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पत्रकारिता की दुर्गति

शिवेन्द्र राणा

पिछले दिनों एक चर्चित हिन्दी समाचार चैनल की महिला उद्घोषिका का वीडियो वायरल हुआ, जिसमें वह स्टूडियो में छाता लेकर एंकरिंग कर रही हैं। पीछे विशालकाय स्क्रीन पर एक वीडियो चल रहा है, जिसमें तूफ़ानी हवा चल रही है और एंकर स्टूडियो में हिल रही थीं और यह सब वह पूरे नाटकीय अंदाज़ में कर रही थीं। इस घटना ने यह ध्यान दिलाया कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया वर्ग की पत्रकारिता ऐसे ही गर्त में नहीं पहुँची है। ऐसे ही अगम्भीर प्रकृति के पत्रकारों ने इसके लिए अनवरत योगदान दिया है, जो अब और ज़ोरों पर है।

कुछ दिनों पूर्व प्रो. आनंद रंगनाथन ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में आरोप लगाया था कि ‘मीडिया को बर्बाद प्रिंट मीडिया ने किया है।’ सम्भवत: उन्होंने सत्य को एकांगी नज़रिये से देखा है। वास्तव में मीडिया की बर्बादी का मुख्य ज़िम्मेदार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया है। कोई भी विवादित वीडियो पोस्ट करना; आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर ख़बरें दिखाना, और विवाद होने पर उसे डिलीट करके भाग जाना; किसी बलात्कार की शिकार युवती का नाम उजागर करना; तो किसी यौन हिंसा पीडि़त बच्ची की तस्वीर प्रकाशित करना; बिना नागा हर रोज़ निम्न स्तर की भाषा यानी गाली-गलौज से भरी अनुत्पादक बहसें आयोजित करना; हिंसा भडक़ने की हद तक धार्मिक विषयों की बदज़ुबानी करवाना; सरकार की छवि पर धब्बा लगाने वाली बड़ी ख़बरें छुपाना आदि अब अधिकतर टीवी चैनल्स का पेशा बन चुका है। अमर्यादित भाषा से फैलने वाले विषाक्त वातावरण के लिए यही मीडिया संस्थान ज़िम्मेदार हैं।

मामूली फ़र्ज़ीवाड़े की मिलावट को छोड़ दें, तो इतनी ग़ैर-ज़िम्मेदार प्रिंट मीडिया तो कल भी नहीं थी और आज भी नहीं है। चूँकि प्रिंट मीडिया तथ्यों पर आधारित पत्रकारिता करता है, अपने लेखों, ख़बरों की निर्भीक ज़िम्मेदारी स्वीकार करता है। इसलिए उसके लिए यह आरोप सर्वथा अनुचित है। साथ ही वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अपने प्रदर्शन के लिए चीखता-चिल्लाता नहीं है। इसलिए उस पर ऐसी तोहमत लगाना आसान है। इसी परिपेक्ष्य में मदन मोहन दानिश का शे’र याद आता है :-

ये हासिल है मिरी ख़ामोशियों का,

कि पत्थर आज़माने लग गए हैं।’

कम-से-कम प्रिंट मीडिया की मूर्खता इस स्तर की नहीं है कि सरसों के खेतों को धान-गेहूँ के खेत बताने वाले महान् पत्रकारों, जो एनडीटीवी से लेकर दूरदर्शन में काम कर रहे हैं; के सहारे अपना कार्य कर रहा है। इनका ज्ञान इस स्तर का है कि निर्धारित विषयों पर 10 पंक्तियाँ भी लिख नहीं सकते, उनकी तुलना प्रिंट मीडिया के क़लम के सिपाहियों से की भी नहीं जानी चाहिए। रही बात टीवी पर डिबेट करने की, तो उसके लिए आप बिहार और उत्तर प्रदेश के किसी भी चौराहे पर चाय की दुकान में जाइए, उनसे अच्छे वक्ता आपको वहाँ पर मिल जाएँगे।

आप देखेंगे कि भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का रवैया दिनोंदिन ग़ैर-ज़िम्मेदार होता जा रहा है। रूस-यूक्रेन संघर्ष के शुरुआती दिनों को याद करिए। इसके युद्धोन्माद की गम्भीर आलोचना पश्चिमी जगत में हुई। अब राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा का उदाहरण लीजिए। चर्चा की आवश्यकता उन मुद्दों की थी, जिन पर उनकी यह यात्रा आधारित है। लेकिन मीडिया की तवज्जो उनके टी-शर्ट और स्वेटर न पहनने और उनके हिन्दू दिखने के प्रयास पर थी। सबसे बढक़र इलेक्ट्रोनिक मीडिया, जो पिछले कई वर्षों से धर्म आधारित डिबेट से बाहर ही नहीं निकल पा रहा है। यदि धर्म आधारित विषयों पर ही टीवी डिबेट आयोजित किये जाने हैं, तो बहसों का प्रारूप बदलना चाहिए। यदि पूर्व की सरकारों पर धार्मिक तुष्टिकरण का आरोप लगाने से फ़ुर्सत मिले, तो कुछ प्रश्न वर्तमान सरकार से भी पूछे जाने चाहिए जैसे कि अब तक मंदिरों को सरकारी संरक्षण से मुक्त क्यों नहीं किया गया? अब तक कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास क्यों नहीं हो पाया? अगर डीएमके के शासन में तमिलनाडु में प्राचीन हिन्दू मंदिर गिराये जाने की आलोचना हो रही है, तो भाजपा शासित राज्यों में मंदिरों के ध्वंस पर विमर्श क्यों नहीं होना चाहिए?

देश के सारे मीडिया संस्थानों ने भले ही पत्रकारी नैतिकता और शुचिता का आडम्बर खड़ा कर रखा है; लेकिन वास्तविकता से सभी परिचित हैं। वे सभी विषय पर बात करना चाहते हैं; बस पत्रकारिता में आयी गिरावट को छोडक़र। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चैनल उन भौतिकतावादी, धन-पिपासु संस्थान सरीखे हो गये हैं; जहाँ नैतिकता की कोई जगह नहीं बची है। और जब नैतिकता पर व्यावसायिक धुंध छाती है, तो आत्मचेतना लुप्त हो जाती है। भले ही यह व्यावसायिक पत्रकार वर्ग स्वयं को शिक्षित समझे; लेकिन शिक्षा वह होती है, जो सकारात्मक परिवर्तन लाये। ओशो ठीक ही कहते हैं- ‘जो ज्ञान मुक्ति न दे, वह ज्ञान नहीं। ज्ञान की परिभाषा यही है, जो मुक्त करे।’

पत्रकारिता समाज का आईना होती है। किन्तु पेशागत यह मूल तथ्य मीडिया जगत कब का बिसरा चुका है। शिक्षा के प्रभाव के विषय में रूसो का अभिमत था कि इससे मनुष्य अच्छा नहीं, चालाक बनता है। वर्तमान के तकनीकी प्रधानता के युग में सूचनाओं की अतिशयता ने ज्ञान की नैतिक लकीर को धुँधला किया है। पत्रकारिता से जुड़ी नयी पीढ़ी के ज्ञान के न्यूनतम विमर्श का स्तर भी नीचे गिरा दिया है। इनके पास तर्क है। दुनिया बदल रही है सभी व्यावसायिकता की दौड़ में आगे निकलना चाहते हैं, भले ही उसके लिए जिस निम्नकोटि के मार्ग का अनुसरण करना पड़े।

पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने के पीछे मूल कारण है, उसके आम जनता यानी हम भारत के लोगों की संप्रभुता की आवाज़ बनना बनना। लेकिन राजनीतिक मुद्दों पर बढ़ती निर्भरता, जनमुद्दों की अनदेखी आदि ने लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को संसदीय राजनीति के स्तंभ में लगभग एकाकार का कार्य कर दिया है। हालाँकि उसमें भी यह निष्पक्ष एवं वस्तुनिष्ट नहीं रहा, बल्कि $खेमों में बँट चुका है। जहाँ पत्रकार वर्ग या तो सत्ताधारी दल के साथ हैं या विपक्षी जमात के साथ; किन्तु कोई भी भारतीय जनता के साथ खड़े होने को तैयार नहीं है। स्वतंत्र भारत में पत्रकारिता के इतिहास पर दृष्टिपात करें, तो प्रतीत होता है कि मुख्यधारा के एक बड़े मीडिया वर्ग का सत्ता के साथ रहना उसकी नियति रहीं है। अधिक नहीं, तो पिछले दो दशकों के इतिहास पर ही नज़र डाल लें। पिछले सप्ताह लेखक एवं पत्रकार संदीप देव ने एक टिप्पणी की- ‘‘सोनिया की मनमोहनी सरकार के समय ‘पेटीकोट पत्रकारिता’ होती थी, अब ‘ख़ाकी निक्कर’ पत्रकारिता चल रही है। वस्तुनिष्ठ पत्रकारिता तो कब का दम तोड़ चुकी है।’’

भाषाई आक्रामकता की अनदेखी करते हुए इस कथन को निरपेक्ष भाव से देखें, तो पत्रकारिता की वर्तमान विद्रूपता स्पष्ट समझ आएगी। नेता, राजनेता, राजनीति और अपराध के अतिरिक्त भी अन्य मूलभूत समस्याएँ इस देश में हैं, जिन पर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के तवज्जो की दरकार है। लेकिन मीडिया ने अब तक जितनी बहस नेताओं के मात्र विवादित बयानों पर की है, उसका दशांश भी घटती रोज़गार दर, आरक्षण की समीक्षा, जातिगत जनगणना के औचित्य, जनसंख्या विस्फोट, देश के उच्च शिक्षित प्रतिभाओं के यूरोप-अमेरिका पलायन, उच्च शिक्षा की निम्न उत्पादकता, सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के क्षरण, पंचायती राज, भुखमरी, ग़रीबी, बढ़ते अपराध या तीसरी सरकार, देश में आकंठ व्याप्त भ्रष्टाचार, संसदीय मर्यादाओं एवं जनप्रतिनिधित्व का गिरता स्तर, ग्लोबल वार्मिंग एवं धारणीय विकास जैसे तमाम संवेदनशील एवं अत्यावश्यक मुद्दों पर नहीं की; जिस पर भावी भारत का भविष्य निर्भर करता है। उससे अधिक मीडिया कवरेज अतीक, मुख़्तार और लारेंस विश्नोई जैसे अपराधियों को मिलता रहा है। मानो वे कोई मसीहा हों। जैसे फ़लाँ समय इनकी गाड़ी जेल से निकली, फ़लाँ समय कोर्ट पहुँचेगी, फ़लाँ समय वहाँ पहुँचेगी आदि-आदि।

पिछले दिनों एक प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक ने अपने ऑनलाइन संस्करण में सिनेमाई विवादों की जानकारी देने के लिए ‘विवाद बॉलीवुड के’ नाम से एक सीरीज शुरू की है, जिसमें फ़िल्मी हीरोइनों के आपसी झगड़ों से जनता को रू-ब-रू कराने का वादा किया गया है। यही नहीं, आजकल इंटरनेट पर ख़बरें पढऩे की कोशिश में आपका सामना कुछ ऐसे शीर्षक से हो सकता है, जैसे- फ़लाँ हीरोइन ने हॉट ड्रेस फोटो शूट में कहर ढाया, फ़लाँ की बिकनी की तस्वीरें आपको आह भरने पर मजबूर कर देंगी, ब्रालेश ड्रेस में फ़लाँ हीरोइन छा गयी, इत्यादि। क्या आप इन पंक्तियों को पढ़ के असहज महसूस कर रहे हैं? किन्तु ये पंक्तियाँ पत्रकारिता के नये मानकों से आपका परिचय करवाएँगी। आजकल विभिन्न प्रकार के कल्चरल फेस्ट, संवाद-परिचर्चा वग़ैरह आयोजित किये जा रहें हैं। ऐसे आयोजनों में आजकल पत्रकारों के समकक्ष सोशल मीडिया इनफ्लुएंसरों को बहस के लिए आमंत्रित किया जा रहा है और आम-गुमनाम क्या देश के वरिष्ठ पत्रकार ऐसे कार्यक्रमों में शिरकत कर रहे हैं, तो अब पत्रकारिता का विमर्श अब इस स्तर पर आ गया है। पत्रकार एवं पत्रकारिता की आज जो दुर्दशा है, उसकी एक बड़ी वजह इसका कोई स्थापित मानक नहीं होना है। आजकल कोई भी जो छोटी-मोटी ख़बरें किसी भी तरह लिख सकता है, वह स्वयं को पत्रकार कहने के लिए तैयार बैठा है। साथ ही मीडिया जगत में विज्ञापन का कारोबार करने वाले भी खुद को पत्रकार बताते हैं। असल में भारतीय मीडिया की एक बड़ी समस्या अल्पज्ञ एवं त्वरित प्रगति को आतुर वर्ग है, जो दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से पत्रकार श्रेणी में शामिल हो गया है।

राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी जैसे लोगों ने पत्रकारिता के मानक स्थापित किये थे। खुशवंत सिंह चाहे जितना विवादित लेखन करते रहे हों; लेकिन उनके बारे में कहा जाता था कि वह अपने लिए प्रकट अभद्र आलोचना तक अपनी पत्रिका में प्रकाशित कर दिया करते थे। आज न तो पत्रकारिता की वो नैतिकता बची है, न ही मूल्य। हालाँकि इस घुप अंधकार में पत्रकारों का एक ऐसा वर्ग भी है, जो मौन होकर अपनी साधना में रत है। यह वर्ग ‘कैमरा फ्रेंडली’ नहीं हैं, किन्तु इसे पता है कि किन मुद्दों पर समाज की जागरूकता ज़रूरी है। यह सार्वजनिक मंचों पर लम्बी-लम्बी डिबेट नहीं करता; किन्तु यह जानता है कि उसके क़लम को किसे कटघरे में खड़ा करना है। यह वर्ग किसी दल या विचारधारा के साथ नहीं है, बल्कि लोकतंत्र का हामी है। इसकी आस्था का केंद्र केवल और केवल देश एवं संविधान है। इसी पत्रकारिता धर्म के अनुयायियों ने लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की मर्यादा को बचाकर रखा है और आम जनता के भरोसे को भी। तेज़ भागती इस दुनिया में क़लम से पैदा होने वाली जुम्बिश कुछ मंद ज़रूर पड़ी है और कैमरे वाली मीडिया ने अपना कृत्रिम आभामण्डल ज़रूर प्रसारित कर रखा है; किन्तु पत्रकारिता की यात्रा का यह प्रस्थान बिन्दु है; नियति नहीं। याद रखिए, घोर काली रात के पश्चात् सुबह बड़ी खूबसूरत होती है। पत्रकारिता उसी भोर की प्रतीक्षा में है।

