना ज़रूर ले सकती है कि चुनाव परिणामों ने भाजपा को उसके लक्ष्य से पीछे रखा है। राहुल गाँधी के नेतृत्व और बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की बजाय कांग्रेस पार्टी के वामपंथी दलों के साथ गठबन्धन करने की चुनावी रणनीति पर फिर से सवाल उठाये जाएँगे। तमिलनाडु को छोड़कर कांग्रेस नेतृत्व अपने विरोधियों को मापने में विफल रहा। जो भी हो, केंद्र शासित प्रदेश समेत पाँच राज्यों के चुनाव परिणामों को एक ऐसे समय में मोदी और शाह के लिए एक राजनीतिक झटके के रूप के रूप में देखा जा सकता है, जब कोरोना वायरस की दूसरी लहर से निपटने के लिए केंद्र सरकार की कड़ी आलोचना हो रही है। हालाँकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तिगत करिश्मे को इससे कम आँकना भी भूल होगी। क्योंकि उनकी अभी भी काफ़ी लोकप्रियता है। लेकिन अब समय है कि भाजपा नेतृत्व अपने अहंकार को $खत्म करके आन्दोलनकारी किसानों की बात सुने और कृषि क़ानूनों में ऐसे संशोधन करे, जो किसानों के हित में हों। साथ ही महामारी के प्रसार को रोकने के लिए प्रभावी क़दम उठाये, जिससे लोगों की जान बचे और वे फिर से सरकार पर भरोसा कर सकें।

चरणजीत आहुजा

कोरोना के मामलें कम होते ही लोगों ने जश्न मनाना शुरू कर दिया

दिल्ली और उत्तर प्रदेश में लाँकडाउन के असर से और प्रशासन की चौकसी से कोरोना के मामलों में गत दो दिनों से गिरावट आ रही है। कोरोना के मामलों में गिरावट के चलते लोगों में जश्न- खुशी है। कि कोरोना जैसी घातक बीमारी से आजादी जल्द मिल सकती है। लेकिन वहीं जागरूकता के अभाव में और खुशी के चलते लोगों ने फिर से लापरवाही बरतना शुरू कर दी है। जिसका नतीजा ये है, कि लोगों ने अब बिना मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किये बगैर, ही फिर से शादी –समारोहों में और बाजारों में आने-जाने लगे है। जो चिन्ता की बात है।

एक ओर तो लाँकडाउन लगा है,  कोरोना गया नहीं, मामलें ही कम हो रहे है। ऐसे में जरा सी लापरवाही और चूक फिर से भयानक और खतरनाक कोरोना के मामलों में तबदील हो सकती है। एम्स के डाँ आलोक कुमार का कहना है कि कोरोना के मामले जब पिछली साल कम हुये थे। तब लोगों ने लापरवाही कर बिना मास्क पहने घरों से निकला शुरू कर दिया था। जो फरवरी से कोरोना बढ़ते मामलों का कारण बना है। ऐसे ही अब बिना मास्क के लोगों ने निकलना शुरू किया तो घातक परिणाम सामने आ सकते है।

सामाजिक कार्यकर्ता अनूप सहगल का कहना है कि जानकारी के अभाव में या अपनी अहम की वजह से दिखावे के चक्कर में कुछ लोग अपने –बेटा और बेटियों की शादियां धूम- धाम से कर रहे है। जिसमें लोग आ जा रहे है। अगर कोई ऐसे आयोजनों का विरोध करता है। उसके विरोध में ही मामला बढ़ता है। उन्होंने शासन –प्रशासन से अपील की है। कुछ ऐसा रास्ता निकाला जाये ताकि शादी –विवाह के अवसरों में भीड़ से बचा जा सकें। तहलका संवाददाता को लोगों ने बताया कि कोरोना का कहर शहरों के साथ गांवों में तेजी से बढ़ रहा है। और गांवों में हो रही शादियों में महिला और पुरूष बिना मास्क के आ जा रहे है। बताया जाता है कि गांव में पुलिस के ना आने के डर से लोगों में भय नहीं है।

आख़िर सरकार की आँखों में क्यों खटक रहा किसान आन्दोलन?

महामारी से निपटने में नाकाम केंद्र सरकार किसानों से निपटने के लिए कड़े क़दम उठाने की दे चुकी है चेतावनी

कोरोना वायरस का हौवा लोगों के दिमाग़ में इस क़दर घर कर गया है कि इसके अलावा किसी को कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा है। लेकिन दोबारा तेज़ीसे बढ़ती इस महामारी की आड़ में कई बड़े आन्दोलनों को ख़त्म करने की कोशिशें की जा रही हैं। बता दें कि सन् 2019 में सीएए के ख़िलाफ़ शाहीन बाग़ के आन्दोलन को भी मौज़ूदा सरकार ने कोरोना का डर दिखाकर ही ख़त्म किया था। किसान आन्दोलन इन दिनों का सबसे बड़ा आन्दोलन है, जिसे कुचलने के लिए सरकार हर सम्भव प्रयास करती रही है। लेकिन अब उसने साफ़ कर दिया है कि किसान आन्दोलन को ख़त्म किया जाएगा, जिसके लिए वह कोरोना फैलाने का आरोप भी किसानों के सिर पर मढ़ चुकी है। लेकिन किसान भी पीछे हटने वाले नहीं हैं और साफ़ कर चुके हैं कि जब तक सरकार तीनों नये कृषि क़ानूनों को वापस नहीं ले लेती, तब तक आन्दोलन ख़त्म नहीं होगा।बहादुरगढ़ के टीकरी बॉर्डर, सिंघु बॉर्डर और ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर किसानों का धरना जारी है। लॉकडाउन की वजह से अपने घरों को लौट रहे प्रवासी मज़दूरों को भोजन करा रहे हैं। पिछले दिनों टीकरी बॉर्डर पर किसानों ने धन्ना सेठ जाट का जन्मदिवस मनाया और देशवासियों से किसान आन्दोलन में मदद देने की अपील की।

सरकार इस बात को अच्छी तरह समझ चुकी है कि ख़ाली आश्वासनों से किसान आन्दोलन को ख़त्म नहीं किया जा सकता। इधर यूपी गेट पर ग़ाज़ीपुर किसान आन्दोलन कमेटी सरकार को कड़ा सन्देश दे चुकी है कि वह किसानों के ख़िलाफ़ कितने भी षड्यंत्र कर ले, लेकिन आन्दोलन ख़त्म नहीं होने वाला। ग़ाज़ीपुर किसान आन्दोलन कमेटी के प्रवक्ता जगतार सिंह बाजवा ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आन्दोलन को समाप्त करने का षड्यंत्र कर रही है।

इस जवाब के लिए आन्दोलन स्थल पर किसानों की संख्या बढ़ायी जा रही है। किसानों का कहना है कि सरकार भले ही हमारा आन्दोलन ख़त्म करने की साज़िश कर रही है, लेकिन हमारा संघर्ष जारी रहेगा। लेकिन सरकार अपनी ज़िद छोडक़र पिछले लॉकडाउन में चुपके से बनाये कृषि क़ानूनों को ख़त्म भी नहीं करना चाहती और यही वजह है कि वह किसान आन्दोलन को अब कुचलने की फ़िराक़ में है। सरकार ने कई किसानों के ख़िलाफ़ गुपचुप तरीक़े से क़ानूनी कार्रवाई भी की है। लेकिन किसान आन्दोलन गाँवों में फैल चुका एक ऐसा आन्दोलन बन गया है, जैसे कि अंग्रेजों से लड़ाई के ख़िलाफ़ गाँवों में कई जागृति आन्दोलन पनपने लगे थे। किसानों ने साफ़ किया है कि फ़सलों की कटाई के बाद वे एक बार फिर दिल्ली की सीमाओं पर जमा होंगे। भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत पूरी तरह से किसान आन्दोलन पर ध्यान दे रहे हैं। किसान आन्दोलन की मज़बूती यह है कि इसे किसान परिवारों महिलाओं और समाज के हर वर्ग और हर क्षेत्र से नामचीन लोगों के साथ-साथ आम लोगों का भरपूर समर्थन प्राप्त है, यही वजह है कि मुख्यधारा की मीडिया के इस आन्दोलन को न दिखाने के बावजूद यह बढ़ता ही जा रहा है।

कृषि प्रधान देश की विडम्बना
खेती दुनिया की अर्थ-व्यवस्था का मूल स्रोत है। बिना खेती के न तो जीवन की कल्पना की जा सकती है और न ही व्यापार चल सकता है। क्योंकि हमारा देश एक कृषि प्रधान देश है, इसलिए यहाँ तो इसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। लेकिन फिर भी बहुत-से लोग यहाँ पेट भर खाने, रोज़गार और तमाम तरह की मूलभूत सुविधाओं के लिए तरसते हैं। यहाँ तक कि ख़ुद हमारे देश के किसान दु:खी रहते हैं। देश की गिरती जीडीपी को पटरी पर लाने का काम खेती करके किसान ही कर सकते हैं और किसानों को ही सरकार कमज़ोर करने में लगी है। अगर खेती ही नहीं रहेगी, तो दूसरे काम-धन्धे कैसे चल सकेंगे? ताज्जुब है कि सन् 1950 के दशक में जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान जहाँ 50 फ़ीसदी था, वहीं 2015-16 में यह गिरकर 15.4 फ़ीसदी रह गया। यह तब हो रहा है, जब सन् 1950 से कृषि खाद्य उत्पादन बढक़र तक़रीबन पाँच गुना हो गया है। ऐसा अनुमान है कि साल 2025 तक देश की आबादी का पेट भरने के लिए 300 मिलियन (30 करोड़) टन खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। लेकिन अगर खेती को ही ख़त्म करने की साज़िशें की जाएँगी, तो यह लक्ष्य कैसे हासिल हो सकेगा?

क्या दिल्ली को फिर घेरेंगे किसान?
सरकार को इस बात का डर है कि अगर किसानों ने दोबारा दिल्ली को घेरा, तो क्या होगा? शायद यही वजह है कि उसने कोरोना की आड़ लेकर किसान आन्दोलन को ख़त्म करने का मन बना लिया है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या किसान फिर से दिल्ली को उसी तरह घेरेंगे, जिस तरह उन्होंने पिछले साल गर्मी, बारिश और सर्दी भर दिल्ली को घेरे रखा? अगर ऐसा होता है, तो फिर सरकार के लिए इस आन्दोलन को ख़त्म करना नामुमकिन हो जाएगा; लेकिन अगर ऐसा किसान नहीं कर सके, तो इस आन्दोलन को ख़त्म करने में सरकार कामयाब हो सकती है। हालाँकि भारतीय किसान यूनियन (उग्राहां) इस बात का ऐलान कर चुकी है कि किसान आन्दोलन ख़त्म नहीं होगा और एक बार फिर से दिल्ली का घेराव किया जाएगा। जल्द ही हज़ारों किसान पंजाब-हरियाणा के खनौरी बॉर्डर पर इकट्ठे होंगे और वहाँ से किसानों का जत्था जींद व रोहतक होते हुए टीकरी बॉर्डर पहुँचेगा।

खेती बिन सब सून
जीवन जीने के लिए जितनी ज़रूरत हवा पानी की है, उतनी ही खाने की। खाने का 85 फ़ीसदी हिस्सा खेती से ही मिलता है। इसलिए खेती बिना सब कुछ सूना हो जाएगा। दुनिया का ऐसा कोई मनुष्य नहीं, जो कृषि उत्पादों पर निर्भर न हो, लेकिन फिर भी कई लोग इसका महत्त्व नहीं समझते और किसान आन्दोलन को ग़लत ठहराने में लगे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि किसान देश के अन्नदाता हैं और इस सच्चाई से किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। खेती से केवल लोगों का पेट ही नहीं भरता, बल्कि हरेक कामधंधा इसी से परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जुड़ा है। ग़ौर करने वाली बात है कि कोरोना वायरस के दोबारा फैलने और सरकार द्वारा लॉकडाउन लगाने का यह वही समय है, जो कि पिछले साल था। पिछले साल भी रवि की फ़सलें कटाई के लिए खेतों में तैयार खड़ी थीं और लॉकडाउन लगाया गया था, जबकि इस बार भी रवि की फ़सलों, ख़ासकर गेहूँ की कटाई के दौरान ही लॉकडाउन लगाया गया। यह अलग बात है कि यह लॉकडाउन पूरे देश में नहीं लगाया गया है, क्योंकि देश के चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में विधानसभा चुनाव चल रहे थे। किसानों और दूसरे लोगों ने सवाल भी उठाये कि इन राज्यों में लाखों लोगों की भीड़ जुटाकर ख़ुद प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने चुनावी रैलियाँ, जनसभाएँ कीं। क्या वहाँ कोरोना नहीं फैला? लेकिन किसी ने इसका जवाब नहीं दिया। यह पहली बार है, जब कोई सरकार यह कहकर किसानों पर क़ानून थोप रही है कि ये क़ानून उनके हित में हैं; जबकि वह उन पर न तो खुलकर चर्चा करने को तैयार है और न ही किसानों के मना करने पर पीछे हटने को ही तैयार है।

किसानों के ख़िलाफ़ ग़लत प्रचार
सबसे बड़ी बात यह है कि अब तक सरकार किसानों के ख़िलाफ़ कई बार ग़लत प्रचार कर चुकी है। हाल ही में दिल्ली से भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा ने आरोप लगाया कि किसान ऑक्सीजन की सप्लाई रोक रहे हैं, जिसके चलते ऑक्सीजन के टैंकरों को काफ़ी घूमकर आना पड़ रहा है, जिसकी वजह से दिल्ली में कोरोना मरीज़ों की जान जा रही है। इसके बाद आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने ऑक्सीजन टैंकर के ड्राइवर के बयान वाले वीडियो के साथ ट्वीट करके मामले को साफ़ किया। इस वीडियो टैंकर का ड्राइवर साफ़ कह रहा है कि किसानों ने कहीं भी टैंकर को न तो रोका और न उनकी वजह से टैंकर कहीं जाम में फँसा। भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता और किसान नेता राकेश टिकैत ने भाजपा सांसद के झूठी अफ़वाह फैलाने को अफ़सोसजनक बताते हुए कहा है कि किसानों की वजह से कभी भी किसी को भी कोई दिक़्क़त नहीं हो रही है, तो फिर मरीज़ों के ऑक्सीजन टैंकर रोकने का तो सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार किसानों को बदनाम कर रही है।

बता दें कि पिछले दिनों दिल्ली स्थित बालाजी अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी हो गयी थी। आनन-फ़ानन में दो ऑक्सीजन टैंकरों को मँगाया गया, जो ट्रैफिक जाम के चलते कुछ फँसे थे, लेकिन इसमें किसानों की कोई भूमिका नहीं थी। पुलिस ने भी स्पष्ट किया कि ट्रैफिक जाम के कारण बॉर्डर पर ऑक्सीजन के टैंकर फँसे हुए थे, लेकिन ग्रीन कॉरिडोर बनाकर उन्हें वहाँ से निकाल दिया गया। गैस सप्लायर्स किसान आन्दोलन के चलते दो से तीन घंटे का समय बर्बाद होने का दावा कर रहे हैं। लेकिन हमने अपनी पड़ताल में पाया कि किसानों की वजह से कोई अड़चन नहीं आ रही है। किसान किसी के लिए भी रुकावट और परेशानी का कारण नहीं बन रहे हैं। बड़ी बात यह है कि पंजाब के कई किसान कोरोना के मरीज़ों के लिए ऑक्सीजन सिलेंडरों का इंतज़ाम भी कर रहे हैं। यहाँ याद दिला दें कि ये वही किसान हैं, जिन्हें केंद्र सरकार में कई मंत्रियों ने ख़ालिस्तानी और आतंकवादी कहा था। लेकिन हमेशा देखा गया है कि सिख समुदाय और इस समुदाय के किसान किसी भी आपदा में पीडि़तों की मदद के लिए सबसे आगे खड़े मिलते हैं।

