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सिद्धू जल्द करेंगे पंजाब में अपनी नई टीम की घोषणा

नवजोत सिंह सिद्धू गिले शिकवे ख़त्म करके काम पर लौट आये और पंजाब की  कांग्रेस सरकार भी पटड़ी पर लौट आई। चुनाव से पहले पंजाब कांग्रेस के भीतर यदि कोई नया विवाद पैदा नहीं हुआ तो पार्टी की विधानसभा चुनाव के लिए तैयारी अब जोर पकड़ने वाली है। काफी दिन तक कोपभवन में बैठने के बाद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सिद्धू के मंगलवार से कांग्रेस दफ्तर आना शुरू करने के बाद पार्टी की गतिविधियों ने गति पकड़ ली है। वे जल्दी ही अपनी नई टीम घोषणा करेंगे।

सिद्धू ने दफ्तर में दोबारा जिम्मा सँभालने के बाद कहा कि कांग्रेस राज्य में एक महीने के भीतर अपनी ताकत दिखा देगी। मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी अपनी सरकार के कामों पर बराबर नजर रखे हुए हैं और हाल के हफ़्तों में उन्होंने कई फैसले किये हैं। उनकी सक्रियता से साफ़ जाहिर होता है कि वे पंजाब में दोबारा पार्टी की सरकार लाने के लिए मेहनत कर रहे हैं। राज्य में विपक्षी अकाली दल, भाजपा और आप , हालांकि, चन्नी सरकार को नाकाम बता रहे हैं और उनका आरोप है कि सीम और अन्य पार्टी की भीतरी लड़ाई में उलझे हैं।

यह समझा जाता है कि कांग्रेस आलाकमान ने सिद्धू को नई टीम बनाने की मंजूरी दे दी है। सिद्धू जल्द ही इसकी घोषणा करेंगे। साथ ही पार्टी चुनाव कार्यक्रमों और प्रचार कमेटियों की भी घोषणा करेगी। पंजाब कांग्रेस के नए प्रभारी हरीश चौधरी मुख्यमंत्री चन्नी और प्रदेश अध्यक्ष सिद्धू के रिश्तों में जमी बर्फ पिघलाने में सफल रहे हैं। अब पार्टी पूरा फोकस चुनाव की तैयारी पर करना चाहती है।

सिद्धू पार्टी के जिला अध्यक्षों की सूची इसी हफ्ते जारी करने वाले वाले हैं। इसके अलावा राज्य स्तर पर संगठन की बात रखने वाले प्रवक्ताओं के नाम भी लगभग तैयार कर लिए गए हैं। सिद्धू संगठन और सरकार की मिली जुली ताकत के साथ जनता के बीच जाना चाहते हैं। उनका यह भी कहना है कि जनता से लफ्फाजी वादे नहीं किये जाने चाहिएं।

पार्टी दफ्तर में जिम्मा सँभालने के बाद सिद्धू ने कल कहा था कि ‘पंजाब उस मुकाम  पर खड़ा है, जहां हम सबसे ज्यादा कर्ज वाले राज्य हैं। गोवा में प्रति व्यक्ति पूंजीगत खर्च 14000 रुपये, हरियाणा में 6000 रुपये है जबकि राष्ट्रीय औसत 3500 रुपये हैं। लेकिन पंजाब में यह महज 870 रुपये है जिसे बढ़ाने की सख्त ज़रुरत है। आत्मनिर्भरता से ही यह मुकाम हासिल किया जा सकता है। सिद्धू इस बात पर जोर दे रहे हैं कि पंजाब को अपने पांव पर खड़ा होना होगा। कर्ज की पीठ पर बैठकर पंजाब तरक्की का आसमान नहीं छू सकता।

सिद्धू विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी प्रत्याशियों के नाम तय करने की प्रक्रिया भी जल्द शुरू करने वाले हैं। हालांकि, संभावना यही है कि यह प्रक्रिया लम्बी चलेगी। प्रदेश में पार्टी टिकट के तलबगारों की संख्या इतनी ज्यादा है कि सिद्धू के लिए अंतिम चयन आसान काम नहीं रहेगा। लिहाजा लग यही रहा है कि चुनाव की घोषणा की आसपास कांग्रेस प्रत्याशियों के नाम घोषित करेगी। सिद्धू यह ज़रूर कह रहे हैं कि उम्मीदवारों का चयन मेरिट के आधार पर ही होगा। अंतिम मुहर पार्टी आलाकमान ही लगाएगी।

पार्टी शायद किसी एक चेहरे को मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर आगे नहीं करेगी। आलाकमान चाहती है कि पार्टी इस मामले में उलझने की जगह पूरी ताकत से चुनाव की तैयारी करे। चुनाव बाद मुख्यमंत्री का फैसला किया जाए। वैसे चूँकि चन्नी सीएम  और सिद्धू पार्टी अध्यक्ष हैं,  पार्टी के लिए किसी एक को आगे करके चुनाव लड़ना आसान होगा भी नहीं।

वायु प्रदूषण के चलते बीड़ी सिगरेट का सेवन खतरनाक

अगर राजधानी दिल्ली–एनसीआर में वायु प्रदूषण का कहर ऐसा ही बढ़ता रहा तो आने वाले दिनों में शायद ही कोई घर बचें। जिसको सांस लेने में दिक्कत सहित वायु प्रदूषण से जुड़ी बीमारी ना हो।

यह जानकारी दिल्ली सरकार के स्टेट प्रोग्राम आँफीसर एवं एडशिनल एम एस (जी आई पी ई आर) के डाँ भारत भूषण ने दी। उन्होंने बताया कि, दिल्ली में सांस लेने में दिक्कत और आँखों में जलन के कारण लोगों को घर से निकलने में दिक्कत हो रही है। जिसमें सबसे अधिक बच्चें है।

डाँ भारत भूषण का कहना है कि, दिल्ली–एनसीआर में कोरोना, डेंगू और प्रदूषित कहर से लोगों में बैचेनी देखी जा रही है। उन्होंने कहा कि बचाव के तौर पर सलह दी जाती है कि घर पर रहे। साथ ही घर से निकलते ही मास्क अवश्य लगाये। डाँ भारत भूषण का मानना है। प्रदूषण अब सलाना संकट के तौर पर लोगों के जीवन में जहर घोल रहा है। जिसमें सबसे ज्यादा बच्चें प्रभावित हो रहे है।

क्योंकि दिल्ली में सरकारी हो या निजी अस्पताल कोरोना और डेंगू के बाद अगर सबसे ज्याजा मरीज जो आ रहे है। वो दमा अस्थमा और सांस रोग से पीड़ित मरीज है।

उन्होंने आगे कहा कि, जो लोग तम्बाकू , बीड़ी और सिगरेट का सेवन करते है। वो इस मौसम में बिल्कुल भी सेवन ना करें। क्योंकि इससे उनके स्वास्थ्य पर एक साथ दो–तरफा नुकसान हो सकता है। क्योंकि ज्यादात्तर नशें का सेवन इसलिये करते है।

कुछ लोग सिगरेट का सेवन केवल टेंशन को कम करने के लिए करते है। जबकि इससे ना तो टेंशन कम होती है। बल्कि, शरीर में कैंसर जैसी गंभीर बीमारी का खतरा बढ़ जाता है।

गतिरोध के बीच गति हासिल करता किसान आन्दोलन

यह 27 नवंबर, 2020 का दिन था, जब केंद्र सरकार के बनाये गये तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में ‘दिल्ली चलो’ के आह्वान पर किसान दिल्ली की सीमाओं की ओर रवाना हो गये। मौसम की बेरूख़ी, कड़ाके की ठण्ड, बारिश, भीषण गर्मी, पुलिस की कार्रवाई और कोरोना वायरस महामारी, निजी नुक़सान और यातनाओं के बावजूद किसानों ने अपनी सम्पत्ति और परिजनों के संकट में होने के बावजूद आन्दोलन जारी रखा है। किसानों के इस संघर्ष को लेकर बता रहे हैं सविंदर बाजवा :-

किसान आन्दोलन चरम पर है। किसानों के दबाव में पंजाब, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, केरल, छत्तीसगढ़ और दिल्ली की राज्य सरकारें इन तीन विवादास्पद क़ानूनों के विरोध में पहले ही प्रस्ताव पारित कर चुकी हैं। किसानों ने साफ़ सन्देश दिया है कि वे एक लम्बी लड़ाई के लिए तैयार हैं और अगर तीन विवादित क़ानूनों को निरस्त नहीं किया गया, तो वे आन्दोलन को और बढ़ाने के लिए तैयार हैं। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में चार किसानों और एक पत्रकार की हत्या, सैकड़ों की संख्या में प्रदर्शनकारियों की मौत और किसानों पर सरकार के दुश्मनों जैसे बर्ताव वाली घटनाएँ भी उनका हौसला नहीं तोड़ पायी हैं। हर गुज़रते दिन के साथ प्रदर्शनकारी किसानों को समाज के अधिकाधिक वर्गों का समर्थन मिल रहा है।

किसान आन्दोलन के लिए 26 नवंबर का दिन ख़ास है; क्योंकि एक साल पहले इसी दिन उनका आन्दोलन दिल्ली की सीमाओं से शुरू हुआ था। अब एक साल बाद सत्ता में बैठे उन मठाधीशों को गहन निराशा हुई है, जो यह मान कर चल रहे थे कि यह आन्दोलन बीच में ही टूट जाएगा। हक़ीक़त में हुआ यह है कि दबाव और प्रताडऩा के तमाम हथकंडे अपनाये जाने के बावजूद किसान आन्दोलन समय के साथ और ताक़त हासिल करता गया है। आन्दोलनों के इतिहास में यह किसान आन्दोलन अब तक का सबसे लम्बे विरोध वाला आन्दोलन में बन चुका है।

अब संयुक्त किसान मोर्चा ने घोषणा की है कि आन्दोलन का एक साल पूरा होने पर इसी 29 नवंबर से 500 चुनिंदा किसान हर दिन संसद की ओर कूच (मार्च) करेंगे। संसद मार्च 29 नवंबर से शुरू होने वाले संसद के शीतकालीन सत्र के साथ प्रारम्भ होगा। संसद का शीतकालीन सत्र 23 दिसंबर तक चलेगा।

संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) ने विभिन्न राज्यों के किसानों से अपने-अपने राज्यों की राजधानियों में महापंचायत आयोजित करने का भी आग्रह किया है। इस बीच पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश के किसान महापंचायत आयोजित करने के लिए दिल्ली की विभिन्न सीमाओं पर जुटेंगे। सिंघु बॉर्डर विरोध स्थल पर आयोजित एक बैठक के दौरान आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले 40 किसान संघों के एक छत्र निकाय एसकेएम ने ये फ़ैसले किये हैं। ये कार्यक्रम पूरे भारत में ‘बड़े पैमाने पर आन्दोलन’ के एक वर्ष का आयोजन किये जाने वाले कार्यक्रमों का हिस्सा हैं। एक बयान में साझा किसान संगठन ने कहा कि 29 नवंबर से संसद के शीतकालीन सत्र के आख़िरी दिन तक 500 चयनित किसान स्वयंसेवक ट्रैक्टर-ट्रॉली में हर दिन संसद परिसर के पास शान्तिपूर्वक और पूरे अनुशासन के साथ राष्ट्रीय राजधानी में विरोध करने के अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने के लिए जाएँगे। संयुक्त किसान मोर्चा ने कहा है कि यह ‘इस ज़िद्दी, असंवेदनशील, जन-विरोधी और कॉर्पोरेट समर्थक भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पर दबाव बढ़ाने के लिए’ किया जाएगा, ताकि उसे देश भर के किसानों की जायज़ माँगों को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जा सके। पिछले एक साल से यह ऐतिहासिक संघर्ष चल रहा है और तब तक जारी रहेगा, जब तक किसान न्याय हासिल नहीं कर लेते।

किसान मोर्चा ने कहा कि दिल्ली की सभी सीमाओं पर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, राजस्थान और अन्य प्रदेशों से बड़ी संख्या में किसानों को जुटाया जाएगा। उस दिन वहाँ (सीमाओं पर) विशाल जनसभाएँ होंगी। इस संघर्ष में अब तक शहीद हो चुके 650 से अधिक किसानों को श्रद्धांजलि दी जाएगी।

यह इस बात का संकेत करता है कि किसान संघर्ष का भविष्य में क्या रास्ता होगा? किसान तीनों कृषि क़ानूनों को निरस्त करने की माँग पर अडिग हैं। क्योंकि उन्हें भय है कि ये क़ानून उन्हें उनके अधिकारों और बेहतर क़ीमत की लड़ाई लडऩे से वंचित कर देंगे। साथ ही यह डर भी है कि यह क़ानून उन्हें ताक़तवर कॉर्पोरेट की दया पर छोड़ देंगे। उन्हें यह डर भी सता रहा है कि क़ानून उनकी फ़सलों की ख़रीद के लिए मिलने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य को ख़त्म करने का रास्ता खोल सकते हैं। यह आन्दोलन की बढ़ती गति का प्रमाण है कि आन्दोलन में शामिल महिलाओं, युवाओं और बुज़ुर्गों का मनोबल बहुत ऊँचा है। बड़ी बात यह है कि इस आन्दोलन में किसान परिवार की युवतियों और कई बच्चों ने भी खुले आसमान के नीचे एक लम्बा समय बिताया है और आन्दोलन में बड़ों के साथ-साथ उनकी भागीदारी लगातार और मज़बूती से बनी हुई है। हरदा के गाँव आलनपुर के किसान की बेटी छ: साल की सानिका पटेल को कोई कैसे भूल सकता है; जो खुले मंच से सरकार को अपनी एक कविता से चुनौती दो चुकी हैं। इसी साल 26 जनवरी को किसानों के दिल्ली में प्रवेश को लेकर दिल्ली की सभी सीमाओं को सील करके किसानों पर लाठियाँ बरसवाने वाली सरकार अभी से दिल्ली की सीमाओं पर एक बार फिर पुलिस और अद्र्धसैन्य बलों का पहरा बढ़ा रही है। हाल यह है कि सरकार ने पुलिस के ज़रिये दिल्ली में आने वाली कई सडक़ों पर अवरोधक लगा रखे हैं, जबकि जनता में यह ख़बर फैलाने की लगातार कोशिशें की गयी हैं कि किसान सडक़ों को जाम करके बैठे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भी जब किसानों पर सडक़ें घेरकर बैठने का आरोप लगाया, तो हृदय को बड़ा आघात पहुँचा। मैं लगातार दिल्ली की सीमाओं पर जहाँ-जहाँ किसान बैठे हैं, जाता रहा हूँ। किसानों ने इस तरह का कोई अवरोध पैदा नहीं किया है। इस बात के प्रमाण भी कैमरों में कैद हो चुके हैं। सरकार अब भी कोशिश में है कि किसी तरह किसान आन्दोलन खत्म हो; लेकिन सच तो यह है कि इस आन्दोलन के धीमा होने के कोई संकेत नहीं दिखते और इसका एक साल पूरा होने के दिन फिर ‘दिल्ली चलो’ का आह्वान इसे और गति दे सकता है।

पर्यावरण की मार

एक बड़े ख़तरे के रूप में उभर रहा जलवायु परिवर्तन

जलवायु परिवर्तन दुनिया में एक बड़े ख़तरे के रूप में देखा जा रहा है, जिस पर दुनिया के सभी देशों में चिन्ता है। विभिन्न रिपोर्ट्स में भी भविष्य में इससे सम्भावित बड़े ख़तरों के प्रति सचेत किया गया है। हाल में स्कॉकटलैंड के ग्लास्गो में कॉप-26 सम्मेलन में दुनिया भर के नेताओं ने इस विषय पर सम्बोधन में अपने देशों में किये जा रहे प्रयासों और पर्यावरण विशेषज्ञों ने स्थिति को सँभालने वाले तरीक़ों का ज़िक्र एंव गहन मंथन किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेता ‘पंचामृत’ का मंत्र देकर और भारत के साल 2070 तक ‘नेट ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन’ लक्ष्य हासिल करने की प्रतिबद्धता जताकर पर्यावरण की गम्भीरता से पूरी दुनिया को आगाह करने की कोशिश की। ज़मीन पर जलवायु परिवर्तन की स्थिति पर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट:-

क्या जलवायु परिवर्तन दुनिया में अब रोगों की जड़ का सबसे बड़ा कारक बनने जा रहा है? शायद हाँ!

