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तोडफ़ोड़ की राजनीति- महाराष्ट्र में एनसीपी की टूट से भाजपा पर भी कई सवाल

ख़ुद को राजनीतिक रूप से मज़बूत करने या दूसरे दल की सरकार को तोडक़र अपनी सरकार बनाने का चलन भारतीय राजनीति को बदसूरत करता जा रहा है। यदि दूसरे दल को तोडक़र अपनी सरकार ही बनानी है, तो फिर चुनाव और जनता की क्या अहमियत? चुनाव तो होते ही जनादेश के लिए हैं; लेकिन महाराष्ट्र में एनसीपी या उससे पहले शिवसेना की टूट यह ज़ाहिर करती है कि राजनीति केवल नैतिकता दिखाने भर को है। महाराष्ट्र की घटनाओं का देश पर क्या असर होगा? बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

देश भर की राजनीति में महाराष्ट्र अनोखे राजनीति गठबंधनों वाला इकलौता राज्य बन गया है। वहाँ अब देश के दो बड़े राजनीतिक दलों भाजपा और कांग्रेस के गठबंधन दो राजनीतिक दलों के दो गुटों के साथ हैं। भाजपा के साथ शिवसेना का शिंदे गुट है, तो कांग्रेस के साथ उद्धव वाली शिव सेना का गुट। इसी तरह भाजपा के साथ अजित पवार वाली एनसीपी है, तो कांग्रेस के साथ शरद पवार के नेतृत्व वाला एनसीपी धड़ा। शायद ही दुनिया की राजनीति में ऐसा कोई उदाहरण मिले।

महाराष्ट्र में अपनी राजनीतिक ज़रूरतें पूरी करने के लिए शिव सेना के बाद भाजपा ने शरद पवार की एनसीपी में भी सेंध लगा दी और अजित पवार को शरद पवार जैसे अनुभवी नेता से आठ अन्य विधायकों के साथ छीन लिया। इसका नतीजा यह निकला है कि महाराष्ट्र की राजनीति में जबरदस्त जंग छिड़ गयी है। शिंदे अजित को क़तई पसंद नहीं करते लिहाज़ा उनके ही ख़ेमे में हलचल मच गयी है।

शरद पवार, एनसीपी चीफ

भाजपा ने हाल के वर्षों में चुनाव में हारकर सरकार नहीं बना पाने के बावजूद विपक्षी दल की सरकार बनने पर उसके सदस्यों को तोडक़र अपनी सरकार बना लेने की परम्परा क़ायम कर दी है। हाल के वर्षों में ऐसी कई उदाहरण दिखे हैं। हालाँकि महाराष्ट्र में एनसीपी में टूट के बाद भाजपा के लिए भी दिक़्क़तें पैदा हुई हैं, क्योंकि उसके अपने ही गठबंधन के बीच इससे दरार बन गयी है। यही नहीं चाचा शरद पवार से अलग हुए भतीजे अजित पवार एनसीपी में दो-फाड़ करने के 20 दिन बाद भी अपने गुट को एनसीपी का ‘असली धड़ा’ बना पाने में सफल नहीं हुए हैं, जिसके लिए उन्हें 36 विधायकों की ज़रूरत है।

पार्टी में टूट के बाद 82 साल के शरद पवार ने जिस तरह मैदान में डटे रहने का संकल्प लिया, उससे साफ़ है कि एनसीपी में शरद पवार को किनारे करना आसान काम नहीं है। अभी भी एक लोकसभा सदस्य को छोडक़र पूरा संसदीय दल शरद पवार के साथ है और पार्टी का अधिकाँश हिस्सा भी उनके साथ खड़ा दिखता है। ऐसी स्थिति में भाजपा-शिंदे सरकार में मंत्री बन चुके अजित पवार के लिए राह उतनी आसान नहीं है। जनता अजित पवार के इस क़दम को कैसे देखती है? यह भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि अभी तक जनता का जो रुख़ सामने आया है, उससे लगता है कि उसकी सहानुभूति शरद पवार के साथ ज़्यादा है।

बहुत-से जानकार मानते हैं कि भाजपा भले दूसरे दलों को तोडक़र ख़ुद को मज़बूत कर रही है; लेकिन जनता में इसका अच्छा सन्देश नहीं जा रहा। इस तरह की राजनीति करने का चुनावों में उसे नुक़सान भी झेलना पड़ सकता है। महाराष्ट्र लोकसभा की राजनीति के लिहाज़ से भी काफ़ी अहम है; क्योंकि वहाँ 48 सीटें हैं। सन् 2019 के चुनाव में भाजपा ने 23 सीटें जीती थीं, जबकि अविभाजित शिव सेना ने 18 सीटें। एक साल पहले शिवसेना में टूट हो गयी और सदस्य भी बँट गये। एनसीपी को चार, जबकि कांग्रेस, एआईएमआईएम, निर्दलीय को एक-एक सीट मिली थी। अब सारा परिदृश्य बदल चुका है और शिव सेना और एनसीपी का एक-एक धड़ा क्रमश: भाजपा और कांग्रेस के साथ है। महाराष्ट्र की इस उठापटक के बाद कांग्रेस राज्य में मुख्य विपक्षी दल बन गयी है, जिसके पास सबसे ज़्यादा 45 विधायक हैं।