(लेखक पत्रकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)

महागठबंधन की नज़र लक्ष्य पर

अब अगले महीने बेंगलूरु में मंथन करेंगे विपक्ष के नेता

पटना में महागठबंधन के लिए 15 विपक्षी दलों की बैठक के बाद जो उत्साह और तेज़ी विपक्ष में दिख रही है, उसे धरातल पर कितनी सफलता मिलती है, यह तो समय ही बताएगा। लेकिन गठबंधन की इस क़वायद ने भाजपा को भी सक्रिय कर दिया है, जो मान रही है कि विपक्ष गठबंधन के लिए ज़्यादा गंभीरता से काम कर रहा है। बेशक एक वृहद् गठबंधन के विपक्ष के रास्ते में अभी काफ़ी तीखे मोड़ और ढलानें हैं। बावजूद इसके विपक्ष एकजुट होता है, तो भाजपा के लिए यह निश्चित ही बड़ी चुनौती होगी। विपक्षी दलों की भाजपा के ख़िलाफ़ गठबंधन पर मंथन के लिए अगली बैठक 12 जुलाई को बेंगलूरु में है। इसमें सीटों के तालमेल और साझा न्यूनतम कार्यक्रम पर बात हो सकती है।

विपक्षी गठबंधन से पहले ही जद(यू) नेता के.सी. त्यागी का यह दावा बहुत अहम है कि पश्चिम बंगाल में टीएमसी और कांग्रेस का और उत्तर प्रदेश में सपा और कांग्रेस का गठबंधन लगभग तय है। उनके मुताबिक, 450 सीटों पर भाजपा के ख़िलाफ़ एक उम्मीदवार की रणनीति बन चुकी है। उनके मुताबिक इन राज्यों में बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, असम, पूरा पूर्वोत्तर, महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश समेत लगभग एक दर्ज़न से ज़्यादा राज्य शामिल हैं।

इधर, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को यह श्रेय दिया जा सकता है कि पटना में 15 दलों को वह एक छतरी के नीचे बैठाने में सफल रहे। इन 15 दलों के छ: मुख्यमंत्री और पाँच पूर्व मुख्यमंत्री बैठक में शामिल थे। इनमें से कुछ अपने दलों में अध्यक्ष की हैसियत रखते हैं, जबकि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े तो बैठक में आये ही थे। ‘तहलका’ की जानकारी बताती है कि विपक्ष के इन दलों ने मतभेद वाले मुद्दों को पीछे रखकर पहले सहमति बन सकने वाले मुद्दों को सिरे चढ़ाने का फ़ैसला किया है। टकराव वाले मुद्दों में सबसे पेचीदा मुद्दा नेतृत्व का है, जबकि सीटों के बँटवारे पर भी तलवारें कम नहीं चलेंगी। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) के बीच सहमति में भी पेंच फँसा हुआ है। कांग्रेस पंजाब और दिल्ली में किसी भी सूरत में अपनी लोकसभा सीटें आम आदमी पार्टी के साथ साझा नहीं करना चाहेगी। आम आदमी पार्टी को लगता है कि चूँकि दिल्ली और पंजाब में उसकी सरकारें हैं। लिहाज़ा उसे लोग वोट देंगे। जबकि कांग्रेस का मानना है कि 2014 और 2019 से पहले 2009 में दिल्ली में उसने सभी सात, जबकि 2019 में पंजाब में 13 में से आठ सीटें जीती थीं। आम आदमी पार्टी का अध्यादेश के समर्थन के मामले में कांग्रेस से टकराव सीटों का दबाव बनाने के लिए ही है, क्योंकि कांग्रेस पहले ही कह चुकी है कि राज्य सभा में वह दिल्ली वाला अध्यादेश आने पर उसका विरोध करेगी।

आँकड़े देखें, तो साल 2019 में दिल्ली में कांग्रेस को क़रीब 23 फ़ीसदी वोट मिले थे, जबकि आम आदमी पार्टी को 18 फ़ीसदी। उस चुनाव में भी कांग्रेस-आम आदमी पार्टी में समझौता नहीं था। पिछले साल पंजाब विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को हराकर बड़ी जीत हासिल की थी। पंजाब में 2019 के लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को पंजाब में आठ फ़ीसदी से कुछ ज़्यादा और एक सीट मिली थी। कांग्रेस को इसके विपरीत 40 फ़ीसदी से कुछ ज़्यादा वोट और 13 में 8 सीटें मिली थीं। पंजाब में कांग्रेस और आप के लिए लोकसभा सीटों का समझौता सबसे टेढ़ी खीर साबित हो सकती है।

बेंगलूरु की बैठक में विपक्षी दल सीटों को लेकर शुरुआती बात कर सकते हैं। कांग्रेस के लिए नेतृत्व के मसले पर बात करना उसकी रणनीति में फिट नहीं बैठता लिहाज़ा वह सीटों पर बात शुरू कर सकती है। कांग्रेस इस साल होने वाले अन्य विधानसभाओं के चुनाव के नतीजे देखना चाहती है। उसे लगता है कि यदि नतीजे उसके पक्ष में रहते हैं, तो इससे देश में जनता के मूड का पता चलेगा। बेहतर नतीजों की स्थिति में मोल-भाव उसके लिए आसान हो जाएगा। कांग्रेस पटना की बैठक के बाद आपस में सीटों का गुना-भाग कर रही है कि दिल्ली, पंजाब जैसे अपने पकड़ वाले राज्यों में आप के साथ किस स्तर तक समझौता करना है। आम आदमी पार्टी के साथ कांग्रेस का टकराव बढ़ा तो पेंच भी फँस सकता है। पटना में कांग्रेस को लेकर विरोध दिखाने के लिए ही आप नेता अरविन्द केजरीवाल प्रेस कॉन्फ्रेंस में शामिल नहीं हुए थे। यह तय है कि कांग्रेस सीटों को लेकर एक सीमा तक ही समझौता करेगी। कांग्रेस के रुख़ के आधार पर केजरीवाल विपक्षी गठबंधन से अलग होने का रिस्क नहीं ले सकते। गठबन्धन में ऐसे कई दल हैं, जो केजरीवाल के जम्मू-कश्मीर में धारा-370 हटाने के मामले में भाजपा के साथ खड़े होने से ख़ुश नहीं हैं।

केजरीवाल के लिए भी कठिनाइयाँ कम नहीं हैं। विपक्ष के बीच वे सभी चीज़ें अपने हिसाब से नहीं चला पाएँगे। यदि ज़्यादा सख़्त रुख़ रखते हैं, तो विपक्षी ख़ेमे में अलग-थलग पड़ सकते हैं। केजरीवाल ये सब चीज़ें जानते हैं। लिहाज़ा एक सीमा तक ही विरोधी स्वर उठाएँगे। आप नेता सौरभ भारद्वाज का यह तर्क भी बहुत बेहतर नहीं था कि कांग्रेस दिल्ली और पंजाब उसके लिए छोड़ दे, तो आप मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उम्मीदवार नहीं उतारेगी। सभी को पता है कि इन तीन राज्यों में भाजपा और कांग्रेस के अलावा अन्य दलों के ज़्यादा गुंजाइश नहीं है। जबकि भविष्य में दिल्ली और पंजाब दोनों में कांग्रेस सीटें जीत सकती है। हाँ, गुजरात एक ऐसा राज्य है, जहाँ आम आदमी पाटी ने हाल के विधानसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन किया था और वह कांग्रेस को नुक़सान कर सकती है। हालाँकि कांग्रेस यह मानती है कि देश में भाजपा विरोधी माहौल बने तब भी 2024 में शायद गुजरात में भाजपा से ज़्यादा सीटें छीनना आसान नहीं होगा।

पटना की बैठक में एक चीज़ और दिखी कि अरविंद केजरीवाल को लेकर नीतीश समेत किसी और नेता ने खुलकर पत्रकारों को कोई जवाब नहीं दिया। राहुल गाँधी ने अपनी टिप्पणी में भाजपा और आरएसएस पर देश की नींव पर हमला करने का आरोप लगाया। जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने कहा कि जो कश्मीर से शुरू हुआ, वो अब पूरे देश में हो रहा है। उमर अब्दुल्ला ने आरोप लगाया कि वह और महबूबा मुफ़्ती ऐसे बदनसीब इलाक़े से ताल्लुक़ रखते हैं, जहाँ गणतंत्र का गला दबाया जा रहा है। कश्मीर में पाँच साल से राष्ट्रपति शासन लगा हुआ है। हालाँकि ममता की टिप्पणी उत्साह से भरी थी। उनकी बातों का सार यही थी कि विपक्षी दलों की गाड़ी सही दिशा में जा रही है। सीपीएम नेता सीताराम येचुरी भी प्रेस कॉन्फ्रेंस में सकारात्मक दिखे। ममता का यह कहना मायने रखता है कि ‘हमें विरोधी कहकर सम्बोधित न करें। हम भी इसी देश के नागरिक और देशभक्त हैं।’ उनके मुताबिक, विपक्षी दल तीन बातों पर सहमत हुए हैं। इनमें पहली यह है कि हम एकजुट हैं। दूसरी, हम एक होकर लड़ेंगे। तीसरी, भाजपा के एजेंडे के ख़िलाफ़ विपक्षी गठबंधन एकजुट होकर विरोध करेगा। ममता ने जब यह कहा कि विपक्षी नेताओं ईडी और सीबीआई के अलावा वकीलों से कोर्ट में उनके ख़िलाफ़ केस दर्ज करवाकर भी परेशान किया जा रहा है। उनका संकेत राहुल गाँधी को कोर्ट की तरफ़ से मानहानि मामले में दोषी ठहराने पर था। जहाँ तक बैठक की बात है, उसमें अरविंद केजरीवाल ने कहा कि दिल्ली सरकार के अधिकारों की रक्षा के लिए सभी उनका साथ दें और बिल राज्यसभा में न पास होने दें।

कुल मिलाकर विपक्ष की बेंगलूरु की जुलाई बैठक काफ़ी अहम होगी। उसमें गठबंधन के शुरुआती; लेकिन महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर चर्चा होगी, जिस पर सहमति का आधार बनानी की कोशिश की जाएगी। इसका मक़सद भाजपा पर दबाव बनाना भी होगा; जो गठबन्धन को लेकर सवाल उठा रही है।

राहुल किसके दूल्हा?

लालू यादव राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। वह मज़ाक़ की आड़ लेकर ढके-छिपे अंदाज़ में बहुत बातें कह जाते हैं। पटना की बैठक के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान जब उनके बोलने की बारी आयी, तो उन्होंने कांग्रेस नेता राहुल गाँधी से काफ़ी दिलचस्प बातें कहीं। इनमें एक उनकी शादी को लेकर भी थी। लालू ने कहा- ‘आप दूल्हा बनिए, हम सब आपके बाराती बनेंगे।’ लालू उनसे विवाह करने पर ज़ोर दे रहे थे। राजनीतिक रूप से इसे किसी और रूप में भी लिया जा सकता है।

लालू ने राहुल गाँधी को क्या ‘विपक्ष का दूल्हा’ बनने के लिए यह कहा? अर्थात् क्या लालू ने सीधे न कहकर यह कहा कि विपक्ष का आप नेतृत्व करो; बा$की दल आपके साथ (बाराती) होंगे। अभी तो राहुल गाँधी का ‘सभी मोदी चोर क्यों होते हैं?’ वाली टिप्पणी पर आपराधिक मानहानि मामले में कोई अंतिम फ़ैसला नहीं हुआ है। उनकी सदस्यता का मामला भी 2024 तक सुलटेगा या नहीं, यह भी अभी साफ़ नहीं है। लेकिन प्रेस कॉन्फ्रेंस में लालू ने उनकी राजनीति की भी तारीफ़ की, जबकि ममता बनर्जी ने भी नीतीश के बाद राहुल गाँधी का नाम लेकर अपना सम्बोधन शुरू किया।

क्या समय से पहले होंगे देश में चुनाव?

कर्नाटक चुनाव में हार के बाद भाजपा में गहन मंथन और चिन्तन चल रहा है कि किस तरह से राज्यों में होने वाले आगामी चुनावों के साथ-साथ 2024 के लोकसभा चुनावों में जीत हासिल की जा सकती है?