दुनिया भर में पहली बार किसी चिकित्सक ने एक महिला के रोग का कारण उसकी अस्पताल की पर्ची में आधिकारिक रूप से ‘जलवायु परिवर्तन’ लिखा है। घटना कनाडा की है, जहाँ इसी 8 नवंबर को 70 साल की एक महिला की बीमारी को जलवायु परिवर्तन के कारण हुई बीमारी बताया गया है। दिलचस्प संयोग यह है कि यह मामला तब सामने आया, जब स्कॉटलैंड के ग्लास्गो में जलवायु परिवर्तन पर कॉप-26 के अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में दुनिया भर के दिग्गज पर्यावरण को बचाने को लेकर रूपरेखा तैयार कर रहे थे। घटनाएँ बताती हैं कि प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन दुनिया को संकट के किस मोड़ पर खड़ा कर चुका है।

हाल के वर्षों में पर्यावरण को महत्त्व तो मिलना शुरू हुआ है; लेकिन इसके बावजूद यह दुनिया के ज़्यादातर देशों में राजनीतिक कार्यसूची (एजेंडा) नहीं बन पाया है। दूसरे, विकासशील देश समझते हैं कि विकसित देश कार्बन उत्सर्जन में उनसे कहीं आगे हैं। लेकिन जब भी पर्यावरण पर अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन होते हैं, तो विकसित देश हर समस्या का ठीकरा विकासशील देशों पर थोप देते हैं। इसे लेकर तनाव ग्लास्गो के कॉप-26 सम्मलेन में भी दिखा। भारत की तरफ़ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सम्मलेन में शिरकत की और पाँच तत्त्वों को ‘पंचामृत’ का मंत्र देकर यह साफ़ किया कि अगर इनकी आज क़द्र नहीं की और इन्हें स्वच्छ नहीं रखा गया, तो आने वाले समय में और बड़े ख़तरों से दो-चार होना पड़ेगा। प्रधानमंत्री ने इस दौरान भारत में कार्बन उत्सर्जन को लेकर चिन्ताओं और भविष्य में किये जाने वाले अपने प्रयासों का भी ज़िक्र किया।

कॉप सम्मेलन-26में कई मुद्दे उठे। इनमें सबसे ज़्यादा चिन्ता लगातार बढ़ते तापमान पर जतायी गयी। बता दें जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कन्वेन्शन के ताज़ा आँकड़ों के मुताबिक, मौज़ूदा राष्ट्रीय निर्धारित योगदानों के परिणामस्वरूप अब भी 2.7 डिग्री सेल्सियस डिग्री की विनाशकारी तापमान वृद्धि होगी। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटेरेश ने सम्मलेन में कहा कि पिछले कुछ दिन में जो घोषणाएँ की गयी हैं, उन्हें देखते हुए अभी यह कहना मुश्किल है कि इस समय दुनिया की क्या स्थिति है। लेकिन वह इस बारे में ज़रूर आश्वस्त हैं कि जी20 देशों की तरफ़ से और ज़्यादा महत्त्वाकांक्षा की ज़रूरत है, जो कि कुल कार्बन प्रदूषण के लगभग 80 फ़ीसदी हिस्से के लिए ज़िम्मेदार हैं।

1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य

सम्मलेन का लब्बोलुआब यह था कि तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का युद्ध इसी दशक के दौरान जीता या हारा जाएगा। गुटेरेश ने अपने सम्बोधन में धनराशि लक्ष्य की बात भी कही। उन्होंने चेतावनी भरे शब्दों में कहा- ‘यह लक्ष्य साल 2023 तक तो पूरा होने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे हैं, और उसके बाद के समय के लिए भी अतिरिक्त धनराशि की ज़रूरत होगी। मैं इस अपर्याप्त धनराशि की तुलना, ख़बरों डॉलर की उस धनराशि के साथ कर रहा हूँ, जो इस लक्ष्य की प्राप्ति को सम्भव बनाने के लिए दुनिया भर के देशों से और ज़्यादा कार्रवाई की ज़रूरत है। हाल में आईपीसीसी की जलवायु परिवर्तन पर रिपोर्ट जारी होने के बाद संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने इसे मानवता के लिए कोड रेड की संज्ञा दी थी। दुनिया में जलवायु परिवर्तन पर हाल में आयी संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट भी कई ख़तरों के तरफ़ आगाह करते हैं।

जलवायु परिवर्तन से जुड़े विज्ञान पर वयापक विश्लेषण वाली इस रिपोर्ट में साफ़ कहा गया था कि पृथ्वी की औसत सतह का तापमान साल 2030 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा और यह बढ़ोतरी पूर्वानुमान से एक दशक पहले ही होने जा रही है, जो कि बेहद चिन्ताजनक है।

सम्मलेन में कार्बन उत्सर्जन सबसे बड़ा विषय बना रहा। दुनिया के कई बड़े कार्बन उत्सर्जक देश घोषणा कर चुके हैं कि साल 2050 तक वो कार्बन उत्सर्जन के मामले में तटस्थ (न्यूट्रल) हो जाएँगे। यहाँ तक कि चीन ने साल 2060 तक के लिए अन्तिम तिथि तय की हुई है। वहीं भारत ने कहा है कि वह सन् 2005 के स्तर के हिसाब से 2030 तक 33-35 फ़ीसदी कार्बन उत्सर्जन कम करेगा।

रिपोर्ट के आधार पर संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि भूमण्डलीय ऊष्मीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) बहुत तेज़ी से हो रहा है और इसके लिए साफ़तौर पर मानव जाति ही ज़िम्मेदार है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बढ़ते तापमान से दुनिया भर में मौसम से जुड़ी भयंकर आपदाएँ आएँगी। दुनिया पहले ही बर्फ़ की चादरों के पिघलने, समुद्र के बढ़ते स्तर और बढ़ते अम्लीकरण में अपरिवर्तनीय बदलाव झेल रही है। वायुमण्डल को गर्म करने वाली गैसों का उत्सर्जन जिस तरह से जारी है, उसकी वजह से सिर्फ़ दो दशक में ही तापमान की सीमाएँ टूट चुकी हैं। यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि इस शताब्दी के अन्त तक समुद्र का जलस्तर लगभग दो मीटर तक बढ़ सकता है।

सम्मलेन में जलवायु और पर्यावरण पर चर्चा के दिन संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की नयी रिपोर्ट में ख़ुलासा किया कि जलवायु परिवर्तन अनुकूलन के लिए नीतियाँ और योजनाएँ बढ़ तो रही हैं; लेकिन वित्त और क्रियान्वयन अब भी पीछे हैं। अनुकूलन अन्तर रिपोर्ट-2021 में जलवायु वित्त तेज़ी से बढ़ाने और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों से निपटने के लिये त्वरित कार्यवाही करने की पुकार भी लगायी गयी है।

यूएनईपी की कार्यकारी निदेशक इन्गेर ऐण्डर्सन ने इसे लेकर कहा कि दुनिया, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के लिए प्रयास बढ़ाती तो नज़र आ रही है; लेकिन ये प्रयास कहीं से भी बहुत मज़बूत नज़र नहीं आ रहे हैं। दुनिया को ख़ुद को जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ढालने की ख़ातिर तीव्र गति से बदलाव करने होंगे।

एण्डर्सन ने कहा कि अगर देश कार्बन उत्सर्जन को आज ही बिल्कुल बन्द कर दें, तो भी आने वाले कई दशकों तक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव जारी रहेंगे। उन्होंने कहा कि हमें जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुक़सान महत्त्वपूर्ण तरीक़े से कम करने की ख़ातिर अनुकूलन महत्त्वकांक्षा और वित्त और क्रियान्वयन में बहुत तेज़ी से बदलाव करने होंगे; और हमें यह अभी करना होगा।

यह रिपोर्ट पेरिस जलवायु समझौते के प्रावधानों के अनुरूप वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के सामूहिक प्रयासों का एक हिस्सा है। वर्तमान आँकड़ों के मुतबिक, दुनिया इस सदी के अन्त तक तापमान वृद्धि 2.7 डिग्री सेल्सियस रहने के रास्ते पर चल रही है। यहाँ तक कि अगर पेरिस जलवायु समझौते के अनुरूप, तापमान वृद्धि को 1.5 या 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर लिया जाता है, तो भी जलवायु परिवर्तन के बहुत-से जोखिम रहेंगे। यूएन पर्यावरण कार्यक्रम का कहना है कि अगर कार्बन उत्सर्जन की मात्रा और उसमें कमी लाने के लिए की जा रही कार्र्यवाही के बीच बहुत बड़े अन्तर की खाई को और ज़्यादा फैलने से रोकना है, तो विशेष रूप में जलवायु वित्त और अनुकूलन के लिए ज़्यादा महत्त्वाकांक्षाएँ पालने की ज़रूरत है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि इस दशक के अन्त तक जलवायु अनुकूलन की लागत प्रतिवर्ष 140 से 300 अरब डॉलर के आसपास रहने का अनुमान है और उसके बाद यह 2050 तक 280 से 500 अरब डॉलर प्रतिवर्ष होगी। दुनिया भर के देश कोरोना महामारी से उबरने के आर्थिक प्रयासों में हरित आर्थिक विकास को प्राथमिकता देने का अवसर गँवा रहे हैं। रिपोर्ट कहती है कि हरित आर्थिक प्रगति, सूखा, जंगली आग और बाढ़ जैसे जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी प्रभावों के लिए अनुकूलन करने में भी मदद करती है। जून तक जिन 66 देशों के हालात का अध्ययन किया गया उनमें से एक-तिहाई से भी कम देशों ने कोरोना महामारी का सामना करने के उपायों में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को शामिल किया।

सम्मलेन में वित्तीय घोषणाएँ

संयुक्त राष्ट्र के जलवायु सम्मेलन कॉप-26 में दूसरा दिन वित्तीय घोषणाओं का रहा। इनमें सबसे बड़ी घोषणा थी कि दुनिया भर की लगभग 500 वित्तीय संस्थाओं और संगठनों द्वारा पेरिस जलवायु समझौते के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए 130 ट्रिलियन (130 लाख करोड़ रुपये) की धनराशि जुटाने पर सहमति बनी। इन लक्ष्यों में तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना भी शामिल है और यह धनराशि दुनिया की कुल वित्तीय सम्पदाओं का लगभग 40 फ़ीसदी हिस्सा है।

जलवायु कार्रवाई और वित्त के लिए संयक्त राष्ट्र के विशेष दूत मार्क कार्नी ने नैट शून्य के लिए ग्लासगो वित्तीय गठबन्धन को इकट्ठा किया है। यह गठबन्धन बैंकों हस्तियों, बीमा कम्पनियों की हस्तियों और निवेशकों का एक ऐसा समूह है, जिन्होंने जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को अपने कामकाज के केंद्र में रखने का संकल्प व्यक्त किया है।

मार्क कार्नी ने कॉप-26 के जलवायु वित्त कार्यक्रम के दौरान, प्रतिनिधियों से दो टूक कहा कि आज मुख्य सन्देश यह है कि धन मौज़ूद है। बदलाव के लिए धन मौज़ूद है। बैंक ऑफ  इंग्लैंड के पूर्व गवर्नर मार्क कार्नी ने ज़ोर देकर कहा कि वह नैट शून्य के मुद्दे को नयी वित्तीय व्यवस्था के एक अति महत्त्वपूर्ण ढाँचे के रूप में देखते हैं।

इसके अलावा 5 नवंबर को ग्लास्गो में ‘युवजन’ का आयोजन किया गया। हज़ारों प्रदर्शनकारियों ने सडक़ों पर उतर कर जलवायु कार्रवाई के समर्थन में प्रदर्शन किया। उस दिन ग्लासगो के इस केंद्रीय इलाक़े में हम क्या चाहते हैं? जलवायु न्याय! हम यह कब चाहते हैं? अभी!’ जैसे नारों से गूँज उठा। विरोध-प्रदर्शन के दौरान एक कार्यकर्ता ने तो पोशाक पहन कर डायनासोर का रूप धारण किया। यहाँ बताया गया कि 23 से अधिक देशों में शिक्षा मंत्रियों और युवाओं ने राष्ट्रीय जलवायु शिक्षा प्रतिज्ञाएँ पेश किये हैं। इनमें शिक्षा क्षेत्र की कार्बन पर निर्भरता घटाने और स्कूल के लिए संसाधन विकास को अहम बताया गया है।

पर्यावरण समर्थक जुलूस

जब ग्लास्गो में सम्मलेन चल रहा था, वहाँ फ्राइडेज फॉर फ्यूचर नामक संस्था कार्यकर्ताओं ने बड़ा जुलूस (मार्च) निकाला। यह संस्था जानी-मानी पर्यावरण अभियानकर्ता स्वीडन ग्रेटा थनवर्ग से प्रेरित है। मार्च में सभी आयु वर्ग के लोग जियॉर्ड चौराहे पर जलवायु कार्रवाई की माँग को लेकर जुटे। यह लोग हाथों में तख़्तियाँ और बैनर थामे हुए थे और इनमें छोटे बच्चों से लेकर भावी पीढिय़ों के लिए बेहतर भविष्य की माँग करती महिलाएँ और वयस्क बड़ी संख्या में उपस्थित थे। इस मार्च में पर्यावरणविदों ने सम्बोधन भी दिये, जिनमें सबसे आख़िरी सम्बोधन थनबर्ग का रहा।