कम नहीं दिक़्क़तें

महाराष्ट्र में भाजपा की सबसे बड़ी दिक़्क़त यह है कि उसके पास बड़े क़द का कोई मराठा नेता नहीं है, जो उसको विधानसभा में अपने दम पर बहुमत दिला सके। लिहाज़ा उसने पहले शिव सेना और अब एनसीपी को तोडऩे का रास्ता चुना, ताकि महाराष्ट्र में बिखरे रूप से उसको आधार मिल सके। महाराष्ट्र की राजनीति के जानकारों के मुताबिक, अजित पवार महत्त्वाकांक्षी नेता हैं। लिहाज़ा उनकी नज़र भाजपा के साथ रहते हुए भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहेगी। ऐसे में उनका शिंदे ही नहीं, देवेंद्र फडणवीस के साथ भी टकराव होगा। उपमुख्यमंत्री तो वह महाविकास अघाड़ी सरकार में भी थे।

सत्ता में आने के बाद अजित को अपने गढ़ पुणे में जिस ‘शासन आपल्य दारी’ कार्यक्रम के तहत सरकार में दूसरे उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के साथ जाना था, वह कार्यक्रम भी शिंदे सरकार ने 13 जुलाई को स्थगित कर दिया। कार्यक्रम की अगली तारीख़ अभी घोषित नहीं हुई है। लिहाज़ा इसे अजित पवार के लिए झटका ही माना जाएगा; क्योंकि उनके शिंदे सरकार में शामिल होने के बाद ही सारी उथल-पुथल शुरू हुई है। भाजपा अब महसूस कर रही है कि अजित पवार के उसके साथ आने से कुछ ऐसी पेचीदगियाँ पैदा हो सकती हैं, जिन्हें निपटाना आसान नहीं होगा।

उद्धव ठाकरे, महाराष्ट्र के पूर्व सीएम

अजित पवार के सामने अब दोतरफ़ा विरोध है, जिससे उन्हें पार पाना है। सरकार से बाहर उन्हें शरद पवार की जनता में पैठ से पार पाना होगा। दूसरे सरकार के भीतर मुख्यमंत्री शिंदे के विरोध से भी निपटना होगा, जिन्होंने उद्धव ठाकरे से अलग होते समय कहा था कि वह अजित पवार के कारण उद्धव ठाकरे से अलग हो रहे हैं। अब जबकि अजित पवार उनके नेतृत्व वाले भाजपा के दबदबे वाली सरकार में ही शामिल हो चुके हैं, तो शिंदे का असहज होना समझ भी आता है।

शिंदे की अजित के लिए कटुता आसानी से ख़त्म हो जाएगी, ऐसा दिखता नहीं है। दूसरे शिंदे पर अपने ही विधायकों का दबाव है कि उन्हें मंत्री बनाया जाए। शिंदे के लिए यह दिक़्क़त और विरोध अजित पवार के सरकार में शामिल होने से ही शुरू हुआ है, लिहाज़ा उनकी उनके प्रति तल्$खी और बढऩे से इनकार नहीं किया जा सकता।

शरद पवार की पॉवर

शरद पवार

शरद पवार भारतीय राजनीति में चाणक्य वाली छवि रखते हैं। बेशक अजित पवार ने इस बार उन्हें अपने विद्रोह से हैरान किया; लेकिन शरद पवार को यह तो पता ही था कि भतीजा उनसे दग़ा कर सकता है। यही कारण था कि जब उन्होंने बेटी सुप्रिया सुले को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया, तो उनके साथ अपने विश्वस्त प्रफुल्ल पटेल को भी यही पद दिया। यहाँ तक कि दिल्ली में इसके बाद जब एनसीपी कार्यकारिणी की बैठक हुई, तब दीवार पर लगाये गये पोस्टर में प्रफुल्ल पटेल की फोटो तो थी, अजित पवार की नहीं थी। हो सकता है, शरद पवार को यह उम्मीद न रही हो कि प्रफुल्ल भी उन्हें देखा दे सकते हैं। इसके बाद मुम्बई में जब अजित पवार ने अपनी शक्ति दिखाने के लिए बैठक बुलायी, तो उसमें उन्होंने सीधे शरद पवार पर हमला कर दिया। उन्हें यह भी सलाह दे डाली कि ‘यह उनकी रिटायरमेंट का समय है।’ हालाँकि शरद पवार ने इसका जवाब यह कहकर दिया कि ‘न मैं टायर्ड हूँ, न रिटायर्ड हूँ।’ जनता में भी अजित पवार की इस बात का कुछ अच्छा सन्देश नहीं गया और यह माना गया कि अजित पवार उस व्यक्ति से यह गुस्ताखी कर रहे हैं, जिसने उन्हें बनाया और आगे बढ़ाया।