किसानों में मतभेद का सच
इधर एक अफ़वाह यह भी फैलायी जा रही है कि किसानों में मतभेद पैदा हो रहा है। यह अफ़वाह पहले भी कई बार फैलायी जा चुकी है। सरकार कई बार दावा कर चुकी है कि जो वास्तव में किसान हैं, वो कृषि क़ानूनों के समर्थन में हैं। यह भी कहा जा रहा है कि किसान संगठनों में बहुत मतभेद है। यह कोई बड़ी बात नहीं कि जब बहुत बड़ी संख्या में लोग एक ख़ास मुद्दे को लेकर किसी मज़बूत संस्था से लड़ते हैं, तो उन्हें तोडऩे की कोशिशें की जाती है। यहाँ तो किसान सीधे सरकार से लड़ रहे हैं। ऐसे में यह सम्भव ही नहीं कि उन्हें तोडऩे की कोशिशें न हों। कुछ सरकार के पक्षधर ख़ुद को किसान बताकर इस तरह के बयान भी दे रहे हैं कि वे कृषि क़ानूनों से संतुष्ट हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या वे वास्तव में किसान हैं? क्योंकि अभी तक वास्तविक किसानों ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि वे नये कृषि क़ानूनों से ख़ुश हैं। ऐसे में किसानों के मतभेद की बात महज़ अफ़वाह लगती है। संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) और भारतीय किसान यूनियन दोनों ने यह साफ़ कर दिया है कि किसानों की माँगें पूरी होने के बाद ही वे आन्दोलन ख़त्म करेंगे।

एसकेएम ने कहा है कि सरकार को कोरोना वायरस से लडऩा चाहिए, किसानों से नहीं। लेकिन इतने पर भी सरकारी तंत्र, सत्ता पक्ष के नेता किसान संगठनों के मुख्य और चर्चित नामों राकेश टिकैत और गुरनाम सिंह चढ़ूनी पर किसानों को बरगलाने का आरोप लगा रहे हैं। वहीं दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों ने केंद्र सरकार पर तीन विवादास्पद कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे आन्दोलन को ख़त्म करने के लिए कोरोना वायरस का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया है। किसानों द्वारा संसद मार्च निकालने के सवाल पर संयुक्त किसान मोर्चा ने बताया कि प्रस्तावित संसद-मार्च की तारीख़ अभी तय नहीं है, लेकिन देश के किसान एक बार फिर दिल्ली की ओर कूच करेंगे। इसके अलावा 10 मई को देश भर से किसान संगठन किसान आन्दोलन के हितैषी मज़दूरों, विद्यार्थियों, युवाओं और अन्य लोकतांत्रिक संगठनों के प्रतिनिधियों का एक विशेष सम्मेलन आयोजित करेंगे; ताकि किसान आन्दोलन को और मज़बूत किया जा सके।

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी है।)

आख़िर सरकार की आँखों में क्यों खटक रहा किसान आन्दोलन?

महामारी से निपटने में नाकाम केंद्र सरकार किसानों से निपटने के लिए कड़े क़दम उठाने की दे चुकी है चेतावनी
राम प्रताप सिंह

कोरोना वायरस का हौवा लोगों के दिमाग़ में इस क़दर घर कर गया है कि इसके अलावा किसी को कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा है। लेकिन दोबारा तेज़ी से बढ़ती इस महामारी की आड़ में कई बड़े आन्दोलनों कोख़त्म करने की कोशिशें की जा रही हैं। बता दें कि सन् 2019 में सीएए के ख़िलाफ़ शाहीन बाग़ के आन्दोलन को भी मौज़ूदा सरकार ने कोरोना का डर दिखाकर हीख़त्म किया था। किसान आन्दोलन इन दिनों का सबसे बड़ा आन्दोलन है, जिसे कुचलने के लिए सरकार हर सम्भव प्रयास करती रही है। लेकिन अब उसने साफ़ कर दिया है कि किसान आन्दोलन कोख़त्म किया जाएगा, जिसके लिए वह कोरोना फैलाने का आरोप भी किसानों के सिर पर मढ़ चुकी है। लेकिन किसान भी पीछे हटने वाले नहीं हैं और साफ़ कर चुके हैं कि जब तक सरकार तीनों नये कृषि क़ानूनों को वापस नहीं ले लेती, तब तक आन्दोलनख़त्म नहीं होगा। बहादुरगढ़ के टीकरी बॉर्डर, सिंघु बॉर्डर और ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर किसानों का धरना जारी है। लॉकडाउन की वजह से अपने घरों को लौट रहे प्रवासी मज़दूरों को भोजन करा रहे हैं। पिछले दिनों टीकरी बॉर्डर पर किसानों ने धन्ना सेठ जाट का जन्मदिवस मनाया और देशवासियों से किसान आन्दोलन में मदद देने की अपील की। सरकार इस बात को अच्छी तरह समझ चुकी है किख़ाली आश्वासनों से किसान आन्दोलन कोख़त्म नहीं किया जा सकता। इधर यूपी गेट पर ग़ाज़ीपुर किसान आन्दोलन कमेटी सरकार को कड़ा सन्देश दे चुकी है कि वह किसानों के ख़िलाफ़ कितने भी षड्यंत्र कर ले, लेकिन आन्दोलनख़त्म नहीं होने वाला। ग़ाज़ीपुर किसान आन्दोलन कमेटी के प्रवक्ता जगतार सिंह बाजवा ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आन्दोलन को समाप्त करने का षड्यंत्र कर रही है। इस जवाब के लिए आन्दोलन स्थल पर किसानों की संख्या बढ़ायी जा रही है। किसानों का कहना है कि सरकार भले ही हमारा आन्दोलनख़त्म करने की सा•िाश कर रही है, लेकिन हमारा संघर्ष जारी रहेगा। लेकिन सरकार अपनी •िाद छोडक़र पिछले लॉकडाउन में चुपके से बनाये कृषि क़ानूनों कोख़त्म भी नहीं करना चाहती और यही वजह है कि वह किसान आन्दोलन को अब कुचलने की $िफराक़ में है। सरकार ने कई किसानों के ख़िलाफ़ गुपचुप तरीक़े से क़ानूनी कार्रवाई भी की है। लेकिन किसान आन्दोलन गाँवों में फैल चुका एक ऐसा आन्दोलन बन गया है, जैसे कि अंग्रेजों से लड़ाई के ख़िलाफ़ गाँवों में कई जागृति आन्दोलन पनपने लगे थे। किसानों ने साफ़ किया है कि फ़सलों की कटाई के बाद वे एक बार फिर दिल्ली की सीमाओं पर जमा होंगे। भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत पूरी तरह से किसान आन्दोलन पर ध्यान दे रहे हैं। किसान आन्दोलन की मज़बूती यह है कि इसे किसान परिवारों महिलाओं और समाज के हर वर्ग और हर क्षेत्र से नामचीन लोगों के साथ-साथ आम लोगों का भरपूर समर्थन प्राप्त है, यही वजह है कि मुख्यधारा की मीडिया के इस आन्दोलन को न दिखाने के बावजूद यह बढ़ता ही जा रहा है।

कृषि प्रधान देश की विडम्बना
खेती दुनिया की अर्थ-व्यवस्था का मूल स्रोत है। बिना खेती के न तो जीवन की कल्पना की जा सकती है और नाही व्यापार चल सकता है। क्योंकि हमारा देश एक कृषि प्रधान देश है, इसलिए यहाँ तो इसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। लेकिन फिर भी बहुत-से लोग यहाँ पेट भर खाने, रोज़गार और तमाम तरह की मूलभूत सुविधाओं के लिए तरसते हैं। यहाँ तक किख़ुद हमारे देश के किसान दु:खी रहते हैं। देश की गिरती जीडीपी को पटरी पर लाने का काम खेती करके किसान ही कर सकते हैं और किसानों को ही सरकार कमज़ोर करने में लगी है। अगर खेती ही नहीं रहेगी, तो दूसरे काम-धन्धे कैसे चल सकेंगे? ताज्जुब है कि सन् 1950 के दशक में जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान जहाँ 50 फ़ीसदी था, वहीं 2015-16 में यह गिरकर 15.4 फ़ीसदी रह गया। यह तब हो रहा है, जब सन् 1950 से कृषि खाद्य उत्पादन बढक़र तक़रीबन पाँच गुना हो गया है। ऐसा अनुमान है कि साल 2025 तक देश की आबादी का पेट भरने के लिए 300 मिलियन (30 करोड़) टन खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। लेकिन अगर खेती को हीख़त्म करने की सा•िाशें की जाएँगी, तो यह लक्ष्य कैसे हासिल हो सकेगा?

क्या दिल्ली को फिर घेरेंगे किसान?
सरकार को इस बात का डर है कि अगर किसानों ने दोबारा दिल्ली को घेरा, तो क्या होगा? शायद यही वजह है कि उसने कोरोना की आड़ लेकर किसान आन्दोलन को ख़त्म करने का मन बना लिया है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या किसान फिर से दिल्ली को उसी तरह घेरेंगे, जिस तरह उन्होंने पिछले साल गर्मी, बारिश और सर्दी भर दिल्ली को घेरे रखा? अगर ऐसा होता है, तो फिर सरकार के लिए इस आन्दोलन कोख़त्म करना नामुमकिन हो जाएगा; लेकिन अगर ऐसा किसान नहीं कर सके, तो इस आन्दोलन कोख़त्म करने में सरकार कामयाब हो सकती है। हालाँकि भारतीय किसान यूनियन (उग्राहां) इस बात का ऐलान कर चुकी है कि किसान आन्दोलनख़त्म नहीं होगा और एक बार फिर से दिल्ली का घेराव किया जाएगा। जल्द ही हज़ारों किसान पंजाब-हरियाणा के खनौरी बॉर्डर पर इकट्ठे होंगे और वहाँ से किसानों का जत्था जींद व रोहतक होते हुए टीकरी बॉर्डर पहुँचेगा।

खेती बिन सब सून
जीवन जीने के लिए जितनी ज़रूरत हवा पानी की है, उतनी ही खाने की। खाने का 85 फ़ीसदी हिस्सा खेती से ही मिलता है। इसलिए खेती बिना सब कुछ सूना हो जाएगा। दुनिया का ऐसा कोई मनुष्य नहीं, जो कृषि उत्पादों पर निर्भर न हो, लेकिन फिर भी कई लोग इसका महत्त्व नहीं समझते और किसान आन्दोलन को ग़लत ठहराने में लगे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि किसान देश के अन्नदाता हैं और इस सच्चाई से किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। खेती से केवल लोगों का पेट ही नहीं भरता, बल्कि हरेक कामधंधा इसी से परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जुड़ा है। ग़ौर करने वाली बात है कि कोरोना वायरस के दोबारा फैलने और सरकार द्वारा लॉकडाउन लगाने का यह वही समय है, जो कि पिछले साल था। पिछले साल भी रवि की फ़सलें कटाई के लिए खेतों में तैयार खड़ी थीं और लॉकडाउन लगाया गया था, जबकि इस बार भी रवि की फ़सलों,ख़ासकर गेहूँ की कटाई के दौरान ही लॉकडाउन लगाया गया। यह अलग बात है कि यह लॉकडाउन पूरे देश में नहीं लगाया गया है, क्योंकि देश के चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में विधानसभा चुनाव चल रहे थे। किसानों और दूसरे लोगों ने सवाल भी उठाये कि इन राज्यों में लाखों लोगों की भीड़ जुटाकरख़ुद प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने चुनावी रैलियाँ, जनसभाएँ कीं। क्या वहाँ कोरोना नहीं फैला? लेकिन किसी ने इसका जवाब नहीं दिया। यह पहली बार है, जब कोई सरकार यह कहकर किसानों पर क़ानून थोप रही है कि ये क़ानून उनके हित में हैं; जबकि वह उन पर न तो खुलकर चर्चा करने को तैयार है और न ही किसानों के मना करने पर पीछे हटने को ही तैयार है।

किसानों के ख़िलाफ़ ग़लत प्रचार
सबसे बड़ी बात यह है कि अब तक सरकार किसानों के ख़िलाफ़ कई बार ग़लत प्रचार कर चुकी है। हाल ही में दिल्ली से भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा ने आरोप लगाया कि किसान ऑक्सीजन की सप्लाई रोक रहे हैं, जिसके चलते ऑक्सीजन के टैंकरों को काफ़ी घूमकर आना पड़ रहा है, जिसकी वजह से दिल्ली में कोरोना मरीज़ों की जान जा रही है। इसके बाद आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने ऑक्सीजन टैंकर के ड्राइवर के बयान वाले वीडियो के साथ ट्वीट करके मामले को साफ़ किया। इस वीडियो टैंकर का ड्राइवर साफ़ कह रहा है कि किसानों ने कहीं भी टैंकर को न तो रोका और न उनकी वजह से टैंकर कहीं जाम में फँसा। भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता और किसान नेता राकेश टिकैत ने भाजपा सांसद के झूठी अफ़वाह फैलाने को अफ़सोसजनक बताते हुए कहा है कि किसानों की वजह से कभी भी किसी को भी कोई दिक़्क़त नहीं हो रही है, तो फिर मरीज़ों के ऑक्सीजन टैंकर रोकने का तो सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार किसानों को बदनाम कर रही है।
बता दें कि पिछले दिनों दिल्ली स्थित बालाजी अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी हो गयी थी। आनन-फ़ानन में दो ऑक्सीजन टैंकरों को मँगाया गया, जो ट्रैफिक जाम के चलते कुछ फँसे थे, लेकिन इसमें किसानों की कोई भूमिका नहीं थी। पुलिस ने भी स्पष्ट किया कि ट्रैफिक जाम के कारण बॉर्डर पर ऑक्सीजन के टैंकर फँसे हुए थे, लेकिन ग्रीन कॉरिडोर बनाकर उन्हें वहाँ से निकाल दिया गया। गैस सप्लायर्स किसान आन्दोलन के चलते दो से तीन घंटे का समय बर्बाद होने का दावा कर रहे हैं। लेकिन हमने अपनी पड़ताल में पाया कि किसानों की वजह से कोई अड़चन नहीं आ रही है। किसान किसी के लिए भी रुकावट और परेशानी का कारण नहीं बन रहे हैं। बड़ी बात यह है कि पंजाब के कई किसान कोरोना के मरीज़ों के लिए ऑक्सीजन सिलेंडरों का इंतज़ाम भी कर रहे हैं। यहाँ याद दिला दें कि ये वही किसान हैं, जिन्हें केंद्र सरकार में कई मंत्रियों नेख़ालिस्तानी और आतंकवादी कहा था। लेकिन हमेशा देखा गया है कि सिख समुदाय और इस समुदाय के किसान किसी भी आपदा में पीडि़तों की मदद के लिए सबसे आगे खड़े मिलते हैं।
किसानों में मतभेद का सच
इधर एक अफ़वाह यह भी फैलायी जा रही है कि किसानों में मतभेद पैदा हो रहा है। यह अफ़वाह पहले भी कई बार फैलायी जा चुकी है। सरकार कई बार दावा कर चुकी है कि जो वास्तव में किसान हैं, वो कृषि क़ानूनों के समर्थन में हैं। यह भी कहा जा रहा है कि किसान संगठनों में बहुत मतभेद है। यह कोई बड़ी बात नहीं कि जब बहुत बड़ी संख्या में लोग एकख़ास मुद्दे को लेकर किसी मज़बूत संस्था से लड़ते हैं, तो उन्हें तोडऩे की कोशिशें की जाती है। यहाँ तो किसान सीधे सरकार से लड़ रहे हैं। ऐसे में यह सम्भव ही नहीं कि उन्हें तोडऩे की कोशिशें न हों। कुछ सरकार के पक्षधरख़ुद को किसान बताकर इस तरह के बयान भी दे रहे हैं कि वे कृषि क़ानूनों से संतुष्ट हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या वे वास्तव में किसान हैं? क्योंकि अभी तक वास्तविक किसानों ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि वे नये कृषि क़ानूनों सेख़ुश हैं। ऐसे में किसानों के मतभेद की बात महज़ अफ़वाह लगती है। संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) और भारतीय किसान यूनियन दोनों ने यह साफ़ कर दिया है कि किसानों की माँगें पूरी होने के बाद ही वे आन्दोलनख़त्म करेंगे।