लातिन-अमेरिकी आदिवासी नेताओं ने भी प्रदर्शनों में शिरकत की। उन्होंने विश्व नेताओं तक बुलन्द आवाज़ में अपना सन्देश पहुँचाया, जिसमें कहा गया था कि संसाधनों का दोहन बन्द कीजिए और कार्बन को भूमि में ही रहने दीजिए। जियॉर्ज चौराहे के एक मंच पर जुटे कार्यकर्ताओं ने क्षोभ जताया कि आदिवासी नदियों में अपनी ज़िन्दगी गँवा रहे हैं। वे विकराल बाढ़ों में जीवन आहूत कर रहे हैं। उनके घर तबाह हो रहे हैं। भोजन, पुल, फ़सलें सभी कुछ नष्ट हो रहा है।

कुछ ऐसा ही सम्मेलन के ब्लू ज़ोन में भी दिखा। यंगगो नामक पहल के तहत 40,000 से अधिक युवा जलवायु कार्यकर्ताओं ने हस्ताक्षर किया हुआ एक ज्ञापन कॉप अध्यक्ष और अन्य नेताओं को सौंपा।

इस ज्ञापन में जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न हुई मौज़ूदा परिस्थितियों पर अनेक चिन्ताएँ जतायी गयी हैं। साथ ही जलवायु परिवर्तन मामलों पर यूएन संस्था की कार्यकारी सचिव पैट्रीशिया ऐस्पिनोसा से आग्रह किया गया है कि कॉप-26 के समापन पर घोषणा-पत्र के मसौदे में युवजन की अहमियत का भी उल्लेख किया जाए।

उन्होंने युवजन के साथ एक पैनल विचार-विमर्श में कहा कि हम इन मुद्दों और माँगों को प्रतिनिधियों के ध्यानार्थ लाएँगे; इनमें से सभी बेहद तार्किक और न्यायोचित हैं। युवा कार्यकर्ताओं द्वारा मंत्रियों को सौंपे गये इस वक्तव्य में जलवायु वित्त पोषण, आवाजाही, परिवहन, वन्य जीव रक्षा और पर्यावरण संरक्षण के लिए कार्र्यवाही का आग्रह किया गया है।

जलवायु परिवर्तन से मौतें

ख़राब मौसम के चरम पर पहुँचने की घटनाओं और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से एशिया में साल 2020 में हज़ारों लोगों की मौत हुई है। लाखों विस्थापित हुए हैं, और सैकड़ों अरब डॉलर का नुक़सान हुआ है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) और इसके साझेदार संगठनों की एक रिपोर्ट में इसका ख़ुलासा हुआ है। अध्ययन में इन आपदाओं से बुनियादी ढाँचे और पारिस्थितिकी तंत्रों पर हुए भीषण असर की पड़ताल की गयी है।

रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020 में बाढ़ और तुफ़ान की घटनाओं में एशिया में क़रीब पाँच करोड़ लोग प्रभावित हुए और पाँच हज़ार से अधिक लोगों की मौत हुई। यह आँकड़ा पिछले दो दशक के वार्षिक औसत (15 करोड़ प्रभावित और 15 हज़ार हताहत) से कम है; जो कि एशिया के अनेक देशों में समय पूर्व चेतावनी के बाद कार्यप्रणालियों की सफलता का द्योतक है। लेकिन टिकाऊ विकास पर ख़तरा मंडरा रहा है। खाद्य और जल असुरक्षा, स्वास्थ्य जोखिम और पर्यावरण क्षरण उभार पर हैं।

इस रिपोर्ट में भूमि और महासागर के तापमानों के बढऩे, हिमनदों का आकार घटने, समुद्रों में जमे पानी के सिकुडऩे, समुद्री जलस्तर बढऩे और चरम मौसम की गम्भीर घटनाओं पर जानकारी प्रदान की गयी है। यह रिपोर्ट ज़ाहिर करती है कि हिमालय की चोटियों से लेकर निचले तटीय इलाक़ों और घनी आबादी वाले शहरी इलाक़ों से लेकर रेगिस्तानों तक एशिया का हर हिस्सा जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हुआ है।

मई, 2020 में बेहद शक्तिशाली चक्रवाती तुफ़ान अम्फान से भारत और बांग्लादेश का सुन्दरवन इलाक़ा प्रभावित हुआ, जिससे भारत में 24 लाख लोग और बांग्लादेश में 25 लाख लोग विस्थापित हुए। बताया गया है कि ग्लेशियर का आकार घटने, ताज़ा और स्वच्छ हवा-पानी में कमी आने से भविष्य में एशिया में जल सुरक्षा और पारिस्थितिकी तंत्रों पर भीषण असर होने की आशंका है। भारत के लद्दाख़ हिमालय क्षेत्र में गर्मियों के दौरान पानी की कमी से निपटने के लिए कृत्रिम हिमनद (बर्फ़खण्ड) परियोजना सोनम वांगचुक के विचार पर आधारित थी।

इस रिपोर्ट में चक्रवाती तुफ़ानों, बाढ़ और सूखे से औसत वार्षिक नुक़सान सैकड़ों अरब डॉलर होने का अनुमान जताया गया है। एशिया-प्रशान्त क्षेत्र के लिए यूएन आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् द्वारा यह नुक़सान चीन में 238 अरब डॉलर, भारत में 87 अरब डॉलर और जापान में 83 अरब डॉलर आँका गया है।

एशिया के अनेक क्षेत्र में टिकाऊ विकास के 13वें लक्ष्य (जलवायु कार्यवाही) को हासिल करने के प्रयासों को झटका लगा है; क्योंकि त्वरित ढँग से सहनक्षमता निर्माण के अभाव में एसडीजी लक्ष्यों को पाने में कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है।

विकट पेड़ कटान

जलवायु परिवर्तन के इस बड़े ख़तरें की नींव मानव ने ख़ुद रखी है। प्रकृति का जमकर दोहन इसका सबसे बड़ा कारण है। इनमें वन प्रमुख हैं। जिस स्तर पर वनों को काटा गया है, उसने दुनिया के सामने गम्भीर चुनौतियाँ पेश कर दी हैं। जानकार कहते हैं कि कार्बन डाईऑक्साइड को सोखने में वनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है और इन्हीं पर हमने सबसे बड़ी चोट की है। भारत की ही बात करें, तो इसके लद्दाख़ हिमालय क्षेत्र में गर्मियों के दौरान पानी की कमी से निपटने के लिए कृत्रिम हिमनद की एक परियोजना सामने आयी, जिसके सूत्रधार सोनम वांगचुक थे।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, सन् 1990 से 2018 तक भूटान, चीन, भारत और वियतनाम ने अपने वन आच्छादित क्षेत्र का आकार बढ़ाया है; लेकिन म्यांमार, कम्बोडिया सहित अन्य देशों में इसमें कमी आयी है। ग्लोबल फारेस्ट वॉच के संस्थापक डर्क ब्राएंट का कहना है कि महज़ 20 साल के भीतर दुनिया भर के 40 फ़ीसदी कट जाएँगे। दुनिया के सबसे बड़े जंगल ओकी-फिनोकी से लेकर भारत के सुदूर उत्तर पूर्व के जंगलों को निर्दयता से काटा जा रहा है। जंगल कटने से जीव-जन्तुओं की कई प्रजाति दुनिया से विलुप्त होती जा रही हैं।

जंगल की कटाई तीसरी दुनिया के देशों में ज़्यादा है। यह वही देश हैं, जहाँ विकास की प्रक्रिया तो धीमी है; लेकिन जनसंख्या वृद्धि पर ज़ीरो हैं। इस कारण से वर्षा वन, जो प्रकृति की ख़ुबसूरत देन हैं; तेज़ी से काटे जा रहे हैं। जंगल कटने से कार्बन डाईऑक्साइड बढ़ रही है और भूमि कटान तेज़ी से हो रहा है। हिमालय पर्वत पर वन कटान से भू-क्षरण तेज़ी से हो रहा है। एक सर्वे कहता है कि हिमालयी क्षेत्र में भूक्षरण की दर प्रतिवर्ष सात मिलीमीटर तक पहुँच गयी है, जिससे कई बार 500 से 1000 फ़ीसदी तक गाद घाटियों और झीलों में भर जाती है। उत्तराखण्ड, हिमाचल और कश्मीर में हाल की तबाहियों का प्रमुख कारण जगंलों का बेहिसाब कटान है।

भारत का पंचामृत मंत्र

 2030 तक भारत अपनी ग़ैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता को 500 गीगावॉट तक पहुँचाएगा।

 2030 तक भारत अपनी 50 फ़ीसदी ऊर्जा की आवश्यकता नवीकरणीय ऊर्जा से पूरी करेगा।

 अब से लेकर 2030 तक के कुल प्रोजेक्टेड कार्बन एमिशन में एक बिलियन टन की कमी करेगा।

 साल 2030 तक अपनी अर्थ-व्यवस्था की कार्बन इंटेन्सिटी को 45 फ़ीसदी से भी कम करेगा।

 साल 2070 तक नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करेगा।

दुनिया में जलवायु परिवर्तन से बीमारी का पहला मामला आया सामने

जलवायु परिवर्तन से बीमार होने का पहला मामला कनाडा में सामने आया है। इसी महीने की 8 तारीख़ को कनाडा की 70 साल की बुज़ुर्ग महिला दुनिया की पहली महिला बन गयीं, जिनके रोग का कारण जलवायु परिवर्तन बताया गया है। इस महिला का नाम उजागर नहीं किया गया है। लेकिन ख़बरें से पता चलता है कि उसे कनाडा के कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रान्त में कूटने लेक अस्पताल में भर्ती किया गया था, जहाँ डॉ. काइल मेरिट ने उनके रोग को जलवायु परिवर्तन के कारण हुआ बताया है। डॉक्टर काइल के मुताबिक, साल के शुरू में चलीं गर्म हवाओं से यह महिला एक साथ कई स्वास्थ्य समस्याओं से घिर गयी, जिनकी हालत अब और गम्भीर हो गयी है। अस्थमा और डायबिटीज से भी पीडि़त इस महिला को साँस लेने में दिक़्क़त सहित कुछ अन्य तकलीफ़ों से दो-चार होना पड़ा है। डॉक्टरों के मुताबिक, यह महिला आज हाइड्रेटेड रहने के लिए संघर्ष कर रही है। वैसे डॉक्टर मेरिट का मत है कि रोगियों के लक्षणों का इलाज करने तक सीमित रहने से ज़्यादा बेहतर समस्या के कारणों की पहचान और उनका निदान करने पर होना चाहिए।

प्लास्टिक जन्य प्रदूषण का ख़तरा

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की एक नयी रिपोर्ट में महासागरों और अन्य जल क्षेत्रों में प्लास्टिक प्रदूषण की तेज़ी से बढ़ती मात्रा पर चिन्ता जतायी गयी है। इसके साल 2030 तक दोगुना हो जाने का अनुमान जताया गया है। यूएन के वार्षिक जलवायु सम्मेलन कॉप-26 से 10 दिन पहले जारी इस रिपोर्ट में प्लास्टिक को भी एक जलवायु समस्या क़रार दिया गया है।

रिपोर्ट में प्लास्टिक से स्वास्थ्य, अर्थ-व्यवस्था, जैव-विविधता और जलवायु पर होने वाले दुष्प्रभावों को रेखांकित किया गया है। साथ ही वैश्विक प्रदूषण संकट से निपटने के लिए अनावश्यक, टालने योग्य और समस्या की वजह बनने वाले प्लास्टिक में ठोस कमी लाये जाने पर बल दिया गया है। प्लास्टिक की मात्रा में ज़रूरी गिरावट को सम्भव बनाने के लिए जीवाश्म ईंधनों के बजाय नवीकरणीय ऊर्जा की दिशा में तेज़ रफ़्तार से आगे बढऩे, उनसे सब्सिडी हटाने और उत्पादों को फिर से इस्तेमाल में लाने (चक्रीय) जैसे उपाय अपनाने का सुझाव दिया गया है। ‘फ्रॉम प्लास्टिक टू सॉल्यूशन : अ ग्लोबल असेसमेंट ऑफ मरीन मीटर एंड प्लास्टिक पॉल्यूशन’ शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि प्लास्टिक से सभी पारिस्थितिकी तंत्रों के लिए ख़तरा बढ़ रहा है। प्लास्टिक के गहराते संकट से निपटने और उसके दुष्प्रभावों की दिशा पलटने के लिए समझ व ज्ञान तो बढ़ रहा है; लेकिन इसे कारगर कार्रवाई में बदलने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत रहेगी।

यूएन एजेंसी ने ज़ोर देकर कहा है कि प्लास्टिक एक गम्भीर जलवायु समस्या भी है। इसमें बताया गया है कि सन् 2015 में प्लास्टिक से होने वाला ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 1.7 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड के बराबर था। साल 2050 में यह आँकड़ा बढक़र क़रीब 6.5 गीगाटन तक पहुँच जाने का अनुमान है। यह सम्पूर्ण कार्बन बजट का 15 फ़ीसदी है। अर्थात् ग्रीनहाउस गैस की वह मात्रा, जिसे वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को पैरिस समझौते के लक्ष्यों के भीतर रखने के लिए उत्सर्जित किया जा सकता है।

यूएन पर्यावरण एजेंसी की कार्यकारी निदेशक इन्गर एण्डरसन के मुताबिक, यह रिपोर्ट तत्काल कार्र्यवाही करने और महासागरों की रक्षा और उनकी पुन: बहाली के पक्ष में अब तक का सबसे मज़बूत वैज्ञानिक तर्क है। उन्होंने बताया कि एक बड़ी चिन्ता टूटकर बिखर जाने वाले उत्पादों से जुड़ी है। जैसे कि प्लास्टिक के महीन कण और बेहद कम मात्रा में मिलाये जाने वाले रासायनिक पदार्थ जो ज़हरीले हैं और मानव स्वास्थ्य, वन्यजीवन स्वास्थ्य और पारिस्थितिकी तंत्रों के लिए नुक़सानदेह हैं।

जानकारी के मुताबिक, समुद्र में कचरे की कुल मात्रा में से 85 फ़ीसदी प्लास्टिक ही है। साल 2040 तक इसकी मात्रा तीन गुना होने की आशंका है, और महासागरों में हर साल 2 करोड़ 30 लाख 70 हज़ार मीट्रिक टन कचरा पहुँचेगा। यह तटीय रेखा के प्रति मीटर हिस्से के लिए लगभग 50 किलोग्राम प्लास्टिक बन जाता है। इससे समुद्री जीवन, पक्षियों, कछुओं और स्तनपायी पशुओं के लिए एक बड़ा जोखिम पैदा होने की आशंका है। प्लास्टिक के दुष्प्रभावों से मानव शरीर भी अछूता नहीं है। समुद्री भोजन, पेय पदार्थों और साधारण नमक में भी मिल जाने वाले प्लास्टिक का सेवन नुक़सानदेह है। इसके अलावा हवा में लटके महीन कण, त्वचा को बेधते हैं और साँस के ज़रिये भी अन्दर आ सकते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि केवल पुनरावर्तन (री-साइक्लिंग) का सहारा लेकर, प्लास्टिक प्रदूषण संकट से बाहर निकल पाना सम्भव नहीं है। इसके अलावा उन्होंने अन्य हानिकारक विकल्पों, जैसे कि जैव-आधारित या जैव रूप से नष्ट होने योग्य के इस्तेमाल पर भी सचेत किया है, जिनसे आम प्लास्टिक की तरह ही जोखिम पैदा हो सकते हैं। रिपोर्ट में प्लास्टिक उत्पादन और खपत में तत्काल कमी लाने का आग्रह किया गया है, और सम्पूर्ण मूल्य श्रृंखला में रूपान्तरकारी बदलाव को प्रोत्साहन दिया गया है।