एनसीपी के दोनों गुटों में इसके बाद ख़ुद को ‘असली’ बताने के लिए जबरदस्त जंग छिड़ गयी। दोनों ने एक दूसरे के नेताओं को पदों से हटाने की घोषणा की। यह जंग अभी भी जारी है और मामला चुनाव आयोग के पास लम्बित है।

शरद पवार ने दिल्ली में एनसीपी संसदीय दल और पदाधिकारियों की बैठक करके अपनी ताक़त का परिचय दिया। इसमें चार सांसद ही नहीं, बल्कि ज़्यादातर पार्टी पदाधिकारी भी पहुँचे। इस दौरान कार्यकारी अध्यक्ष सुप्रिय सुले भी काफ़ी सक्रिय दिखीं। शरद के चेहरे से बिलकुल नहीं लगता था कि भतीजे की बेवफ़ाई और पार्टी के टूटने से घबराये हुए हैं। उन्होंने ऐलान कर दिया कि वह पूरे राज्य का दौरा करके जनता से मिलेंगे। दो दिन बाद ही शरद पवार इस उम्र में भी सक्रियता से जनता के बीच दिखे। उन्होंने अपने गुरु यशवंत राव चव्हाण को भी याद किया। शरद पवार महाराष्ट्र में अब बाक़ी बची पार्टी (एनसीपी के अपने गुट) और महाविकास अघाड़ी गठबंधन को मज़बूत बनाने में जुट गये हैं।

अजित पवार ने 5 जुलाई को मुंबई के बांद्रा में पार्टी नेताओं के साथ शक्ति प्रदर्शन किया था, जिसमें एनसीपी के 53 में से 32 विधायक शामिल हुए थे। उधर शरद पवार की बैठक में 17 विधायक उपस्थित हुए। इस लिहाज़ से अजित का पलड़ा भारी लगता है। हालाँकि दूसरा सच यह है कि विधानसभा विधायक दल में अजित को एनसीपी का मुख्य धड़ा होने का दावा करने के लिए कम-से-कम 36 विधायक चाहिए। अभी तक तस्वीर साफ़ नहीं है कि वास्तव में कितने विधायक उनके पास हैं। दिलचस्प यह है कि जहाँ शरद पवार गुट के विधायक खुले घूम रहे हैं, वहीं अजित पवार को अपने विधायकों को होटल में रखना पड़ रहा है।

अजित की इस बात पर कि वह सरकार में इसलिए शामिल हुए, क्योंकि वह पार्टी और प्रदेश के लिए काम करना चाहते हैं; सीनियर पवार ने कहा कि वह बिना कोई मंत्री पद लिए हुए भी वह पार्टी के लिए काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा- ‘मुझे रिटायरमेंट के लिए कहने वाले वे (अजित) कौन होते हैं? मैं अभी भी काम कर सकता हूँ।’

शरद पवार ने हाल में स्वीकार किया था कि भाजपा के नेतृत्व में सरकार में शामिल होने के लिए उनकी पार्टी से बात हुई थी। उन्होंने कहा कि साल 2014, 2017 और 2019 में भाजपा के साथ गठबंधन की बात हुई थी; लेकिन अलग विचारधारा होने के चलते हम आगे नहीं बढ़े।

फडणवीस बनाम शिंदे

महाराष्ट्र में अजित पवार और उनके आठ साथियों को शिंदे के नेतृत्व वाली ‘भाजपा संचालित’ सरकार में मंत्री बनाने के बाद काफ़ी विवाद बन गया है। महाराष्ट्र में उप मुख्यमंत्री और भाजपा के सबसे बड़े चेहरे देवेंद्र फडणवीस की कोशिशें नाकाम होने के बाद सारा ज़िम्मा भाजपा के चाणक्य माने जाने वाले वरिष्ठ नेता एवं देश के गृह मंत्री अमित शाह के ऊपर आ पड़ा है। फडणवीस ने मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और अजित पवार से बैठकें की थीं कि कोई रास्ता निकल आये; लेकिन शिंदे के विधायक अजित पवार के उनके साथ सत्ता में साझीदार बनने से बहुत ख़फ़ा हैं। उन्हें यह भी लगता है कि उनका इस्तेमाल करके भाजपा उन्हें दूध से मक्खी की तरह निकाल बाहर करना चाहती है।