एसकेएम ने कहा है कि सरकार को कोरोना वायरस से लडऩा चाहिए, किसानों से नहीं। लेकिन इतने पर भी सरकारी तंत्र, सत्ता पक्ष के नेता किसान संगठनों के मुख्य और चर्चित नामों राकेश टिकैत और गुरनाम सिंह चढ़ूनी पर किसानों को बरगलाने का आरोप लगा रहे हैं। वहीं दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों ने केंद्र सरकार पर तीन विवादास्पद कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे आन्दोलन कोख़त्म करने के लिए कोरोना वायरस का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया है। किसानों द्वारा संसद मार्च निकालने के सवाल पर संयुक्त किसान मोर्चा ने बताया कि प्रस्तावित संसद-मार्च की तारी$ख अभी तय नहीं है, लेकिन देश के किसान एक बार फिर दिल्ली की ओर कूच करेंगे। इसके अलावा 10 मई को देश भर से किसान संगठन किसान आन्दोलन के हितैषी मज़दूरों, विद्यार्थियों, युवाओं और अन्य लोकतांत्रिक संगठनों के प्रतिनिधियों का एक विशेष सम्मेलन आयोजित करेंगे; ताकि किसान आन्दोलन को और मज़बूत किया जा सके।

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी है।)

क़र्ज़ का मकड़जाल

A man carrying a sack walks past a graffiti of a healthcare worker during a lockdown to slow the spread of the coronavirus disease (COVID-19) in Mumbai, India June 29, 2020. REUTERS/Francis Mascarenhas

भारत पर क़र्ज़ का अनुपात कुल जीडीपी का 90 फ़ीसदी हो गया है : आईएमएफ रिपोर्ट

सरकार प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा समर्थक सोशल मीडिया की देश को क़र्ज़ से मुक्ति दिलाने की लुभावनी, लेकिन भ्रमित करने वाली कहानियों के विपरीत भारत पर क़र्ज़ का पहाड़ इतना बड़ा हो गया है कि कोविड-19 की वर्तमान बदतर स्थिति और सम्भावित लॉकडाउन भारत को आने वाले समय में चिन्ताजनक आर्थिक स्थिति की तरफ़ धकेल सकते हैं। मोदी सरकार के बड़े पैमाने पर निजीकरण और सरकारी सम्पतियों को निजी हाथों बेच देने के बीच अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की नवीनतम रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 90 फ़ीसदी के अनुपात तक क़र्ज़ हो गया है। यूपीए की सरकार के समय यह 2013-14 में 75,66,767 करोड़ अर्थात् जीडीपी का 67.4 फ़ीसदी ही था। यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी भारत के सबसे ज़्यादा ते ज़ क़र्ज़ लेने वाले प्रधानमंत्री बन गये हैं। क़र्ज़ का एक नु क़सानदेह पहलू यह है कि इसके कारण केंद्र सरकार के ख़र्च हुए हर एक रुपये में से 25 पैसे ब्याज का भुगतान करने में ही ख़र्च हो जाएगा, जिसका सीधा असर विकास पर पड़ेगा। ऊपर से तुर्रा यह है कि 2021-22 के वित्त वर्ष के लिए भी मोदी सरकार ने 12 लाख करोड़ के भारी भरकम क़र्ज़ की तैयारी कर ली है। एक और रिपोर्ट है, जो चिन्ता पैदा करती है। रिसर्च ग्रुप प्यू रिसर्च सेंटर की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक, 45 साल बाद भारत फिर सामूहिक $गरीबी की श्रेणी वाले देशों में शामिल हो गया है।

देश की इस छवि के बीच अमेरिका ने इसी 21 अप्रैल को भारत को तब बड़ा झटका दिया, जब उसने भारत को 10 अन्य देशों के साथ करेंसी मैनिपुलेटर्स (मुद्रा के साथ छेड़छाड़ करने वाला) देश की निगरानी सूची में डाल दिया। भारत ने अमेरिका के इस ऐलान के बाद कहा कि इस फ़ैसले में कोई आर्थिक तर्क समझ नहीं आता। आर्थिक जानकारों के मुताबिक, करेंसी मैनिपुलेटर्स की सूची में भारत का शामिल होना कोई अच्छी ख़बर नहीं, क्योंकि इससे भारत को विदेशी मुद्रा बा ज़ार में आक्रामक हस्तक्षेप करने में परेशानी आएगी। अमेरिका का कहना है कि वह सूची में उन देशों को ही डालता है, जो मुद्रा के अनुचित व्यवहार अपनाते हैं, ताकि डॉलर के मु क़ाबले उनकी ख़ुद की मुद्रा का अवमूल्यन हो सके।
कोरोना महामारी के बाद देश का क़र्ज़ जीडीपी अनुपात के ख़तरनाक स्तर पर पहुँच गया है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की 8 अप्रैल को जारी रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020 में देश का जो क़र्ज़ 74 फ़ीसदी था, वह कोरोना और लॉकडाउन के बाद बढक़र 90 फ़ीसदी पर पहुँच गया है। साल 2020 में देश की कुल जीडीपी 189 लाख करोड़ रुपये थी, जबकि क़र्ज़ क़रीब 170 लाख करोड़ रुपये था। विशेषज्ञों के मुताबिक, कोविड-19 का फिर से और पहले से ज़्यादा ख़तरनाक रूप से सामने आना भारत की अर्थ-व्यवस्था के लिए ख़राब साबित हो सकता है। यदि ऐसा हुआ, तो दिसंबर से मार्च के बीच अर्थ-व्यवस्था में सुधार और उगाही की गति देखने को मिल रही थी, वह बुरी तरह प्रभावित हो सकती है। अर्थ-व्यवस्था में सुधार और उगाही को देखते हुए आर्थिक जानकार अनुमान लगा रहे थे कि इससे देश का क़र्ज़-जीडीपी अनुपात बेहतर होकर 90 से क़रीब 10 फ़ीसदी नीचे जाकर 80 फ़ीसदी तक पहुँच सकता है, जो थोड़ी-बहुत राहत की बात होगी। लेकिन कोरोना वायरस के दोबारा पाँव पसारने से इस अनुमान पर ख़तरे की बादल मँडरा रहे हैं। बता दें यदि किसी देश पर क़र्ज़ का जीडीपी अनुपात बढ़ता है, तो उसके दिवालिया होने की आशंका उतनी अधिक हो जाती है। विश्व बैंक के अनुसार, अगर किसी देश में बाहरी क़र्ज़ यानी विदेशी क़र्ज़ उसके जीडीपी के 77 फ़ीसदी से ज़्यादा हो जाए, तो उस देश को आगे चलकर बहुत मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है। ऐसा होने पर किसी देश की जीडीपी 1.7 फ़ीसदी तक गिर जाती है। ‘तहलका’ की जुटायी जानकारी के मुताबिक, भारत ने वित्त वर्ष 2021-22 में (मार्च 31, 2021 तक) क़रीब 12 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ लिया है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के वित्तीय मामला विभाग के उप निदेशक पाओलो मॉरो ने कहा कि कोरोना महामारी से पहले साल 2019 में भारत पर क़र्ज़ का अनुपात जीडीपी का 74 फ़ीसदी था। लेकिन साल 2020 में यह जीडीपी के क़रीब 90 फ़ीसदी तक आ गया है। उनके मुताबिक, यह बड़ी बढ़त है। हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि दूसरे उभरते बा ज़ारों या उन्नत अर्थ-व्यवस्थाओं की भी कमोवेश यही हालत है। हमारा अनुमान है कि जिस तरह से देश की अर्थ-व्यवस्था में सुधार होगा, देश का क़र्ज़ भी कम होगा और जल्द ही यह क़र्ज़ 80 फ़ीसदी पर पहुँच जाएगा। हालाँकि यह भी सच है कि भारत में वर्तमान कोविड-19 स्थिति ने इस उम्मीद के लिए गम्भीर चुनौती खड़ी कर दी है।
आर्थिक कुप्रबन्धन के आरोप मोदी सरकार पर पहले से लगते रहे हैं। ऊपर से कोरोना और लम्बे लॉकडाउन और अब दोबारा वैसी ही स्थिति बनने से आर्थिक मोर्चे पर दोबारा गम्भीर स्थिति बन गयी है। देश में आर्थिक वृद्धि पर कोरोना वायरस की वजह से बड़ी मार पड़ी है। निर्यात बुरी तरह से प्रभावित हुई है और छोटे कारोबारियों की कमर टूट गयी है। आम आदमी की जेब में पैसा नहीं है। ऐसे में देश पर क़र्ज़ का यह बोझ चिन्ता पैदा करता है। क़र्ज़-जीडीपी अनुपात या सरकारी क़र्ज़ अनुपात के ज़रिये किसी भी देश के क़र्ज़ चुकाने की क्षमता का पता चलता है। जिस देश का क़र्ज़-जीडीपी अनुपात जितना ज़्यादा होता है उस देश को क़र्ज़ चुकाने के लिए उतनी ही ज़्यादा परेशानी झेलनी पड़ती है।

सरकार के दावे
वैसे अनुपात को लेकर भी मत साफ़ है। ज़्यादातर उन्नत देशों में क़र्ज़-जीडीपी अनुपात 40 से 50 फ़ीसदी रहता है। वित्त वर्ष 2014-15 में जब मोदी सरकार सत्ता में आयी थी, तो देश का क़र्ज़ का जीडीपी अनुपात क़रीब 67 फ़ीसदी था। वैसे देश का जो भी कुल क़र्ज़ होता है, वह केंद्र और राज्य सरकारों के क़र्ज़ का योग होता है।
भले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा है कि ग्रोथ को बनाये रखने के लिए अर्थ-व्यवस्था के पुनरुद्धार के लिए मोदी सरकार ने कई क़दम उठाये हैं, लेकिन ज़मीनी ह क़ी क़त चिन्ता पैदा करने वाली है। कोरोना वायरस और लॉकडाउन से उपजी स्थितियों के कारण सरकार के राजस्व में जिस तरह से कमी हुई है, उसने भी मोदी सरकार को ज़्यादा क़र्ज़ लेने के लिए मजबूर किया है। जानकारों के मुताबिक, कोरोना की वर्तमान गम्भीर स्थिति को देखते हुए अगले कुछ साल तक यही स्थिति बनी रह सकती है, भले ही सरकार दावे कर रही हो कि इन सबके बावजूद भारत में क़र्ज़ बोझ की स्थिति संतुलित रहेगी। आरबीआई की हाल की एक रिपोर्ट में भी यह कहा गया है कि भारत सरकार को राजस्व बढ़ाने के तमाम प्रयास करने होंगे।
सरकार के वित्त प्रबन्धकों का दावा है कि क़र्ज़ अदायगी को लेकर कोई समस्या नहीं आएगी; क्योंकि भारतीय अर्थ-व्यवस्था की स्थिति क़र्ज़ सँभालने लायक है। उनके मुताबिक, देश की जीडीपी के मु क़ाबले सरकार पर क़र्ज़ का अनुपात भले आज 90 फ़ीसदी पहुँच गया है, वर्ष 2026 तक घटकर यह 85 फ़ीसदी तक आ जाएगा। आरबीआई की रिपोर्ट में भी यह बात कही गयी है। आरबीआई की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2020-21 में भारत ने बजटीय राजस्व का 25 फ़ीसदी हिस्सा क़र्ज़ चुकाने में ख़र्च किया, लेकिन भारत पर ब क़ाया क़र्ज़ की परिपक्वता अवधि 11 साल से ज़्यादा की है और इसमें विदेशी क़र्ज़ की हिस्सेदारी दो फ़ीसदी ही है।
आपको बता दें जीडीपी का अर्थ है- देश के कुल उत्पाद, बिक्री, ख़रीद और लेन-देन का निचोड़। यदि इसमें वृद्धि है, तो पूरे देश का लाभ है। इससे ही सरकार को ज़्यादा टैक्स हासिल होगा, कमायी ज़्यादा होगी और तमाम कामों पर और उन लोगों पर ख़र्च करने के लिए ज़्यादा पैसा होगा, जिन्हें मदद की ज़रूरत है। इसके विपरीत यदि ग्रोथ कम ज़ोर हुई, तो समझो बेड़ा गर्क। देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति को इसी दौर से गु ज़रता हुआ कहा जा सकता है। कोरोना वायरस के कारण वास्तव में देश की अर्थ-व्यवस्था को कितना नु क़सान होने वाला है, इसके बारे में केंद्र सरकार खुलकर कहने से हिचकती रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक, कोरोना वायरस का संकट विकराल होता है, तो जीडीपी बड़ी गिरावट की तरफ़ बढ़ सकती है।

और क़र्ज़ की योजना
सरकार का कहना है कि आकस्मिक परिस्थितियों में भारत अपनी मुद्रा में भी क़र्ज़ चुकाने की क्षमता रखता है। साथ ही भारत की आर्थिक विकास दर विदेशी क़र्ज़ पर औसत देय ब्याज में होने वाली सालाना वृद्धि दर से ज़्यादा रहेगी। पिछले वित्त वर्ष के पहले चार महीनों (अप्रैल-जुलाई, 2020) के दौरान केंद्र और राज्यों के राजस्व में बड़ी गिरावट हुई। कोरोना के बाद देशव्यापी लॉकडाउन से यह स्थिति बनी। आम बजट 2020-21 में मोदी सरकार ने बा ज़ार से सात लाख करोड़ रुपये के क़र्ज़ का अनुमान रखा था; लेकिन ह क़ी क़त में सरकार को मार्च, 2021 तक 12.80 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ लेना पड़ा। अब 2021-22 के वित्त वर्ष में मोदी सरकार ने 12.05 लाख करोड़ रुपये के क़र्ज़ की योजना बनायी है। लेकिन कोरोना वायरस से जैसी स्थितियाँ उत्पन्न हुई हैं, वो संकेत दे रही हैं कि यह आँकड़ा 15 लाख करोड़ रुपये तक पहुँच सकता है, जिससे क़र्ज़ का जीडीपी अनुपात 90 फ़ीसदी से का फ़ी आगे चला जाएगा, जो बेहद चिन्ताजनक स्थिति होगी। आरबीआई की रिपोर्ट बताती है कि सि$र्फ केंद्र सरकार पर ही क़र्ज़ का अनुपात स्तर जीडीपी के मु क़ाबले 64.3 फ़ीसदी हो गया है, जो राज्यों को मिलाकर वर्तमान में जीडीपी के 90 फ़ीसदी से अनुपात से अधिक है। आर्थिक विशेषज्ञों के मुताबिक, दुर्भाग्य से यदि भारत की आर्थिक विकास दर के नतीजे विपरीत आते हैं, तो आर्थिक स्थिति भयावह होने का बड़ा ख़तरा देश के सामने है।

सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, भारी भरकम क़र्ज़ के कारण ही मौजूदा माली साल में राजकोषीय घाटा 9.5 फ़ीसदी है, जो एक रिकॉर्ड है। सितंबर, 2020 तक भारत का कुल सार्वजनिक क़र्ज़ 1,07,04,293.66 करोड़ रुपये (107.04 लाख करोड़ रुपये से अधिक) तक पहुँच गया, जो जीडीपी के क़रीब 68 फ़ीसदी के बराबर है। इस क़र्ज़ में इंटरनल डेट 97.46 लाख करोड़ और एक्सटर्नल डेट 6.30 लाख करोड़ रुपये का था। वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 10 साल में क़र्ज़-जीडीपी अनुपात 67 से 68 फ़ीसदी के बीच रहा है। सार्वजनिक क़र्ज़ में केंद्र और राज्य सरकारों की कुल देनदारी शामिल है, जिसका भुगतान सरकार की समेकित राशि (इंटीग्रेटेड फंड) से किया जाता है।