पाञ्चजन्य में छपे संघ के एक लेख और नीतीश के इस इशारे ने कि भाजपा पूर्व चुनाव की तैयारी में है; इस बात को और हवा दे दी है कि भाजपा में आगामी चुनावों में किसी भी तरह साम, दाम, दण्ड और भेद की नीति अपनाकर जीत के लिए कुछ अलग ही खिचड़ी पक रही है। भले ही इसकी सही-सही हवा बाहर नहीं पता चल पा रही है; लेकिन भाजपा के भीतर से ही छन-छन कर आ रही ख़बरें इस बार पूर्व चुनावों का शक़ बढ़ाती नज़र आ रही हैं। मसलन, चुनाव आयोग से केंद्र सरकार का यह पता करना कि क्या पहले चुनाव कराये जा सकते हैं? या फिर संघ का पाञ्चजन्य में लेख कि भाजपा को सिर्फ़ मोदी के जादू और हिन्दुत्व पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, पूर्व चुनाव कराने की दिशा में शक की सूई को और भी घुमाते नज़र आते हैं।

सवाल यह है कि क्या मोदी सरकार ने इसकी तैयारी बहुत पहले से शुरू कर दी है? क्योंकि अभी चुनाव में क़रीब-क़रीब एक साल का समय बचा है; लेकिन मोदी सरकार ने अभी से अपने सभी मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और नेताओं, कार्यकर्ताओं को अपने नौ साल के कामों को गिनाने के लिए जनता के बीच भेज दिया है। जबकि होना यह चाहिए था कि मोदी सरकार अभी छ:-सात महीने का और इंतज़ार करती और अपने 10 साल के कामों को लेकर जनता के बीच जाती।

हालाँकि मोदी सरकार ने हमेशा तो नहीं; लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव यानी 2019 में अपने पिछले पाँच वर्षों के कामकाज को जनता के बीच ले जाकर दोबारा सत्ता सौंपने के लिए वोट माँगे थे।

दरअसल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ग्रामीण विकास विभाग के मंत्रियों के साथ बैठक में इशारों-इशारों में 2024 के आगामी लोकसभा चुनावों को समय से पहले कराने के केंद्र की मोदी सरकार की मंशा को बताते हुए कहा है कि कभी भी चुनाव हो सकते हैं। इसके पीछे एक चिन्ता, चुनाव के प्रति तैयारी का संदेश छुपा है। इसके बाद से राजनीतिक गलियारों में पूर्व चुनाव की चर्चाओं का बाज़ार गरम है। लोग यह मान रहे हैं कि नीतीश ऐसे ही इतनी बड़ी बात नहीं कहते, क्योंकि वो राजनीति के मँझे हुए खिलाड़ी हैं, और उनका हर हाल में सत्ता में बने रहना, यहाँ तक कि बिहार में भाजपा वाले गंठबंधन के बंधनों को तोडक़र एक बार फिर लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के साथ सरकार बना लेना, भाजपा की मंशा को भाँपने और उससे डर से बाहर निकलने का साहस दिखाना किसी छोटे-मोटे नेता की वश की बात नहीं थी। यही वजह है कि नीतीश के राजनीतिक चालों और बयानों पर लोग भरोसा करते हैं और राजनीतिक लोगों में उनकी अपनी एक साख है।

यह निर्देश अपने गठबंधन के दल, अपने सांगठनिक पदाधिकारी और कार्यकर्ता के अलावा ज़िम्मेदार सरकारी महकमे को देकर उनके प्रति ज़्यादा-से-ज़्यादा आशान्वित भी हो जाते हैं। ऐसा इसलिए कि यह नीतीश कुमार भी जानते हैं कि भाजपा राम मंदिर निर्माण के पहले लोकसभा चुनाव के मैदान में उतरना नहीं चाहेगी। हो सकता है कि नीतीश कुमार की पूर्व चुनावों को लेकर भविष्यवाणी $गलत साबित हो; लेकिन अकेले नीतीश कुमार ही नहीं, बल्कि कई राजनीतिक जानकार और कई राजनीतिक लोग भी इस बात को दबी ज़ुबान से कह रहे हैं कि मोदी सरकार किसी भी हाल में जीतने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। लेकिन सवाल यह है कि क्या 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले होने वाले विधानसभा चुनावों को भी समय से पहले कराया जा सकता?

यह सवाल इसलिए भी, क्योंकि कर्नाटक में भाजपा की करारी हार के बाद अब यह बातें ख़ूब हो रही हैं कि भाजपा के हाथों से अब राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और इसके अलावा महाराष्ट्र और फिर तेलंगाना, तमिलनाडु जैसे राज्य भी भाजपा के हाथों से खिसकने वाले हैं। भाजपा नेतृत्व को भी यह बात अच्छी तरह पता है। मणिपुर में वैसे भी भाजपा के ख़िलाफ़ लोग प्रदर्शन करने लगे हैं। दिल्ली में भाजपा हर कोशिश कर रही है; लेकिन केजरीवाल का तोड़ उसके पास नहीं है। बंगाल में ममता बनर्जी का तोड़ नहीं है। पंजाब में भी कोई जुगाड़ नहीं है। बिहार में भी उसके लिए रास्ता नहीं है। हिमाचल भी खिसक चुका है भाजपा के हाथ से, गोवा में भी जोड़-तोड़ करके भाजपा ने सरकार बनायी है।

बहरहाल विपक्षी पार्टियाँ किसी भी हाल में मोदी को सत्ता से बाहर करने के लिए तैयार बैठी हैं; लेकिन उनमें एकजुटता का न होना, मोदी सरकार के लिए फ़ायदेमंद हो सकता है। लेकिन ज़्यादातर जनता महँगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी और बढ़े टैक्स के चलते मोदी सरकार से नाराज़ है और ज़्यादातर लोग किसान आंदोलन, पहलवान आंदोलन, पेंशन के मुद्दे, सरकारी पदों पर भर्ती न होने के मुद्दे, शिक्षा व्यवस्था के ख़राब होने के मुद्दे, कालेधन के मुद्दे, देश का पैसा लेकर विदेश भागने वाले पूँजीपतियों के मुद्दे, बैंकों के ख़ाली होने के मुद्दे और नोटबंदी के क़रीब आठ साल बाद 2,000 के नोट के बन्द होने के मुद्दे और चीन के हिन्दुस्तान की ज़मीन पर पैर जमाने की कोशिश जैसे मुद्दे को लेकर मोदी सरकार से नाराज़ है। ऐसे में अगर 2024 के लोकसभा चुनाव को कुछ महीने पहले ही चुनाव आयोग कराने की घोषणा कर भी देता है, तो भी मोदी सरकार को उससे बहुत बड़ा फ़ायदा नहीं होने वाला।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह भी सोच सकते हैं कि गुजरात में उन्होंने 2002 में होने वाले विधानसभा चुनावों को 2001 में कराकर जीत हासिल की थी। इसी प्रकार से वह यही प्रयोग यहाँ भी कर सकते हैं। हालाँकि इससे जीत की गारंटी नहीं है; लेकिन कांग्रेस भी इस तरह के प्रयोग कर चुकी है। ज़्यादातर पूर्व चुनावों में सत्ताधारी दल को फ़ायदा पहुँचता है; लेकिन कई बार सरकार गिरने के बाद समयावधि से पूर्व हुए चुनावों में सत्ताधारी पार्टी बुरी तरह हार भी जाती है। हालाँकि कहा जा रहा है कि मोदी सरकार हर एंगल से चिन्तन, मनन करके, और जीत के आँकड़ों के पूरे जोड़-तोड़ की रणनीति पर मंथन करके ही पूर्व चुनावों की कोशिश करेगी।

बहरहाल नीतीश कुमार ने एक सधे अंदाज़ में पके हुए राजनीतिक की तरह भाजपा की पूर्व चुनावों की रणनीति को भाँपते हुए अपनी कमर कस ली है और अभी से बिहार में भाजपा की लोकसभा सीटों पर जीतने की तैयारी शुरू कर दी है। वह जल्द ही सभाएँ करेंगे। वह अपने आवास पर महागठबंधन के जुटान से विपक्षी एकता की शुरुआत भी कर चुके हैं। यह सच है कि 2024 के लोकसभा चुनाव की रणनीति बनाने से पहले भाजपा को उसके पहले होने वाले पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए जीत की रणनीति बनानी ही पड़ेगी। वन नेशन, वन चुनाव का राग अलापने वाली भाजपा आज उस मोड़ पर आकर खड़ी है, जहाँ उसका जादू काफी फीका पड़ा है और स्थानीय मुद्दों से वो भागती दिखती है। जबकि विधानसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दे अहम होते हैं। लोकसभा चुनावों में आज भी मोदी पर ही भरोसा किया जाता है कि वो ही अन्त में पार्टी की नैया पार लगा सकते हैं; लेकिन अपनी ख़राब होती छवि को लेकर मोदी भी चिन्ता में हैं। राजनीति के कुछ जानकार 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले होने वाले राज्यों-मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के विधानसभा चुनावों को 2024 का सेमीफाइनल मान रहे हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए एक-डेढ़ महीने पहले चुनाव आयोग ने चुनावी तारीखों का ऐलान किया था। अगर इस बार भी समय पर चुनाव हुए, तो फिर पिछली बार की ही तरह एक-डेढ़ महीने ही चुनावी तारीखों की घोषणा होने की सम्भावना है। लेकिन अगर चुनाव पहले ही होने की तैयारी चल रही है, तो फिर तीन-चार महीने में ही पूरी तस्वीर साफ़ हो जाएगी और यह भी पता चल जाएगा कि भाजपा की आगामी चुनावों, ख़ासतौर पर लोकसभा चुनावों को लेकर क्या तैयारी है? देखना होगा कि इससे पहले भाजपा की दक्षिणी राज्यों, उत्तरी राज्यों में क्या तैयारी है। कहा तो यह जाता है कि उत्तरी राज्यों में भाजपा का वोट बैंक मज़बूत है; लेकिन दक्षिणी राज्यों में उसी एंट्री मुश्किल है। लेकिन इस बार मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान का रुख़ देखकर यह नहीं लगता कि उत्तरी राज्यों में भी अब भाजपा के लिए वो जन-समर्थन मिल सकेगा, जो साल 2014 और साल 2015 में मिला था। ज़ाहिर है इसकी वजह मोदी मैजिक का फीका होना है।

पूर्व चुनावों का होना इस बात पर भी निर्भर करता है कि अगर 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले मोदी सरकार ने नये मंत्रिमंडल का गठन किया, तो चुनाव समय पर ही होंगे। हाँ, यह ज़रूर है कि मोदी सरकार का सारा का सारा तंत्र चुनावी तैयारी में लग चुका है और यह कोशिश की जा रही है कि जितने भी शिलान्यास, उद्घाटन करने हैं, वो 2024 के चुनावों से पहले ही कर लिए जाएँ। यहाँ तक कि पुराने संसद भवन को म्यूजियम बनाकर उसका उद्घाटन करने की भी तैयारियाँ ज़ोरों पर हैं। इन सब चीज़ों के मद्देनज़र आगामी सभी चुनाव बेहद दिलचस्प होने वाले हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक संपादक हैं।)

ख़तरे के बावजूद पुतिन मज़बूत

येवगेनी के विद्रोह के सूत्रधार को लेकर हैं कई चर्चाएँ

रूस में जून का आख़िरी पखवाड़ा काफ़ी हलचल वाला रहा। एक विद्रोह हुआ, जिसके बाद दुनिया भर में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को लेकर चर्चाओं का दौर शुरू हो गया। लेकिन पुतिन ने जिस रणनीति से इस कथित विद्रोह का सामना किया और बाग़ी हुए निजी सेना और वागनर ग्रुप के मुखिया येवगेनी प्रिगोझिन को उनके रूसी होने के ही हथियार से परास्त किया, वह अपने आप में अनोखा था।

अभी भी अपने देश में कई भीतरी ख़तरों के बावजूद पुतिन इस विद्रोह के बहाने कई निशाने साधने में सफल रहे हैं। वागनर ग्रुप ने जब अचानक विद्रोह किया, तो पुतिन ने इसे देश के ख़िलाफ़ विद्रोह की संज्ञा दी। उन्होंने कुछ ही घंटे के भीतर राष्ट्र को दो बार सम्बोधित किया और बाग़ियों के ख़िलाफ़ सख़्ती का सन्देश दिया। अभी 12 घंटे भी नहीं हुए थे कि वागनर ग्रुप के मुखिया येवगेनी प्रिगोझिन को पीछे हटते हुए हथियार डालने पड़े और उन्होंने एक समझौते के बाद अपने लड़ाकों को वापस जाने का निर्देश दिया। पश्चिमी मीडिया के एक हिस्से में रूस के राष्ट्रपति पुतिन के देश छोडऩे की ख़बरें भी ग़लत साबित हुईं।

येवगेनी पर तभी दबाव बन गया था, जब राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए पुतिन ने इसे विश्वासघात क़रार दिया। पुतिन ने लोगों और रूस की रक्षा करने का वादा किया। उन्होंने यह भी कहा कि रूस अपने भविष्य के लिए सबसे कठिन लड़ाई लड़ रहा है। येवगेनी को इसकी सफ़ाई देनी पड़ी और उन्होंने अपने लड़ाकों को देशभक्त बताया। रूसी जनता का रुख़ पुतिन के साथ दिखा लिहाज़ा येवगेनी को अपने लड़ाकों को मॉस्को की तरफ़ आगे बढऩे से रुकने के आदेश देने पड़े।

इसके बाद रूस ने साफ़ किया कि इस घटनाक्रम से उसके यूक्रेन में ऑपरेशन पर कोई असर नहीं पड़ेगा और वह जारी रहेगा। सिर्फ़ 12 घंटे के भीतर विद्रोह को परास्त करने की पुतिन ने जैसी रणनीति अपनायी उससे उनके और ताक़तवर होने की संभावना है। उन्होंने विद्रोह के तुरन्त बाद ही बाग़ियों पर जिस तरह हमला कर उन्हें चेताया था, उस से ही ज़ाहिर हो गया था कि येवगेनी सफल नहीं होंगे।

येवगेनी के पीछे कौन?