भाजपा पर दबाव बनाने के लिए शिंदे ने अपने विधायकों को सक्रिय कर मंत्री पद की माँग उठाने और ऐसा न होने पर वापस उद्धव ठाकरे से मिलने की धमकी दिलवाने की रणनीति अपनायी। यह माना जाता है कि अजित के मंत्री बनने से सबसे ज़्यादा नाराज़ शिंदे ही हैं; क्योंकि अजित को भाजपा के साथ जोडऩे में उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने सबसे बड़ी भूमिका निभायी है। इसके पीछे भी बड़ा कारण है। दरअसल शिंदे भाजपा आलाकमान के नज़दीक जाने और फडणवीस की भी छुट्टी करवाने की कोशिश कर रहे थे।

महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे

कहा जाता है कि फडणवीस को जब इसकी भनक लगी, तो वह बहुत नाराज़ हुए। इस बीच एक विज्ञापन ने महाराष्ट्र की राजनीति में खलबली मचा दी। इस विज्ञापन पोस्टर में ऊपर बड़े अक्षरों में लिखा था- ‘मोदी फॉर इण्डिया, शिंदे फॉर महाराष्ट्र (राष्ट्र के लिए मोदी, महाराष्ट्र के लिए शिंदे)।’

इस पोस्टर में फडणवीस का न कोई ज़िक्र था, न उनकी कोई तस्वीर। सबसे ज़्यादा जो राजनीतिक तत्त्व इस पोस्टर में था, वह था- एक सर्वे का ज़िक्र; जिसमें दावा किया गया था कि महाराष्ट्र में शिंदे मुख्यमंत्री पद के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। फडणवीस से भी ज़्यादा लोकप्रिय। ये पोस्टर अंग्रेजी और मराठी दोनों भाषाओं में थे। इस पर जब हंगामा मचा, तो उसी दिन महाराष्ट्र सरकार की तरफ़ से एक और विज्ञापन जारी किया गया, जिसमें शिंदे और फडणवीस दोनों की फोटो थी और सरकार की एक साल की उपलब्धियों का इसमें ज़िक्र था।

हालाँकि तब तक तीर चल चुका था। फडणवीस ‘शिंदे के खेल’ को समझ रहे थे। लिहाज़ा उन्होंने महत्त्वाकांक्षी एनसीपी नेता अजित पवार के ज़रिये ऐसा खेल कर डाला कि शिंदे अपने ही जाल में उलझकर रह गये। देवेंद्र फडणवीस ने किसी को कानों-कान ख़बर नहीं होने दी और 2 जुलाई को अचानक अजित अपने आठ अन्य साथियों के साथ उपमुख्यमंत्री बन गये। साफ़ देखा जा सकता था कि शपथ विधि समारोह के दौरान अजित पवार जब शिंदे से हाथ मिलाने गये, तो शिंदे के चेहरे पर तनाव की रेखाएँ थीं।

दिल्ली की दौड़

अजित पवार के सत्ता में भागीदार बनने के बाद एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली सरकार में भगदड़-सी मच गयी है। शिंदे के समर्थक विधायक मंत्री बनाने के लिए दबाव डाल रहे हैं। यह सब तब हो रहा है, जब चर्चा है कि एकनाथ शिंदे और उनके समर्थक विधायकों की विधायकी जा सकती है। विधानसभा स्पीकर शिंदे और उद्धव दोनों गुटों को नोटिस जारी कर चुके हैं।

इस पर देखना है कब और क्या फ़ैसला आता है? अजित पवार दबाव बना रहे हैं कि गृह मंत्रालय उन्हें दिया जाए। वह अपने विधायकों को भी मलाईदार महकमे चाहते हैं। मुम्बई से यह लड़ाई शिफ्ट होकर अब दिल्ली पहुँच गयी है। यदि मामला सुलट जाता है, तो महाराष्ट्र सरकार में जल्द ही एक और मंत्रिमंडल विस्तार देखने को मिलेगा।

दिल्ली में अजित पवार का एनसीपी धड़ा और शिंदे के अलावा भाजपा के राज्य नेता भी हैं। विभागों के पुनर्वितरण को लेकर शिवसेना और एनसीपी के बीच कई दिन तक सहमति नहीं बन सकी। मामला इसलिए अटका क्योंकि भाजपा शिंदे के मंत्रियों पर कुछ ऐसे विभाग छोडऩे का दबाव बना रही थी, जिन्हें अजित गुट के नये बने मंत्रियों को दिया जाना था। शिंदे इसका विरोध कर रहे थे। शपथ के 15 दिन के तक एनसीपी अजित धड़े के 9 मंत्री बिना विभाग काम करते रहे।