सत्ता में आने से पहले अर्थ-व्यवस्था को लेकर नरेंद्र मोदी के जो विचार थे, वो उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद बिल्कुल बदल गये हैं। आर्थिक सुधारों के नाम पर देश के संसाधनों और बैंकों आदि का व्यापक निजीकरण करने को लेकर प्रधानमंत्री मोदी पर गम्भीर सवाल उठ रहे हैं। आश्चर्य यह है कि मोदी कुछ साल पहले तक इस तरह के बैंकों के निजीकरण के फ़ैसलों के अपने ही वित्त मंत्री अरुण जेटली के प्रस्ताव के ख़िलाफ़ दिखते थे। मोदी की शैली के समर्थक भले उनके अभियान और नीति को कथित आत्मनिर्भरता के रूप में देखते हों, ज़्यादातर विशेषज्ञों का कहना है कि सरकारी राजस्व के ढेर होने जैसी स्थिति में पहुँचने के कारण सरकार को चलाने के लिए सरकारी सम्पत्तियों, जिनमें सार्वजनिक क्षेत्र के ब्लू चिप उपक्रम, बैंक और गैस पाइपलाइन, पॉवर ग्रिड आदि जैसे बुनियादी ढाँचे शामिल हैं; को पैसे का इंत ज़ाम करने के लिए सरकारी सम्पत्तियाँ बेचना भविष्य में बहुत घातक साबित हो सकता है।

क़र्ज़ और उसका असर
यह जानना भी ज़रूरी है कि क़र्ज़ लिया कैसे जाता है? दरअसल क़र्ज़ लेने के सरकार के दो तरी क़े हैं। एक आंतरिक (इंटरनल) और दूसरा बाहरी (एक्सटर्नल) यानी विदेश से क़र्ज़। आंतरिक क़र्ज़ बैंकों, बीमा कम्पनियों, रिजर्व बैंक, कॉरपोरेट कम्पनियों, म्यूचुअल फंड कम्पनियों आदि से लिया जाता है, जबकि विदेशी क़र्ज़ मित्र देशों, आईएफएम विश्व बैंक जैसी संस्थाओं और एनआरआई आदि से लिया जाता है। विदेशी क़र्ज़ का बढऩा अच्छा नहीं माना जाता, क्योंकि इसका जब सरकार को भुगतान करना होता है, तो यह अमेरिकी डॉलर या अन्य किसी विदेशी मुद्रा में करना पड़ता है। इससे देश का विदेशी मुद्रा प्रभावित होता है और उसमें कमी आती है। इंटरनल डेट में सरकार सरकारी प्रतिभूतियों (जी-सिक्यूरिटीज) के ज़रिये लोन लेती है। सरकार के लिए वह सारा धन क़र्ज़ ही होता है, जो बा ज़ारी स्थायीकरण ऋण-पत्र (मार्केट स्टेबिलाइजेशन बॉन्ड), राजकोष विपत्र (ट्रेजरी बिल), विशेष सुरक्षा (स्पेशल सिक्योरिटीज), स्वर्ण ऋण-पत्र (गोल्ड बॉन्ड), छोटी बचत योजना (स्माल सेविंग स्कीम), न क़दी प्रबन्धन विपत्र (कैश मैनेजमेंट बिल) आदि से आता है। किसी का भी जी-सिक्यूरिटीज (जी-सेक) या सरकारी ऋण-पत्र में निवेश एक तरह से सरकार को क़र्ज़ देना ही होता है और सरकार एक तय व क़्त के बाद तय ब्याज के साथ सरकार यह क़र्ज़ लौटाती है। विकास के कई कामों जैसे सडक़, स्कूल भवन आदि के निर्माण के लिए अक्सर सरकार इस तरह के जी-सेक जारी करती है।

एक साल से कम परिपक्वता अवधि वाले जी-सेक को राजकोष विपत्र कहा जाता है, जबकि इससे अधिक अवधि वाले जी-सेक सरकारी ऋण-पत्र कहलाते हैं। उधर राज्य सरकारें सि$र्फ बॉन्ड जारी करती हैं, जिन्हें राज्य अवमूल्यन ऋण (स्टेट डेवलपमेंट लोन्स) कहा जाता है। इसके अतिरिक्त सरकार ऑफ बजट क़र्ज़ भी लेती है। केंद्र सरकार इनका बजट में ज़िक्र नहीं करती न ही इसका असर राजकोषीय घाटे में दिखाया जाता है। केंद्र या राज्य सरकारों का क़र्ज़ जब तय सीमा से बाहर निकल जाता है, तो रेटिंग एजेंसियाँ सरकार या राज्य सरकार की रेटिंग घटा देती हैं, जिसका नु क़सान निवेश पर पड़ता है; क्योंकि विदेशी निवेशक एफडीआई के रूप में निवेश से हिचकते हैं और कम्पनियों के लिए भी क़र्ज़ महँगा हो जाता है।

क़र्ज़ का बढ़ता पहाड़
दुनिया भर में क़र्ज़दार देशों की सूची में भारत का आठवाँ स्थान है। अर्थात् दुनिया में सबसे ज़्यादा क़र्ज़ में डूबे देशों में हम आठवें स्थान पर हैं। भारत पर कुल 1,851 अरब डॉलर से ज़्यादा का क़र्ज़ है। वैश्विक क़र्ज़ में इसकी हिस्सेदारी 2.70 फ़ीसदी है। फरवरी 2021 के आँकड़ों के मुताबिक, क़र्ज़दार देशों की सूची में अमेरिका टॉप पर है और उस पर क़रीब 29,000 अरब डॉलर का क़र्ज़ है। जापान क़र्ज़दारों की सूची में दूसरे नंबर पर है और उस पर उस पर 11,788 अरब डॉलर का क़र्ज़ है। तीसरा नंबर चीन का है, जिसके सिर पर क़रीब 6,764 अरब डॉलर का क़र्ज़ है। इस लिस्ट में चौथे स्थान पर इटली का नाम आता है, जिस पर 2,744 अरब डॉलर का क़र्ज़ है। पाँचवाँ नंबर फ्रांस का है, जिसके ऊपर क़रीब 2,736 अरब डॉलर का क़र्ज़ है।
बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था वाला देश अमेरिका भारत का भी क़र्ज़दार है। भारत का अमेरिका पर 216 अरब डॉलर का क़र्ज़ है। अमेरिकी सांसद एलेक्स मूनी ने हाल में कहा था कि देश का क़र्ज़ बढक़र 29,000 अरब डॉलर तक पहुँचने जा रहा है, जो बेहद चिन्ता का विषय है। इसके अलावा भारत के सन्दर्भ में कोरोना के कारण नकारात्मक वृद्धि (नेगेटिव ग्रोथ) का भी ख़तरा है। नकारात्मक वृद्धि का सीधा मतलब है कारोबार में कमी, बिक्री और मुनाफ़े में भी कमी। यहाँ बता दें कि जीडीपी अनुपात के मामले में भारत पर पिछले सात वर्षों में तेज़ी से क़र्ज़ बढ़ा है।

 

इस संकट में हमें देश की कम्पनियों और लोगों की मदद करनी चाहिए, जिससे वह अपने कामकाज को आगे बढ़ा सकें। इससे देश की अर्थ-व्यवस्था को भी रफ़्तार मिलेगी। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि आम जनता और निवेशकों को यह फिर से भरोसा दिया जाए कि लोक-वित्त नियंत्रण में रहेगा और एक विश्वसनीय मध्यम अवधि के राजकोषीय ढाँचे से इसे किया जाएगा।’’

पाओलो मॉरो
उप निदेशक, आईएमएफ (वित्तीय मामलों का विभाग)

ज़िन्दगियाँ बचाने में नाकाम,  कमज़ोर स्वास्थ्य व्यवस्था

कोरोना वायरस पिछले साल से भी भयंकर रूप धारण कर चुका है। रो जाना कई राज्यों से दर् जनों लोगों की मौत की  ख़बरें आ रही हैं, जिसके चलते देश में भय का माहौल बना हुआ है। इस डर की वजह जहाँ महामारी है, तो वहीं अस्पतालों में सुविधाओं का अभाव और लापरवाही की  ख़बरों का सामने आना है। अस्पतालों में लापरवाही का आलम यह है कि समय पर इलाज न मिलने के कारण कोरोना के साथ-साथ अन्य रोगों से पीड़ित मरी ज भी असमय मौत के मुँह में समा रहे हैं। जहाँ देखो अ फ़रा-तफ़री का माहौल है। अस्पतालों में ऑक्सीजन के लिए हाहाकार मची हुई है, जबकि सच्चाई यह है कि बड़े अस्पतालों में ऑक्सीजन प्लांट लगे होते हैं। इसके बावजूद बा जारों से महँगे ऑक्सीजन सिलेंडर  ख़रीदकर सरकारी अस्पतालों में आपूर्ति की जा रही है। रेमडेसिवीर लगवाने के लिए लोग भटक रहे हैं। दवा के व्यापार में कालाबाज़ारी का बोलवाला बढ़ रहा है। देश में कोरोना के चलते अन्य रोगियों को समय पर इलाज नहीं मिल पा रहा है। देश का कम जोर स्वास्थ्य सिस्टम अब हाँफने लगा है।

तहलका संवाददाता ने इस अव्यवस्था को लेकर कई डॉक्टर्स और जानकारों से बातचीत की। जानकारों का कहना है कि डॉक्टर्स के तमाम दावों और सुझावों को न जरअंदा ज करते हुए सरकार ने कोरोना को लेकर स ख़्ती नहीं दिखायी, बल्कि कोरोना को लेकर अपनी सियासी  जमीन तैयार की है। कहा जाता है कि जब सियासतदान सियासी लाभ लेने की कोशिश में लगे रहते हैं, तो लोगों की परवाह नहीं करते। इस समय भी सियासतदानों का यही खेल चल रहा है और उनसे जुड़े लोगों के कारोबार  ख़ूब फल-फूल रहे हैं। मास्क, दवा और ऑक्सीजन प्लांट वाले जमकर चाँदी काट रहे हैं। ऑक्सीजन का अचानक अस्पतालों टोटा होना एक साज़िश का हिस्सा है, ताकि ज़्यादा मुनाफ़ा कमाया जा सके। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान (एम्स) के डॉक्टर्स ने तहलका संवाददाता को जनवरी माह में बताया था कि मार्च के महीने से ही कोरोना भयंकर रूप लेगा। ऐसा नहीं कि स्वास्थ्य मंत्रालय और नीति आयोग को इस मामले में जानकारी नहीं थी, बल्कि ब क़ायदा सारा  ख़ाका कोरोना को लेकर तैयार किया गया था। उसकी जानकारी आईसीएमआर स्वास्थ्य मंत्रालय को मुहैया कराता रहा है, फिर भी लापरवाही हुई है और कोरोना को लेकर सियासी साज़िश का खेला हुआ है।

जानकारों का कहना है कि कई मर्तबा सियासतदान अपने तरी क़े से ऐसे बयान देते हैं, जिसके मायने लोग अपने तरी क़े से निकाल लेते हैं। लेकिन कोरोना जैसी महामारी को लेकर इस बार जो सियासत हो रही है, उससे कोरोना वायरस के अस्तित्व पर ही लोग सवाल उठाने लगे हैं। जैसे कि देश के चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के विधानसभा चुनावों में कोरोना की चर्चा तक नहीं है और न ही वहाँ सियासतदान रैलियों और जनसभाओं में मास्क लगा रहे हैं। मौ जूदा व क़्त बहुत ना जुक है, लेकिन लापरवाही जारी है, कुछ लोगों की तर फ़ से तो काफ़ी हद तक सरकार की तर फ़ से। सरकार भले ही चेतावनी दे रही है कि अभी कोरोना का कहर यानी तबाही का मं जर अभी जारी रहेगा। लेकिन  ख़ुद सरकार की तरफ़ से बहुत-सी स्थितियाँ बेक़ाबू और अस्पष्ट हैं।

जबकि कई डॉक्टर्स का कहना है कि देश में स्वास्थ्य व्यवस्था म जबूती के साथ आगे बढ़ रही थी, जो अब डगमगाती दिख रही है। आईएमए के पूर्व संयुक्त सचिव डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि जब देश की राजनीति जुमलेबा ज भाषणों से भरी हो, लोगों को गुमराह करने में लगी हो, चुनावी महासमर में लाखों लोगों की रैलियाँ हो रही हों, कुम्भ में लाखों लोगों का आना-जाना हो, तो कोरोना का भयंकर रूप से फैलना स्वाभाविक है। क्योंकि ऐसे हालात में देश की जनता यह मानने लगती है कि जब देश के सियासतदान कोरोना को लेकर फिक्रमंद नहीं हैं, इसका मतलब कोरोना नहीं है। इसलिए लोगों ने कोरोना वायरस से बचाव के लिए जारी दिशा-निर्देशों के पालन में लापरवाही की है। डॉक्टर बसंल का कहना है कि देश की स्वास्थ्य व्यवस्था पिछले कोरोना-काल से ही कम जोर होने लगी थी, अब यह और भी लचर हो गयी है। कहने को तो सरकार अस्पताल में बेड्स की संख्या बढ़ा देती है, पर ह क़ी क़त कुछ और ही है। अस्तपालों में डॉक्टर्स और पैरामेडिकल कर्मचारियों की संख्या नहीं बढ़ायी जा रही है, जिससे बड़ी तादाद में भर्ती मरी जों की ठीक से देखभाल नहीं हो पा रही है। उन्होंने कहा कि देश के बड़े नेता और केंद्रीय मंत्री बाबाओं की दवा की कम्पनियों को प्रमोट करने, उन्हें बढ़ावा देने में लग जाते हैं कि कोरोना की यह दवा ठीक है, लेकिन अस्पतालों की व्यवस्था ठीक नहीं करते। ऐसे में जनता काफ़ी भ्रमित होती है। उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया में  ग़ैर-प्रमाणित दवाओं को बढ़ावा दिया जा रहा है। लोगों ने अपने हिसाब से घरों में कोरोना की दवाएँ, यहाँ तक कि ऑक्सीजन के छोटे सिलेंडरों को रख लिया है और मनमािफक़ इलाज कर रहे हैं, जो कोरोना को बढ़ाने में लगा है। आख़िर लोगों में अस्पताल जाने कतराने की वजह क्या है? इन सब पर सरकार को रोक लगानी होगी।

मैक्स अस्पताल की कैथ लैब के डायरेक्टर (निदेशक) डॉ. विवेका कुमार का कहना है कि हृदय रोग एक ऐसा रोग है, जिसमें रोगी को तत्काल पर इलाज न मिलने पर उसकी जान जा सकती है। हृदय के वॉल्व  ख़राबी होने पर रोगियों को चलने-फिरने, साँस लेने में दि क़् क़त होती है। ऐसे में रोगियों को उपचार की  जरूरत होती है। ट्रांसकैथेटर माइट्रल वॉल्व रिप्लेसमेंट (टीएमवीआर) बीमारी का इलाज सरलता से किया जा सकता है।

डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि टीएमवीआर में रोगी को कमर से पलती तार डालकर आसानी से उपचार किया जाता है, जिससे रोगी को किसी प्रकार की कोई दिक़्क़त नहीं होती है। रोगी भी कम समय में स्वस्थ्य होकर घर चला जाता है। लेकिन कोरोना-काल में हर कोई यह सोचने लगा है कि साँस लेने में दि क़् क़त यानी कोरोना है। जबकि ये हृदय की समस्या के साथ-साथ वॉल्ब में  ख़राबी होने के लक्षण हैं। डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि कोरोना-काल में टीएमवीआर का इलाज से लोगों को काफ़ी लाभ हुआ है। ऐसे रोगी अब सामान्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं। तहलका संवाददाता ने अस्पतालों में कोरोना-मरीजों के साथ-साथ दूसरे रोगों से पीडि़त मरी जों से बात की, तो उन्होंने रोग से ज़्यादा स्वास्थ्य सिस्टम में फैली लापरवाही के बारे में बताया। लोकनायक अस्पताल में कोरोना के चपेट में आने वाले मरी ज प्रदीप कुमार (38) ने बताया कि ऑक्सीजन की मारामारी उन्होंने ऐसी नहीं देखी कि उसके अभाव में मरी जों को जान के लाले पड़ गये हों। लेडी हार्डिंग अस्पताल में तो स्ट्रेचर भी किसी मरी ज को मिल जाए और डॉक्टर आकर देख जाएँ या ऑक्सीजन मिल जाए, तो समझो कि मरी ज बड़ा ही भाग्यशाली है या फिर बड़ी सि फ़ारिश वाला है। लेडी हार्डिंग में 18 अप्रैल को ज्ञान वाजपेयी कोरोना की शिकायत होने पर अपने दोस्त को लेकर गये, तो उनको अस्पताल में इस  क़दर स्ट्रेचर के लिए जूझना पड़ा जैसे कम जोरी में कोई पहाड़ चढऩा पड़ रहा हो। जैसे-तैसे उनको स्ट्रेचर मिला और उसी पर इलाज मिलना शुरू हुआ। देर रात तक बड़ी मुश्किल से उनको बेड मिला। लेकिन जाँचों में देरी के चलते उन्हें निजी अस्पताल में इलाज कराना पड़ा है।