येवगेनी की कथित बग़ावत को लेकर कई रिपोट्र्स सामने आयी हैं। पता नहीं इनमें कितने सच्चाई है? इनमें एक यह भी थी कि इस विद्रोह को लेकर येवगेनी प्रिगोझिन और अमेरिका के कथित तौर पर ‘सीक्रेट डील’ थी। कहा गया कि पुतिन के इतने भरोसेमंद येवगेनी का विद्रोह कथित रूप से सोची-समझी साज़िश थी। कुछ रिपोट्र्स में यह दावा किया गया कि रूस में जो कुछ भी हुआ उसके पीछे कथित तौर पर अमेरिका का हाथ था। यह भी दावा किया गया कि येवगेनी को इसके एवज़ में कथित रूप से अमेरिका की ओर से बड़ी राहत दी गयी।

सारे घटनाक्रम के दौरान अमेरिका वागनर को लेकर काफ़ी नरम दिखा। जानकारी के मुताबिक, वागनर ग्रुप पर अफ्रीकी देशों में सोने के खनन के आरोपों के मामले में प्रतिबन्ध लगना था। आरोप यह थे कि येवगेनी सोने के खनन की कमायी रूस के यूक्रेन के साथ युद्ध में इस्तेमाल कर रहा था। अब सुनने में आ रहा है कि अमेरिका प्रतिबंध टालने की सोच रहा है। वागनर के लड़ाके यूक्रेन युद्ध में ही नहीं, बल्कि लीबिया, माली और सूडान में भी काम करते हैं। उधर एक और थ्यूरी यह चली है कि येवगेनी का विद्रोह वास्तव में ‘पुतिन समर्थित’ था, जिसमें वह यह जानना चाहते थे कि ऐसे हालत में रूस के भीतर और बाहर कौन उनके ख़िलाफ़ आता है, ताकि उसकी पहचान की जा सके।

पुतिन ने जिस तरह येवगेनी के विद्रोह को देश से विश्वासघात बताया उससे रूस की जनता मज़बूती से उनके पीछे खड़ी दिखी। येवगेनी के विद्रोह से जुड़ा सारा घटनाक्रम भी काफ़ी नाटकीय रहा, जिस कारण यह सवाल उठा कि कहीं यह पुतिन की ही रणनीति का हिस्सा तो नहीं था? पुतिन को चालाक रणनीतिकार माना जाता है। यह कैसे हो सकता है कि रूस की जासूसी संस्था के प्रमुख रहे पुतिन को अपने ही वफ़ादार के विद्रोह की जानकारी न मिले?

पुतिन के साथ खड़े रहे सब

येवगेनी के विद्रोह के बावजूद रूस में तमाम नेता, सेना, जनता और रूसी राज्यों के नेता पूरी ताक़त से पुतिन के साथ खड़े रहे, जिससे संकेत मिलता है कि पश्चिमी मीडिया में पुतिन को लेकर रूस में नाराज़गी की जो ख़बरें आती रही हैं, वो सही नहीं थीं। इस विद्रोह के बहाने पुतिन ने यह भी जाँचने की कोशिश की कि क्या रूस के भीतर दूसरे लोग भी उनके ख़िलाफ़ विद्रोह की बात करेंगे? लेकिन ऐसा नहीं हुआ। होता, तो उनकी पहचान इस बहाने हो जाती।

पुतिन के दोस्त माने-जाने वाले बेलारूस के राष्ट्रपति अलेक्जेंडर लुकाशेंको ने बाग़ी येवगेनी से बातचीत की। रूस की सरकारी समाचार एजेंसी स्पुतनिक न्यूज के मुताबिक, इस मध्यस्थता का अच्छा नतीजा निकला और प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए वागनर नेता ने तनाव कम करने का विकल्प चुना। इसके तुरन्त बाद उन्होंने अपने लड़ाकों को वापस लौटने का निर्देश दिया।

स्पुतनिक न्यूज के मुताबिक, क्रेमलिन के प्रवक्ता दिमित्री पेसकोव से जब पत्रकारों ने पूछा कि क्या वागनर पीएमसी के साथ हुई घटनाओं का यूक्रेन में ऑपरेशन पर असर पड़ेगा? तो उनका जवाब था- ‘किसी भी परिस्थिति में नहीं। यूक्रेन में विशेष सैन्य अभियान जारी है। अग्रिम पंक्ति में हमारे सैनिक वीरता का प्रदर्शन कर रहे हैं। वे यूक्रेन के सशस्त्र बलों के जवाबी हमले का काफ़ी प्रभावी ढंग से और सफलतापूर्वक मुक़ाबला कर रहे हैं। ऑपरेशन जारी रहेगा।’

यहाँ यह बताना भी सही होगा कि यूक्रेन के साथ रूस का युद्ध वास्तव में पूरे नाटो के साथ है और पुतिन ने इसे बेहतर तरीक़े से सँभाला है। तटस्थ रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि यूक्रेन के पीछे अमेरिका सहित पूरी नाटो की ताक़त रही है। येवगेनी के विद्रोह के समय अमेरिका ने इस मामले पर सधा हुआ रुख़ अपनाया और कहा कि वह घटनाओं पर नज़र रखे हुए हैं। यह माना जाता है कि रूस की सेना यूक्रेन युद्ध में येवगेनी की मिशनरी के साथ मिलकर लडऩे में तालमेल की दिक़्क़त महसूस कर रही थी। येवगेनी के बेलारूस चले जाने के बाद अब शायद यह समस्या उन्हें न झेलनी पड़े। येवगेनी से समझौते में यह ज़ोर दिया गया कि तनाव में शामिल वागनर सैनिकों पर मुक़दमा नहीं चलाया जाएगा।

उधर रूस ने रूस में आईआरजीसी और अन्य मीडिया में पुतिन के देश से पलायन की ख़बरों को फ़र्ज़ीवाड़ा बताते हुए इन्हें पूरी तरह ख़ारिज कर दिया। येवगेनी प्रिगोझिन की स्थिति पर प्रवक्ता पेस्कोव ने कहा कि व्यवसायी को देश छोडऩे की अनुमति दी जाएगी। इससे पहले येवगेनी के जो वीडियो सामने आये थे, उनमें वह पुतिन सहित रक्षा मंत्री को भी चुनौती देते दिख रहे थे। समझौते के बाद रूस ने कहा कि प्रिगोझिन के ख़िलाफ़ आपराधिक मामला समाप्त कर दिया जाएगा और वह बेलारूस के लिए रवाना हो जाएँगे। उन्होंने मीडिया के लोगों से कहा- ‘यदि आप पूछते हैं कि क्या गारंटी है कि प्रिगोझिन बेलारूस के लिए रवाना हो सकते हैं, तो आपको बता दें कि यह रूसी राष्ट्रपति के शब्द हैं।’

येवगेनी ने इससे पहले रूस के रक्षा मंत्रालय पर लगाया था कि उसने वागनर के शिविर पर मिसाइल हमला किया है। साथ ही जवाबी कार्रवाई की बात कही थी। हालाँकि रूस के रक्षा मंत्रालय ने इस आरोप से इनकार किया और उकसावे का आरोप लगाया। इसके कुछ घंटे बाद ही वागनर लड़ाकों के दक्षिणी रूसी शहर रोस्तोव-ऑन-डॉन में एक सैन्य फैसिलिटी पर क़ब्ज़ा करने की रिपोर्ट आयीं। इसके ही बाद येवगेनी प्रिगोझिन ने अपने लड़ाकों को मॉस्को की तरफ़ बढऩे का आदेश दिया था। अमेरिकी अख़बार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने भी सूत्रों के हवाले से लिखा- ‘विद्रोह से पहले अमेरिका के अधिकारियों को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को इस ख़तरे के बारे में अलर्ट करने की कोई योजना नहीं थी, क्योंकि उन्हें डर था कि रूस उन पर त$ख्तापलट करने का आरोप लगा सकता है।’ रिपोट्र्स के मुताबिक, अमेरिकी अधिकारी कथित तौर पर इस संभावित संघर्ष को लेकर परेशान थे, क्योंकि उन्हें चिन्ता थी कि रूस में अराजकता से परमाणु जोखिम पैदा हो सकते हैं। वागनर के विद्रोह के बाद रूस के विदेश मंत्रालय ने पश्चिम को चेतावनी दी कि रूस के ख़िलाफ़ इस तरह की कोई भी कोशिश बेकार होगी। वहीं पूर्व रूसी राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव ने कहा- ‘एक प्रमुख परमाणु शक्ति में त$ख्तापलट के विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं और मॉस्को ऐसा कभी नहीं होने देगा।’

हिन्दू संगठनों के ही निशाने पर आदिपुरुष!

भगवान राम के जीवन पर आधारित बॉलीवुड फ़िल्म ‘आदिपुरुष’ को जिस हिन्दुत्व के एजेंडे को मज़बूत करने के तहत बनाया गया, वो एजेंडा फेल हो चुका है। हिन्दुओं में धार्मिकता का प्रसार करने के लिए बनी यह फ़िल्म रिलीज होते ही हिन्दू संगठनों के निशाने पर आ गयी। अब इस फ़िल्म का विरोध हिन्दू संगठन ही कर रहे हैं। इस फ़िल्म के डायलॉग और पटकथा लेखक मनोज मुंतशिर से लेकर फ़िल्म के सभी किरदार निशाने पर हैं। कोई इस फ़िल्म को भद्दा मज़ाक़ बता रहा है, कोई इसे फूहड़ता की पराकाष्ठा बता रहा है, तो कोई इसे भगवान राम और राम भक्त हनुमान के साथ-साथ सभी पात्रों की वेशभूषा, शारीरिक बनावट और बातचीत के तरीक़ों को बकवास बता रहा है। सबसे ज़्यादा बवाल डायलॉग्स को लेकर मचा है।

इतने पर भी फ़िल्म की टीआरपी बढ़ाने के लिए फ़िल्म के रिलीज से पहले ही करोड़ों की कमायी करने का प्रोपेगेंडा रचकर यह दिखाया जा रहा है कि फ़िल्म बहुत अच्छी है। राजनीतिक लोग भी इस फ़िल्म के विवाद में कूद गये हैं। भाजपा ने तो इस फ़िल्म में इतनी रुचि दिखायी है कि भाजपा नेताओं ने चंद अज्ञात हिन्दू दानियों के नाम पर मुफ़्त टिकट तक बँटवाये हैं। लेकिन जब विवाद हुआ और फ़िल्म आदिपुरुष के ख़िलाफ़ हिन्दू संगठनों ने ही मोर्चा खोल दिया, तो ये हिन्दू दानी ख़ामोशी से ग़ायब होने लगे। लेकिन बवाल थमने का नाम नहीं ले रहा है।

महाराष्ट्र से लेकर पूरे देश में हिन्दू संगठन इस फ़िल्म के विरोध में उतर आये हैं। नेपाल के काठमांडू में तो इस फ़िल्म का इतना विरोध हो रहा है कि हर भारतीय फ़िल्म को नेपाल में बैन करने के लिए मोर्चा खुल गया है। कहा जा रहा है कि काठमांडू में अब कोई बॉलीवुड फ़िल्म नहीं चलने दी जाएगी। हालाँकि भारत में इस फ़िल्म पर हिन्दू संगठन और भाजपा के लोग बंटे हुए नज़र आ रहे हैं। भाजपा के लोग इस फ़िल्म में ओछे डायलॉग बदलने से ख़ुश हैं और कह रहे हैं कि जिन डायलॉग्स का विरोध हुआ, उन्हें बदल दिया गया है। लेकिन वहीं फ़िल्म का विरोध करने वाले हिन्दू संगठनों का कहना है कि इस फ़िल्म के ज़रिये हिन्दुओं की आस्था से खिलवाड़ किया गया है। कहा जा रहा है कि इस फ़िल्म के डायलॉग और पटकथा लेखक मनोज मुंतशिर, हीरो (राम बने) प्रभास और हीरोइन (सीता बनीं) कृति सेनन का विरोध हो रहा है। कुछ लोग कह रहे हैं कि इस फ़िल्म को हिन्दुत्व के एजेंडे के तहत बनाया गया है और बड़ी चालाकी से रावण की भूमिका एक मुस्लिम एक्टर को दी गयी है। इससे ब्राह्मण कुल में जन्मे प्रकांड पंडित रावण को एक ख़तरनाक विलेन की तरह दिखाकर मुस्लिम समाज को रावण का चेहरा दिखाने की कोशिश की गयी है। हालाँकि फ़िल्म का विरोध हिन्दू संगठन ही कर रहे हैं, मुस्लिम समाज इस पर ख़ामोश है। यह विरोध इतना तगड़ा है कि हिन्दू संगठन सिनेमा घरों में ताले लगाने की माँग कर रहे हैं। कुछ हिन्दू संगठनों के कार्यकर्ताओं ने इस फ़िल्म के विरोध में अपना सिर मुंडवा लिया है। मनोज मुंतशिर को पुलिस सुरक्षा देनी पड़ी है।

इस बीच एक फोटो वायरल हो रहा है, जिसमें मनोज मुंतशिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आगे हाथ जोड़े खड़े हैं और प्रधानमंत्री एक हाथ से उनके हाथों के थामे दूसरे हाथ से उनकी बाँह पकडक़र उन्हें उम्मीद भरी नज़रों से देख रहे हैं। बता दें कि पिछले कुछ महीनों से मनोज मुंतशिर के नाम में उनका जातीय सरनेम शुक्ला जोडक़र दिखाया जा रहा है और उनके कुछ ऐसे कार्यक्रम कराये जा रहे हैं, जिसमें वो हिन्दुत्व का एजेंडा बढ़ाते हुए दिख रहे हैं। वायरल हो रही प्रधानमंत्री के साथ उनकी तस्वीर को इसी हिन्दुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने और फ़िल्म आदिपुरुष को बनाने का एजेंडा बताया जा रहा है।