शिंदे गुट की शिवसेना के विधायकों का दावा है कि 17 जुलाई से शुरू होने वाले राज्य विधानमंडल के मानसून सत्र से पहले शिंदे मंत्रिमंडल का विस्तार होगा। इस विस्तार को लेकर शिंदे गुट में बेचैनी है। इस गुट के विधायकों ने एक साल पहले उद्धव ठाकरे का साथ छोडक़र भाजपा के साथ सरकार बनायी थी। तब कई वरिष्ठ विधायकों को मंत्री पद देने का वादा किया गया था। लेकिन एक साल के बाद भी इन लोगों को मंत्री पद के लिए इंतज़ार है। दूसरी तरफ़ अजित पवार बीते 02 जुलाई को अपने नौ विधायकों के साथ मंत्री पद की शपथ ले चुके हैं। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि आगामी 17 जुलाई से पहले शिंदे मंत्रिमंडल का विस्तार नहीं हुआ, तो क्या स्थिति होगी? यह देखना दिलचस्प होगा।

शिंदे गुट की पार्टी के व्हिप भरत गोगावले का कहना है- ‘हम अपने विधायकों से चर्चा करेंगे और फ़ैसला करेंगे। मंत्री नहीं बनने की सूरत में जय महाराष्ट्र (शिंदे शिवसेना को अलविदा) करेंगे।’

भरत गोगावले ने कहा- ‘अब रुकने की कोई संभावना नहीं है। क्योंकि विधायक फ़ैसले के क़रीब हैं। उन्हें जल्द-से-जल्द फ़ैसला चाहिए, इसलिए मुझे लगता है कि सत्र से पहले मंत्रिमंडल का विस्तार किया जाएगा।’

दिलचस्प बात यह है कि शिंदे गुट के विधायकों के उद्धव ठाकरे सरकार में सबसे ज़्यादा शिकायत अजित पवार से ही थी। उनका आरोप था कि वित्त मंत्री के नाते अजित पवार शिव सेना विधायकों को पैसा ही नहीं देते थे।

विधायकों की इस नाराज़गी के कारण ही पिछले कुछ दिन से मुख्यमंत्री शिंदे के इस्ती$फे की बड़ी चर्चा है। हालाँकि मंत्री उदय सामंत कहते हैं कि मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के इस्तीफ़ा देने का सवाल ही नहीं उठता। इस समय मंत्रिमंडल में 29 मंत्री हैं और अभी 14 और विधायकों को मंत्री बनाया जा सकता है। यह देखना दिलचस्प होगा कि अमित शाह यह सारा विवाद कैसे सुलझाते हैं और शिंदे गुट के विधायकों की नाराज़गी दूर होती है। दूसरे यह देखना भी दिलचस्प होगा कि शिंदे गुट के विधायकों का क़ानूनी विवाद में क्या भविष्य होता है?

निर्दलीयों का राग

महाराष्ट्र के वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम से 10 निर्दलीय विधायक भी नाराज़ हैं। यह विधायक 13 जुलाई को मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे से मंत्री पद के अपने दावों के साथ मिले थे। हालाँकि बाद में उन्होंने कहा कि वे मंत्री पद का दावे छोड़ रहे हैं। दरअसल प्रहार जनशक्ति पार्टी के प्रमुख और पूर्व मंत्री ओमप्रकाश बी. (बच्चू कडू) शिंदे सरकार के साथ हैं। उनके नेतृत्व वाले निर्दलियों का कहना है कि वे केबिनेट पदों के लिए चल रही माँग से बहुत हतोत्साहित हैं। यहाँ दिलचस्प यह है कि यह विधायक भी अजित पवार के सरकार मेंं शामिल होने से ख़ुश नहीं हैं। कडू का कहना है कि वे 17 जुलाई को बैठक करके अगले दिन अपनी योजनाओं का ऐलान करेंगे।

कडू पहले उद्धव ठाकरे की सरकार के साथ भी रहे हैं। कडू ठाकरे के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि उनके अनुरोध पर वह मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व के भरोसे के बाद महाविकास अघाड़ी में शामिल हुए थे और उन्हें (कडू) मंत्री बनाने का वादा भी निभाया गया। हालाँकि उनके मुताबिक, विकलांगता कल्याण के लिए अलग मंत्रालय नहीं बनाने से वे नाराज़ थे। लिहाज़ा सरकार गिरने के बाद शिंदे सरकार में शामिल हुए, जिसने यह मंत्रालय बनाया।

कडू ने कहा- ‘यदि एमवीए ने मंत्रालय बना दिया होता तो हम जून, 2022 में उद्धव को छोडक़र शिंदे के साथ नहीं जाते। अब महाराष्ट्र विकलांगों के लिए समर्पित मंत्रालय वाला अकेला राज्य है; लिहाज़ा हमारा शिंदे के प्रति हमेशा के लिए आभार है। ज़ाहिर है यदि कोई घटनाक्रम होता है और शिंदे बाहर जाने को मजबूर होते हैं, तो यह 10 विधायक भी सरकार से बाहर जा सकते हैं। वह स्वीकार भी करते हैं कि राज्य में बदले राजनीतिक माहौल के साथ ऐसे कई लोग हैं, जो किनारे किये जाने से परेशान हैं। क्योंकि उनका भरोसा टूट रहा है। ज़ाहिर है कि शिवसेना शिंदे-भाजपा-एनसीपी अजित पवार की सरकारी तिकड़ी में अभी कई खेल हो सकते हैं।