नोएडा के सरकारी अस्पतालों का हाल तो और भी बेहाल है। इन सरकारी अस्पतालों में मरी जों को भर्ती तो कर लिया जाता है, लेकिन डॉक्टर्स की कमी होने के कारण मरी जों की सही से न देखभाल हो पा रही है और न ही उन्हें सही इलाज मिल पा रहा है। तहलका संवाददाता ने डॉक्टर्स से बात करके मरी जों का हाल जानना चाहा, तो उन्होंने मरी जों की पीड़ा के साथ-साथ अपनी पीड़ा सुनानी शुरू कर दी कि अस्पताल में पैरामेडिकल कर्मचारी और डॉक्टर्स की बहुत कमी है, जिसके चलते मरी जों की सही देखभाल नहीं हो पा रही है। ऐसे में डॉक्टर्स से जो हो पा रहा है, वे कर रहे हैं। डॉक्टर्स का कहना है कि शासन-प्रशासन को सब पता है, लेकिन कोई इस ओर ध्यान नहीं दे रहा है। सरकार को इससे निपटने के लिए सही इंत जाम करने होंगे, क्योंकि कोरोना की चपेट में तो डॉक्टर्स भी आ रहे हैं।

कहते हैं कि सत्ता में बैठे लोग ही अगर व्यवस्था पर आघात करने लगें, तो एक दिन वे भी इसकी चपेट में आ ही जाते हैं। ‘तहलका’ के पास ऐसे अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों की लम्बी लिस्ट है, जो कोरोना-काल में अपने परिजनों को सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों में भर्ती कराने के लिए भटके हैं। सरकारी स्वास्थ्यकर्मियों तक को अपने इलाज के लिए भटकना रहे हैं, लेकिन उनका तक इलाज नहीं हो पा रहा है। सरकार जब लापरवाही बरतती है और अपनी गलतियाँ दूसरों पर मढ़नी शुरू कर देती है, तो सरकारी अधिकारी बिना कोई अड़ंगा लगाये उसकी नीतियों का समर्थन करने लगते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी नौकरी भी बचानी होती है। ऐसा ही मामला जीबी पंत अस्पताल का है, जिसको सरकार ने कोविड सेंटर तो नहीं बनाया है, लेकिन अन्य अस्पतालों के कोरोना रोगियों को सीटी स्कैन और अन्य जाँचों के लिए भेजा जा रहा है। कोरोना रोगियों की बढ़ती संख्या में जल्दबा जी में की जा रही जाँचों के कारण सेनेटाइज तक नहीं किया जा रहा है, जिससे जाँच करने वाले ही कोरोना के चपेट में आ रहे हैं। इतना ही नहीं, अधिकारियों के परिजनों की जाँच होने के बाद भी वे कोरोना के चपेट में आये हैं। मतलब सा फ़ है कि व्यवस्था में कमियों का  ख़ामिया जा उन्हें भी भुगतना पड़ रहा है।

कोरोना वायरस से पीडि़त रामकिशन का कहना है कि वह दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में इलाज कराकर आये हैं। उन्होंने अनुभव किया है कि देश भर में कोरोना वायरस को लेकर जितना हो-हल्ला मचा रखा है, वो एक साज़िश है और झूठ को दबाने का प्रयास है। उन्होंने अस्पतालों में डॉक्टर्स की कार्यशैली देखी है, वे सरकारी महकमे से डरकर इलाज कर रहे हैं। दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य कर्मचारी एसोसिशन के पदाधिकारी विजय ने बताया कि इस महामारी के दौर में जो देश में ऑक्सीजन की कमी हुई है, उसके लिए सीधे तौर पर केंद्र सरकार ज़िम्मेदार है और वह अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकती। इधर हरियाणा और दिल्ली सरकार के बीच ऑक्सीजन को लेकर झगड़ा हो रहा है, जो कि मरी जों के लिए कम, सियासी खेल ज़्यादा दिखता है। इसके चलते मरी ज पिस रहे हैं।

-डॉक्टर विवेका कुमार, मैक्स अस्पताल की कैथ लैब के निदेशक

देश में इस समय सही मायने जागरूकता पर बल देने की आवश्यकता है। लोगों के साथ-साथ डॉक्टर्स को कोरोना के साथ-साथ अन्य बीमारियों पर भी  ग़ैर करना चाहिए, अन्यथा रोग से पीडि़त लोगों को का फ़ी परेशानी हो सकती है। देश में डॉक्टर्स ने तामाम रोगों पर जो शोध किये हैं, उसका लाभ मरी जों को नहीं मिल पा रहा है। अगर सही मायने में देखा जाए, तो पिछले साल शुरू हुए कोरोना-काल से लेकर अब तक इलाज के अभाव में अन्य रोगों से बहुत लोग मरे हैं।’’

 

-डॉक्टर अनिल बंसल, आईएमए के पूर्व संयुक्त सचिव

देश की स्वास्थ्य व्यवस्था पिछले कोरोना-काल से ही कम जोर होने लगी थी, अब यह और भी लचर हो गयी है। कहने को तो सरकार अस्पताल में बेड्स की संख्या बढ़ा देती है, पर ह क़ी क़त कुछ और ही है। देश के बड़े नेता और केंद्रीय मंत्री बाबाओं की दवा कम्पनियों को प्रमोट करने, उन्हें बढ़ावा देने में लग जाते हैं कि कोरोना की यह दवा ठीक है। लेकिन अस्पतालों की व्यवस्था ठीक नहीं करते। ऐसे में जनता काफ़ी भ्रमित होती है।’’

संकट में फ़रिश्ते बने सिख

 कोरोना पीडि़तों की सेवा के लिए खोले गुरुद्वारों के द्वार, मरी ज़ों को पहुँचा रहे ऑक्सीजन और लंगर
 अपनी जान जोखिम में डालकर सिख कर रहे मरी ज़ों की सेवा और शवों का अन्तिम संस्कार

देश भर में कोरोना संकट और किसान आन्दोलन के गम्भीर संकट के बीच सिख समुदाय का सेवा भाव पूरी दुनिया के लिए मिसाल बना हुआ है। सम्भवत: किसी ने सच ही कहा है कि आज जिस तरह से लोग कोरोना संक्रमण के संकट के चलते ऑक्सीजन और इंजेक्शन ढूँढ रहे हैं, अगर व$क्त रहते नये कृषि काले क़ानूनों के ख़िला फ़ नहीं हुए और किसानों का साथ नहीं दिया, तो आने वाले समय में इसी तरह अनाज के संकट से भी लोगों को दो-चार होना पड़ सकता है। मौ ज़ूदा हालात पर चिकित्सा बिरादरी आम लोगों से बस यह आग्रह कर रही है कि वे घर के अन्दर रहें और बाहर निकलते समय मास्क पहनें।

ऐसे में जब सरकारें नाकाम-सी दिख रही हैं दिल्ली-एनसीआर और देश में मरीज़ों के लिए बेड, वेंटिलेटर और ऑक्सीजन की आपूर्ति के लिए बिना ढिंढोरा पीटे हमेशा की तरह सिख समुदाय आगे बढक़र आया है। दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी समेत तमाम सिख संगठनों ने वैश्विक महामारी के इस संकट में मदद के लिए अपने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिये हैं। देश के कई हिस्सों में लॉकडाउन और तमाम पाबंदियों के बीच ज़रूरतमंदों के लिए भोजन और लोगों को उनके गंतव्य तक पहुँचाने की व्यवस्था तो पहले ही से कही जा रही थी। अब सिख संगठनों की ओर कोविड मरी ज़ों की जान बचाने के लिए बेड और ऑक्सीजन की भी व्यवस्था की जा रही है। बता दें कि यहवही सिख समुदाय है, कृषि के तीन काले क़ानूनों का विरोध करने पर जिसे केंद्र सरकार का पूरा तंत्र $खालिस्तानी और आतंकवादी कह रहा था और किसान आन्दोलन में लगाये जा रहे लंगर के फंड की जाँच कर रहा था।
राजधानी दिल्ली की तीन सीमाओं पर कृषि क़ानूनों के ख़िला फ़ डटे किसान भी इसमें समर्थन दे रहे हैं। लगातार बिगड़ते हालात को देखते हुए सिख कमेटी ने चार प्रमुख सेवाएँ शुरू की हैं। पहली कोविड प्रभावित लोगों के लिए लंगर सेवा शुरू की है। दिल्ली गुरुद्वारा मैनेजमेंट कमेटी के प्रमुख मनजिंदर सिंह सिरसा ने बताया कि दिल्ली में क़रीब 20-25 ह ज़ार लोगों को रो ज़ाना खाना पहुँचाया जा रहा है, जिसमें 4,000 डिब्बाबन्द भोजन के पुलिंदे (पैकेट) कोरोना के मरी ज़ों को भेजे जा रहे हैं। दूसरी सेवा गुरु अर्जुन देव जी सराय में 20 कमरे तैयार किये गये हैं, जहाँ पर कोरोना मरी ज़ों के लिए ज़रूरी बेड और ऑक्सीजन की सुविधा है। तीसरी सेवा गुरुद्वारा बाला साहिब में बने फ्री किडनी डायलिसिस अस्पताल में 20 बेड सिर्फ़ कोविड मरी ज़ों के लिए अतिरिक्त तैयार किये गये हैं। चौथी सेवा गुरुद्वारा कमेटी की ओर से सरकारों से अपील की गयी है कि वे गुरुद्वारों के लंगर हॉल में कोविड सुविधाएँ लगाकर इन्हें कोविड मरी ज़ों के लिए तैयार कर सकती हैं।


घर पर मँगा सकते हैं ऑक्सीजन
सिख कमेटी के पास 50 ऑक्सीजन सिलेंडर्स की व्यवस्था है, जिनको और बढ़ाया जा सकता है। जिन मरी ज़ों को ऑक्सीजन की ज़रूरत है, वे अपने घरों में भी इन्हें मँगवा सकते हैं। सिलेंडर्स की व्यवस्था हो जाने के बाद सिख समुदाय और ज़्यादा लोगों तक मदद पहुँचाने में आगे बढऩे को तत्पर है। इसके लिए सिलेंडर की ख़रीद प्रक्रिया की जा रही है। विदित हो कि सिख धर्म की लंगर सेवा सदियों पुरानी है, जो कि सिख धर्म के संस्थापक और पहले गुरु ‘गुरु नानक देव जी’ ने शुरू की थी; जिसका उद्देश्य मानव सेवा और भूखों को भोजन कराना था, जिसे इस धर्म के अनुयायियों ने आज भी जारी रखा हुआ है। वर्ष 2020 में जब कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया में दस्तक दी, तब दिल्ली स्थित बंगला साहिब गुरुद्वारा के साथ-साथ दिल्ली के अन्य गुरुद्वारों, नोएडा के गुरुद्वारा, देश और दुनिया भर की कई गुरुद्वारा प्रबन्ध समितियों ने सितंबर, 2020 में एक अलग तरीके़ की लंगर सेवा और अन्य सेवाएँ भी शुरू कीं, जिसमें कोरंटटीन मरी ज़ों को भोजन पहुँचाने की व्यवस्था से लेकर उन्हें अन्य राहतें पहुँचाने की पहल की गयी। यह व्यवस्था आज भी निरंतर जारी है। गुरुद्वारों की इस व्यवस्था और सेवा को देखकर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ट ट्रम्प ने कहा था कि दुनिया भर में गुरुद्वारे होने चाहिए। आज केवल नोएडा के गुरुद्वारा में रो ज़ाना भोजन के 5,000 पैकेट तैयार करके कोरोना मरी ज़ों तक पहुँचाये जा रहे हैं। गुरुद्वारे से जुड़े गुरप्रीत सिंह ने बताया कि हम उन परिवारों की मदद करने की कोशिश कर रहे हैं, जो कोविड पॉजिटिव हैं और खाना बनाने में असमर्थ हैं। हम उनके लिए खाने के पैकेट बना रहे हैं और उन्हें सोसायटी गेट के सामने छोड़ देते हैं, जिसे सुरक्षाकर्मी (सिक्योरिटी गार्ड) ज़रूरतमंद परिवारों तक पहुँचा देते हैं।

दिव्यांग जगजीत सिंह की सेवा कर रही प्रेरित
पाकिस्तान और चीन सीमा से सटे जम्मू-कश्मीर में सिख स्वयंसेवक (वालंटियर्स) ग्रुप कश्मीर के साथ मिलकर कई संस्थाओं के युवा कोरोना मरी ज़ों की मदद के लिए हाथ बढ़ा रहे हैं। मरी ज़ों को मु फ़्त ऑनलाइन डॉक्टर परामर्श सेवा, लंगर, दवाइयाँ, ऑक्सीजन सिलेंडर, ऑक्सीजन कॉन्सेंट्रेटर आदि सेवाएँ मुहैया करायी जा रही हैं। अपनों को खो चुके लोगों का अन्तिम संस्कार भी रीति-रिवा ज़ से कराया जा रहा है। $करीब एक वर्ष से अधिक समय से युवाओं का समूह लोगों की मदद कर रहा है। ग्रुप के सदस्य सरदार जगजीत सिंह दिव्यांग हैं। लेकिन उनका जज़्बा ग्रुप के बाक़ी सदस्यों को मरी ज़ों की सेवा करने के लिए प्रेरित करता है। इस ग्रुप की कोविड हेल्पलाइन नंबर- 9055509055 का संचालन जगजीत सिंह करते हैं। उन्होंने बताया कि कोरोना महामारी के शुरू होने के साथ ही एक जैसी सोच रखने वाले लोग एक साथ बैठे और उन्होंने अपने सिख समुदाय के लिए कुछ करने की ठानी। शुरुआत में दिक़्क़ते आयीं, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता सब ठीक होने लगा। इस सेवा में डॉक्टर भी जुड़े हैं।
ग्रुप के वालंटियर्स रो ज़ाना 15 से 20 मरीज़ों का दोपहर और रात का खाना अस्पतालों में पहुँचाते हैं। कई बार रात के समय भी फोन कॉल्स आती हैं और वालंटियर्स घर जाकर डॉक्टर के निर्देश पर मरीज़ के लिए मददगार साबित होते हैं। ग्रुप ने पिछले एक साल में 50 से अधिक लोगों का अन्तिम संस्कार कराया। ग्रुप के सदस्य मनमीत सिंह ने बताया कि जब पद्मश्री अवार्डी भाई निर्मल सिंह का कोरोना के चलते देहांत हो गया और उनके अन्तिम संस्कार के लिए उन्हें जगह नहीं मुहैया करवायी गयी। इस घटना के बाद उन्होंने कुछ करने की ठानी और ग्रुप तैयार किया। जब परिवार वाले भी कोरोना मरी ज़ों के शवों को हाथ लगाने से डरते हैं, उस समय में जांबा ज़ लोग मर्यादा के साथ उनके आत्मसम्मान का ध्यान रखते हुए ज़रूरी दिशा-निर्देशों के तहत अन्तिम संस्कार कर रहे हैं।