इस फ़िल्म में एक-एक किरदार का विरोध किया जा रहा है और लोग रामानंद सागर की रामायण और उसके डायलॉग लिखने वाले राही मासूम रज़ा की तारीफ़ कर रहे हैं। विरोध इतना हो रहा है कि माता सीता की भूमिका निभाने वाली कृति सेनन के बचाव में उनकी माँ को आना पड़ा है। उनकी माँ गीता सेनन ने इंस्टाग्राम पर एक पोस्ट डाली है, जिसमें लिखा है कि ‘जय श्री राम। जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत तिन तैसी…। इसका अर्थ है कि अच्छी सोच और दृष्टि से देखो, तो सृष्टि सुन्दर ही दिखायी देगी। भगवान राम ने ही हमें सिखाया है कि शबरी के बेर में उसका प्रेम देखो, न कि ये कि वो जूठे थे। इंसान की ग़लतियों को नहीं देखो, उसकी भावनाओं को समझो। लेकिन विरोध करने वाले इतने ख़फ़ा हैं कि वो किसी भी हाल में इस फ़िल्म को नहीं चलने देना चाहते। लोग इस फ़िल्म को नौटंकी कह रहे हैं और इसे भगवान राम, माता सीता और राम भक्त हनुमान का अपमान बता रहे हैं। आदिपुरुष के डायलॉग्स पर आम लोगों से लेकर हिन्दू संगठन, कुछ चर्चित लोग भी ख़फ़ा बताये जा रहे हैं। सबसे बड़ी बात है कि फ़िल्मों और फ़िल्मी सितारों के विरोध पर हमेशा एकजुट हो जाने वाले बॉलीवुड कलाकार इस फ़िल्म के विरोध पर ख़ामोश हैं, बचाव उन्हें ही करना पड़ रहा है, जिनका विरोध हो रहा है। अगर ग़ौर करें, तो देखेंगे कि पिछले कुछ वर्षों में हिन्दुत्व को बढ़ावा देने को लेकर बनी कुछ फ़िल्मों के विरोध पर फ़िल्म में एक्टिंग करने वालों को छोडक़र बाक़ी के बॉलीवुड कलाकार ख़ामोश रहे हैं।

दरअसल लोग ‘आदिपुरुष’ फ़िल्म को ‘द कश्मीर फाइल्स’ और ‘द केरला स्टोरी’ जैसी फ़िल्मों की तरह ही एक प्रोपेगेंडा मान रहे हैं। इस फ़िल्म का प्रोपेगेंडा इस बात से भी साबित होता है कि इसे दिखाने के लिए मुफ़्त हॉल टिकट बाँटने वाले कहाँ से आ गये, जबकि आज तक ऐसा नहीं हुआ कि किसी फ़िल्म के टिकट बाँटने के लिए एक नये तरह के दानदाता प्रकट हो जाएँ।

किसी थिएटर में फ़िल्म मुफ़्त दिखाने और फ़िल्म को टैक्स मुफ़्त करने जैसे मामले तो सामने आये हैं; लेकिन मुफ़्त टिकट बाँटने के लिए ऐसे अज्ञात लोगों का सामने आना, जिनका फ़िल्म से कोई सीधा रिश्ता तक नहीं है; समझ से बाहर की बात है।

फ़िल्म आदिपुरुष के विरोध का यह हाल है कि इसके डायरेक्टर ओम राउत के ट्विटर और इंस्टाग्राम पर उनका जमकर विरोध हो रहा है। प्रभास की लोकप्रियता भी इस फ़िल्म से ख़तरे में आयी है और मनोज मुंतशिर पर भी हिन्दू विरोधी होने के आरोप लग रहे हैं। हालाँकि लोग कुछ दिनों में भूल जाएँगे, हो सकता है कि इस फ़िल्म और इसके बनाने वालों का विरोध शान्त करने के लिए जल्द ही कोई और धार्मिक फ़िल्म बन जाए, जिससे हिन्दू संगठन ख़ुश हो जाएँ। क्योंकि जिन लोगों ने इस फ़िल्म से राजनीतिक फ़ायदे लेने चाहे, वो ऐसी फ़िल्मों को जानबूझकर जनता को परोसेंगे, जिससे उनका फ़ायदा हो। बॉलीवुड का ऐसे लोगों के लिए इस्तेमाल करोड़ों लोगों के साथ-साथ फ़िल्मी दुनिया से भी एक छलावा है।

अच्छा यह है कि इस फ़िल्म के विरोध में हिन्दू संगठन शान्ति से विरोध कर रहे हैं। सिनेमा घरों में फ़िल्म देखने आने वालों को हिन्दू संगठनों के लोग हाथ जोडक़र फ़िल्म देखने से मना कर रहे हैं। जिस फ़िल्म को देखने के लिए हिन्दू संगठन काफ़ी उत्साहित थे, फ़िल्म के डायलॉग सुनने और फ़िल्म का ट्रेलर देखने के बाद से ही वो ही ख़फ़ा हो गये। जबकि यह प्रचार किया गया था कि फ़िल्म आदिपुरुष पूरी दुनिया में धूम मचा देगी। देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी फ़िल्म को देखने के लिए एडवांड बुकिंग हो रही है। लेकिन भारत के पड़ोसी देश नेपाल में ही फ़िल्म का जबरदस्त विरोध हुआ है। कई सिनेमा घरों से फ़िल्म हट चुकी है। बताया जा रहा है कि आदिपुरुष फ़िल्म बनने के समय से ही इसका विरोध हो रहा था; लेकिन वो विरोध चंद लोगों का था, इसलिए फ़िल्म बनाने वालों पर इसका कोई असर नहीं हुआ, और उन्होंने हिन्दुओं के आस्था वाले त्रेता युग के पात्रों को अभद्र ढंग से पेश करते हुए उनकी भाषा और उनकी वेशभूषा को भी अजीबोग़रीब बना दिया, जो कि उन ऐतिहासिक पात्रों का अपमान है। इस फ़िल्म को बनने मे तीन वर्ष लगे, और इन तीन वर्षों में इस फ़िल्म को लेकर कई विवाद हुए। बताया जा रहा है कि जब अगस्त 2020 में फ़िल्म आदिपुरुष का टाइटल जारी करने के दौरान प्रभास का पोस्टर भगवान राम के नये रूप में जारी किया, तब कुछ लोगों ने इस पर सवाल उठाये; लेकिन फ़िल्म बनाने वालों पर इसका कोई असर नहीं हुआ। यह भी कहा गया कि इस फ़िल्म का ये पोस्टर एक एनिमेटेड फ़िल्म लॉर्ड शिवा के एक पोस्टर की नक़ल है। इसके बाद सैफ़ अली ख़ान के रावण की भूमिका में आने की चर्चा हुई, तो भी कुछ लोगों ने विरोध दर्ज कराया। तब सैफ़ अली ख़ान ने अपने रोल और उसके महत्त्व को लोगों को बताया कि वह किस प्रकार एक बड़े राजा की बहन की नाक काटने को लेकर जस्टिस करने के लिए लड़ाई को लेकर उत्सुक हैं। लेकिन सैफ़ अली ख़ान के इस बयान पर भी ख़ूब विवाद हुआ। इसके बाद अक्टूबर, 2022 में आदिपुरुष का पहला टीजर अयोध्या में हुए ग्रैंड इवेंट के साथ शेयर किया गया, तो लोगों ने इसे ख़राब बताया। अब फ़िल्म का विरोध इतना बढ़ गया है कि फ़िल्म के डायलॉग बदलकर उसे दबाने की कोशिश की गयी है।

इसी साल अप्रैल में मुंबई हाई कोर्ट में इस फ़िल्म के मेकर्स, कलाकारों और डायरेक्टर ओम राउत के ख़िलाफ़ एक याचिका दर्ज भी हुई थी, जिसमें फ़िल्म के किरदारों को अनुचित तरीक़े से दिखाने और इस फ़िल्म के द्वारा हिन्दुओं की भावनाओं का आहत करने का आरोप लगाया गया है। इस फ़िल्म में फ़िल्माये गये सीन के अलावा एक विवाद इस बात को लेकर भी छिड़ा हुआ है कि आदिपुरुष के डायरेक्टर ओम राउत ने तिरुमाला मंदिर में पूजा के बाद वापस जा रही कृति सेनन को किस किया। इस किस का वीडियो जब सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, तो हंगामा हो गया। खैर 16 जून जब सिनेमा घरों में आदिपुरुष फ़िल्म रिलीज हुई, तो इसे देखने के लिए भारी भीड़ जुटी, क्योंकि इसमें ज़्यादातर के पास मुफ़्त में मिले सिनेमा के टिकट थे; लेकिन इस फ़िल्म के विरोध ने मुफ़्त में फ़िल्म देखने वालों के इरादों पर भी पानी फेर दिया, क्योंकि हिन्दू संगठन सिनेमा घरों के सामने पहुँचकर फ़िल्म का विरोध करने लगे। हाल यह हुआ कि अभद्र भाषा में लिखे गये डायलॉग बदलने के बावजूद विरोध थमने का नाम नहीं ले रहा है।

विश्व युवा कौशल दिवस पर विशेष

युवा प्रतिभाओं को मिलें मौक़े

डॉ. राम प्रताप सिंह

किसी भी देश या समाज को प्रगति के पथ पर ले जाने में युवाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। युवा प्रतिभाओं को आगे लाने के लिए वर्ष 2014 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सर्व सहमति से विश्व युवा कौशल दिवस (वल्र्ड यूथ स्किल्स-डे) मनाने का प्रस्ताव पास किया। तबसे हर साल 15 जुलाई को यह दिवस विश्व स्तर पर मनाया जाता है। इसका प्रमुख उद्देश्य वैश्विक स्तर पर युवाओं को रोज़गार, अच्छे काम तथा उद्यमिता के लिए ज़रूरी कौशल प्रदान करना है, जिससे उनकी सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियों को बेहतर किया जा सके। इस दिवस पर प्रत्येक वर्ष संयुक्त राष्ट्र द्वारा एक थीम को चिह्नित किया जाता है। वर्ष 2023 की थीम ‘परिवर्तनकारी भविष्य के लिए शिक्षकों, प्रशिक्षकों और युवाओं को कुशल बनाना’ है।

समझना होगा कौशल का महत्त्व

युवाओं पर किसी भी देश का भविष्य निर्भर करता है, हमें यह समझना होगा कि कोई भी देश तभी सशक्त होगा, जब वह युवा वर्ग की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए उनके लिए विकास के आवश्यक वातावरण तैयार करें तथा उन्हें किस ज़रूरी कौशल से लैस करें। ध्यातव्य रहे कि किसी भी देश द्वारा युवाओं का कौशल निर्माण करने से सतत् विकास लक्ष्यों की प्राप्ति में आसानी होगी तथा समावेशी विकास को बल मिलेगा। प्रत्येक देश के नीति निर्माताओं को चाहिए कि वे विकास के विभिन्न क्षेत्रों में युवाओं को भागीदार बनाएँ। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के इस दौर में उन्हें तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा से जोडऩे की ज़रूरत है।

यह दु:खद है कि आज दक्षिणी विश्व के कई देशों में करोड़ों युवा ऐसे हैं, जिनकी सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकियों तक पहुँच आसान नहीं है। इंटरनेट, लैपटॉप और स्मार्टफोन की सुविधा न होने से इन देशों में युवाओं के कौशल निर्माण में लगातार समस्या आ रही है। हमें आने वाले दिनों में एक वैश्विक मिशन के तहत सभी को मिलकर इस मुद्दे पर काम करना होगा, ताकि युवाओं को सशक्त किया जा सके तथा उनकी क्षमताओं का लाभ उठाया जा सके। अफ्रीका समेत दुनिया के कई क्षेत्रों में युवाओं के हालात इतने बुरे हैं कि इनको ठीक करने में दशकों लगेंगे। तकनीक आधारित गुणवत्तायुक्त शिक्षा और कौशल विकास से आज भी अच्छी संख्या में युवा कोसों दूर है। पिछले कुछ रिपोट्र्स हमें बताती हैं कि विश्व के अलग-अलग देशों में कौशल अर्जित करने में बड़ा अंतराल है।

भारत में बेहतर प्रयास ज़रूरी

पिछले कुछ वर्षों में केंद्र तथा राज्य सरकारों ने युवाओं को कौशल विकास से जोडक़र उन्हें बेहतर ज़िन्दगी देने की कोशिश की है। भारत सरकार के कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय द्वारा विश्व युवा कौशल दिवस के अवसर पर 15 जुलाई, 2015 को प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना शुरू की गयी। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की नयी रिपोर्ट के अनुसार, भारत दुनिया की सबसे युवा आबादी वाला देश बन गया है। यहाँ अकेले 15 से 20 आयु वर्ग की युवाओं की आबादी 25 करोड़ से भी ज़्यादा है। इतनी बड़ी युवा आबादी का कौशल विकास देश के लिए आसान नहीं है, और इसमें अभी वर्षों लगेंगे। कौरसेरा द्वारा जारी वैश्विक कौशल रिपोर्ट-2022 में समग्र कौशल दक्षता के मामले में भारत को 68वाँ स्थान प्राप्त हुआ था। हालाँकि डिजिटल इंडिया अभियान के बाद देश में डिजिटल व्यवस्था का$फी सशक्त हुई है और इसका फ़ायदा युवाओं को विभिन्न क्षेत्रों में मिल भी रहा है; लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में हमें स्थिति को सुधारने होंगे।

वर्तमान में देश का युवा वर्ग बेरोज़गारी जैसी चुनौती का सामना कर रहा है। देश में कई ऐसे राज्य हैं, जहाँ युवाओं के कौशल निर्माण के लिए आवश्यक संसाधनों की कमी है। शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों के बीच डिजिटल डिवाइड आज भी एक मुद्दा है। कई राज्यों के सुदूर क्षेत्रों में इंटरनेट की उपलब्धता न होने के कारण युवा वर्ग को नवीनतम सूचना, शिक्षा तथा कौशल अर्जित करने में बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता है। वर्तमान समय तकनीक का है और तकनीक आधारित इस युग में भारतीय युवा वर्ग नये कौशल अर्जित करके सफलता की बुलंदियों को छू सकते हैं तथा देश की प्रगति को नयी गति दे सकते हैं। (लेखक मणिपाल यूनिवर्सिटी जयपुर, राजस्थान में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)

पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव बताएँगे जनता का मूड

पश्चिम बंगाल में हिंसा से ग्रस्त त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव 2024 से पहले राज्य की जनता के मूड का संकेत देंगे। इन चुनावों में चार कोणीय मुक़ाबला है, जिसमें सत्तारूढ़ टीएमसी को भाजपा, कांग्रेस और वाम दलों की चुनौती है। पार्टी के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ख़ुद मैदान में उतरी हैं, जबकि अन्य दलों के भी राज्य स्तरीय नेता प्रचार कर रहे हैं। चुनाव पूर्व हिंसा और इस मामले के सर्वोच्च अदालत तक जाने के कारण यह चुनाव काफ़ी अहम हो गये हैं।

जिस तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने 42 में से 18 सीटें (2014 में सिर्फ़ दो सीटें) जीत ली थीं, उससे लगा था कि पार्टी राज्य में बड़ी ताक़त बनकर उभर गयी है। हालाँकि इसके दो साल बाद ( 2021) में हुए विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की टीएमसी ने 294 में से 213 सीटें जीतकर भाजपा की मुहिम को धीमा कर दिया। उस चुनाव में भाजपा भले 77 सीटें जीत गयी; लेकिन इस दौरान उसके कई बड़े नेता टीएमसी में शामिल हो गये। अब पंचायत चुनाव में इन दोनों ही नहीं कांग्रेस-वामदलों की भी परीक्षा होगी। ममता बनर्जी ने पिछले दो साल में जनता से जुड़ी कई योजनाएँ लागू की हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि उनकी राज्य पर गहरी पकड़ है। हालाँकि भाजपा ने भी पिछले तीन साल में राज्य में अपना आधार बनाने की कोशिश की है। यहाँ तक कि ममता के क़रीबी नेता सुबेन्दु अधिकारी को उनसे तोड़ लिया। लेकिन भाजपा ने विधानसभा चुनाव के बाद अपना आधार बहुत ज़्यादा बढ़ा लिया हो, ऐसा नहीं लगता। अधिकारी उसके लिए उतने बेहतर रणनीतिकार साबित नहीं हुए हैं। 

पंचायत के यह चुनाव 8 जुलाई को होने हैं, जबकि नतीजे 11 जुलाई को आएँगे। हालाँकि वहाँ टीएमसी के क़रीब 12 फ़ीसदी उम्मीदवार निर्विरोध चुन लिये गये हैं। टीएमसी की यह संख्या पिछले चुनाव (34 फ़ीसदी) के मुक़ाबले भले कम है; लेकिन अन्य दलों के निर्विरोध जीते उम्मीदवारों के मुक़ाबले काफ़ी ज़्यादा है। निर्विरोध चुने जाने वालों में 63 भाजपा, 40 कांग्रेस और 36 माकपा के हैं। पंचायत की त्रिस्तरीय ढाँचे में बंगाल में कुल 73,887 सीटें हैं, जिनमें से 9,013 निर्विरोध चुन लिये गये हैं, जिनमें से अकेले टीएमसी के ही 8,874 उम्मीदवार हैं। इस बार बीरभूम, मुर्शिदाबाद, बांकुड़ा और दक्षिण 24-परगना ज़िलों में काफ़ी हिंसा हुई है। भाजपा, कांग्रेस और माकपा आरोप लगा चुके हैं कि उनके उम्मीदवारों को कई जगह पर्चा भरने से ही रोक दिया गया। हालाँकि टीएमसी का कहना है कि यह उनके उम्मीदवारों के निर्विरोध नहीं चुने जाने की निराशा है।

हाल में जद(यू) नेता केसी त्यागी ने जब यह दावा किया कि पश्चिम बंगाल में अगले लोकसभा चुनाव के लिए टीएमसी और कांग्रेस का समझौता तय है। सवाल है कि क्या इसका असर पंचायत चुनाव में भी दिखेगा? यदि ऐसा हुआ, तो भाजपा को इससे सबसे ज़्यादा दिक़्क़त होगी। हाल में एक विधानसभा उपचुनाव में जिस तरह कांग्रेस ने जीत हासिल की थी (बाद में यह विधायक टीएमसी में शामिल हो गया) उससे यह संकेत मिले थे कि कांग्रेस मुस्लिम, दलित और पिछड़े वोट बैंक को फिर हासिल कर रही है। यह भाजपा ही नहीं टीएमसी जैसे दलों के लिए भी चिन्ता का सबब है। जबसे विपक्षी एकता की बैठकें चल रही हैं, ममता बनर्जी ने कांग्रेस पर हमले कमोवेश बंद कर दिये हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और माकपा राज्य में शून्य पर रहे थे, जिससे दोनों की ख़ासी फ़ज़ीहत हुई थी। अब कांग्रेस ने उस स्थिति से बाहर निकलने की कोशिश की है; लेकिन यह कोशिश फ़िलहाल राज्य स्तर के नेताओं तक ही सीमित है। राहुल गाँधी या प्रियंका गाँधी ने अभी बंगाल का रुख़ नहीं किया है। यदि कहीं टीएमसी-कांग्रेस में सच में समझौता हो गया, तो बंगाल में कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी जैसे नेताओं के लिए कठिन समय होगा, जो टीएमसी से किसी भी तरह के समझौते के सख़्त ख़िलाफ़ हैं।

कब तक अँधेरे में रहेगा उत्तर प्रदेश?

उत्तर प्रदेश में इन दिनों जन सामान्य को बिजली के भारी संकट से दो-चार होना पड़ रहा है। शहरों से लेकर गाँवों तक में बिजली की आँखमिचौली का खेल किसी की समझ में नहीं आ रहा है कि आख़िर क्यों ऐसा हो रहा है। बिजली कब आएगी एवं कब चली जाएगी? इसका किसी को कुछ नहीं पता।

हर दिन घंटों के कट लगना सामान्य बात हो चुकी है। बिजली का यह संकट किसकी देन है? कुछ नहीं कहा जा सकता। बिजली विभाग के एक अधिकारी ने नाम प्रकाशित न करने की अपील करते हुए कहा कि बिजली माफ़िया योगी सरकार की नाक के नीचे से सारा खेल कर रहे हैं। बिजली माफ़िया किसकी मिलीभगत से ये खेल कर रहे हैं? इस प्रश्न के उत्तर में अधिकारी ने कहा कि बिना सरकार की इच्छा के कहीं कुछ भी सम्भव होता है क्या? बिजली संकट कब तक रहेगा? इस प्रश्न का उत्तर अधिकारी का मौन था, जिसका अर्थ हम निकाल सकते हैं कि कुछ पता नहीं। जेठ की भरी गर्मी के बाद आषाढ़ की सड़ी गर्मी शुरू हो चुकी है एवं तापमान 40 डिग्री से ऊपर है। घरों में रुकना दूभर है। गाँवों में जिनके पास सोलर प्लेट लगी हैं, वे अपनी कुछ समस्या उसी के सहारे काट रहे हैं। मगर जिनके पास बिजली के अतिरिक्त कोई साधन नहीं है, वे बिजली आने की राह ही देखते रहते हैं। शहरों में बिजली का संकट गाँवों की अपेक्षा थोड़ा कम है; मगर सामान्य नहीं है। शहरों में भी कई कई घंटों तक बिजली गुल रहना सामान्य बात हो चुकी है। गर्मी से बेहाल गाँवों के लोग पेड़ों की छाँव में हाथों में हाथों से बने पंखे लेकर गर्मी दूर करने का निरर्थक प्रयास करने को विवश हैं।

किसानों का दु:ख बढ़ा

धौंराटांडा के किसान रवि कहते हैं कि बिजली के संकट ने उत्तर प्रदेश के किसानों का दु:ख दोगुना कर दिया है। इस वर्ष धान की पौध में पानी कम लगने से उसकी बढ़त कम हुई है। अब धान लगाने का समय चल रहा है। पानी ही नहीं होगा, तो धान कैसे लगेंगे? जिन किसानों ने धान लगा दिये हैं, उनकी धान फ़सल पानी की कमी से पीली पडऩे की स्थिति में हैं, उसकी बढ़वार नहीं हो रही है। बारिश हो नहीं रही है एवं बिजली आ नहीं रही है।

डीजल की महँगाई ने खेती को इतना महँगा कर दिया है कि उससे अच्छा किसान चावल ख़रीदकर खा ले। खेतों की जुताई, मज़दूरों की मज़दूरी, पानी एवं खाद की लागत आदि सबको जोड़ें तो एक बीघा धान की लागत 3,000 से 3,500 रुपये तक आती है, जबकि एक बीघा खेत में कड़े परिश्रम के बाद 4,500 से 5,000 रुपये का धान निकल पाता है। अगर मौसम बिगड़ा अथवा आवारा पशुओं ने खेती उजाड़ दी, तो लागत भी नहीं लौटती। अगर मान भी लें कि खेती अच्छी हो गयी, तो भी एक बीघा में छ: महीने की कड़ी मेहनत के बाद 1,000 से 1,500 रुपये ही मिलते हैं। अगर किसान अपनी मेहनत जोड़ें, तो घाटा अगर खेत की भी छ: महीने की क़ीमत जोड़ें, तो उससे भी बड़ा घाटा दिखेगा। मगर किसानों के भाग्य ही फूटे हुए हैं। कभी किसानों को मौसम की मार झेलनी पड़ती है, तो कभी सरकार की बेरुख़ी की मार झेलनी पड़ती है। सामान्य-सी बात है कि धान के खेतों में लगातार पानी रहना चाहिए। अगर धान के खेतों में पानी नहीं रहता है, तो वो चटकने लगते हैं। इससे धान के पौधे पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाते हैं। धान के पौधे तभी ठीक से विकसित होते हैं, जब उनमें लगाने के समय से लेकर बाली में भरपूर दाना पडऩे तक पानी रहता है।

पूरे प्रदेश में बिजली संकट

उत्तर प्रदेश के सभी 75 जनपदों में बिजली संकट है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कर्मभूमि गोरखपुर एवं प्रदेश की राजधानी लखनऊ में भी लोग बिजली संकट से त्रस्त हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बिजली संकट पर अपने मातहतों की फटकार लगा रहे हैं; मगर कोई सार्थक प्रयास न कर सकना उनकी विवशता है अथवा विफलता? इस पर कुछ नहीं कहा जा सकता। मगर इतना अवश्य है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बिजली आपूर्ति के तमाम दावे विफल हो चुके हैं। 24 घंटे बिजली देने के दावे गाँव-गाँव तक बिजली पहुँचाने के दावे एवं पिछली सरकारों से अधिक बिजली आपूर्ति के दावे की हवा निकल चुकी है। पूर्व मुख्यमंत्री एवं समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव के अतिरिक्त आम आदमी पार्टी के नेता सांसद संजय सिंह ने मुख्यमंत्री आदित्यनाथ एवं उनकी सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है।

उनके अनेक प्रश्नों के उत्तर देने में सरकार असमर्थ दिख रही है। शाहजहाँपुर निवासी महेश शर्मा का कहना है कि उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार 24 घंटे शहरों में, 22 घंटे तहसीलों में एवं 20 घंटे गाँवों में बिजली देने के अपने ही वादे पर नहीं टिक सकी है। अब तो बिजली संकट है, सामान्य बिजली आपूर्ति के दिनों में भी सरकार के वादे के अनुरूप बिजली कभी नहीं आयी। घंटों के कट पहले लगते थे, अब शहरों में 4-4 घंटे से अधिक समय के कट लग रहे हैं, तो गाँवों में 12 से 14 घंटे तक बिजली कटौती हो रही है। कहीं-कहीं तो 24 घंटे दूर, कई-कई दिन तक बिजली नहीं रहती है।

ऊर्जा मंत्री ने झाड़ा पल्ला

उत्तर प्रदेश के ऊर्जा मंत्री अरविंद कुमार शर्मा का एक ट्वीट इन दिनों चर्चा में है। ऊर्जा मंत्री ने इसमें कहा है कि 2012-17 के बीच बिजली की अधिकतम माँग 13,598 मेगावॉट थी एवं अब 2023 में बिजली की माँग बढक़र 27,611 मेगावॉट हो गयी है। जून 2022 में बिजली की अधिकतम माँग 26,369 मेगावॉट की थी। वर्तमान में न्यूनतम बिजली की माँग 22,000 से अधिक मेगावॉट है। ये माँग अप्रत्याशित एवं ऐतिहासिक है। आज तक बिजली की इतनी माँग नहीं हुई थी। इस वजह से कुछ दिक़्क़तें आ रही हैं, जिन्हें ठीक करने के प्रयास किये जा रहे हैं।

ऊर्जा मंत्री ने अपनी नाकामी का भाँडा मौसम पर भी फोड़ते हुए कहा है कि 2012 में अधिकतम तापमान 40 डिग्री तक ही रहता था; मगर तापमान बढ़ते-बढ़ते 2023 में 47 डिग्री तक जा पहुँचा है। इस वजह से भी बिजली की खपत बढ़ी है। ऊर्जा मंत्री की अजब-ग़ज़ब बातें कितनी सही हैं, कितनी हास्यास्पद? यह बताने की आवश्यकता नहीं है।

नियमित कर्मचारी हुए कम

एक टीवी चैनल की मानें, तो वर्तमान में पूरे उत्तर प्रदेश में सरकारी एवं संविदा पर लगभग 10,500 कर्मचारी कार्यरत हैं। इमें 37,000 कर्मचारी नियमित हैं जबकि 68,000 कर्मचारी संविदा पर है। मगर बिजली विभाग में कम से कम 2,65,000 कर्मचारियों की आवश्यकता है।

सन् 2012 में बिजली विभाग में 42,000 नियमित कर्मचारी थे। इसका अर्थ यही हुआ कि पूर्ववर्ती सरकारों से अधिक सरकारी नौकरियाँ देने का दावा करने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बिजली विभाग में नियमित कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने की जगह उलटा छ: वर्षों में 5,000 कर्मचारी कम कर दिये। स्थिति यह है कि संविदा पर कार्य करने वाले उन कर्मचारियों को भी नियमित नहीं किया जा रहा है, जो अर्हता रखते हैं।