यूएन एजेंसी ने प्लास्टिक के स्रोत, स्तर और उसकी नियति की पहचान करने के लिए ठोस और कारगर निगरानी प्रणालियों में निवेश की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है। इस क्रम में चक्रीय तौर-तरीक़ों (प्लास्टिक के इस्तेमाल को घटाने, फिर से इस्तेमाल में लाने और पुनरावर्तन) व अन्य विकल्पों को अपनाना भी ज़रूरी होगा।

भारत का विकसित देशों पर हमला

 

भारत ने इस बार ग्लासगो में आयोजित वल्र्ड लीडर समिट ऑफ कॉप-26 में अपने एजेंडे को कहीं बेहतर तरीक़े और स्पष्टता से रेखांकित किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत के अभियान का नेतृत्व किया और अपने सम्बोधन में पंचामृत का नारा दिया, जिसे दूसरे देशों के मुखियाओं से काफ़ी प्रशंसा मिली।

मोदी ने कहा कि भारत 2070 तक नेट ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध है। उन्हें इस बात के लिए काफ़ी तारीफ़ मिली। इसका एक कारण यह रहा कि एक विकासशील देश के लिहाज़ से आर्थिक और पर्यावरणीय ज़रूरतों को सन्तुलित करने की कोशिश की इसमें गम्भीर कोशिश की गयी है। भारत सरकार ने भी मोदी के भाषण को तरजीह दी। लिहाज़ा देश के टीवी चैनलों ने इसका सीधा प्रसारण किया। वैसे इस बात को लेकर काफ़ी विशेषज्ञों ने निराशा जतायी है कि भारत ने लक्ष्यों को अंतरराष्ट्रीय लक्ष्य साल 2050 के भी दो दशक बाद हासिल करने का वादा किया है। हाँ, कुछ विशेषज्ञों ने भारत की आबादी और अन्य कारणों के आधार पर इस लक्ष्य को व्यावहारिक माना है।

सम्मलेन में मोदी के भाषण से यह भी ज़ाहिर हुआ कि वे विकसित देशों के दबाव में नहीं दिखे। उन्होंने एक तरह से विकसित देशों को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा कि दुनिया की आबादी का 17 फ़ीसदी देश होने बावजूद यह कुल कार्बन उत्सर्जन में महज़ 5 फ़ीसदी से भी कम भागीदारी करता है। इससे पर्यावरण के मामले में भारत का पक्ष मज़बूत हुआ है।

मोदी ने कहा- ‘आज विश्व की आबादी का 17 फ़ीसदी होने के बावजूद, जिसकी उत्सर्जन में ज़िम्मेदारी सिर्फ़ पाँच फ़ीसदी रही है, उस भारत ने अपना कर्तव्य पूरा करके दिखाने में कोई कोर-क़सर बाक़ी नहीं छोड़ी है।’

प्रधानमंत्री ने कहा- ‘मुझे ख़ुशी है कि भारत जैसा विकासशील देश करोड़ों लोगों को ग़रीबी से बाहर निकालने में जुटा है और करोड़ों लोगों की जीवन में आसानी लाने पर रात-दिन काम कर रहा है।’ सम्मलेन में मोदी ने विकसित देशों के विकासशील देशों पर दबाव बनाने पर उनकी खिंचाई भी की। मोदी ने कहा- ‘यह सच्चाई हम सभी जानते हैं कि जलवायु वित्त को लेकर आज तक किये गये वादे खोखले ही साबित हुए हैं। जब हम सभी जलवायु कार्यवाही पर अपनी महत्त्वाकांक्षा बढ़ा रहे हैं, तब क्लामेट फाइनेंस पर दुनिया की इच्छा वही नहीं रह सकती, जो पेरिस समझौते के समय थी। जलवायु परिवर्तन पर इस वैश्विक मंथन के बीच मैं भारत की ओर से इस चुनौती से निपटने के लिए पाँच अमृत तत्त्व रखना चाहता हूँ। पंचामृत की सौगात देना चाहता हूँ।’

मोदी ने अपने सम्बोधन में कहा कि आज जब मैं आपके बीच आया हूँ, तो भारत के ट्रैक रिकॉर्ड को भी लेकर आया हूँ। मेरी बातें सिर्फ़ शब्द नहीं हैं; ये भावी पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य का जयघोष है। मोदी ने कहा कि आज भारत स्थापित अक्षय ऊर्जा क्षमता में दुनिया भर में चौथे स्थान पर है। उन्होंने कहा कि विश्व की पूरी आबादी से भी अधिक यात्री, भारतीय रेल से हर वर्ष यात्रा करते हैं। इस विशाल रेलवे तंत्र ने अपने आपको साल 2030 तक नेट ज़ीरो बनाने का लक्ष्य रखा है। अकेली इस पहल से सालाना 60 मिलियन टन एमिशन की कमी होगी।

प्रधानमंत्री ने कहा कि सोलर पॉवर में एक क्रान्तिकारी क़दम के रूप में हमने अंतरराष्ट्रीय सौर गठबन्धन की पहल की। जलवायु अनुकूलन के लिए हमने आपदा प्रतिरोधी बुनियादी ढाँचे के लिए गठबन्धन का निर्माण किया है। ये करोड़ों ज़िन्दगियों को बचाने के लिए एक संवेदनशील और महत्त्वपूर्ण पहल है।

ग्लासगो सम्बोधन में मोदी ने कहा- ‘मैं आज आपके सामने एक शब्द मुहिम (वन-वर्ड मूवमेंट) का प्रस्ताव रखता हूँ। यह एक शब्द जलवायु के सन्दर्भ में एक शब्द-एक विश्व का मूल आधार बन सकता है; अधिष्ठान बन सकता है। यह एक शब्द है- लाइफ, एल. आई. एफ. ई. यानी लाइफस्टाइल फॉर इन्वॉयरमेंट।’

मोदी सम्मेलन में हिस्सा लेने से पहले भी सक्रिय रहे। मोदी ने सम्मलेन के अपने सम्बोधन से पहले कहा- ‘हमें अनुकूलन को अपनी विकास नीतियों और योजनाओं का मुख्य हिस्सा बनाना होगा। भारत में नल से जल, स्वच्छ भारत मिशन और उज्ज्वला जैसी योजनाओं से न सिर्फ़ हमारे नागरिकों को लाभ मिला है, बल्कि उनके जीवन की गुणवत्ता में भी सुधार हुआ है।’

प्रधानमंत्री ने कहा कि कई पारम्परिक समुदायों को प्रकृति के साथ सद्भाव में रहने का ज्ञान है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि यह ज्ञान आने वाली पीढिय़ों तक पहुँचे, इसे स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल जीवन शैली का संरक्षण भी अनुकूलन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हो सकता है।

भारत में मोदी सरकार के तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ एक साल से चल रहे आन्दोलन के बीच ग्लास्गो में मोदी ने कहा- ‘भारत समेत अधिकतर विकासशील देशों के किसानों के लिए जलवायु एक बड़ी चुनौती है। खेती के तरीक़ों में बदलाव आ रहा है। बेसमय बारिश और बाढ़ या लगातार आ रहे तुफ़ानों से फ़सलें तबाह हो रही हैं। पेयजल के स्रोत से लेकर किफ़ायती आवास तक सभी को जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ साथ आने की ज़रूरत है। अनुकूलन के तरीक़ों चाहें लोकल हों; लेकिन पिछले देशों को इसके ग्लोबल समर्थन मिलना चाहिए।’

प्रधानमंत्री ने सन् 2015 में पेरिस में कॉप-21 में इससे पहले हिस्सा लिया था। इस बार के सम्मलेन को कॉप-26 (कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीज) कहा गया, जिसका मक़सद जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर रूपरेखा तैयार करना था। सम्मलेन 13 नवंबर तक चला। याद रहे छ: साल पहले फ्रांस की राजधानी में हुए सम्मेलन में इस सदी के अन्त तक ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस (3.6 डिग्री फारेनहाइट) से नीचे रखने के लक्ष्य पर सहमति जतायी गयी थी। इस साल सम्मेलन के लिए 25,000 से अधिक प्रतिनिधियों ने पंजीकरण कराया है। ब्रिटिश अधिकारी आलोक शर्मा इसकी अध्यक्षता करेंगे।

 

 

“26 साल के जलवायु सम्मेलनों के बावजूद कथित तौर पर ‘आँय, बाँय, शाँय’ जारी रखने वाले नेता आलोचना के पात्र हैं। कॉप बैठकों के दौरान किये जाने वाले वादों की पारदर्शिता पर सन्देह के असंख्य कारण हैं। नेतागण कुछ भी नहीं कर रहे हैं। वे बस ऐसे रास्ते तैयार कर रहे हैं, जिनसे उन्हें फ़ायदा मिलता हो, और विनाशकारी प्रणाली से मुनाफ़ा मिलना जारी रह सके। प्रकृति और लोगों का दोहन, मौज़ूदा और भावी जीवन की परिस्थितियों की तबाही जारी रखने के लिए नेताओं द्वारा किये जाने वाला यह एक सक्रिय चयन है।”

ग्रेटा थनबर्ग

पर्यावरण अभियानकर्ता

पर्यावरण और पंचामृत

जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के सदस्यों के सम्मेलन (कॉप26) के लिए ग्लासगो में एकत्र हुए विश्व नेताओं को पंचामृत की पेशकश की, तो यह स्पष्ट था कि भारत ने अमीर देशों पर हमला किया था। भारत ने वन वर्ल्ड – लाइफस्टाइल फॉर एनवायरनमेंट (पर्यावरण के लिए एक विश्व जीवन शैली) का मूल आधार बनने के लिए एक शब्द लाइफ (जीवन) इस अभियान को दिया। चुनौती से निपटने के लिए पाँच अमृत तत्त्व ‘पंचामृत’ की बात की। इसके तहत साल 2030 तक भारत अपनी ग़ैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता को 500 गीगावॉट तक ले जाएगा। अक्षय ऊर्जा से अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं का 50 फ़ीसदी तक पूरा करेगा। कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन को एक अरब टन से कम करेगा। अपनी अर्थ-व्यवस्था की कार्बन तीव्रता को 45 फ़ीसदी से कम करके भारत अन्त में साल 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तैयार है।

भारत का अभियान मानव जाति के ग्रह (पृथ्वी) को बचाने के लिए पर्यावरण के प्रति अपने शोषणकारी दृष्टिकोण को सुधारने का एक अवसर है। जलवायु परिवर्तन के कारण चरम तक ख़राब होते मौसम ने जीवन पर भारी असर डाला है। पूरी दुनिया को उत्सर्जन में कटौती की ज़रूरत है। वर्तमान में विकसित और विकासशील देशों के बीच विश्वास की कमी है। अमीर देश पर्यावरण के क्षरण के लिए ग़रीब देशों को दोषी ठहराने में लगे हैं।

तथ्य यह है कि भारत दुनिया की 17 फ़ीसदी आबादी वाला देश होने के बावजूद कार्बन का केवल पाँच फ़ीसदी हिस्सा ही उत्सर्जित करता है। जबकि चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ के देश पूरी दुनिया से उत्सर्जित 36.44 गीगा टन कार्बन डाईऑक्साइड का 50 फ़ीसदी से अधिक हिस्से का उत्सर्जन करते हैं। हैरानी की बात है कि वैश्विक उत्सर्जन में अकेले चीन का योगदान 25 फ़ीसदी से अधिक है। वहीं भारत के मुक़ाबले केवल एक-चौथाई आबादी वाला अमेरिका भी भारत के मुक़ाबले दोगुने से अधिक कार्बन का उत्सर्जन कर रहा है। मूल रूप से सभी मनुष्य समान हैं और यह प्रति व्यक्ति कार्बन फुटप्रिंट है, जिसका अर्थ होना चाहिए कि अमीर देशों ने समान शर्तों पर ज़िम्मेदारी साझा करने के लिए अपने कार्बन उत्सर्जन में आनुपातिक रूप से कटौती दिखायी होगी। अमीर देश समाधान के साथ सामने नहीं आने में देरी बढ़ते तापमान की क़ीमत पर कर रहे हैं और केवल ग़रीब देशों को दोष दे रहे हैं। शुद्ध शून्य उत्सर्जन का रोडमैप नयी अर्थ-व्यवस्था और उदार वित्त पोषण के लिए समावेशी हरित प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण है।

संयुक्त राष्ट्र के एक निकाय जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल ने भी अपनी रिपोर्ट में तर्क देते हुए कहा है कि भूमंडलीय ऊष्मीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) को सतत् विकास, ग़रीबी उन्मूलन और असमानताओं को कम करने की अधिक क्षमता के साथ काम करना होगा। इससे पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2 डिग्री सेल्सियस कार्बन उत्सर्जन के बजाय 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित होगा और ऐसा करने से पर्यावरण के कई पहलुओं को हासिल करना काफ़ी आसान हो जाएगा।
आईपीसीसी रिपोर्ट में भी ऊर्जा के लिए कोयला, गैस और तेल में भारी कमी, बिजली उत्पादन की कार्बन तीव्रता को कम करने और नवीकरणीय स्रोतों की हिस्सेदारी को लगभग 70 फ़ीसदी तक बढ़ाने का सुझाव दिया गया है। यह ख़ुशी की बात है कि दुनिया के दो सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले देशों- अमेरिका और चीन ने अब पृथ्वी के पर्यावरण को और ख़राब होने से बचाने के लिए उन्नत जलवायु क्रियाओं के लिए एक कार्य समूह बनाकर मिलकर काम करने की घोषणा की है। सहयोग का यह सिद्धांत मानवता को आशा की एक किरण दिखाता है।

मुद्दों पर मतदान

हाल के उपचुनाव नतीजे भाजपा के लिए बड़ा सबक़ हैं

दीपावली से पहले 13 राज्यों में फैले विधानसभा उपचुनाव के नतीजों ने भाजपा नेताओं की पेशानी पर बल डाल दिये हैं। नतीजों के संकेत साफ़ हैं। देश में कोरोना की दूसरी लहर में ऑक्सीजन की भयंकर कमी से हज़ारों लोगों की मौत, आम आदमी की पीठ पर मुसीबतों का बोझ लाद चुकी महँगाई, पेट्रोल-डीजल के हद से आगे निकल चुके दाम और किसानों की समस्यायों का हल न होना जनता को त्रस्त कर रहा है और मत (वोट) के ज़रिये वह इसका सन्देश दे रही है। नतीजों से जो दूसरा संकेत मिलता है वह यह है कि कांग्रेस धीरे-धीरे खोई ज़मीन हासिल कर रही है और भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का सपना फलीभूत नहीं हुआ है। भविष्य में कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले इन नतीजों ने भाजपा ख़ेमे में चिन्ता भर दी है। क्योंकि जनता ने मुद्दों पर मतदान किया है और भाजपा इन मुद्दों के प्रति बेपरवाह दिखती है।