महाराष्ट्र की घटनाएँ और विपक्षी एकता

समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव, झारखंड सीएम हेमंत सोरेन, कांग्रेस नेता राहुल गांधी, पश्चिम बंगाल सीएम ममता बनर्जी और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे

विपक्ष अपने महागठबंधन को आकार देने के लिए पटना के बाद 17-18 जुलाई को बेंगलूरु में फिर मिलने जा रहा है। इस बैठक में कांग्रेस की नेता सोनिया गाँधी भी शामिल हो सकती हैं। विपक्ष की यह बैठक ऐसे समय में होने जा रही है, जब विपक्षी एकता के सबसे बड़े सूत्रधारों में एक शरद पवार अपनी पार्टी एनसीपी को टूट से नहीं बचा पाये हैं।

सवाल उठ रहे हैं कि क्या इसका विपक्षी एकता पर असर पड़ेगा? ख़ुद शरद पवार कह चुके हैं कि विपक्षी एकता की कोशिशें जारी रहेंगी। हालाँकि विपक्ष के ख़ेमे के लिए बड़ी ख़बर यह है कि पटना के मुक़ाबले बेंगलूरु में उसके साथ 24 दल शामिल होने जा रहे हैं। पटना की बैठक में 15 ही दल जुटे थे। सबसे दिलचस्प बात यह है कि बेंगलूरु बैठक में राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के जयंत चौधरी भी आ रहे हैं; जिन्हें लेकर हाल में ये ख़बरें आयी थीं कि वह भाजपा के साथ जा सकते हैं। वह पटना की महागठबंधन की बैठक में भी नहीं आये थे।

बेंगलूरु की बैठक से पहले सोनिया गाँधी ने सभी पार्टियों को डिनर पर बुलाया है। यह डिनर डिप्लोमेसी क्या रंग लाएगी? यह तो समय ही बताएगा। लेकिन सोनिया गाँधी की सक्रियता ज़ाहिर करती है कि कांग्रेस पूरी ताक़त से एकता प्रयास कर रही है। यहाँ दिलचस्प बात यह है कि सोनिया गाँधी ने अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) को भी इस डिनर में आमंत्रित किया है। हाल के दिनों में कांग्रेस और आप में केंद्र के दिल्ली को लेकर अध्यादेश पर दोनों दलों में तनातनी दिखी थी। सोनिया गाँधी का यह मूव काफ़ी अहम माना जा रहा है। इससे संकेत मिलता है कि सोनिया गाँधी कुछ मुद्दों पर विपक्ष के बीच की टकराव के मुद्दों को ख़त्म करने की इच्छुक हैं।

एक कांग्रेस सांसद ने ‘तहलका’ को बताया- ‘वह (सोनिया गाँधी) विपक्ष की एकजुटता में वही भूमिका निभाने की तैयारी में हैं, जो कभी हरकिशन सिंह सुरजीत ने निभायी थी। वह चाहती हैं कि विपक्ष की एकता और भाजपा के विरोध के प्रति कटिबद्ध अधिक से अधिक दलों को साथ जुटना चाहिए।

ज़ाहिर है पटना के बाद इस बैठक में नौ नये दलों के जुडऩे से विपक्षी दलों में उत्साह है; क्योंकि इससे उनकी एकता को बल मिलेगा। बेंगलूरु बैठक में इस बार केडीएमके और एडीएमके भी हिस्सा लेंगे, जो 2014 में भाजपा के गठबंधन का हिस्सा थे।’ वरिष्ठ कांग्रेस नेता आनन्द शर्मा ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘देश की हवा बदल रही है। कर्नाटक में कांग्रेस की बड़ी जीत के बाद सत्तारूढ़ ख़ेमे (भाजपा) में चिन्ता भरी है। विपक्ष जिस तेज़ी से एकता अभियान में जुटा है, वह 2024 के चुनाव में चौंकाने वाले नतीजे देने की क्षमता रखता है।’

सूत्रों के मुताबिक, विपक्षी दलों की इस बैठक में सोनिया और राहुल गाँधी दोनों के शामिल होने की संभावना है।

हालाँकि भाजपा विपक्षी एकता का मज़ाक़ उड़ा रही है। भाजपा नेताओं का कहना है कि जो अपनी पार्टी ही सँभाल नहीं पा रहे, वह क्या $खाक एकता करेंगे। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने ‘तहलका’ से कहा- ‘वो न अपनी सरकारें सँभाल पा रहे हैं, न दल। प्रधानमंत्री मोदी दुनिया भर में भारत का नाम ऊँचा कर रहे हैं और यह (विपक्ष) ये ही तय नहीं कर पा रहा है कि उनका नेता कौन होगा?’