ठिरिया गाँव के निवासी राकेश कुमार बताते हैं कि कहीं अगर ट्रांसफार्मर फुक जाए अथवा फ्यूज उड़ जाए, तो उसे जोडऩे वाले बिजली कर्मचारी की घंटों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। संविदा पर काम करने वाला कर्मचारी जब कुछ ठीक करने आता है, तो चाय पानी का ख़र्च लिये बिना काम नहीं करता। वह (कर्मचारी) कहता है कि मामूली वेतन पर काम तो हम संविदा वाले कर्मचारी करते हैं। नियमित कर्मचारियों का वेतन भी तीन गुना है, काम भी चौथाई है। जान जोखिम में तो संविदा वाले कर्मचारी ही अपनी डालते हैं।

मातहतों पर बरसे मुख्यमंत्री

योगी आदित्यनाथ, सीएम यूपी

बिजली आपूर्ति ठप रहने के चलते उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बीते दिनों अपने मातहतों पर बरसे। मुख्यमंत्री ने एक आपात स्थिति में प्रदेश के ऊर्जा मंत्री अरविंद कुमार शर्मा, पॉवर कॉरपोरेशन के अध्यक्ष एम. देवराज एवं बिजली विभाग के कुछ मुख्य अधिककारियों को तलब करके निर्देश दिये कि ज़िला मुख्यालयों में 24 घंटे, तहसील मुख्यालयों में 22 घंटे एवं गाँवों में 18 घंटे बिजली की आपूर्ति हर स्थिति में सुनिश्चित की जाए। मुख्यमंत्री ने ऊर्जा मंत्री समेत सभी अधिकारियों को अतिरिक्त बिजली की व्यवस्था करने के निर्देश दिये हैं। उन्होंने उन्हें जनपदों में बिजली व्यवस्था की निगरानी करने एवं बिजली आपूर्ति, अव्यवस्था सुधारने, क्षतिग्रस्त स्थानों पर जाकर कमियों को दूर करने के भी निर्देश दिये हैं। उन्होंने कहा है कि प्रत्येक जनपद में बिजली आपूर्ति की स्थिति की समीक्षा की जाए एवं जहाँ भी कमी हो, वहाँ उसे दूर किया जाए।

इससे पूर्व ऊर्जा मंत्री अरविंद कुमार शर्मा ने शक्तिभवन में बिजली आपूर्ति व्यवस्था की समीक्षा की, कमियाँ पाये जाने पर सम्बन्धित अधिकारियों की कड़ी फटकार लगायी। सरकार ने विद्युत सम्बन्धी समस्या के समाधान के लिए कस्टमर केयर सेंटर के टोल फ्री नंबर 1912 पर शिकायत करने के लिए उपभोक्ताओं से कहा है। अगर इस नंबर पर काल करने पर समय पर समस्या दूर नहीं होती है, तो उपभोक्ता बिजली विभाग से हर्ज़ाने की माँग भी कर सकता है। मगर एक उपभोक्ता को वित्तीय वर्ष में दी गयी फिक्स अथवा डिमाण्ड चार्ज के 30 प्रतिशत तक हर्ज़ाना मिल सकता है। इस आधार पर अगर कोई शहरी घरेलू उपभोक्ता हर्ज़ाने की माँग करता है, तो उसके द्वारा हर माह 110 रुपये प्रति किलोवॉट चार्ज दिया जाता है, जिसके अनुरूप वो पूरे वर्ष में 1,320 रुपये फिक्स चार्ज देता है। इस आधार पर उसे 396 रुपये तक अथवा उससे कम ही हर्ज़ाना मिलेगा। उत्तर प्रदेश विद्युत नियामक आयोग (प्रदर्शन का मानक) विनियमावली-2019 का क्रियान्वयन सुनिश्चित करने के लिए ऑनलाइन प्रणाली विकसित की गयी है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के निर्देशों का कितना असर होगा, ये तो बाद की बात है। वर्तमान में प्रश्न ये हैं कि महँगी बिजली ख़रीद रहे उत्तर प्रदेश के बिजली उपभोक्ता बिजली के लिए तरस क्यों रहे हैं? उत्तर प्रदेश सरकार बिजली आपूर्ति में असफल क्यों है? कब तक प्रदेश इस तरह अँधेरे में रहेगा? उत्तर प्रदेश में डबल इंजन सरकार फेल क्यों है?

मध्य प्रदेश में चढ़ा सियासी पारा

मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव 2023 के जैसे-जैसे नज़दीक आते जा रहे हैं, वैसे-वैसे यहाँ की सियासत गरमा रही है। इसी साल दिसंबर में वर्तमान सरकार का कार्यकाल पूरा हो रहा है। इससे पहले ही मध्य प्रदेश में चुनाव होने सम्भव हैं। इन चुनावों को लेकर कयास लग रहे हैं कि कांग्रेस से सत्ता छीनने वाली भाजपा की मध्य प्रदेश में इस बार भी बुरी तरह हार होगी। इस कयास को भाजपा के कुछ नेताओं के कांग्रेस में जाने से और हवा मिली है। विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र मुख्य दलों भाजपा और कांग्रेस की ओर से ज़ोर-शोर से तैयारियाँ चल रही हैं। दोनों ही दल एक-दूसरे को घेरने में लगे हैं तथा दोनों ही दलों की नज़र आदिवासी, दलित और पिछड़े वोटरों पर है।

वहीं, दूसरी तरफ़ कई क्षेत्रीय छोटे दल और दूसरे राज्यों के प्रमुख दल भी इस चुनाव में समीकरण बिगाडऩे के लिए मैदान में हैं। मध्य प्रदेश में जहाँ आम आदमी पार्टी पूरी ताक़त से ज़्यादातर सीटों पर मैदान में उतरने का मन बना रही है। वहीं अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी, मायावती की बहुजन समाज पार्टी, भारतीय राष्ट्र समिति (बीआरएस), स्थानीय दलों में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस), भारतीय ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) आदि भी इस बार के चुनावों में दोनों प्रमुख दलों भाजपा और कांग्रेस के वोटरों में सेंध लगाएँगे। राजनीतिक लोग मान रहे हैं कि इस बार के विधानसभा चुनावों में प्रदेश की सरकार बनाने में छोटे-छोटे दलों की बड़ी भूमिका हो सकती है। हालाँकि ऐसा लगता नहीं है, क्योंकि प्रदेश में कांग्रेस ने जिस तरह की चुनावी तैयारी की है, उससे उसे बड़ी जीत मिलने की उम्मीद है। दोनों दलों के कुछ समर्थक दल हैं ही, जो पहले भी समर्थन में रहे हैं, उनको छोड़ दें, तो बाक़ी दलों की मदद कांग्रेस को शायद ही पड़े। पर यह तय है कि भाजपा मौक़ा मिलने पर हर तरह के गठबंधन से लेकर दूसरे दलों के विधायकों को अपने साथ लाकर सरकार बनाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ेगी।

भाजपा नेताओं ने भी मध्य प्रदेश में आवाजाही शुरू कर दी है। गृहमंत्री अमित शाह से लेकर प्रधानमंत्री मोदी तक प्रदेश का दौरा करने लगे हैं। प्रधानमंत्री 27 जून भोपाल पहुँचे। वहाँ उन्होंने दो वंदे भारत ट्रेनों को हरी झंड़ी दिखायी। उनका यह दौरा पूरी तरह चुनावी रहा। अब वह 01 जुलाई को शहडोल पहुँचेंगे। वहीं देश के गृहमंत्री अमित शाह भी प्रदेश में बालाघाट के जयस्तंभ चौक से डॉ. आंबेडकर चौक होते हुए मुख्यमंत्री राइज स्कूल तक रानी दुर्गावती गौरव यात्रा के बहाने क़रीब डेढ़ किलोमीटर का रोड शो करके चुनावी आ$गाज़ कर चुके हैं। गृह मंत्री के इस रोड शो में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, भाजपा प्रदेश अध्यक्ष वी.डी. शर्मा व राष्ट्रीय सचिव पंकजा मुंडे जैसे बड़े नेता मौज़ूद रहे। माना जा रहा है कि भाजपा को इस बार दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों के अलावा सवर्णों की नाराज़गी का भी सामना करना पड़ेगा। कांग्रेस के लिए यह एक मौक़ा है कि वह अच्छा प्रदर्शन करे और कर्नाटक व हिमाचल प्रदेश की तरह भाजपा के खिसकते वोटरों को अपने पाले में लाने की कोशिश करे। फ़िलहाल मध्य प्रदेश की चुनावी मौसम समझने के लिए कुछ बातों को समझना होगा।

जातीय समीकरण व मुद्दों की लड़ाई

मध्य प्रदेश में जीतने के लिए जातीय समीकरण साधने की कोशिश में सभी दल लगे हैं। भाजपा इसे लेकर अपना पुराना हिन्दुत्व कार्ड खेलेगी, जिसके लिए वह मध्य प्रदेश के बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री उर्फ़ बागेश्वर बाबा का इस्तेमाल कर सकती है। इस बार के चुनाव में यही एक पैंतरा है, जिसके दम पर भाजपा को लग रहा है कि वह हिन्दुओं के ज़्यादातर वोटरों को बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री के माध्यम से साध लेगी। वहीं कांग्रेस इससे हटकर लोगों का ध्यान बेरोज़गारी, महँगाई, भुखमरी और शिवराज सरकार के घोटालों जैसी समस्याओं को उठा रही है।

कांग्रेस ने खोला मोर्चा

कांग्रेस ने मध्य प्रदेश चुनाव 2023 की तैयारी भाजपा के ख़िलाफ़ उसके घोटालों को लेकर मोर्चा खोलकर की है। पिछले चुनावों से ज़्यादा सक्रिय दिख रही कांग्रेस के कई बड़े नेता मैदान में उतर गये हैं। कुछ दिन पहले ही कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी ने पार्टी प्रचार के लिए जबलपुर में एक रैली की। यह कांग्रेस की पहली बड़ी शुरुआत रही। प्रियंका गाँधी ने इस रैली में शिवराज सिंह सरकार पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने और नौकरियाँ न दे पाने के आरोप लगाये। प्रियंका गाधी ने कहा कि राज्य में शिवराज सिंह सरकार के इस कार्यकाल के 220 महीनों के शासन में ही 225 घोटाले हुए हैं। इसके अलावा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैलेंज करते हुए कहा कि प्रधानमंत्री मोदी का स्वागत है; लेकिन हम भी ज़ोर-शोर से मैदान में हैं।

बता दें कि कांग्रेस ने शिवराज सरकार के क़रीब 400 कथित घोटालों की लिस्ट तैयार की है, जिन्हें छपवाकर कांग्रेस नेता लोगों में बाँटेंगे। इसी बीच एक और घोटाले का आरोप शिवराज सिंह सरकार पर लगा है। कहा जा रहा है कि शिवराज सिंह सरकार में अब दिव्यांग भर्ती घोटाला हुआ है। आरोप है कि 77 लोगों ने फ़र्ज़ी विकलांगता प्रमाण-पत्र लगाकर नौकरी हासिल की है। यह केवल आरोप नहीं है, इसके प्रमाण भी दिये जा रहे हैं और ख़बरें भी छप चुकी हैं। मामला मुरैना का है। इसे लेकर मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने कई ट्वीट किये हैं। उन्होंने एक ट्वीट में लिखा है कि ‘शिवराज उर्फ़ मामू के राज में एक और भर्ती घोटाला। दिव्यांगों का हक़ भी छीन लिया! सबसे अधिक भर्ती घोटाले के प्रकरण मुरैना में क्यों होते हैं? क्योंकि भाजपा के प्रांतीय अध्यक्ष मुरैना के हैं? हो सकता है। क्योंकि मोदी है, तो मुमकिन है!’ एक यूजर ने इस ट्वीट पर री-ट्यूट करते हुए लिखा है कि ‘जिन्होंने फ़र्ज़ी सर्टिफिकेट लिया उन पर तो तत्काल एफआईआर, पर जिसने फ़र्ज़ी सर्टिफिकेट दिये उस पर एफआईआर क्यों नहीं? उसको सस्पेंड क्यों नहीं किया? कलेक्टर और एसपी क्या कर रहे थे? उनका इंटेलिजेंस विभाग क्या कर रहा था? उन पर कार्यवाही क्यों नहीं?