कमोबेश पूरे देश में हुए इन उपचुनावों के नतीजों से भविष्य की राजनीतिक स्थिति की जो ज़मीनी तस्वीर उभरती है, भाजपा शिविर में उससे निश्चित ही चिन्ता पसरी है; क्योंकि इन नतीजों का जनता में भाजपा के प्रति इसका नकारात्मक सन्देश गया है, जिसका असर उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों के 2022 के विधानसभा चुनावों पर पड़ेगा। भाजपा के लिए बड़ी चिन्ता की बात यह है कि इन नतीजों से यह कहीं नहीं लगता कि उसकी सबसे प्रमुख प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस ख़त्म हो रही है, जो उसके कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को चिढ़ाती दिखती है। हिमाचल जैसे भाजपा शासित राज्य में तो भाजपा को चार (एक लोकसभा सीट सहित) सीटों में से एक भी सीट नहीं मिली है।

पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान पिछले 11 महीने से तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ आन्दोलन कर रहे हैं। सरकार बेपरवाह है। तीन महीने से पेट्रोल-डीजल के दाम से जनता में हाहाकार था। सरकार ने उसमें मामूली-सी राहत देकर ऐसा ज़ाहिर किया मानों कोई बड़ा नज़राना जनता को दे दिया हो। अब जो जनता सरकार की इस ज़्यादती का सामना कर रही है, उसे आप झूठ का लॉलीपॉप थमाने लगो, तो यह उसके गले कहाँ उतरेगा। नतीजों से यह भी ज़ाहिर होता है कि सरकार की मुद्दों के प्रति असंवेदनशीलता जनता को रास नहीं आ रही। उदहारण के तौर पर किसान आन्दोलन इतने महीनों से चल रहा है। देश की आबादी का बड़ा हिस्सा खेत-खलिहान से जुड़ा हुआ है। ऐसे में उसे सरकार की किसानों के प्रति उपेक्षा समझ नहीं आ रही। देश में आज भी किसान और सैनिक दो ऐसे वर्ग हैं, जिनके प्रति आम जनता में सम्मान की भावना रहती है। लेकिन सरकार इसे समझ नहीं पा रही। जनता इसका अर्थ मान रही है कि केंद्र सरकार अहंकारी हो गयी है।

अगले साल के पहले हिस्से में उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, गोवा और मणिपुर के विधानसभा चुनाव हैं। यह चुनाव जितनी बड़ी चुनौती विपक्ष के लिए हैं, उतनी ही बड़ी चुनौती भाजपा के लिए भी हैं, जिसे तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, गोआ और उत्तराखण्ड में अपनी सत्ता बचानी है। पंजाब में उसका कोई नामलेवा है नहीं और मणिपुर में उसका संघर्ष चल रहा है, जहाँ स्थानीय मुद्दे जनता में हमेशा राष्ट्रीय मुद्दों से कहीं ज़्यादा महत्त्व रखते हैं। इन पाँच राज्यों में पंजाब, उत्तराखण्ड, गोआ, मणिपुर में कांग्रेस का ख़ासा असर है; जबकि उत्तर प्रदेश में वह अपने आधार का विस्तार कर रही है, जिसका पता चुनाव के पास ही चलेगा। इस तरह देखा जाए, तो भाजपा को कांग्रेस से मिलने वाली चुनौती एक बार कम होकर फिर बढऩे लगी है।

इन उपचुनावों में भाजपा को कई बड़े झटके लगे हैं। इन एक पहाड़ी राज्य हिमाचल भी है, जहाँ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी एक समय भाजपा प्रभारी रह चुके हैं। वहाँ लोकसभा की एक सीट के अलावा तीन विधानसभा सीटों के लिए भी उपचुनाव था। भाजपा सत्ता में होते हुए भी सभी चार सीटें हार गयी। भाजपा के लिए यह बड़ा झटका इसलिए भी है, क्योंकि जिस मंडी लोकसभा सीट पर भाजपा पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह से हारीं, यह सीट भाजपा के पास थी और मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के गृह ज़िले में पड़ती है। इससे जयराम की जनता पर पकड़ को लेकर भाजपा के बीच ही सवाल उठने लगे हैं।

जयराम की छवि को इससे धक्का लगा है; क्योंकि इससे यह संकेत गया है कि वह पार्टी को चुनाव नहीं जिता सकते। हिमाचल वैसे भी ऐसा राज्य हैं, जहाँ हर चुनाव के बाद सत्ता बदल देने का चलन जनता में रहा है। हाल के वर्षों में प्रधानमंत्री मोदी की छवि के बूते भाजपा चुनावों में अपनी जीत की ज़मानत (गारंटी) मानती रही है। अब यह चलन टूट गया है। इन उपचुनावों के प्रचार में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का ऐसा कोई भाषण नहीं था, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी और केंद्र सरकार की उपलब्धियों का बखान न किया हो। दिलचस्प यह है कि उप चुनाव में पार्टी की शर्मनाक हार के बाद जयराम ने महँगाई को ज़िम्मेदार बताया। क्या यह माना जाए कि मोदी सरकार की महँगाई रोकने में नाकामी पर यह उनकी ही पार्टी के मुख्यमंत्री की एक अति गम्भीर टिप्पणी है?

नतीजे देखें तो भाजपा तीन लोकसभा सीटों में से दो पर हार गयी। मध्य प्रदेश में ज़रूर उसे एक लोकसभा और दो विधानसभा सीटों पर जीत मिली, जिसे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के समर्थकों ने मुख्यमंत्री की छवि की जीत कहकर ज़्यादा प्रचारित किया। हालाँकि यह आम राय है कि कांग्रेस की सरकार तोडक़र अपनी सरकार बनाने वाले शिवराज सिंह धीरे-धीरे पकड़ खो रहे हैं और अगले विधानसभा चुनाव में उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।

उधर पश्चिम बंगाल में सभी सीटों पर भाजपा को पटखनी देकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने साबित कर दिया कि राज्य में भाजपा के पास उन्हें टक्कर दे सकने ही हैसियत वाला एक भी नेता नहीं है। पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनावों में भाजपा की करारी हार के बद उपचुनावों में भी यही संकेत गया है कि भाजपा आलाकमान जिन सुवेंदु अधिकारी पर बहुत ज़्यादा उम्मीद लगाये बैठी थी, जो असल में उतने असर रखने वालेनेता हैं नहीं। तृणमूल कांग्रेस ने चारों सीट जीत लीं।

असम की ज़रूर भाजपा ने पाँच सीटों में उन तीन पर जीत हासिल की जहाँ उसने अपने उम्मीदवार उतारे थे। मुख्यमंत्री हिमंता विश्व सरमा को इसका श्रेय दिया जा सकता है, जिन्होंने असम में अपनी अलग छवि बनायी है।

राजस्थान की बात करें, तो वहाँ मुख्यमंत्री गहलोत ने ज़मीनी पकड़ बनाकर रखी है। राजस्थान में दी सीटों पर ही कांग्रेस जीती, जिनमें वल्लभनगर और भाजपा के मज़बूत प्रभाव वाली धरियावद सीट शामिल हैं। हालाँकि राज्य में गहलोत और युवा नेता सचिन पायलट के बीच अभी तनातनी जारी है।

दक्षिणी के राज्य कर्नाटक में भी भाजपा सत्ता में है। येदियुरप्पा को हटाकर भाजपा ने बीएस बोम्मई को हाल में मुख्यमंत्री बनाया था; लेकिन पार्टी दो में से एक सीट पर हार गयी। एक सीट पर कांग्रेस जीती। हंगल सीट पर भाजपा की हार से उसे झटका लगा है, क्योंकि यह सीट नये मुख्यमंत्री बोम्मई के गृह ज़िले हावेरी का हिस्सा है।

पूरे नतीजे देखें, तो 13 राज्यों की 29 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में से भाजपा वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन (एनडीए) को 15 सीटें मिलीं, जबकि कांग्रेस ने आठ सीटें जीतें जीतीं। ज़ाहिर है कांग्रेस भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी बनी हुई है। टीएमसी के खाते में चार सीटें गयीं, जबकि आंध्र प्रदेश की एक सीट पर वाईएसआरसीपी और हरियाणा की एक सीट पर इनेलो ने विजय पायी। तीन लोकसभा सीटों में दादरा और नगर हवेली सीट शिवसेना, हिमाचल प्रदेश की मंडी सीट कांग्रेस और मध्य प्रदेश की खंडवा सीट भाजपा की झोली में गयी। नतीजों को देखकर लगता है कि भाजपा को आने वाले चुनावों में आसानी से सत्ता नहीं मिलेगी या उसे कुछ जगह सत्ता खोनी पड़ सकती है।

 

“भाजपा लोकसभा उपचुनावों में तीन में से दो लोकसभा सीटें हारी है। विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस-भाजपा की जहाँ सीधी टक्कर थी, वहाँ भाजपा ज़्यादातर जगहों पर हारी है। हिमाचल, राजस्थान, कर्नाटक और महाराष्ट्र इसके सुबूत हैं।”

रणदीप सुरजेवाला

कांग्रेस प्रवक्ता

 

भाजपा में योगी का बढ़ता क़द

उपचुनावों के नतीजों से भाजपा ख़ेमे में बेचैनी को यह इस बात से समझा सकता है कि उसने उत्तर प्रदेश से लेकर दूसरे सभी राज्यों में रणनीति को लेकर अभी बैठकों का दौर शुरू कर दिया है। पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव बहुत ज़्यादा मायने रखता है। भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की अक्टूबर के पहले हफ़्ते बैठक हुई। इस बैठक का मक़सद पार्टी की चुनावी तैयारियों की रणनीति बनाना था। लेकिन काफ़ी आश्चर्यचकित बात यह हुई कि बैठक में कुछ नेता दिल्ली में साथ बैठे; लेकिन बाक़ी ने आभासी रूप से (वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये) बैठक में शामिल हुए। बैठक का एजेंडा पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव ही था। सबसे दिलचस्प बात यह हुई कि बैठक में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बैठक दिल्ली में मौज़ूद रहे, जबकि पार्टी के अन्य मुख्यमंत्रियों को आभासी रूप से जोड़ा गया। निश्चित ही यह भाजपा में योगी के बढ़ते क़द की तरफ इशारा करता है।

सिद्धू-चन्नी का शीतयुद्ध ख़त्म

पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी के मुख्यमंत्री बनने के बाद नियुक्तियों को लेकर हो रही थी खींचतान, दोनों के रिश्ते पटरी पर आने से आलाकमान को हुई तसल्ली

विधानसभा चुनाव से पहले पंजाब की राजनीति दिलचस्प मोड़ ले रही है। माँगें माने जाने के बाद पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ने अपने पद पर दोबारा काम करना शुरू कर दिया दिया है, जिससे आलाकमान की जान-में-जान आ गयी है। मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी पहले ही अपने मंत्रिमंडल के ज़रिये लोगों को रियायतें देने की कई घोषणाएँ कर चुके हैं।

इस तरह पंजाब में आख़िर सत्तारूढ़ दल के दोनों बड़े नेताओं- मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के बीच क़रीब दो महीने से चल रहा शीतयुद्ध ख़त्म हो गया है। कांग्रेस अब मान कर चल रही है कि चन्नी और सिद्धू की जोड़ी मिलकर राजनीतिक रूप से पंजाब में कांग्रेस को दोबारा सत्ता में ले आएगी। पार्टी को यह भी महसूस हो रहा है कि बतौर मुख्यमंत्री दो महीने के कम समय में भी जनहित में काम करके चन्नी अपनी अलग छवि बनाने में सफल दिख रहे हैं।

चन्नी-सिद्धू के बीच जंग ख़त्म होने से कांग्रेस को लग रहा है कि सिद्धू के प्रदेश अध्यक्ष के रूप से अब काम सँभाल लेने से अब संगठन की सक्रियता में तेज़ी आएगी; जबकि चन्नी सरकार पहले से ही सक्रिय है। अब तक चन्नी सरकार ने कई बड़े फ़ैसले लिये हैं। कांग्रेस महसूस कर रही है कि चुनाव से पहले दोनों में तनाव ख़त्म होना पार्टी के लिए सुकून वाली ख़बर है।

चन्नी सरकार बनने के बाद हुए कुछ फ़ैसलों से सिद्धू नाराज़ थे। इसका कारण यह था कि जो वादे पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने किये थे, उनमें से कई पर कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार के समय में अमल नहीं हुआ। कुछ ऐसे फ़ैसले या नियुक्तियाँ भी थीं, जिनसे सिद्धू इसलिए असहमत थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे जनता में ग़लत संकेत जाएगा।

यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि बतौर मुख्यमंत्री चन्नी ने अपने फ़ैसलों पर दृढ़ता दिखायी और कभी नहीं लगा कि वे किसी के दबाव में काम कर रहे हैं। इसकी उनकी छवि एक प्रशासक के रूप में भी मज़बूत बनी है। भले डीजीपी के बाद अब अधिवक्ता जनरल एपीएस देओल का इस्तीफ़ा मंज़ूर कर लिया गया है; पर इसे पार्टी हित में किया फ़ैसला माना जा सकता है, न कि किसी दबाव में। हालाँकि इन फ़ैसलों से यह अवश्य ज़ाहिर हुआ है कि चन्नी के राहुल गाँधी के काफ़ी क़रीब होने के बावजूद सिद्धू भी दोनों युवा गाँधी नेताओं के क़रीब हैं और उनकी बात सुनी जाती है। चन्नी और सिद्धू विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद के सबसे बड़े दावेदार हैं। सिद्धू को लेकर तो पंजाब कांग्रेस के पिछले प्रभारी हरीश रावत ने चन्नी के मुख्यमंत्री बनने के बाद यह तक कह दिया था कि उनके नेतृत्व में ही कांग्रेस अगला चुनाव लड़ेगी। हालाँकि यह भी सच है कि चन्नी पिछले क़रीब दो महीने में अपनी अलग छवि गढऩे में सफल रहे हैं, जिससे उनका राजनीतिक कौशल झलकता है।

तनातनी के दो बड़े मुद्दों- एडवोकेट जनरल और डीजीपी की नियुक्तियाँ तनाव का बड़ा कारण बनी हुई थीं। डीजीपी के पद पर इकबाल प्रीत सिंह सहोता को हटाने की सिद्धू की माँग को स्वीकार करते हुए चन्नी ने पहले ही यूपीएससी से पैनल मिलते ही नये डीजीपी की नियुक्ति की बात कह दी थी। इस तरह ये मसले अब हल हो गये हैं। मुख्यमंत्री चन्नी और सिद्धू के बीच लगातार दो सुलह बैठकों के सकारात्मक नतीजे सामने आये; मुख्यमंत्री चन्नी ने बताया कि अटॉर्नी जनरल देओल का इस्तीफ़ा मंज़ूर कर लिया गया है, पंजाब पुलिस के नये डीजीपी की नियुक्ति भी यूपीएससी पैनल के मिलते ही हो जाएगी।