एकता की इस दूसरी बैठक में विपक्षी दल सम्भवत: एक से ज़्यादा वर्किंग ग्रुप बना सकते हैं। उन्हें न्यूनतम साझा कार्यक्रम (कॉमन मिनिमम प्रोग्राम) ड्राफ्ट तैयार करने का ज़िम्मा दिया जाएगा।  यह सीएमपी चुनाव में विपक्ष का साझा घोषणा पत्र होगा। उसका काम तमाम साझे मुद्दे ढूँढना होगा, दलों को स्वीकार्य होंगे। वर्किंग ग्रुप के ज़िम्मे सबसे कठिन काम राज्यों में गठबंधन की रूप रेखा बनाना होगा। इसमें भाजपा के ख़िलाफ़ साझा उम्मीदवार उतारना भी शामिल है।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, फ़िलहाल महागठबंधन सिर्फ़ लोकसभा चुनाव के लिए होगा। राज्यों पर बाद में फ़ैसला किया जाएगा। वर्किंग ग्रुप अगस्त से शुरू होने वाली विपक्षी नेताओं की साझा रैलियों की रूपरेखा भी तय करेगा। बेंगलूरु की बैठक में गठबंधन का नाम, पदाधिकारियों के नाम पर चर्चा होगी।

हालाँकि इसकी अन्तिम घोषणा अभी होने की सम्भावना नहीं है। नीतीश कुमार, मल्लिकार्जुन खडग़े, शरद पवार, ममता बनर्जी संयोजक हो सकते हैं। बेंगलूरु बैठक में कांग्रेस, टीएमसी, डीएमके, आप, जद(यू), राजद, सीपीएम, सीपीआई, एनसीपी, शिवसेना उद्धव, सपा, नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, सीपीआई एमएल, जेएमएम, आरएलडी, आरएसपी, आईयूएमएल, केरल कांग्रेस एम, वीसीके, एमडीएमके, केडीएमके, केरल कांग्रेस(जे) और फॉरवर्ड ब्लॉक हिस्सा लेंगे।

पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव में टीएमसी का बोलबाला

पश्चिम बंगाल के हिंसा से प्रभावित त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में बड़ी जीत हासिल की है। टीएमसी ने 20 ज़िला परिषदों में सीधे 880 सीटें जीतीं, जबकि उसकी निकटतम प्रतिद्वंद्वी भाजपा के हिस्से में 928 में महज़ 31 सीटें ही आयीं। कांग्रेस-वाम मोर्चा गठबंधन 15 सीटों पर विजयी रहा और दो सीटें निर्दलीय जीते। टीएमसी के लिए साल 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले इस बड़ी जीत के कई मायने हैं। टीएमसी ने सभी 20 ज़िला परिषदों पर क़ब्ज़ा कर भाजपा को बड़ा झटका दिया है, जो बेहतर नतीजों की उम्मीद कर रही थी।

राज्य चुनाव आयोग की तरफ़ से घोषित नतीजों के मुताबिक, टीएमसी ने 63,219 ग्राम पंचायत सीटों में से 35,000 से अधिक सीटों पर विजय पताका फहरायी है। भाजपा ने क़रीब 10,000 ग्राम पंचायत सीटों पर, जबकि वाम-कांग्रेस गठबंधन ने 6,000 से अधिक सीटों पर जीत हासिल की है।

पश्चिम बंगाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी

बता दें सन् 2018 के पंचायत चुनाव में भाजपा ने ग्राम पंचायत की 5,779 सीटें जीती थीं। टीएमसी का दावा है कि उसने बिना हिंसा का सहारा लिए इन चुनावों में जीत का जो लक्ष्य रखा था, उसे हासिल करने में वह सफल रही है। पार्टी के मुताबिक, उसे 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले अपने ग्रामीण आधार को मज़बूत करने में मदद मिली है और उसने शहरी मतदाताओं का भी भरोसा जीता है।

उधर भाजपा और माकपा-कांग्रेस गठबंधन ने उनके उम्मीदवारों को डराने-धमकाने का टीएमसी पर आरोप लगाया। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने टीएमसी की 22 सीटों के मुक़ाबले 18 लोकसभा सीटें जीतकर टीएमसी को चौंका दिया था। लेकिन ममता बनर्जी ने संगठन को चुस्त करते हुए दो साल बाद 2021 के विधानसभा चुनाव भाजपा के पूरी ताक़त झोंक देने के बावजूद अपनी सीटों को और बढ़ाते हुए 294 सदस्यीय विधानसभा में 215 तक पहुँचा दिया था। भाजपा 77 सीटें जीतकर मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी थी। लेकिन उसके बाद पश्चिम बंगाल की ज़मीन पर भाजपा बहुत मज़बूत नहीं हो पायी है। उसके कई बड़े नेता हाल के महीनों में टीएमसी में शामिल हो चुके हैं।