डर, आशंकाओं और असुविधाओं में महामारी की मुसीबत

इधर खाई, उधर कुआँ; किधर जाएँ? करें भी क्या? कुछ इसी तरह के सवाल हर देशवासी आज या तो केंद्र सरकार से पूछना चाहता है या अपने राज्य की सरकार से! पर जवाब कोई देने को तैयार नहीं। कोरोना वायरस की महामारी में सारे दावों की या कहें सबकी डींगों की पोल खुल गयी है। लोग बेमौत मर रहे हैं। डॉक्टर मजबूर हैं। चिकित्सा के पेशे से जुड़े कुछ लालची लोग मौत के सौदागर बने हुए हैं।

अस्पतालों से श्मशान तक फैले इन सौदागरों ने बता दिया है- यथा राजा, तथा चमचे। मतलब तो राजा ने पहले ही समझा दिया- ‘आपदा को अवसर में बदलिए।’ सो कुछ लालचियों ने कर दिखाया। लोग रो-चिल्ला रहे हैं। क्या करें? दूसरा चारा नहीं है। नेताओं, अफसरों, डॉक्टरों के आगे गिड़गिड़ाकर थकने के बाद, अपनों को बचाने की सभी उम्मीदों पर पानी फिरने के बाद, ईश्वर से मिन्नतें-प्रार्थना करने पर भी जब कोई अपना दुनिया से चला जाता है, तो रोने-बिलखने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं बचता। यह दर्द आम आदमी का है; जो इस संकट की घड़ी में सिवाय हाथ-पैर पीटने के कुछ नहीं कर पा रहा है और न ही भाग्य के अलावा किसी पर भरोसा कर सक रहा है। पिछले साल कोरोना वायरस का संक्रमण जब फैला और लॉकडाउन लगा, तो निम्न और मध्यम वर्ग पर इसका असर सबसे ज़्यादा देखा गया। लेकिन उस समय भी चार सांसद, कई विधायक और कई नामचीन हस्तियों ने दम तोड़ा; जिनमें अधिकतर कोरोना से ग्रसित हुए थे। कोरोना वायरस की इस दूसरी लहर से इस साल भी आम लोगों की तरह ही शासन-प्रशासन में बैठे लोग भी इसकी चपेट में आ रहे हैं।

इस साल दिल्ली कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री अशोक कुमार वालिया की अपोलो हॉस्पिटल में कोरोना संक्रमण के चलते मौत हो गयी, वहीं भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पूर्व सांसद और झारखण्ड के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ भी नहीं बच सके। इसके अलावा अकेले उत्तर प्रदेश में भाजपा के चार विधायकों- बरेली के नवाबगंज क्षेत्र से भाजपा विधायक केसर सिंह गंगवार, पूर्व कैबिनेट मंत्री और पीलीभीत शहर विधानसभा क्षेत्र से पाँच बार विधायक रहे हाजी रियाज़  अहमद, औरैया सदर से विधायक रमेश चंद्र दिवाकर और लखनऊ मध्य से विधायक सुरेश कुमार श्रीवास्तव की मौत हो चुकी है। वहीं पिछली बार कोरोना वायरस की पहली लहर में भाजपा के दो मंत्री चेतन चौहान और वरुण रानी अकाल मौत के शिकार हुए थे। हाल यह है कि प्रदेश की 17वीं विधानसभा में अब तक एक दरजन विधायकों की मौत हो चुकी है। इसके अलावा भाजपा के उज्जैन मंडल अध्यक्ष जीतेंद्र शीरे की मौत हो गयी। उनके परिजनों ने ऑक्सीजन न मिलने की वजह बताते हुए भाजपा पर ग़ुस्सा निकाला। यहाँ तक कि केंद्रीय मंत्री वी.के. सिंह को भी अपने भाई के लिए अस्पताल में बिस्तर पाने के लिए ग़ाज़ियाबाद के  ज़िलाधिकारी को ट्वीट करना पड़ा। इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले के बैरिया क्षेत्र से भाजपा विधायक सुरेंद्र सिंह ने अपनी ही योगी सरकार पर कोरोना प्रबन्धन में बदइंतज़ामी का आरोप लगाते हुए कहा है कि नौकरशाही के ज़रिये मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का कोरोना वायरस पर नियंत्रण का प्रयोग असफल रहा है। वहीं स्थानीय भाजपा विधायक अरविंद गिरि को पत्र लिखकर लखीमपुर खीरी के ज़िलाधिकारी से ऑक्सीजन मुहैया कराने की गुहार लगानी पड़ी। वहीं उत्तर प्रदेश में 135 शिक्षकों, शिक्षा मित्रों और अन्वेषकों (इंवेस्टिगेटर्स) की पंचायत चुनाव में ड्यूटी के दौरान कोरोना वायरस संक्रमण से मौत हो गयी, जिसके लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने योगी सरकार की जमकर फटकार लगायी है।
इधर, बिहार में तीन आईएएस अधिकारियों- अरुण कुमार (मुख्य सचिव, बिहार), पंचायती राज विभाग के निदेशक विजय रंजन और स्वास्थ्य विभाग के अपर सचिव रहे रवि शंकर चौधरी की कोरोना संक्रमण के चलते जान चली गयी। बिहार में प्रतिनियुक्ति पर आये इंडियन पोस्ट ऐंड टेलीग्राफ सेवा के अधिकारी और उद्योग विभाग में निदेशक पंकज कुमार सिंह का भी निधन कोरोना वायरस के चलते हो गया। ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स एसोसिएशन (एआईबीओए) के संयुक्त सचिव डी.एन. त्रिवेदी ने बैंककर्मियों में ते ज़्ाी से फैलते कोरोना वायरस के संक्रमण पर चिन्ता जतायी है। उन्होंने कहा कि देश भर में तक़रीबन 300 बैंककर्मी कोरोना संक्रमण के चपेट में हैं और ़करीब 25 बैंककर्मियों की इससे मौत हो चुकी है।

पिछले साल पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, कांग्रेस के दिग्गज नेता मोतीलाल वोरा, अहमद पटेल और तरुण गोगोई, केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान, गायक एसपी बालासुब्रमण्यम, प्रसिद्ध शायर डॉ. राहत इंदौरी, बंगाली अभिनेता सौमित्र चटर्जी कोरोना वायरस से चल बसे, तो इस साल नदीम-श्रवण की जोड़ी में से श्रवण राठौर, शास्त्रीय गायक राजन मिश्रा, कवि कुँवर बेचैन नहीं रहे। सवाल यह है कि जब उनका यह हाल है, जिन्हें बेहतर सुविधाएँ मुहैया होती हैं, तो आम लोगों का क्या हाल होगा? वैसे तो श्मशानों में लगी शवों की लम्बी कतारें अनाप-शनाप हो रही मौतों की कहानी बयाँ कर रही हैं। लेकिन फिर भी सोयी सरकारों और प्रशासन को जगाने के लिए आँकड़ों पर चर्चा करनी ज़रूरी है। लेकिन सही आँकड़ों कहाँ से आएँ? क्योंकि आँकड़ों को छिपाना सरकारों की पुरानी ़िफतरत है। फिर भी सरकारी आँकड़ों की मानें, तो अब तक देश भर में सवा दो लाख से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। लेकिन कुछ जानकारों का कहना है कि आँकड़े छिपाये जा रहे हैं और देश में अब तक 8-10 लाख लोगों की मौत हो चुकी है।

हर तरफ़ कोहराम है

कोरोना वायरस की इस दूसरी लहर से पूरे देश में कोहराम मचा हुआ है। काफी कोशिशों के बावजूद दिन-ब-दिन कोरोना वायरस के मामले बढ़ते जा रहे हैं। लोगों में इस क़दर भय व्याप्त है कि वे कोरोना वायरस की चपेट में आये अपनों और इससे मरने वाले परिजनों के शव तक को हाथ लगाने से कतरा रहे हैं। देश में 1 मई को पहली बार रिकॉर्ड 4,01,993 नये कोरोना वायरस से संक्रमित मरीज़ो मिले। भारत से पहले सिर्फ अमेरिका में ही एक दिन में चार लाख से अधिक कोरोना संक्रमण के मामले सामने आये थे। इसके साथ ही देश में 1 मई को कुल संक्रमितों की संख्या दो करोड़ के पास 1,91,64,969 से ऊपर पहुँच गयी। मरी ज़्ाों की तादाद की रिपोर्ट स्वास्थ्य मंत्रालय ने ख़ुद जारी की थी। एक अनुमान के मुताबिक, देश में हर रोज़ साढ़े तीन से चार हज़ार लोग कोरोना से मर रहे हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट की मानें, तो 1 मई तक कोरोना से 2,11,853 लोग मर चुके थे। एक अनुमान के मुताबिक, एक मिनट में दो मरीज़ो की मौत कोरोना वायरस से हो रही है। पहले हर चार मिनट में एक मरीज़ की मौत इससे हो रही थी। यह हाल तब है, जब पूरे देश में महामारी का उतना प्रकोप नहीं, जितना कि दिल्ली, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, झारखण्ड, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात में है। इन राज्यों में लोगों की यादा मौतें हो रही हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय और चिकित्सकों ने कोरोना वायरस के संक्रमण से बढ़ती मृत्यु दर पर चिन्ता जतायी है। लेकिन केवल चिन्ता से कोई फायदा नहीं। देश भर में कोरोना मरीज़ो की संख्या लगातार बढऩे के चलते सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में बेड, वेंटिलेटर, रेमडेसिवीर और ऑक्सीजन की क़िल्लत जारी है। वहीं श्मशान घाटों पर शवों के अन्तिम संस्कार के लिए 24-24 घंटे से अधिक इंतज़ार करना पड़ रहा है। कई जगह तो श्मशान घाटों पर जगह न पार्कों और दूसरी ख़ाली जगहों में शवों का अन्तिम संस्कार किया जा रहा है। ऑक्सीजन को लेकर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की स्वायत्त संस्था सेंट्रल मेडिकल सर्विसेज सोसायटी ने 21 अक्टूबर, 2020 को ही कहा था कि 150 में प्रेशर स्विंग सोखने वाले ऑक्सीजन संयंत्रों की स्थापना के लिए बोली लगाने वालों के लिए ऑनलाइन निविदा मँगायी गयी थीं (बाद में इसे 162 तक ले जाते हुए 12 संयंत्र जोड़े गये।)। लेकिन जब समय पर काम नहीं हुआ, तो क्या मतलब?

कालाबाज़ारी
क्या हम मुसीबत में फँसे अपने लोगों की खाल खींचने वाले कसाई हैं? अगर नहीं, तो फिर क्यों अपने ही लोगों को महामारी में ठगने में लगे हैं? देखने में आ रहा है कि चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े कई निर्दयी लोग इलाज, दवाओं, टीकों और ऑक्सीजन के एवज़ में ठगी में लगे हुए हैं। कोरोना-टीकों के अलावा रेमडेसिवीर इंजेक्शन व ऑक्सीजन की कालाबा ज़्ाारी का खेल जमकर हो रहा है। यहाँ तक ख़बरें आ रही हैं कि कुछ डॉक्टर और चिकित्सा सेवा से जुड़े लोग टेरामाइसिन का घोल बनाकर रेमडेसिवीर कहकर मरीज़ो को ठोंक रहे हैं और वह भी कई-कई ह ज़्ाार रुपये में! कहाँ मर गयी हमारी मानवता? क्या हमें इस अवैध धन को ऊपर ले जाना है? या हम नहीं मरेंगे? शव देने, श्मशान में शवों के अन्तिम संस्कार तक के लिए महाठगी का खेल भी ख़ूब चल रहा है। श्मशान में शवों के अन्तिम संस्कार के लिए 2,000 से लेकर 30,000 रुपये तक लेना कौन-सा सही काम है? लकडिय़ाँ गैस से भी महँगी कर दी गयी हैं। श्मशानों को प्राइवेट हाथों में बेचने की बात हो रही है! धिक्कार है ऐसी व्यवस्था पर और आपदा में अवसर ढूँढने वाले लोगों पर। क्या हम वहीं देशवासी हैं, जो दूसरों के लिए हमेशा इंसानियत की मिसाल बने हैं?
सलाम ऐसे सेवादारों को एक तरफ जहाँ कई निर्दयी लोग आपदा को अवसर बनाकर भुनाने में लगे हैं; तो वहीं ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो अपनी जान ख़तरे में डालकर नि:स्वार्थ भाव से इंसानियत का धर्म निभाते हुए मरी ज़्ाों की सेवा और मृतकों का अन्तिम संस्कार करने में लगे हैं। अगर ऐसे सभी लोगों का ज़िक्र किया जाए, तो एक पुस्तिका तैयार हो सकती है। मोटे तौर पर यह बात सामने आयी है कि सिख और मुस्लिम समुदाय के लोग इस संकट-काल में बड़े स्तर पर मानव सेवा कर रहे हैं। सिख और मुस्लिम युवा ऑक्सीजन उपलब्ध कराने से लेकर मरी ज़्ाों और मृतकों के लिए फरिश्ते बने हुए हैं। कई हिन्दू युवा उनके साथ इस नेक काम में लगे हुए हैं और कई लोग इस पुनीत कार्य को देखकर नफरत फैलाने वालों का साथ छोडक़र इंसानियत के रास्ते पर चलने के लिए आगे आ रहे हैं। विदित हो कि यह रमज़ान का पाक महीना चल रहा है; लेकिन फिर भी रोज़ो तक तोडक़र मुस्लिम युवा कोरोना पीडि़तों की सहायता में आगे आ रहे हैं और प्लाज्मा, रक्त दान के अलावा मृतकों का सनातन रीति-रिवाज़ से अन्तिम संस्कार कर रहे हैं। अगर इस देश को इस महामारी से बचाना है, तो हम सबको धर्म की भाँग पीना छोडक़र एक-दूसरे के साथ काँधे-से-काँधा मिलाकर पीडि़तों का सहयोग करना होगा।

क्यों बढ़ रहा लोगों में डर?
लोगों के दिमाग़ में कोरोना का एक ऐसा डर बैठा हुआ है कि वे इसे लेकर आतंकित हैं। केंद्र और राज्य सरकारों को इस मामले को हौवा नहीं बनाना चाहिए। क्योंकि भय से आदमी मरने से पहले ही मर जाता है; जिसका कोई इलाज नहीं होता। लॉकडाउन लगाना अपनी जगह ठीक हो सकता है। लेकिन भय फैलाना एक क़िस्म का अपराध है; जो चाहे कोई आम नागरिक करे या सरकार, सभी दण्ड के भागीदार होने चाहिए। ‘तहलका’ का मानना है कि लोगों को इस समय बचाव के लिए सरकार की ओर से जारी दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए ़खुद को शान्त रखना चाहिए और घबराना नहीं चाहिए। यदि किसी में कोरोना के लक्षण हैं, तो वह इसकी जाँच कराये। कोरोना होने पर घर में एकांतवास (कोरंटीन) करे, चिकित्सकों के अनुसार दवाएँ ले। यदि किसी की हालत बहुत ़खराब है, तो ही अस्पताल का रुख़ करे।