नरम हुए सिद्धू

पंजाब विधानसभा में तीन कृषि क़ानूनों के खिलाफ प्रस्ताव पास करने को लेकर काफ़ी हंगामा हुआ। इस दौरान पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को लेकर नवजोत सिंह सिद्धू के सुर बदले हुए नज़र आये। सिद्धू ने तीन कृषि क़ानूनों के लिए अकाली दल को ज़िम्मेदार ठहराया। साथ ही सिद्धू का कहना था कि कैप्टन अमरिंदर सिंह ने किसानों के लिए अच्छा काम किया।

सदन की कार्रवाई के दौरान सिद्धू ने अकाली दल पर जमकर हमला बोला। पंजाब विधानसभा में सन् 2013 के कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग एक्ट के ख़िलाफ़ भी नया क़ानून लाया गया है। सिद्धू ने कहा- ‘तीन कृषि क़ानूनों को लाने के लिए अकाली दल ज़िम्मेदार है। अकाली सरकार सन् 2013 में कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग को लेकर क़ानून लायी। भाजपा की केंद्र में सरकार भी वैसा ही क़ानून लायी है।’

सिद्धू ने इस दौरान दावा किया कि कांग्रेस किसानों के लिए काम करती है। मनमोहन सरकार ने किसानों का 72,000 करोड़ रुपये का क़र्ज़ माफ किया। कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पंजाब का मुख्यमंत्री रहते हुए किसानों का क़र्ज़ माफ़ किया। अमरिंदर सिंह ने कई अच्छे काम भी किये। पंजाब में पानी को लेकर क़ानून लाया गया।

यह पहला मौक़ा था, जब सिद्धू इस तरह से कैप्टन अमरिंदर सिंह की तारीफ़ करते नज़र आये। इससे पहले सिद्धू ने अमरिंदर सिंह पर बेअदबी के मामले में कार्रवाई नहीं करने के आरोप लगाये थे और भाजपा के साथ मिले होने के आरोप भी लगा दिये थे। सिद्धू के साथ तकरार के चलते ही अमरिंदर सिंह को सितंबर में मुख्यमंत्री की कुर्सी गँवानी पड़ी।

हालाँकि नवजोत सिंह सिद्धू और कैप्टन अमरिंदर सिंह के रास्ते अब अलग हो चुके हैं। सिद्धू के पास पंजाब कांग्रेस की कमान है, जबकि अमरिंदर सिंह ने अलग पार्टी बनाकर 2022 का पंजाब विधानसभा चुनाव लडऩे का ऐलान किया है। लिहाज़ा देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले दिनों में सूबे की राजनीति क्या रंग लाती है?

आलाकमान सक्रिय

पंजाब के विधानसभा चुनाव और चंडीगढ़ नगर निगम के चुनाव को देखते हुए कांग्रेस पार्टी ने संगठन में भी बदलाव किये हैं। कांग्रेस ने हर्षवर्धन सपकल और चेतन चौहान को राष्ट्रीय सचिव नियुक्त करते हुए दोनों को पार्टी का पंजाब मामलों का सह-प्रभारी बनाया है। ये दोनों नेता पार्टी के पंजाब और चंडीगढ़ मामलों के प्रभारी हरीश चौधरी के साथ मिलकर काम करेंगे। लेकिन सपकल और चौहान को पंजाब में बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है। पार्टी के संगठन महासचिव के.सी. वेणुगोपाल ने बताया कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने सपकल और चौहान को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का राष्ट्रीय सचिव नियुक्त किया है।

सपकल अब तक कांग्रेस के राजीव गाँधी पंचायती राज संगठन में उपाध्यक्ष की भूमिका निभा रहे थे, जबकि चौहान भारतीय युवा कांग्रेस के महासचिव रह चुके हैं। कांग्रेस ने पिछले दिनों राजस्थान सरकार में मंत्री हरीश चौधरी को पंजाब का प्रभारी नियुक्त किया था।

बता दें कि पंजाब कांग्रेस में पिछले कई महीनों से जंग छिड़ी हुई थी। नवजोत सिंह सिद्धू को पार्टी अध्यक्ष बनाये जाने के बाद से पार्टी की आपसी फूट खुलकर सामने आयी। अमरिंदर सिंह के अलावा कुछ नेता केंद्रीय नेतृत्व से अब भी नाराज़ हैं। कुछ नियुक्तियों को लेकर सिद्धू भी कांग्रेस की राज्य सरकार पर हमले कर रहे थे।

दलबदल शुरू

पंजाब विधानसभा चुनाव से ठीक पहले आम आदमी पार्टी (आप) को बड़ा झटका लगा है। बठिंडा ग्रामीण से विधायक रूपिंदर कौर रूबी ने पार्टी की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया है। इसकी जानकारी उन्होंने पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और पार्टी प्रदेश अध्यक्ष भगवंत मान को दे दी है।

राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल और भगवंत मान को लिखे पत्र में उन्होंने एक लाइन में लिखा- ‘मैं आम आदमी पार्टी की सदस्यता से तत्काल प्रभाव से इस्तीफ़ा दे रही हूँ। कृपया मेरा इस्तीफ़ा स्वीकार करें।’ – रूपिंदर कौर रूबी, विधायक, बठिंडा ग्रामीण।

गुरदासपुर में कांग्रेस को बड़ा झटका लगा। एसएसएस बोर्ड (पंजाब) के चेयरमैन के पद से इस्तीफ़ा देने के बाद रमन बहल आदमी पार्टी में शामिल हो गये। उन्हें आम आदमी पार्टी के पंजाब प्रधान भगवंत मान और प्रवक्ता राघव चड्डा ने पार्टी में शामिल करवाया। रमन बहल के आम आदमी पार्टी में शामिल होने से अब गुरदासपुर में राजनीति के समीकरण बदलने की सम्भावना है।

उम्मीद जतायी जा रही है कि आम आदमी पार्टी बहल को टिकट भी दे सकती है। आम आदमी पार्टी में शामिल होने के बाद रमन बहल ने कहा कि कांग्रेस जिस लड़ाई और सोच को लेकर चली थी, उससे भटक गयी है; यही वजह है कि उन्होंने आम आदमी पार्टी का साथ चुना है। अरविंद केजरीवाल मुद्दों की बात करते हैं। उन्होंने कहा कि हलके के लोग पिछले 15 साल से जिन मुश्किलों से गुज़र रहे हैं, उन्हें ख़त्म किया जाएगा।

अभी पंजाब में कुछ और नेताओं के दलबदल की प्रबल सम्भावना है। बता दें कि अगले साल उत्तर प्रदेश के साथ पंजाब में भी विधानसभा चुनाव होने हैं। वहाँ भाजपा की स्थिति बेहद ख़राब है। अकाली दल की भी स्थिति कुछ ठीक नहीं है। ऐसे में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ही चुनावी मैदान में एक-दूसरे को चुनौती देती दिखेंगी। कांग्रेस का पलड़ा आज भी भारी है; लेकिन आम आदमी पार्टी से उसे टक्कर तो मिलेगी ही, जिससे उसे प्रदेश में इस बचे हुए कार्यकाल में जमकर काम करना पड़ेगा।

बिना माँग बढ़े ही डीएपी की क़िल्लत!

हाथरस की चंदपा सहकारी समिति के एक कर्मचारी द्वारा वहाँ के किसानों को डाई अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) न देने पर किसानों ने उसे बन्धक बना लिया। बाद में पुलिस ने सहकारी समिति के कर्मचारी को मुक्त कराकर डीएपी का वितरण कराया। हाथरस की दूसरी सहकारी समितियों और खाद की दुकानों पर भी किसानों को खाद न मिलने से पूरे ज़िले में जगह-जगह हंगामा हो रहा है। ज़िलाधिकारी रमेश रंजन ने स्थिति को भाँपते हुए कृषि विभाग के अधिकारियों से डीएपी और दूसरी उर्वरक खादों की दुकानों का निरीक्षण करवाकर किसानों को उनकी उपलब्धता सुनिश्चित की।

इसके अलावा इलाहाबाद के मानधाता में साधन सहकारी समिति से 2 नवंबर को लुटेरों ने चौकीदार को बन्धक बनाकर तमंचे की नोक पर 80 बोरी लूट लीं। चौकीदार ने बताया कि लुटेरे किसान नहीं थे। क्षेत्र के किसानों को वह पहचानता है। इससे पहले अक्टूबर में हरियाणा के नारनौल के मंडी अटेली में डीएपी के 100 कट्टे लूटने का मामला सामने आया था। डीएपी की इस लूट का वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें पुरुष ही नहीं महिलाएँ भी सिर पर कट्टे लेकर भागती दिखी। हालाँकि पुलिस ने दिनदिहाड़े हुई इस डीएपी लूट में आशंका जतायी थी कि किसानों में अराजक तत्त्व भी शामिल थे, जो शासन-प्रशासन की छवि बिगाडऩे के लिए ऐसे काम कर रहे हैं। हरियाणा के इसी शहर में खाद से भरा एक ट्रक लूटने का प्रयास भी भीड़ द्वारा किया गया। उत्तर प्रदेश के बस्ती से ऐसी भी ख़बरें सामने आयी हैं कि सहकारी समितियों में ताले लटक रहे हैं और उनके सचिव व अन्य कर्मचारी छुट्टी पर चले गये। जब इन गोदामों केताले खुलवाये गये, तो खाद की कोई कमी नहीं थी। किसानों को खाद न देने की आख़िर यह किसकी साज़िश होगी? कौन खाद की कालाबाज़ारी करना चाहता है?

इन घटनाओं से इस बात को समझा जा सकता है कि देश में डीएपी खाद की कितनी क़िल्लत है। भारत सरकार कह रही है कि डीएपी की आपूर्ति की जा रही है, मगर राज्य सरकारें और खाद वितरण केंद्र कुछ और ही कह रहे हैं। देश के कई ज़िलों में किसान डीएपी न मिलने को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं।

जबरन दिया जा रहा सल्फर

डीएपी की क़िल्लत के बाद किसानों को सल्फर ख़रीदने के लिए मजबूर किया जा रहा है। यह बात संयुक्त किसान मोर्चा और हरियाणा के किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर, केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखकर कही है। चढ़ूनी ने इस पत्र में कहा है कि हरियाणा में किसानों को डीएपी और यूरिया के साथ सल्फर ख़रीदने के लिए मजबूर किया जा रहा है। इसलिए वे उर्वरक कम्पनियों पर कार्रवाई करें। चढ़ूनी ने पत्र पर लिखा है कि अभी देश में तीन कृषि क़ानून लागू भी नहीं हुए हैं और खाद कम्पनियों ने कालाबाज़ारी व किसानों के साथ जबरदस्ती शुरू भी कर दी।

उन्होंने कहा कि देश में तीनों कृषि क़ानूनों के विरोध में किसानों का आन्दोलन जारी है और खाद कम्पनियों की कालाबाज़ारी को लेकर हरियाणा प्रदेश में किसानों की दुर्दशा दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। उन्होंने कहा कि जबसे रबी की फ़सलों की बुवाई शुरू हुई है, तबसे राज्य में डीएपी की भारी कमी बनी हुई है। ऊपर से खाद कम्पनियाँ किसानों को यूरिया के साथ जबरन सल्फर दे रहीं हैं। विदित हो कि अधिक सल्फर फ़सलों में लगाने से फ़सलों को नुक़सान पहुँचाता ही है, ज़मीन भी ख़राब होती है।

वैश्विक स्तर पर कमी

भारत सरकार की मानें तो डीएपी की वैश्विक स्तर पर कमी है, जिससे निपटने के लिए देश के उर्वरक विभाग का वार रूम 24 घंटे काम कर रहा है। सरकारी सूत्र बताते हैं कि अक्टूबर महीने में राज्यों को 18.06 लाख टन डीएपी भेजी गयी थी, जबकि उर्वरक कम्पनियों ने छ: लाख टन डीएपी का आयात भी किया है, जिसमें से 4.5 लाख टन डीएपी बंदरगाहों पर पहुँच चुकी है। भारत सरकार की मानें तो देश में 2.8 लाख डीलर, 940 रैक प्वाइंट, 21 बंदरगाह और 40 संयंत्रों के द्वारा उर्वरकों की मानिटरिंग और प्लानिंग की जा रही है। सरकारी सूत्र यह भी बताते हैं कि पिछले साल के मुताबिक, इस साल 30 सितंबर को देश में डीएपी और एमओपी का स्टॉक आधे से भी कम था। वहीं कुछ राज्यों का कहना है कि उन्हें भारत सरकार द्वारा 40 फ़ीसदी आपूर्ति ही की गयी है, जिससे डीएपी की क़िल्लत बनी हुई है। डीएपी की क़िल्लत तब है, जब रबी की फ़सलों में डीएपी की आपूर्ति के लिए भारत सरकार ने उर्वरक कम्पनियों को 28,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी दी है।

माँग और आपूर्ति

उर्वरक विभाग की मानें तो 2021-22 के रबी फ़सलों के मौसम के लिए अक्टूबर से मार्च, 2022 तक 58.68 लाख टन डीएपी की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त इतने समय की आपूर्ति के लिए 60.84 लाख टन नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश (एनपीके) और सल्फर के विभिन्न ग्रेड की कॉम्प्लेक्स उर्वरकों की भी आवश्यकता है।

रसायन एवं उर्वरक मंत्री मनसुख मंडाविया का कहना है कि उन्होंने अपने मंत्रालय में विस्तार से खाद की कमी को लेकर अध्ययन किया है। इसी नवंबर में डीएपी खाद की सभी राज्यों की 17 लाख मैट्रिक टन की माँग की तुलना में 18 लाख मैट्रिक टन आपूर्ति का लक्ष्य उन्होंने बनाया है। इसी प्रकार सभी राज्यों की 41 लाख टन यूरिया की माँग की तुलना में 76 लाख मीट्रिक टन यूरिया की आपूर्ति करने का लक्ष्य बनाया गया है। इसके अतिरिक्त एनपीके की राज्यों की 15 लाख मीट्रिक टन की माँग की तुलना में 20 लाख मीट्रिक टन एनपीके आपूर्ति का लक्ष्य रखा है।

विदित हो कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, हरियाणा, राजस्थान समेत देश के कई राज्यों में डीएपी व अन्य उर्वरक खादों की क़िल्लत लगातार बनी हुई है, जिसके चलते किसानों की रबी की फ़सल ख़राब हो रही है। अगर किसानों को समय रहते उर्वरक खादें किसानों को नहीं मिलीं, तो रबी की फ़सलों की पैदाबार बहुत कम हो जाएगी।