शिवराज सिंह सरकार का विरोध

हिन्दुत्व का एजेंडा लेकर चलने वाली भाजपा की शिवराज सिंह सरकार ने महाकालेश्वर कॉरिडोर में लगायी मूर्तियों से ही साबित कर दिया कि वह कितनी हिन्दू हितैषी है। बागेश्वर धाम के ज़रिये हिन्दुओं को साधने के प्रयास में लगी शिवराज सरकार महाकालेश्वर कॉरिडोर मामले में बैकफुट पर आ गयी है। इसके अलावा शिवराज सरकार और कई मुद्दों पर लोगों का विरोध झेल रही है। केवल शिवराज सरकार के इस कार्यकाल में ही उसका $खूब विरोध हुआ है।

आदिवासियों ने अपनी जल, जंगल और ज़मीन की लड़ाई को तेज़ किया है, क्योंकि प्रदेश में आदिवासियों से इन प्राकृतिक संसाधनों को छीनने के लिए शिवराज सरकार ने कई पैंतरें चले हैं। इसी साल जनवरी में करणी सेना भी शिवराज सरकार का विरोध कर चुकी है। करणी सेना के इस विरोध प्रदर्शन में 2,00,000 से अधिक सवर्णों ने भाग लिया।

इसी साल फरवरी में मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में भीम आर्मी शक्ति प्रदर्शन करके शिवराज सिंह सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा निकाल चुकी है। 14 अप्रैल को बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की जयंती पर उनके जन्म स्थान महू (इंदौर) में एक बड़ा आयोजन हुआ, जिसमें दलितों, आदिवासियों व पिछड़ी जातियों ने भागीदारी की। इस आयोजन में शिवराज सरकार में दलितों, आदिवासियों हो रहे अत्याचारों को लेकर विरोध दर्ज हुआ।

नेताओं की अमर्यादित भाषा

मध्य प्रदेश के नेता अमर्यादित भाषा का प्रयोग करने पर आमादा हैं। भाषा की मर्यादा ताक पर रखकर नेता पागल, धोखेबाज़, कुंठित, सडक़छाप, बिकाऊ, विष जैसे शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। अभद्र शब्दों का प्रयोग करने में छोटे नेता ही नहीं, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ जैसे बड़े नेता भी पीछे नहीं हैं। पिछले दिनों मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने कमलनाथ को पागल कहा, तो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने उन्हें कुंठित व्यक्ति कह दिया। उन्होंने कहा कि मुझे अपने अपमान कि फ़िक्र नहीं है, मुझे दु:ख इस बात का है कि मध्य प्रदेश जैसे महान् राज्य के मुख्यमंत्री पद पर ऐसे कुंठित विचारों वाला व्यक्ति बैठा है।

पिछले समीकरण

मध्य प्रदेश में दो ही दल कांग्रेस और भाजपा ही मुख्य रूप से जीतते रहे हैं। यहाँ 2013 में जहाँ भाजपा ने सरकार बनायी थी, तो 2018 में कांग्रेस ने 114 सीटों पर जीत हासिल करके भाजपा के 15 साल के शासन को ध्वस्त करके सरकार बनायी। पर 109 सीटें जीतने वाली भाजपा ने 15 महीने के भीतर ही कांग्रेस की कमज़ोर कड़ी ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों को तोडक़र क़रीब डेढ़ साल बाद ही अपनी सरकार बना ली। अब एक बार फिर 2023 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का पलड़ा भारी दिख रहा है और यह माना जा रहा है कि कांग्रेस इस बार पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने में सफल हो सकती है।

विकराल होती धर्मांतरण की समस्या

हमारे यहाँ लम्बे समय से एक आदिवासी महिला काम करती थी। एक दिन उसने कहा कि कल (यानी रविवार को) चर्च जाना है। देर से आऊँगी। मैंने पूछा वहाँ कोई काम मिल गया है। बोली- नहीं, विशेष प्रार्थना सभा है। मैं अचरज में पड़ गया। पूछा- क्या धर्म बदल लिया है? कामवाली का जवाब था- हाँ। मैंने पूछा- क्यों? तो वह बोली- आस्था के कारण। यह जवाब मुझे कुछ रटा-रटाया सा लगा। कुछ और सवाल किये, तो कामवाली ने चुप्पी साध ली। इस बात का ज़िक्र यहाँ मैं इसलिए कर रहा, क्योंकि यह घटना झारखण्ड की राजधानी रांची की है। सोचने वाली बात है कि जब राजधानी के वह भी शहरी क्षेत्र में धर्म परिवर्तन का मामला सामने आ रहा है, तो गाँव-देहात और दूर-दराज़ के इलाक़े में इस तरह की घटना बड़े पैमाने पर होने को नकारा नहीं जा सकता है।

यह सही है कि संविधान ने हमें किसी भी धर्म को मानने का अधिकार दिया है। यह भी सही है कि स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन को क़ानूनन ग़लत नहीं ठहराया जा सकता है। लेकिन देखना यह होगा कि क्या वाक़ई धर्म परिवर्तन स्वेच्छा से हो रहा है? क्या किसी लोभ के कारण इस तरह की घटनाएँ नहीं हो रहीं? क्योंकि लोभ, भय, ब्लैकमेल आदि के कारण कराया जाने वाला धर्म परिवर्तन अपराध की श्रेणी में है। यह एक गंभीर मामला है। इस पर राजनीति से हटकर सख़्त क़दम उठाने की ज़रूरत है।

किन धर्मों में धर्मांतरण

दुनिया में तीन ऐसे बड़े धर्म हैं, जिनके कारण दुनिया में धर्मांतरण जैसा शब्द अस्तित्व में आया। ये हैं, बौद्ध, ईसाई और इस्लाम। तीनों ही धर्मों ने दुनिया के पुराने धर्मों के लोगों को अपने धर्म में कुछ को स्वेच्छा से दीक्षित किया, तो कुछ को उनकी इच्छा के विरुद्ध धर्मांतरित करवाया। उस काल में इन तीनों धर्मों के सामने हिन्दू और यहूदी धर्म के अलावा दुनिया के कई तमाम छोटे और बड़े धर्म थे। भारत में भी धर्मांतरण कोई नयी बात नहीं है। कहा जाता है कि प्राचीनकाल में जैन और बौद्ध धर्मों में हिन्दुओं का धर्मांतरण हुआ। मध्यकाल में इस्लाम और सिख धर्म में गये। आधुनिक काल में हिन्दुओं का ईसाई, बौद्ध और इस्लाम में धर्मांतरण जारी है।

अनगिनत घटनाएँ

धर्मांतरण की घटनाएँ तभी सामने आती हैं, जब कुछ बड़ा होता है। अभी 19 जून, 2023 को भोपाल की एक घटना चर्चा में रही। एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें एक युवक को गले में पट्टा बाँधकर कुत्ते की तरह भौंकने को कहा गया। उसे धर्म परिवर्तन के लिए कहा जा रहा है। यह घटना राष्ट्रीय स्तर पर वायरल हुई। मीडिया में भी सुर्ख़ियों में रही। इससे इतर छोटी-छोटी कई घटनाएँ हैं, जिसकी भनक तक नहीं लगती। इस साल जनवरी में झारखण्ड के कोडरमा ज़िले के एक टोला (गाँव का छोटा हिस्सा) के 100 लोगों ने धर्म बदल लिया। थोड़ी बहुत राजनीतिक सियासत और बयानबाज़ी के बाद मामला रफ़ा-दफ़ा हो गया। किसी को सम्भवत: घटना याद भी न हो। इसी तरह फरवरी, 2023 में गिरिडीह के बगोदर इलाक़े में 10-12 महिलाओं ने धर्म परिवर्तन किया था। बाद में समाज के लोगों ने उनकी वापसी अपने धर्म में करवायी। इस तरह की कई छोटी-छोटी घटनाएँ झारखण्ड के अलग-अलग हिस्सों से अक्सर देखने-सुनने को मिलती रहती हैं। ये घटनाएँ मीडिया में एक तो आती नहीं और अगर आती भी हैं, तो दबी-कुचली आकर सहसा दम तोडक़र रह जाती हैं। इन पर न ही सरकार का ध्यान है, न ही पुलिस-प्रशासन का और न ही समाज का।

धर्मांतरण की वजह

धर्म परिवर्तन करने वाले ज़्यादातर लोग कहते हैं- ‘आस्था के कारण धर्म बदला है।’ हालाँकि इसमें कितनी सच्चाई है, यह अलग मुद्दा है। किसी की आस्था पर सवाल खड़ा करना भी उचित नहीं है। लेकिन अचानक में किसी ख़ास धर्म के प्रति आस्था का इतना जग जाना अपने आप में ही सवालिया निशान खड़ा करता है। जानकारों की मानें, तो धर्मांतरण के ज़्यादातर मामले लोभ और भय के कारण होते हैं। इसके पीछे ग़रीबी, अशिक्षा, क्षेत्र में विकास की कमी, अपने ही धर्म में तिरस्कार और दुत्कार आदि कई कारण हैं।

धर्म के तथाकथित ठेकेदार अपने धर्म को सर्वोच्च बताते हैं। पैसे, भोजन, स्वस्थ्य, बच्चों के भरण-पोषण आदि का लालच देते हैं। कुछ जगहों पर डायन-बिसाही, भूत-प्रेत, घर में अनहोनी, स्वस्थ्य की ख़राबी आदि के भय और अगर इस तरह की किसी परेशानी में हैं, तो उससे निकालने का आश्वासन देकर धर्म परिवर्तन कराया जाता है। जानकार कहते हैं कि धर्म परिवर्तन कराने वाले लोग हमेशा उस तबक़े को पकड़ते हैं, जो अशिक्षित और ग़रीब है। अमूमन उन इला$कों को पकड़ते हैं, जहाँ सडक़, स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी, बिजली आदि जैसी मूलभूत सुविधाओं की कमी हो।

ख़ास बात यह है कि यह महज़ एक दिन में नहीं हो जाता है। इसके लिए लम्बे समय तक धर्म के ठकेदारों (यानी प्रचारकों) द्वारा प्रयास किया जाता है। पहले लोगों का मानसिक रूप से धीरे-धीरे ख़ास धर्म के प्रति झुकाव बढ़ाया जाता है। उनकी तकलीफ़ों पर थोड़ा-थोड़ा मरहम लगाया जाता है। इसके बाद उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए तैयार किया जाता है। ज़रूरत पड़े, तो दबाव बनाया जाता है। अंतत: धर्म परिवर्तन कराया जाता है।

क़ानून की उड़ रहीं धज्जियाँ

ऐसा नहीं कि देश के विभिन्न राज्यों की सरकारें धर्म परिवर्तन की बात से वाक़िफ नहीं हैं। उन्होंने जबरन धर्मांतरण के ख़िलाफ़ सख़्त क़ानून बनाये हैं। इसे लेकर सबसे पहले ओडिशा ने क़ानून बनाया। ओडिशा में धर्मांतरण विरोधी क़ानून सन् 1967 में लागू किया गया था। इसके बाद सन् 1968 में मध्य प्रदेश क़ानून बनाने वाला दूसरा राज्य बना। अरुणाचल प्रदेश में सन् 1978 में क़ानून बना। वहीं, गुजरात में सन् 2003 में क़ानून बना। समय की माँग के अनुसार अप्रैल, 2021 में पूर्व के क़ानून में संशोधन भी किया गया।

इसके अलावा छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, कर्नाटक आदि राज्यों में क़ानून बने। झारखण्ड में सन् 2017 में धर्मांतरण पर क़ानून बना। सभी राज्यों के क़ानून में एक बात सामान्य है कि जबरन धर्म परिवर्तन के लिए ठोस कार्रवाई का प्रावधान किया गया। झारखण्ड, गुजरात, छत्तीसगढ़ जैसे कुछ राज्य ऐसे हैं, जहाँ धर्म परिवर्तन करने की सूचना ज़िलाधिकारी को देना अनिवार्य किया गया है।

काफ़ी नहीं क़ानून

झारखण्ड के गढ़वा ज़िले में 14 जून को स्थानीय लोगों ने अपने मोहल्ले में धर्म परिवर्तन केंद्र का ख़ुलासा किया। पुलिस ने छापेमारी में 20-22 लोगों को हिरासत में लिया। धर्म प्रचार केंद्र से भारी मात्रा में ख़ास धर्म की पुस्तकें और अन्य प्रचार सामग्री मिली।

हिरासत में लिये गये कई लोग बिहार, तेलंगाना समेत अन्य राज्यों के थे। इसके एक-दो दिन बाद पुलिस ने सभी को छोड़ दिया। पुलिस का कहना था कि आरोपियों के ख़िलाफ़ जबरन धर्म परिवर्तन कराने का कोई सुबूत नहीं मिला। ये केवल अपने धर्म का प्रचार कर रहे थे। संविधान में धर्म का प्रचार ग़लत नहीं है। राज्य में जो क़ानून बने हैं, वह जबरन धर्म परिवर्तन पर कार्रवाई के हैं। जबकि स्थानीय लोगों का दावा है कि पकड़े गये लोग एक मिशन के तहत इलाक़े में आये हुए हैं। बाक़ायदा केंद्र बनाकर धर्म का प्रचार कर रहे थे। वे लोगों को लालच देकर धर्म परिवर्तन का दबाव बनाते हैं।

राजनीति से इतर देखने की ज़रूरत

राज्य के एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि झारखण्ड में पूर्व सरकार ने धर्मांतरण पर क़ानून बनाया। सख़्ती अपनायी, तो पुलिस-प्रशासन भी मुस्तैद रहा।

मौज़ूदा सरकार क़ानून पर ध्यान नहीं दे रही, तो प्रशासन भी ग़ैर-ज़िम्मेदार है। जिसका नमूना गढ़वा या अन्य जगहों का मामला है। वहीं, जानकारों की मानें देश में लगातार ऐसे कई मामले सामने आ रहे हैं, जिसमें लोगों का धर्मांतरण कराया जा रहा है। हालाँकि स्वेच्छा से अपने धर्म को छोडक़र किसी दूसरे धर्म को अपनाना अपराध नहीं है। यदि कोई लालच देकर, जबरन या ब्लैकमेल करके धर्मांतरण कराता है, तो इसे अपराध की श्रेणी में रखा जाता है।

लिहाज़ा जबरन धर्म परिवर्तन को साबित करना आसान नहीं है। इसमें सरकार के सहयोग की बहुत ज़रूरत है। क्योंकि झारखण्ड में यह क़ानून तो है ही कि धर्म परिवर्तन की सूचना प्रशासन को देनी होगी। स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन करने वाले या करवाने वाले इसकी सूचना तक नहीं देते। यह अपराध तो है ही। सरकार अगर सख़्त होगी, तो प्रशासनिक अधिकारी भी सख़्त हो जाएँगे।

दरअसल धर्मांतरण का मुद्दा वोट बैंक के कारण राजनीति में उलझकर रह जाता है। अभी हाल में कर्नाटक में सरकार बदली, तो क़ानून में परिवर्तन की बात आ रही है। अगर किसी भी राज्य को धर्मांतरण पर पूरी तरह क़ाबू पाना है, तो इसे राजनीति के चश्मे को उतारकर देखना और निपटना होगा। तभी जबरन धर्मांतरण पर रोक सम्भव है, नहीं तो ऐसे ही ग़रीब और अशिक्षित लोगों को ये बरगलाते रहेंगे। देश भर में यह सिलसिला जारी रहेगा; जो भविष्य में घातक साबित हो सकता है।