प्रोटोकॉल की दुहाई

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस समय कई प्रदेशों के मुख्यंत्रियों से कोरोना वायरस के संकट से निपटने के लिए बैठक कर रहे थे, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस बैठक को सार्वजनिक करते हुए देश के लोगों के हित में काम करने और दिल्ली को ऑक्सीजन उपलब्ध कराने की बात जैसे ही कही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रोटोकॉल की दुहाई देने लगे। ‘तहलका’ का सवाल यह है कि क्या जनहित की बात करते समय जनता के समक्ष किसी बैठक की बातचीत को रखना या पहुँचाना प्रोटोकॉल तोडऩा है? हमारे ख़याल से प्रोटोकॉल के सही मायने क्या हैं? इस पर प्रधानमंत्री को विचार करना चाहिए। एक सवाल यह भी है कि जब 2 जनवरी, 2016 को पठानकोट वायुसेना अड्डे पर आतंकी हमला हुआ था और उसके बाद ख़ुद प्रधानमंत्री ने आईएसआई (पाकिस्तानी ख़ूफिया एजेंसी) के पाँच सदस्यों को हमले वाली जगह का दौरा कराया, तो क्या प्रोटोकॉल नहीं टूटा था? हैरत की बात तो यह है कि इस घटना से एक हफ्ते पहले ही मोदी ने पाकिस्तान का आकस्मिक दौरा कर तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवा ज़्ा शरीफ से मुलाकात की थी। यह सब क्या था? ऑक्सीजन पर बात करें, तो सवाल यह उठता है कि एक तरफ केंद्र सरकार कह रही है कि ऑक्सीजन की कमी नहीं है, और दूसरी तरफ दूसरे देशों से मदद भी ले रही है। वहीं यह सवाल भी उठता है कि अगर देश के पास भरपूर ऑक्सीजन है, तो दिल्ली सरकार को दूसरे देशों से ऑक्सीजन क्यों ख़रीदनी पड़ी? देश की राजधानी नयी दिल्ली समेत तमाम राज्यों में संक्रमण से जूझ रहे मरीज़ो के लिए क़रीब दो हफ्ते तक ऑक्सीजन भारी क़िल्लत होने के बावजूद लगता है सरकार के कान में जूँ नहीं रेंगी। कई उच्च न्यायालयों और यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय की फटकार का असर भी सरकार पर शायद नहीं पड़ा। कोरोना की पहली लहर के 14 महीने बीत जाने के बावजूद इससे लडऩे के लिए जान बचाने में अहम ऑक्सीजन की आपूर्ति करना भी सरकार के बस का नहीं हो सका। हालाँकि इसे दुर्भाग्य कहें या कुछ और कि इसी दौरान कई देशों की ऑक्सीजन निर्यात की गयी।

बेशर्मी की हद पार
सवाल यह है कि क्या प्रदेश में भरपूर ऑक्सीजन होने का दावा करने वाले प्रदेश के मुखिया योगी आदित्यनाथ से विधायक नहीं कह पा रहे हैं कि वह अस्पतालों में उचित व्यवस्था कराएँ। सच तो यह है कि लखनऊ में अस्पताल को टीन की चादर से ढकवाने, मौत का आँकड़ा छिपाने और लोगों की रक्षा आश्वासन देने वाली योगी सरकार की नाकामी छिपाये नहीं छिप रही। कई बार तो लगता है कि प्रदेश में मौतों का खेल चल रहा है। कितने ही लोग अस्पतालों पर अंग निकालने का कथित आरोप लगा रहे हैं। कितने ही लोग अस्पताल जाने से कतरा रहे हैं और यहाँ तक कह रहे हैं कि अस्पताल में जाना मतलब जान गँवाना। आख़िर यह अविश्वास क्यों? इसकी एक वजह ‘तहलका’ ने यह तलाशी कि हाल ही में एक वीडियो में एक भाजपा सांसद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और दूसरे कई विधायकों-नेताओं की मौ ज़्ाूदगी में लोगों से यह कहते दिखे- ‘सोचिए, यहाँ आपकी मृत्यु होगी तो डायरेक्ट स्वर्ग में जाओगे। यहाँ जब आप जलाये जाओगे। कितना आनन्द आयेगा यहाँ जलने में। अत्याधुनिक है एकदम और इलेक्ट्रिक वाला है। तो इठाई-मिठाई न लगी, डायरेक्ट जल जइवो। हर-हर महादेव स्वर्ग जाओगे। लेकिन स्वर्ग वही जाएगा, जो सवेरे यहाँ पैखाना नहीं करेगा।’ दरअसल यह वीडियो पिछले महीने गोरखपुर में राप्ती नदी के तट पर बने गुरु गोरक्षनाथ घाट और श्रीराम घाट के लोकार्पण समारोह के दौरान गोरखपुर से भाजपा सांसद रवि किशन के भाषण का हिस्सा है, जो ‘तहलका’ के पास सुरक्षित है। हैरत की बात यह है कि रवि किशन के इस अशोभनीय और निंदनीय बयान पर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और दूसरे भाजपा नेता ठहाके लगाते दिखे। जनता के साथ ऐसी नीचता भरी हँसी-मज़ाक को आप क्या कहेंगे?

बेअसर वैक्सीन!
कोरोना-वैक्सीन (टीका) के लगने के बाद बहुत-से लोगों की शिकायतें रही हैं कि उनकी तबीअत बिगड़ी है। अब तक कई ऐसे मामले भी सामने आ चुके हैं, जिसमें टीका लगवा चुके लोग दोबारा कोरोना वायरस से संक्रमित हो चुके हैं। हालाँकि चिकित्सकों ने कोरोना टीका लगवाने वालों के लिए दिशा-निर्देश जारी किये हैं, जिनमें सार्वजनिक स्थानों पर मास्क न हटाना अनिवार्य शर्त है। बता दें कि कुछ लोगों को यह भ्रम हो रखा था कि कोरोना टीका लगवाने के बाद कोरोना नहीं होगा। लेकिन यह महज़ एक अफवाह हो सकती है। इस साल के शुरू में ही सरकार की ओर से कहा जा रहा था कि कोरोना अभी गया नहीं है, इसलिए सावधानी बरतें। चिकित्सक और चिकित्सा विशेषज्ञों की मानें तो वैक्सीन बेअसर नहीं है। हाँ, इसे लगवाने के बाद भी सावधानी बरतने की ज़रूरत रहती है।

अंतर्राष्ट्रीय भीख?
कुछ लोग कोरोना वायरस के संकट से निपटने के लिए विदेशों से भारत को मिल रही मदद को अंतर्राष्ट्रीय भीख कह रहे हैं। ‘तहलका’ ऐसी अभद्र और अशोभनीय टिप्पणियों की निंदा करती है। भारत भी एक ऐसा ही संवेदनशील राष्ट्र है, जिसने कई मौक़ो पर दूसरे देशों की दिल खोलकर मदद की है। कई देशों को कोरोना टीके का मुफ्त निर्यात इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। ़खैर, इस समय इस संकट की घड़ी में भारत की मदद के लिए कई देश आगे आये हैं, जिनमें संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, सऊदी अरब, चीन, जापान सहित कई कुछ अन्य देश प्रमुख हैं।

प्रधानमंत्री या प्रचार मंत्री?

कोरोना वायरस के बढ़ते प्रकोप को देखते हुए सबसे पहले राहुल गाँधी ने अपनी रैलियाँ रद्द कीं। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और अन्य कई केंद्रीय मंत्रियों के अलावा उत्तर प्रदेश के मुखिया योगी आदित्यनाथ और अनेक भाजपा नेता चुनावी प्रचार में व्यस्त रहे। प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को लाखों लोगों की भीड़ जुटाकर बिना मास्क के प्रचार करते कई बार देखा गया। आख़िर जब चुनाव आयोग की बहुत निंदा हुई, तब उसने एक आदेश जारी किया, जिसमें कहा गया कि कोरोना वायरस के बढ़ते प्रकोप को देखते हुए 22 अप्रैल से कोई रैली नहीं होगी।
हालाँकि चुनाव आयोग ने यह आदेश तब पारित किया, जब चुनाव लगभग समाप्त हो चुके थे। चुनाव आयोग का आदेश आते ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपनी सभी रैलियाँ रद्द कर दीं। जैसा कि देखा गया है कि नरेंद्र मोदी जबसे देश के प्रधानमंत्री बने हैं, तबसे लेकर आज तक वह हर राज्य के चुनाव में इतनी तन्मयता से लग जाते हैं; जैसे देश ने उन्हें प्रधानमंत्री नहीं, भाजपा का प्रचार मंत्री चुना हो। उन्हें सोचना चाहिए कि जब वह देश के प्रधानमंत्री पद की ज़िम्मेदारी सँभाल रहे हैं और जब तनख़्वाह से लेकर सारी सुविधाएँ प्रधानमंत्री की हैसियत से पा रहे हैं, तो वह पार्टी के लिए इतनी तन्मयता से और इतना अधिक प्रचार-प्रसार कैसे कर सकते हैं? उनकी नैतिक ज़्िाम्मेदारी देश को सँभालने की है या पार्टी के लिए प्रचार करने की? प्रधानमंत्री की तरह ही उनकी पार्टी के अधिकतर मंत्री यही काम कर रहे हैं। फिर देश को किसके भरोसे समझा जाए?

विपक्ष के हमले कोरोना वायरस की दूसरी लहर के बाढ़ की तरह बढऩे के बाद विपक्षी दल भाजपा और केंद्र सरकार पर बुरी तरह हमलावर हो गये हैं। कांग्रेस प्रमुख सोनिया गाँधी ने जहाँ प्रधानमंत्री को नाराज़गी भरा पत्र लिखा, वहीं कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा से लेकर के दिल्ली प्रवक्ता अजय माकन तक ने टिप्पणी की। अजय माकन ने कहा कि क्यों हम एक वैश्विक घटना होने के बावजूद दूसरी लहर का अनुमान लगाने में विफल रहे? क्यों नहीं, हमने वर्ष 2019-20 की तुलना में वर्ष 2020-21 में ऑक्सीजन निर्यात को दोगुना कर दिया। यह जानते हुए भी कि यह गम्भीर रूप से बीमार कोरोना वायरस रोगियों के इलाज में एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। यह समय है कि हम इस दिशा में किये गये सुधारों का प्रभावी ढंग से विश्लेषण करें।

वहीं केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के महामारी से निपटने के सुझाव वाले पत्र के बाद उन पर आरोप लगाया कि महामारी की दूसरी लहर कांग्रेस शासित राज्यों द्वारा भडक़ायी गयी; क्योंकि वे लोगों को टीका लगाने के बजाय टीकों के बारे में सन्देह में व्यस्त थे। इस पर नाराज़गी जताते हुए प्रियंका गाँधी ने कहा कि स्वास्थ्य मंत्री से ऐसी निष्ठुर टिप्पणी की उम्मीद नहीं थी। वहीं कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने ट्वीट किया- ‘मैं घर पर छटपटा रहा हूँ और दु:खद ख़बरें लगातार आ रही हैं। भारत में संकट सिर्फ कोरोना के कारण नहीं है, बल्कि केंद्र सरकार की जन-विरोधी नीतियों के कारण है। झूठे जश्न और खोखले भाषण न दें, देश को एक समाधान दें।’ पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने केंद्र पर ज़म्मेदारी से भागने का आरोप लगाया और कहा कि कांग्रेस ने संकट को अलग तरीके से सँभाला है।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने, जिन्होंने 1 मई से सभी के लिए राज्य के टीकाकरण अभियान को निधि देने के लिए 100 करोड़ रुपये रखे थे; भी केंद्र को कोरोना महामारी के लिए दोषी ठहराया और प्रधानमंत्री का इस्तीफा माँगा। बसपा प्रमुख मायावती ने भी टीकों के अलग-अलग मूल्य निर्धारण की आलोचना की और केंद्र से इस मामले में हस्तक्षेप करने का आग्रह किया।
डॉ. हर्षवर्धन ने एक ट्वीट में कहा कि केंद्र ने 16.33 करोड़ से अधिक कोरोना टीकों की ख़ुराकें राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को मुफ्त में दी हैं। एक आधिकारिक बयान में कहा गया है कि इसमें अपव्यय सहित कुल खपत 15,33,56,503 ख़ुराक है। इससे पहले प्रधानमंत्री मोदी ने राज्यों से आग्रह किया था कि वे ‘टीका महोत्सव, टीका उत्सव’ का पालन करें, ताकि आबादी की सुरक्षा हो सके। लेकिन यह महोत्सव या उत्सव तो नहीं हो सकता, जब तक कि हम कोरोना वायरस से पूरी तरह बचाव करते हुए ज़िन्दगी की जंग जीत नहीं जाते। लेकिन जंग जीतेंगे कैसे? यह सोचना होगा। क्योंकि कुछ लोग कोरोना की तीसरी लहर से अभी से डराने लगे हैं।
वहीं लोग सुरसा के मुँह की तरह लगातार बढ़ते जा रहे लॉकडाउन से परेशान हैं। पहले ही रोज़ी-रोटी के संकट से जूझ रहे लोग अब और परेशान हैं। सरकार किसी की कोई मदद नहीं कर रही है। देश में लगातार ग़रीबी बढ़ती जा रही है। इसे कौन देखेगा? इस अनिश्चित होते लॉकडाउन को लेकर बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम माझी ने ट्वीट किया है- ‘मैं लॉकडाउन का तभी समर्थन करूँगा, जब तीन महीने तक सबका बिजली और पानी बिल मा ़फ किया जाए। किरायेदारों का किराया, बैंक लोन की ईएमआई और स्कूल-कॉलेजों की फीस भी माफ की जाए। किसी को शौक़ नहीं है कि वह बाहर जाए, पर रोटी और करज़ा न कराये। यह बात एसी वाले लोग नहीं समझेंगे।’
बाक़ी मौतों के आँकड़े ग़ायब
मानव शरीर में दरजनो ऐसी बीमारियाँ लगती हैं, जिनसे देश भर में हर साल लाखों मौतें होती हैं। लेकिन जबसे कोरोना वायरस का आतंक फैला है, बाक़ी बीमारियों से मरने वालों और अपनी मौत मरने वालों के आँकड़े ग़ायब कर दिये गये हैं। अब जो भी मौत होती है, उसे कोरोना से हुई मौत बताकर देश को आतंकित किया जाता है, जिस पर तत्काल रोक लगनी चाहिए। इतना ही नहीं, कोरोना मरीज़ो के चलते दूसरी बीमारियों से पीडि़त मरीज़ो को ठीक से इलाज नहीं मिल पा रहा है। सरकार को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए। क्योंकि कैंसर, टीबी, हृदयाघात, पक्षाघात, मस्तिष्काघात और डेंगू, हैजा, मलेरिया जैसी बीमारियाँ भी कोरोना वायरस से कम ख़तरनाक नहीं हैं। इन बीमारियों से हर साल लाखों लोग मरते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने लिया स्वत: संज्ञान

ऑक्सीजन और बेंटिलेटर की कमी से जूझ रहे अस्पतालों पर जब केंद्र सरकार ने ठीक से संज्ञान नहीं लिया, तो मामला देश के कई उच्च न्यायालयों में पहुँच गया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने राज्य और केंद्र सरकार की दलीलों को सुनकर निराशा व्यक्त की और अस्पतालों के लिए पर्याप्त ऑक्सीजन की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार को फटकारते हुए कहा- ‘चाहे भीख माँगो, उधार लाओ या चोरी करो पर अब एक भी आदमी ऑक्सीजन की कमी से नहीं मरना चाहिए।’ उच्च न्यायालय ने कहा- ‘यह सरकार की ज़िम्मेदारी है। बेगिंग, उधारी या चोरी, यह आपका काम है। सरकार ज़मीनी हक़ीक़त से कितनी बेख़बर है? आप यह नहीं कर सकते?’ इतना ही नहीं, दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार की भी जमकर फटकार लगायी। इसके अलावा बॉम्बे हाई कोर्ट (मुम्बई उच्च न्यायालय) ने भी केंद्र सरकार से कहा है कि वो अपने टीकाकरण के इस ़फैसले पर पुन: विचार करे कि घर-घर जाकर कोरोना का टीका लगाना सम्भव नहीं है। केंद्र सरकार को इस मामले में बुज़ुर्गो और दूसरे लाचार लोगों के बारे में सोचना चाहिए। मद्रास उच्च न्यायालय ने भी चुनाव आयोग को लताड़ लगायी और केंद्र से भी कोरोना वायरस की महामारी से निपटने में नाकामी पर सवाल उठाये। 26 अप्रैल को मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश संजीव बनर्जी ने कहा था- ‘कोरोना की दूसरी लहर के लिए चुनाव आयोग ज़िम्मेदारी है। जब चुनावी रैलियाँ हो रही थीं, तो आप दूसरे ग्रह पर थे क्या? बिना सोशल डिस्टेंसिंग के चुनावी रैलियाँ होती रहीं। चुनाव आयोग के अ ़फसरों पर तो सम्भवत: हत्या का मु ़कदमा चलना चाहिए।’ मद्रास उच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को यह भी चेतावनी दी कि 2 मई को मतगणना के दिन के लिए कोरोना आपातकाल (कोविड-प्रोटोकॉल) बनाया जाए और उसका पालन हो। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो हम मतगणना कार्यक्रम रोकने पर मजबूर हो जाएँगे। हालाँकि ऐसा नहीं किया गया। मद्रास उच्च न्यायालय की इन टिप्पणियों के ख़िलाफ चुनाव आयोग सर्वोच्च न्यायालय पहुँच गया और उच्च न्यायालय की टिप्पणी को अपमानजनक बताते हुए उसे हटाने की माँग की है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि चुनाव आयोग अदालत की बात को खुले मन से समझे।