महँगी हुईं उर्वरक खादें

डीएपी के बाद एनपीके की भी देश में भारी क़िल्लत है, जिसके चलते एनपीके का बैग 500 रुपये महँगा हो गया है। एनपीके ही नहीं, कई अन्य कॉम्पलेक्स उर्वरकों के दामों में भी आपूर्ति में कमी के चलते उछाल आया है। हालाँकि भारत सरकार ने किसानों को आश्वस्त कर रही है कि उर्वरक खादों के दाम नहीं बढ़ेंगे। कहा जा रहा है कि महँगी खाद प्राइवेट खाद विक्रेता बेच रहे हैं। उत्तर प्रदेश में महँगी खाद बेचने की शिकायतों के बाद कुछ अधिकारियों ने महँगी खाद बेचने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की बात कही है। अधिकारियों का कहना है कि अभी तक उनके संज्ञान में महँगी खाद बेचने का मामला नहीं आया है, कुछ लोगों ने शिकायतें ज़रूर की हैं।

नक़ली और मिलावटी खाद

देश के कई राज्यों में सहकारी समितियों पर लम्बी-लम्बी लाइनों के बाद भी डीएपी और दूसरी उर्वरक खादें न मिलने पर किसान जहाँ से भी ये खादें मिल रही हैं, वहाँ से ख़रीदने को मजबूर हो रहे हैं। इसके चलते मिलावटख़ोर सक्रिय हो गये हैं, जो मिलावटी उर्वरक खादों को बेचने के अलावा नक़ली खादों की बिक्री भी महँगे दामों में किसानों को कर रहे हैं। यह बात कृषि विभाग की टीमों द्वारा राज्यों में की जगह-जगह की गयी छापेमारी के बाद सामने आयी है।

सरकार ने बढ़ायी सब्सिडी

एक सच यह भी है कि उत्तर प्रदेश में अब इफको की एनपीके का 50 किलो की बोरी 1450 रुपये में मिलेगी। केवल पुराना भण्डारण पुरानी क़ीमत 1185 रुपये के हिसाब से बेचा जाएगा। विदित हो कि मई, 2021 में भारत सरकार ने 500 रुपये प्रति बोरी डीएपी की सब्सिडी बढ़ायी थी। उस समय तक डीएपी की एक बोरी 1700 रुपये में मिलती थी, जिस पर सरकार 500 की सब्सिडी देती थी और किसानों को उर्वरक कम्पनियाँ 1200 रुपये में बेचती थीं। बाद में वैश्विक बाज़ार में फॉस्फोरिक एसिड, अमोनिया की क़ीमतें बढऩे के समाचार आने के बाद उर्वरक कम्पनियों ने ख़रीफ़ की बुवाई के दौरान डीएपी की बोरी 1900 का कर दिया, जिस पर काफ़ी हंगामा हुआ। लेकिन भारत सरकार ने उर्वरक कम्पनियों पर डीएपी के भाव कम करने का दबाव बनाये बग़ैर उसे 2400 रुपये का कर दिया और कहा कि हर बोरी पर वह 1200 रुपये सब्सिडी देगी; जबकि कम्पनियाँ किसानों से 1200 रुपये ही लेंगी। लेकिन यह भाव कम्पनियों की अपनी आकांक्षा से भी 500 रुपये अधिक था। बावजूद इसके अब अगली छमाही रबी की फ़सल की बुवाई में ही कम्पनियों ने फिर डीएपी की आपूर्ति कम कर दी और दाम बढ़ाने का उनका मक़सद फिर हल होता दिखायी दे रहा है। क्योंकि अब सरकार उर्वरक कम्पनियों को डीएपी के एक बोरी पर 1200 की जगह 1650 रुपये सब्सिडी देगी।

एक तरफ़ सरकार कह रही है कि किसानों को डीएपी की बोरी 1200 रुपये में ही मिलेगी, वहीं दूसरी तरफ़ इफको डीएपी के नये भण्डार (स्टाक) को महँगा करके बेचने की बात कह चुकी है। सरकार कम्पनियों पर उर्वरक खादों के भाव कम करने का दबाव बनाने की जगह चुपचाप सब्सिडी बढ़ाती जा रही है, जिससे कम्पनियों का मनोबल बढ़ा हुआ है। कहीं ऐसा न हो सरकार रसोई गैस सिलेंडर की सब्सिडी की तरह ही उर्वरक खादों पर दी जाने वाली सब्सिडी भी एक दिन अचानक ख़त्म कर दे और किसानों को 1200 रुपये का डीएपी की बोरी 3000 के आसपास ख़रीदनी पड़े।

क्या करें किसान?

किसान और खेती बाड़ी के अच्छे जानकार मंगल सिंह का कहना है कि महँगी उर्वरक खादों से बचने के लिए किसानों के पास एक ही रास्ता है और वह है- जैविक खेती करना। अगर किसान अपने पूर्वजों की तरह जैविक खेती करने लगें, तो खाद्यानों में बढ़ता ज़हर भी ख़त्म होगा और किसानों को महँगी खादों की ख़रीदारी भी नहीं करनी पड़ेगी। मंगल सिंह का कहना है कि अगर देश भर के किसान पशुधन से प्राप्त गोबर, मूत्र, फ़सलों के अवशेष का इस्तेमाल खाद के रूप में करें, तो उर्वरक कम्पनियों का दिमाग़ भी ठिकाने आ जाएगा और सरकार द्वारा उन्हें दी जा रही मोटी सब्सिडी भी बचेगी, जिसे सरकार चाहे तो सीधे तौर पर किसानों को दे सकती है। हालाँकि इसके लिए पूरे देश के किसानों को दृढ़ संकल्प लेना होगा।

मुकेश अंबानी के लंदन जाने का सच!

हाल ही में जारी वैश्विक धन प्रवासन समीक्षा (ग्लोबल वेल्थ माइग्रेशन रिव्यू) की रिपोर्ट से पता चलता है कि क़रीब 5,000 करोड़पतियों अर्थात् भारत के कुल एचएनआई में से दो फ़ीसदी ने 2020 में देश छोड़ दिया। भारत इस साल की सूची में सबसे ऊपर है, जबकि पिछले साल दूसरे स्थान पर था।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब रिपोट्र्स में इस तरह की ख़बरें आयीं कि एशिया के सबसे अमीर आदमी और रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के अध्यक्ष मुकेश अंबानी लंदन जा रहे हैं, तो बहुत लोगों ने इसे सत्य माना। हालाँकि आरआईएल ने इन ख़बरों का खण्डन किया है।

6 नवंबर को जारी आरआईएल के बयान में कहा गया है कि एक अख़बार ने हाल ही में अंबानी परिवार के लंदन के स्टोक पार्क में आंशिक रूप से रहने की योजना के बारे में जो ख़बर छापी, उसने सोशल मीडिया में अनुचित अटकलों को जन्म दिया है। आरआईएल यह स्पष्ट करना चाहेगी कि चेयरमैन (अंबानी) और उनके परिवार की लंदन या कहीं और स्थानांतरित होने या रहने की कोई योजना नहीं है। रिलायंस समूह ने कहा कि रिलायंस इंडस्ट्रियल इन्वेस्टमेंट्स एंड होल्डिंग्स लिमिटेड, जिसने हाल ही में स्टोक पार्क एस्टेट का अधिग्रहण किया है; स्पष्ट करना चाहती है कि विरासत सम्पत्ति के अधिग्रहण का उद्देश्य इसे एक प्रमुख गोल्फिंग और स्पोर्टिंग रिसॉर्ट के रूप में बढ़ाना है। यह अधिग्रहण समूह के तेज़ी से बढ़ते उपभोक्ता व्यवसाय को जोड़ेगा। साथ ही यह विश्व स्तर पर भारत के प्रसिद्ध आतिथ्य उद्योग के पदचिह्न का भी विस्तार करेगा।

बता दें कि मुकेश अंबानी अपने परिवार के साथ मुम्बई, महाराष्ट्र में 4,00,000 वर्ग फुट के अल्टामोंटे रोड निवास, एंटीलिया में रहते हैं। हाल में ख़बरें आयी थीं कि अंबानी परिवार से लंदन के बकिंघमशायर, स्टोक पार्क में 300 एकड़ के कंट्री क्लब को अपना प्राथमिक निवास बनाने की सम्भावना है। हालाँकि भले ही आरआईएल ने उनके लंदन में बसने की ख़बरों को नकारा है; लेकिन मुकेश ने लंदन में घर तो ख़रीदा ही है।

विदेश में ख़रीदी सम्पत्ति

इन ख़बरों के सच होने के कई कारण हैं। अंबानी परिवार ने इस साल की शुरुआत में स्टोक पार्क की सम्पत्ति 592 करोड़ रुपये में ख़रीदी थी। सम्पत्ति में 49 शयनकक्ष हैं। एक ब्रिटिश डॉक्टर की अध्यक्षता में एक अत्याधुनिक चिकित्सा सुविधा और अन्य लक्जरी सुविधाएँ हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि हाल ही में लंदन में ख़रीदे गये स्टोक पार्क एस्टेट के लिए अंबानी भारत से बाहर जा रहे थे; यह वास्तविक लग रहा था।

भारतीय हिन्दू व्यापारिक समुदाय के बीच एक रिवाज़ है कि वे अपने नये घरों में दीपावली मनाना पसन्द करते हैं। कई परिवारों के मामले में यह त्योहार परिवार के पहले निवास पर मनाया जाता है। यह एक प्रथा है, जो यह सुनिश्चित करने के प्रयासों का प्रतीक है कि धन की देवी या लक्ष्मी घर पर रहती है। लंदन स्थित नये घर में ही अंबानी परिवार द्वारा दीपावली मनाये जाने की अफ़वाह ने ही उनके लंदन बसने की ख़बरों को विश्वसनीय बनाया। लोगों ने ट्वीटर पर सवाल किया कि क्या अंबानी का लंदन निवास उनका स्थायी घर बन रहा है?

बड़े अमीर जा रहे विदेश

पहले भी ऐसी ख़बरें थीं कि सम्पन्न परिवार किसी दूसरे देश में नागरिकता या निवास के बदले बड़े निवेश के माध्यम से विदेश जा रहा है। सन् 2018 में वॉल स्ट्रीट पर मॉर्गन स्टेनली बैंक की एक रिपोर्ट ने भी संकेत दिया था कि सन् 2014 से 23,000 भारतीय करोड़पति देश छोड़ चुके थे। और अब वैश्विक धन प्रवासन समीक्षा की रिपोर्ट में कहा गया कि सिर्फ़ पिछले साल (2020 में) क़रीब 5,000 करोड़पति विदेश चले गये। अभी भारत 6,884 मोटी सम्पति वाले लोगों और 177 अरबपतियों का घर है। हैरानी इस बात की है कि भारत में कोरोना-काल में जब करोड़ों लोग धन-सम्पदा में कमज़ोर हुए, 40 नये अरबपति पैदा हुए।

हालाँकि भारत में निवेश द्वारा नागरिकता में रुचि हमेशा अधिक रही है; लेकिन महामारी के दौरान इसमें काफ़ी वृद्धि हुई है और आने वाले वर्षों में इसके बढऩे की उम्मीद है। विशेषज्ञ बताते हैं कि अमीरों का यह पलायन आंशिक रूप से मार्च, 2020 में संयुक्त राज्य अमेरिका के समान निवास-आधारित कर प्रणाली से नागरिकता-आधारित कर प्रणाली में जाने के लिए था।

अंबानी के मामले में पहले ही कुछ ख़बरों में बताया गया था कि वह इस साल दीपालली नये घर में मनाएँगे और मुम्बई व लंदन के घरों में आते-जाते रहेंगे। इस पर ट्वीटर पर लोगों ने आपत्ति की और कहा कि अंबानी का भारत से बाहर जाने का मतलब देश से पूँजी के बाहर जाने जैसा होगा। इस पर आरआईएल ने तुरन्त प्रतिक्रिया देकर ख़बरों को अफ़वाह बताते हुए उनका खण्डन किया।

दिलचस्प रूप से अंबानी का उदय एक दिलचस्प कहानी है और भारत के सबसे अमीर व्यक्ति का मानना है कि अगर उनके और बिल गेट्स जैसे कॉलेज छोडऩे वाले लोग लाखों अरब डॉलर की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का निर्माण कर सकते हैं, तो कोई भी औसत भारतीय कर सकता है। उन्होंने कहा कि मेरे पिता ने पाँच दशक पहले एक टेबल, कुर्सी और 1,000 रुपये के साथ रिलायंस की स्थापना की थी। यह पहले एक सूक्ष्म उद्योग बना। फिर एक छोटा उद्योग, फिर मध्यम और आज आप हमें बड़ा मान सकते हैं। रिलायंस इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष मुकेश अंबानी ने बात कुछ समय पहले माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्या नडेला के साथ एक फायरसाइड चैट के दौरान कही थी। उन्होंने कहा था कहा था कि अपने स्टैनफोर्ड दिनों से स्टीव (बाल्मर) और बिल (गेट्स) को जानने के मामले में बहुत भाग्यशाली रहे हैं। उन्होंने कहा कि धीरूभाई अंबानी या बिल गेट्स और यही वह शक्ति है, जो भारत को दुनिया के बाक़ी हिस्सों से अलग करती है।

राजनीतिक दोषारोपण

सन् 2014 से दो राजनीतिक दलों-आम आदमी पार्टी और कांग्रेस द्वारा अंबानी परिवार पर हमले किये जा रहे हैं। सन् 2014 में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के फ़ैसले के कारण आरआईएल को देश में प्राकृतिक गैस की क़ीमत को दोगुना करके अप्रत्याशित लाभ के मामले में पूर्व तेल मंत्री वीरप्पा मोइली के साथ मुकेश अंबानी के ख़िलाफ़ मामला दर्ज करने के लिए दिल्ली की भ्रष्टाचार विरोधी शाखा को आदेश दिया था। ऐसे देश में जहाँ राजनीतिक दलों के साथ-साथ व्यापारियों की भी क़िस्मत बनती है, अंबानी का देश की मुख्य विपक्षी पार्टी के लिए राजनीति का केंद्र बनना चिन्ता का विषय है।

बम कांड

इस साल की शुरुआत में मुकेश अंबानी के मुम्बई स्थित आवास एंटीलिया के बाहर एक कार में 20 विस्फोटक जिलेटिन की छड़ें और एक धमकी भरा पत्र मिला था। कार के मालिक ठाणे के एक व्यवसायी मनसुख हिरेन के एक हफ़्ते बाद मृत पाये जाने के बाद मामला और जटिल हो गया। राष्ट्रीय जाँच एजेंसी द्वारा मुम्बई के प्रसिद्ध मुठभेड़ विशेषज्ञ सचिन वाजे की गिरफ़्तारी से देश में और भी बड़ी लहर उठी। उन पर बम धमाकों का मास्टरमाइंड होने का आरोप था। गिरफ़्तार होने से पहले वाजे इस बम मामले में जाँच दल के प्रभारी थे।

अन्य मामले

सन् 2019 में आयकर विभाग की मुम्बई इकाई ने मुकेश अंबानी, उनकी पत्नी नीता अंबानी समेत पूरे अंबानी परिवार को नोटिस भेजा था। कथित तौर पर काला धन अधिनियम के तहत उनकी अघोषित विदेशी आय और सम्पत्ति के लिए यह नोटिस 28 मार्च, 2019 को दिये गये थे।

जानलेवा रही तालाबन्दी

कोरोना महामारी के दौरान 10 फ़ीसदी ज़्यादा लोगों ने आत्महत्या की, यानी हर रोज़ 418 लोगों ने दी जान

देश में आत्महत्याएँ करने की संख्या बढ़ रही है। एनसीआरबी की 2020 की रिपोर्ट में जो इससे भी ज़्यादा चिन्ताजनक बात है वह यह कि कोरोना-काल में हुई तालाबन्दी के दौरान देश भर में आत्महत्याओं का ग्राफ सीधे 10 फ़ीसदी बढ़ गया है। दूसरी चिन्ताजनक बात यह है कि सन् 1967 के बाद सन् 2020 में आत्महत्यायों के सबसे अधिक मामले हुए हैं। अच्छे दिन वाले देश में सन् 2020 में हर रोज़ 418 लोगों ने आत्महत्या कर ली।

चिन्ताजनक पहलू यह भी है कि आत्महत्या करने वालों में ज़्यादातर छात्र और छोटे उद्यमी हैं। ज़ाहिर है अनियोजित तालाबन्दी के नुक़सान के गम्भीर नतीजे अब धीरे-धीरे सामने आने लगे हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट पूरे साल की घटनाओं पर आधारित है। यह वह कालखण्ड है जब देश में लम्बे और अनियोजित तालाबन्दी के कारण लाखों छोटे उद्योग-धन्धे चौपट हो गये और करोड़ों लोग रोज़गार से हाथ धो बैठे। इनमें से ज़्यादातर को अभी तक दोबारा रोज़गार नहीं मिल पाया है।

एनसीआरबी की रिपोर्ट-2020 के जनवरी से दिसंबर तक में हुई घटनाओं पर आधारित है। रिपोर्ट कहती है कि एक साल में आत्महत्या के कुल 1,53,052 मामले सामने आये। पिछले 53 साल में आत्महत्यायों का यह आँकड़ा सबसे बड़ा हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के चौंकाने वाले आँकड़े कहते हैं कि 2019 के मुक़ाबले 2020 में व्यापारियों की आत्महत्यायों की संख्या चिन्ताजनक 50 फ़ीसदी ज़्यादा हो गयी। आत्महत्यायों की किसी भी श्रेणी में यह सबसे बड़ा उछाल है।

देश में आत्महत्या करने वालों की संख्या 2019 के मुक़ाबले 2020 में बढ़ गयी। आँकड़ों के मुताबिक, देश में 2020 में प्रति लाख आबादी पर आत्महत्या संख्या 2019 के मुक़ाबले 10.4 फ़ीसदी से बढक़र 11.3 फ़ीसदी हो गयी। रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 में देश में हर रोज़ 418 लोगों ने अपनी ज़िन्दगी ख़त्म कर ली।

देश में मार्च, 2020 में जल्दबाज़ी में रात 8 बजे घोषित देशव्यापी तालाबन्दी ने करोड़ों लोगों को सडक़ पर ला पटका। रोज़गार से जुड़े लाखों धन्धे बन्द हो गये।

महामारी ने 2020 में ज़मीन पर ज़िन्दगियाँ तो लील ही लीं, करोड़ों ज़िन्दा लोगों के सामने दो जून की रोटी का बड़ा सवाल खड़ा कर दिया। तबाही का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि 2019 की तुलना में 2020 में आत्महत्या करने वालों में किसानों से अधिक व्यापारी रहे। साल 2020 में महामारी के कारण आर्थिक संकट के काले काल के दौरान व्यापारियों की हत्या बताती है कि सरकार लोगों के रोज़गार को नाकाम रही।

एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020 के एक ही साल में 10,677 किसानों की तुलना में 11,716 छोटे-बड़े व्यापारियों ने आत्महत्या जैसा क़दम उठाया। इन 11,716 मौतों में आत्महत्या करने वाले 4,356 ट्रेड्समैन थे और 4,226 वेंडर्स यानी विक्रेता थे। बाक़ी मरने वाले लोगों को अन्य व्यवसायों की श्रेणी में रखा गया है। ये तीन समूह हैं, जिन्हें एनसीआरबी आत्महत्या रिकॉर्ड करते समय व्यापारिक समुदाय के रूप में मानता है। सन् 2019 की तुलना में 2020 में कारोबारी समुदाय के बीच आत्महत्या के मामलों में 29 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई। इस बीच व्यापारियों के बीच आत्महत्या 49.9 फ़ीसदी की उछाल के साथ 2019 में 2,906 से बढक़र 2020 में 4,356 हो गयी।

हाल के दशकों में किसानों ने देश में सबसे ज़्यादा आत्महत्याएँ की हैं। यह व्यापारिक समुदाय से कहीं कम थी। आँकड़े साफ़ ज़ाहिर करते हैं कि व्यापारी कोरोना महामारी और तालाबन्दी के बाद पैदा हुए घोर आर्थिक संकट से सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए और बड़ी संख्या में उन्हें तनाव या डिप्रेशन झेलना पड़ा। जानकारों के मुताबिक, तालाबन्दी के दौरान छोटे व्यवसायों और व्यापारियों को बड़ा नुक़सान हुआ है और इनमें से कई अपने धन्धे समेटने को मजबूर हो गये।

किसानों की दशा ख़राब

 

तमाम सरकारी दावों के बावजूद देश में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला भी बदस्तूर जारी है। एनसीआरबी के आँकड़े ज़ाहिर करते हैं कि सन् 2020 में 2019 की अपेक्षा किसानों (किसान और कृषि मज़दूर) की आत्महत्याओं के मामले लगभग 4 फ़ीसदी बढ़े हैं। यही नहीं देश में कृषि मज़दूरों की आत्महत्या के मामले 18 फ़ीसदी बढ़े हैं। वैसे राज्यों की बात करें, तो महाराष्ट्र 4,006 आत्महत्याओं के साथ सूची में सबसे ऊपर है। इसके बाद कर्नाटक में 2,016, आंध्र प्रदेश में 889, मध्य प्रदेश में 735 और छत्तीसगढ़ में 537 कृषि क्षेत्र से जुड़े लोगों ने आत्महत्या की है।

एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि किसानों और कृषि मज़दूरों में आत्महत्या के मामले रुकने की जगह बढ़ रहे हैं। देश में सन् 2020 के दौरान कृषि क्षेत्र में 10,677 लोगों की आत्महत्या की जो देश में कुल आत्महत्याओं (1,53,052) का 7 फ़ीसदी है। इसमें 5,579 किसान और 5,098 खेतिहर मज़दूरों की आत्महत्याएँ दर्ज हैं।

वैसे 2016 से 2019 के बीच चार साल तक इन आत्महत्यायों में गिरावट दर्ज होने के बावजूद कृषि क्षेत्र में आत्महत्या के मामले बढ़े हैं। सन् 2016 में कुल 11,379 किसान और कृषि मज़दूरों ने आत्महत्या की थी, जबकि 2017 में इसमें गिरावट आयी और संख्या 10,655 रह गयी। सन् 2018 में 10,349 तो 2019 में इस तरह के आत्महत्या के कुल 10,281 मामले सामने आये थे, जबकि सन् 2020 में यह मामले 10,677 हो। गये।

कृषि मज़दूरों की हालत भी देश में जगज़ाहिर है। यदि सन् 2019 से सन् 2020 की तुलना करें, तो सन् 2019 में 5,957 किसान और 4324 कृषि मज़दूरों ने आत्महत्या की थी, जबकि सन् 2020 में यह आँकड़ा क्रमश: 5,579 और 5,098 रहा। यानी कृषि मज़दूरों की आत्महत्या के मामले सन् 2020 में बढ़े हैं। सन् 2020 में आत्महत्या करने वाले 5,579 किसानों में से 5,335 पुरुष थे और 244 महिलाएँ थीं, जबकि आत्महत्या करने वाले 5,098 कृषि मज़दूरों में 4621 पुरुष और 477 महिलाएँ थीं। किसान आन्दोलन के गढ़ पंजाब और हरियाणा में भी स्थिति बदतर है। पंजाब में साल भर में 257 जबकि हरियाणा में 280 आत्महत्या मामले दर्ज हुए। पश्चिम बंगाल, बिहार, नागालैंड, त्रिपुरा, उत्तराखण्ड, चंडीगढ़, दिल्ली, लद्दाख, लक्षद्वीप और पुडुचेरी में शून्य आत्महत्या मामले दर्ज हुए। रिपोर्ट में किसानों और कृषि मज़दूरों को विभाजित करके आँकड़े बताये गये हैं। किसान उन्हें बताया गया है जिनके पास ख़ुद की ज़मीन है और खेती करते हैं। कृषि मज़दूर वे हैं, जिनके पास अपनी ज़मीन तो नहीं; लेकिन उनकी आय का साधन दूसरे किसानों के खेत में काम करके अपनी आजीविका कमाना है।

अवसाद बढ़ा

क़रीब 68 दिन के पहले सबसे लम्बे तालाबन्दी ने देश की निचली आबादी की कमर तोड़ कर रख दी। लोगों में इस दौरान अवसाद बढ़ गया और अत्महत्या के मामलों में आश्चर्यजनक उछाल देखने को मिला। रिपोर्ट से यह भी ज़ाहिर होता है कि तालाबन्दी में सबसे अधिक प्रभावित वे छात्र भी रहे, जो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे। इनमें से कई ऐसे थे, जिनके करियर की उम्र ख़त्म हो रही थी और वही सबसे ज़्यादा अवसाद की चपेट में आये।

इस दौरान न तो स्कूल-कॉलेज खोले गये और न ही दुकान खोलने की इजाज़त दी गयी। शिक्षा मंत्रालय की एक रिपोर्ट ज़ाहिर करती है कि भारत में अभी भी 2.9 करोड़ छात्रों के पास डिजिटल उपकरणों की पहुँच नहीं है। ऑनलाइन शिक्षा जारी रखने के लिए संसाधनों का उपयोग करने में असमर्थता के कारण छात्रों के आत्महत्या करने की कई रिपोट्र्स आयी हैं। हर साल आत्महत्या करने वाले छात्रों की संख्या कुल आँकड़ों का सात से आठ फ़ीसदी होता था, जो साल 2020 में बढक़र 21.2 फ़ीसदी हो गया है। इसके बाद प्रोफेशनल लोगों की संख्या 16.5 फ़ीसदी, दैनिक वेतन पाने वाले 15.67 फ़ीसदी और बेरोज़गार 11.65 फ़ीसदी के आसपास थे।

उधर छोटे उद्यमी, जिन्होंने बैंक कज़ऱ् और अन्य माध्यमों से उद्यम शुरू किया था, तालाबन्दी में उनका कामकाज चौपट हो गया। क़र्ज़ का बोझ ऊपर से आर्थिक तंगी। नतीजे में कई उद्यमियों ने आत्महत्या का रास्ता अपना लिया। विशेषज्ञों के मुताबिक, तालाबन्दी तनाव का सबसे बड़ा ज़रिया बना।

महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा आत्महत्याएँ

एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में सबसे ज़्यादा आत्महत्याएँ महाराष्ट्र में हुईं। वहाँ 19,909 लोगों ने अपनी जान दी। तमिलनाडु में 16,883, मध्य प्रदेश में 14,578, पश्चिम बंगाल में 13,103 और कर्नाटक में 12,259 लोगों ने 2020 में आत्महत्या कर ली। एनसीआरबी की रिपोर्ट में मुताबिक, कुल आत्महत्याओं में  अकेले इन पाँच राज्यों में ही 50.1 फ़ीसदी लोगों ने आत्महत्या का रास्ता अपनाया। अन्य आत्महत्या मामले  जो 49.9 फ़ीसदी आत्महत्याएँ अन्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में हुईं। इस लिहाज़ से देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश सही है। वहाँ 3.1 लोगों ने आत्महत्या का रास्ता अपनाया। यह आँकड़े इस लिहाज़ से अपेक्षाकृत कम लगते हैं कि देश की कुल आबादी के 16.9 फ़ीसदी जनता उत्तर प्रदेश में है। केंद्र शासित प्रदेशों में दिल्ली में सबसे ज़्यादा 3,142 लोगों ने ख़ुदकुशी की। रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में 2020 में आत्महत्या करने वाले लोगों में से कुल 56.7 फ़ीसदी लोगों ने पारिवारिक समस्याओं (33.6 फ़ीसदी), विवाह सम्बन्धी समस्याओं (पाँच फ़ीसदी) और किसी बीमारी (18 फ़ीसदी) के कारण आत्महत्या की।

आत्महत्या के कारण

तालाबन्दी बढऩे के बाद देश में आत्महत्या बढऩे के मामले बढऩे का ख़तरा जताया गया था। एक सर्वे के मुताबिक, तालाबन्दी में भारत के लोगों का मानसिक स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हुआ है। सर्वे के मुताबिक, हर पांच में से एक भारतीय मानसिक बीमारी से जूझ रहा है। लॉकडाउन की घोषणा के बाद कमोवेश पूरी आबादी प्रभावित हुई। चिकित्सा विशेषज्ञों के मुताबिक लाखों लोग बेरोज़गार हुए। इस कारण से लोगों को कई गम्भीर तनावों और रोगों ने घेर लिया है। चिकित्सा जानकारों के मुताबिक, देश में कई ऐसे मामले भी दिखे, जिनमें ऐसे लोगों जो जीवन में कभी मानसिक रोग से नहीं जूझे, वे भी आज परेशानियों का सामना कर रहे हैं। मनोविज्ञानियों के मुताबिक, महामारी के कारण बच्चे भी मानसिक रूप से प्रभावित हुए हैं। इंडियन साइकेट्री सोसायटी (आईपीएस) का एक सर्वे ज़ाहिर करता है कि तालाबन्दी के बाद मानसिक बीमारी के मामले 30 फ़ीसदी तक बढ़े हैं। आज हर पाँचवाँ व्यक्ति मानसिक बीमारी से जूझ रहा है। आईपीएस का कहना है कि बार-बार के तालाबन्दी से आर्थिक परेशानियाँ बढ़ी हैं। इसके अलावा आइसोलेशन ने देश में नया मानसिक संकट पैदा किया है। इन सबसे आत्महत्या के मामले बढ़े हैं।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, अब मानसिक स्वास्थ्य का असर दिख रहा है। वैसे यह संकट काफ़ी देर से चल रहा है और लोग भटकते जा रहे हैं। मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक, बढ़ती घरेलू हिंसा और आइसोलेशन के कारण बच्चों में मानसिक बीमारी बढऩे का ज़्यादा जोखिम है। दिलचस्प बात यह भी है कि तालाबन्दी दौरान भारत में शराब न मिलने के कारण भी लोगों ने आत्महत्या की। वैसे देश में सन् 2017 में केंद्र सरकार ने मेंटल हेल्थकेयर एक्ट लागू किया था। इसके तहत नागरिक सरकारी मदद से अपना मानसिक इलाज करा सकते हैं।