इधर, सर्वोच्च न्यायालय ने ऑक्सीजन की कमी को लेकर मामले में ़खुद हस्तक्षेप किया है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे के सेवानिवृत्त होने के बाद देश के 48वें नवनियुक्त मुख्य न्यायाधीश नुतालपति वेंकट रमना ने न्यायाधीशों की बैठक बुलायी और कोरोना वायरस से फैली महामारी पर चिन्ता व्यक्त की। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से राष्ट्रीय आपातकाल से निपटने के लिए एक योजना प्रस्तुत करने को कहा। इतना ही नहीं, सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों को भी कार्रवाई की चेतावनी दी। सर्वोच्च न्यायालय ने टीकों की अलग-अलग क़ीमतों को लेकर भी केंद्र सरकार पूछा कि सरकार इस समय उत्पादित 100 फ़ीसदी खुराक क्यों नहीं ख़रीद रही है? केंद्र और राज्यों के लिए दो क़ीमतें क्यों होनी चाहिए? इसका औचित्य क्या है? सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि अगर नागरिक सोशल मीडिया पर अपनी शिकायतें प्रसारित करते हैं, तो उस पर कोई शिकंजा नहीं कसा जाना चाहिए। हम इसे ग़लत मानते हैं कि अगर किसी नागरिक को बिस्तर या ऑक्सीजन चाहिए, तो आप उसे ग़लत मानें। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि कोरोना वायरस को लेकर छ: अलग-अलग उच्च अदालतों में सुनवाई होने से कुछ भ्रम की स्थिति पैदा हो सकती है, इसलिए अब सारे मामलों की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय ही करेगा। बाद में उसने स्पष्ट किया कि वह उच्च न्यायालयों के फैसलों में दख़ल नहीं देना चाहता। बता दें सेवानिवृत्ति से पहले तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने कहा था कि हम इस मुद्दे पर राष्ट्रीय योजना देखना चाहते हैं।

एक टीका, तीन क़ीमतें
इन दिनों इस बात की काफी चर्चा रही है कि एक ही देश में एक ही चीज़ो के तीन क़ीमतें क्यों और कैसे हो सकती हैं? बता दें कि सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने अपने कोविड ड्रग कोविशिल्ड (कोरोना टीका) के लिए मूल्य संशोधित करके टीके की तीन अलग-अलग क़ीमतें रखीं। केंद्र सरकार के लिए इस टीके की क़ीमत 150 रुपये, राज्य सरकारों के लिए 400 रुपये और निजी अस्पतालों के लिए 600 रुपये में देने की बात हुई। इस पर देश भर से केंद्र सरकार से सवाल पूछे जाने लगें, टिप्पणियाँ की जाने लगीं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी प्रधानमंत्री को नाराजगी भरा एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने कहा- ‘इस अभूतपूर्व समय में भारत सरकार लोगों के दु:ख से मुनाफाख़ोरी करने वालों को कैसे अनुमति दे सकती है? ऐसे समय में जब चिकित्सा संसाधन दुर्लभ हैं। अस्पताल के बेड अनुपलब्ध हैं। ऑक्सीजन की आपूर्ति और आवश्यक दवा की उपलब्धता ते ज़्ाी से घट रही है। आपकी सरकार ऐसी नीति की अनुमति क्यों दे रही है? जो इस तरह की असंवेदनशीलता को दोहराती है।’ सार्वजनिक आलोचना के बाद अब एसआईआई ने कोविशिल्ड की क़ीमतें राज्यों को 300 रुपये प्रति ख़ुराक कर दी। वहीं भारत बायोटेक को-वैक्सीन को 400 रुपये प्रति ख़ुराक बेचेगा, जिसका भाव पहले 600 रुपये घोषित था। दोनों कम्पनियाँ केंद्र को 150 रुपये प्रति ़खुराक पर वैक्सीन बेचेंगी। हालाँकि सरकारी स्तर पर अभी तक लोगों को मुफ्त कोरोना टीका लगता रहा है और आगे भी इसकी उम्मीद की जा रही है। सरकार ने भी शुरू में मुफ्त टीकाकरण का वादा देशवासिययों से किया था। बता दें अब देश में 18 साल आयुवर्ग से ऊपर के लोगों को तीसरे चरण का टीकाकरण शुरू हो चुका है। इधर एसआईआई के प्रमुख अदार पूनावाला ने आरोप लगाया है कि वैक्सीन को लेकर भारत के कई शक्तिशाली लोग उन्हें परेशान कर रहे हैं। विदित हो कि पूनावाला को हाल ही में केंद्र सरकार ने वाई श्रेणी की सुरक्षा भी मुहैया करवायी है।

प्रधानमंत्री पर अविश्वास के बादल
यह देश के प्रधानमंत्री पद का सबसे बड़ा अपमान है कि न केवल आम लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अविश्वास जताने लगे हैं, बल्कि अमेरिका जैसे देश ने प्रधानमंत्री राहत कोश में सहायता न भेजने की बात कहकर सीधे भारत के राज्यों को मदद देने की बात कही है। यह पहली बार है, जब देश के प्रधानमंत्री को बड़ी तादाद में लोग सीधे पत्र लिखकर उनसे प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने की माँग कर रहे हैं। इतना ही नहीं, उन्हें उनके ट्वीटर हैंडल पर जाकर भी लोग खरी-खोटी सुना रहे हैं। प्रधानमंत्री इस बात को ख़ुद कह चुके हैं कि लोग उन्हें गालियाँ देते हैं। प्रधानमंत्री से सवाल यह है कि आ खर ऐसा क्यों हो रहा है? क्या इससे पहले किसी प्रधानमंत्री के साथ लोगों का ऐसा अभद्र व्यवहार देखने को मिला? आख़िर इस सबके लिए सही मायने में ज़्िाम्मेदार कौन है? देश के प्रधानमंत्री पर, जिस पद की हर कोई इज़्ज़त करता है; अविश्वास के यह बादल क्यों मँडरा रहे हैं?

5जी टेस्टिंग से हो रहीं मौतें?

कुछ जानकार मान रहे हैं कि लोग कोरोना से नहीं, बल्कि 5जी परीक्षण (टेस्टिंग) की वजह से मर रहे हैं। सोशल मीडिया पर इन दिनों ‘5जी की टेस्टिंग बन्द करो, इन्सानों को बचाओ’ शीर्षक से और इस तरह की दूसरी पोस्ट डालकर अभियान चलाये जा रहे हैं। कुछ लोग देश भर में हर रो ज़्ा अनगिनत मौतों के लिए कोरोना महामारी को नहीं, बल्कि 5जी परीक्षण को ज़िम्मेदारी बता रहे हैं। बताया जा रहा है कि सिम्टम्स ऑफ 5जी नेटवर्क रेडिएशन में घर में हर जगह हल्का-सा करंट महसूस हो रहा है। गला का कुछ ज़्यादा ही सूख रहा है और प्यास ज़्यादा लग रही है। नाक में कुछ पपड़ी जैसा जम रहा है और कई बार पपड़ी में ख़ून भी दिख रहा है। कुछ विशेषज्ञ यह भी कह रहे हैं कि अगर आपके साथ वास्तव में ऐसा हो रहा है, तो समझ लीजिए कि इस हानिकारक 5जी नेटवर्क रेडिएशन का हमारे ऊपर प्रतिकूल प्रभाव पडऩे लगा है। हाल ही में कुछ पक्षियों के मरने की ख़बरें भी सोशल मीडिया पर आ रही हैं, जिसकी वजह भी 5जी परीक्षण को बताया जा रहा है। एक अख़बार में छपी ख़बर भी वायरल हो रही है, जिसमें समाज सेविका शशि लूथरा ने सरकार से गुज़ारिश की है कि वह 5जी परीक्षण बन्द कराये, क्योंकि इससे लोग मर रहे हैं। उन्होंने साफ कहा है कि जिसे लोग कोरोना वायरस की दूसरी लहर कह रहे हैं, वह 5जी टॉवरों की वजह से फैली महामारी है। ये टॉवर हवा को ज़हरीली बना रहे हैं। सरकार इस पर ख़ामोश है। पता नहीं क्यों? ‘तहलका’ का मानना है कि केंद्र सरकार को 5जी टेस्टिंग को लेकर अपना मत स्पष्ट करना चाहिए; ताकि लोगों में भ्रम न फैले।

नतीजों का राष्ट्रीय असर क्या होगा?

 

बंगाल के नतीजे राष्ट्रीय राजनीति पर व्यापक असर डाल सकते हैं। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, बंगाल की हार से भाजपा के भीतर जबरदस्त हलचल है। आरएसएस भी इन नतीजों से बेहद निराश है। मोदी-शाह की जोड़ी ने जिस तरह हाल के वर्षों में भाजपा और सरकार को अपने मुताबिक चलाया है, उससे पार्टी के भीतर असहमति के स्वर मज़बूत हो सकते हैं। भाजपा के एक वर्ग में यह तक कहा जाता है कि कहने को जगत प्रकाश नड्डा भाजपा के अध्यक्ष हैं, लेकिन असली ता़कत अभी भी दिग्गज अमित शाह के ही पास है। राज्यों में भाजपा के लगातार चुनाव हारने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को लेकर भी सवाल उठ सकते हैं। अपनी मज़बूती के दिनों में इंदिरा गाँधी 70 और 80 के दशक में केंद्र ही नहीं, राज्यों में भी कांग्रेस को अपनी लोकप्रियता के बूते लगातार जिताती रही थीं। मोदी के मामले में यह नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उनके व्यापक चुनाव प्रचार के बावजूद भाजपा ने हाल के महीनों में कई राज्य खोये हैं या भाजपा को बहुमत के लाले पड़े हैं।

राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से इसकी शुरुआत हुई थी, जहाँ कांग्रेस ने उसे सन् 2018 के आ़िखर में हरा दिया था। भाजपा में एक ऐसा मज़बूत दल है, जो पिछले कुछ महीनों से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को मोदी के विकल्प के रूप में अप्रत्यक्ष रूप से पेश कर रहा है। आरएसएस भी योगी पर मोहित रहा है। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी तो आरएसएस के सबसे ज़्यादा पसंदीदा लोगों में हैं। ता़कतवर गृह मंत्री की छवि बनाने वाले अमित शाह को भी दो साल से पार्टी का एक वर्ग मोदी का विकल्प बता रहा है। सोशल मीडिया में इस तरह के सन्देश भरे रहते हैं। अब सवाल यह है कि क्या मोदी के नेतृत्व को लेकर भाजपा के बीच चुनौती उभर सकती है? इसका जवाब हाँ और न दोनों में दिया जा सकता है। भाजपा के नेताओं में सत्ता का जैसा मोह हाल के वर्षों में दिखा है, उससे उनमें यदि यह भावना पनपती है कि मोदी अब उन्हें चुनाव नहीं जिता सकते, तो उनका मोदी से मोह भंग हो सकता है। यहाँ एक बड़ा तथ्य यह भी है कि जब देश में अप्रैल के दूसरे पखवाड़े में कोरोना वायरस की भीषणता सामने आयी और लोगों को ऑक्सीजन तथा बिस्तरों (बेड्स) के लाले पड़ गये, तब तक बंगाल के तीन चरणों को छोडक़र बा़की सभी राज्यों में मतदान हो चुका था। लिहा केंद्र सरकार की इस नाकामी का असर उन राज्यों में नहीं पड़ा है। हाल के हालात के बाद देश का एक बड़ा तब़का मोदी सरकार के ख़िला़फ हुआ दिख रहा है। ज़ाहिर है इसका असर आने वाले महीनों में दिखेगा। भाजपा को यह बड़े पैमाने पर नु़कसान कर सकता है। यह इकलौता ऐसा मुद्दा है, जिसमें पिछले चार साल में मोदी सरकार, उसके समर्थक और समर्थक मीडिया व सोशल मीडिया सरकार को आलोचना से बचा नहीं पाये हैं। मोदी के कट्टर समर्थक भी केंद्र सरकार की ऑक्सीजन और बिस्तरों को उपलब्ध करवाने में नाकामी पर प्रधानमंत्री से नाराज़ दिख रहे हैं और खुलकर उनके ख़िला़फ बोल रहे हैं; जो कि बड़ी बात है। कांग्रेस में यही स्थिति आज है। कांग्रेस अध्यक्ष के लिए एक-दो महीने में चुनाव होने हैं। एक भी राज्य नहीं जीत पाने के कारण कांग्रेस के भीतर जी-23 गुट सक्रिय हो सकता है। ऐसा नहीं है कि असम और केरल में कांग्रेस का स़फाया ही हो गया है। हार के बावजूद उसे या उसके गठबन्धन को बंगाल को छोडक़र अन्य जगह अच्छी सीटें मिली हैं। बंगाल में कारण अलग रहे हैं। क्योंकि वहाँ वाम-कांग्रेस वोट भाजपा को हारने के लिए ममता के साथ जुड़ गया। निश्चित ही यह अस्थायी स्थिति है और अगले लोकसभा चुनाव में विधानसभा जैसे नतीजे नहीं रहेंगे।

कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने ममता बनर्जी को जीत की बधाई देते हुए कहा- ‘भाजपा को हराने के लिए ममता बनर्जी और बंगाल की जनता को बधाई।’ यह माना जाता है कि कांग्रेस ने भाजपा को रोकने के लिए एक रणनीति के तहत सघन प्रचार नहीं किया। राहुल जैसा नेता सि़र्फ एक बार बंगाल गया। हालाँकि दोनों दलों को ज़मीन पर मज़बूत होने के लिए काम तो करना ही होगा। देखना होगा कि कांग्रेस के भीतर अब क्या स्थिति बनती है? अभी तक तो यही सम्भावना है कि राहुल गाँधी अध्यक्ष बनेंगे। यदि विरोध का दायरा बड़ा हुआ, तो कांग्रेस प्रियंका गाँधी को आगे कर सकती है। इसकी का़फी सम्भावना है। लेकिन असली नज़र नाराज़ नेताओं के रु़ख पर रहेगी। यह नेता पिछले कुछ समय से नेतृत्व को लेकर सवाल उठा रहे हैं और चाहते हैं कि तत्काल पूर्ण अवधि का अध्यक्ष बनाया जाए। निश्चित ही कांग्रेस को भविष्य में ख़ुद को ज़मीन पर मज़बूत करना है, तो उसे एक नेता के साथ जनता के सामने आना होगा। साथ ही संगठन की पूरी ओवरहॉलिंग करनी होगी। तेज़-तर्रार नेताओं को राज्यों में कमान सौंपनी होगी और केंद्रीय स्तर पर भी ज़मीन से जुड़े नेताओं को नेतृत्व के साथ एक टीम के रूप में जोडऩा होगा। बंगाल के नतीजों के बाद ग़ैर-भाजपा दल अब ममता बनर्जी के पीछे दिख रहे हैं।

मैं इस ऐतिहासिक जीत के लिए लोगों को धन्यवाद देती हूँ। बंगाल की जनता ने भाजपा को हराकर देश को तोह़फा दिया है। सरकार सँभालते ही मैं कोरोना वायरस के ख़िला़फ तत्काल जंग की शुरुआत कर दूँगी। कोरोना की वजह से शपथ ग्रहण समारोह बेहद सामान्य होगा। भाजपा चुनाव हार गयी है; वो गन्दी राजनीति करते हैं।’’

– ममता बनर्जी, टीएमसी नेता एवं मुख्यमंत्री, बंगाल  

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजों का असर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव और 2024 में होने वाले आम चुनाव पर भी पड़ेगा। देश के लोग केंद्रीय नेतृत्व में बदलाव चाहते हैं।

– यशवंत सिन्हा टीएमसी उपाध्यक्ष, पूर्व केंद्रीय मंत्री