पंचायत चुनाव के नतीजे बताते हैं कि दार्जिलिंग और कलिम्पोंग के पहाड़ी क्षेत्रों में भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा (बीजीपीएम) मज़बूत हुआ है। पश्चिम बंगाल के इस पहाड़ी क्षेत्र में बीजीपीएम ने काफ़ी संख्या में पंचायत सीटें जीती हैं। बाक़ी हिस्सों में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के बाद इन ज़िलों में 23 साल के बाद द्विस्तरीय पंचायत चुनाव 8 जुलाई को हुए, जिसे गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) क्षेत्र कहते हैं। वहाँ पहले से ही बीजीपीएम नियंत्रित अर्ध-स्वायत्त परिषद् गठित है। ज़िला प्रशासन के मुताबिक, जीटीए के मुख्य कार्यकारी अनित थापा के नेतृत्व वाली बीजीपीएम ने दार्जिलिंग ज़िले की 70 ग्राम पंचायतों में 598 सीटों में से 349 पर क़ब्ज़ा कर लिया।

हिंसा को देखते हुए राज्य चुनाव आयोग ने बड़ी संख्या में दोबारा मतदान के नर्देश दिये। उधर कलकत्ता हाईकोर्ट ने भी पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव में हुई हिंसा को लेकर राज्य चुनाव आयोग और सरकार से नाराज़गी जतायी। भाजपा ने भी टीएमसी सरकार पर हिंसा को लेकर कई आरोप लगाये। हालाँकि सरकार का कहना था कि हिंसा में ज़्यादा जानें, तो टीएमसी के समर्थक लोगों की गयी। लिहाज़ा उस पर हिंसा का आरोप कैसे लगाया जा सकता है?

नतीजों के बाद ममता ने जनता का उनकी पार्टी को समर्थन देने के लिए आभार जताया। उन्होंने कहा कि इन नतीजों से अगले लोकसभा चुनाव के संभावित नतीजों के झलक मिलती है। यह तो तय है कि राज्य में टीएमसी का मुख्य मुक़ाबला भाजपा से ही रहेगा। माकपा और कांग्रेस ने भी काफ़ी सीटें जीतीं हैं। लिहाज़ा माना जा सकता है कि उनकी स्थिति 2021 के विधानसभा चुनाव जैसी नहीं रहेगी, जब दोनों को एक भी सीट नहीं मिली थी। हाल में कांग्रेस ने जब एक उपचुनाव जीता था, तब लगा था कि उसका पुराना वोट बैंक फिर उसके पास लौट रहा है। लेकिन पंचायत चुनाव में कांग्रेस को कोई बहुत बड़ी जीत नहीं मिली है।

यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस-माकपा फिर गठबंधन बनाकर मैदान में उतरेंगे या फिर कांग्रेस ममता बनर्जी की टीएमसी के साथ जाना चाहेगी। यह तय है कि यदि महागठबंधन बना, तो टीएमसी और कांग्रेस राज्य में मिलकर लड़ेंगे। लेकिन इस गठबंधन में क्या माकपा भी शामिल होगी? यह एक बड़ा सवाल है। साल के आख़िर तक, जब महागठबंधन की तस्वीर कुछ साफ़ होगी, तभी यह पता चलेगा कि बंगाल में भाजपा के ख़िलाफ़ क्या टीएमसी-कांग्रेस-माकपा का साझा गठबंधन उतरेगा?

गृह मंत्रालय पाकर मज़बूत हुए अजित

महाराष्ट्र में लम्बी खींचतान के बाद आख़िर 14 जुलाई को एनसीपी से टूटकर आये अजित पवार और उनके साथी आठ विधायकों को मंत्रालय मिल गये। इस सारी क़वायद में साफ़ दिखा है कि अजित पवार अपनी मनवाने में सफल रहे हैं। भले मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को मन मसोसकर अजित पवार को गृह मंत्री बनाना पड़ा हो, पर इसका असर आने वाले समय में दिख सकता है। शिंदे के साथ उद्धव ठाकरे को छोडक़र भाजपा-शिंदे गठबंधन में कुछ महीने पहले शामिल हुए विधायक अब मंत्री बनाने के लिए शिंदे पर दबाव बढ़ाएँगे। वो पहले से ही यह मुद्दा उठा आ रहे हैं और कह रहे हैं कि जल्दी की मंत्रिमंडल का विस्तार किया जाए।

गृह ही नहीं, महाराष्ट्र की राजनीति में महत्त्वपूर्ण माने जाने वाले सहकारिता और कृषि विभाग भी अजित पवार की एनसीपी (मंत्री दिलीप वैसे पाटिल) के खाते में गये हैं; जबकि छगन भुजबल, हसन मुशरीफ़ और धनंजय मुंडे को भी अहम विभाग मिले हैं। गृह विभाग पहले उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के पास था। शिंदे के मंत्रियों को तीन महकमे छोडऩे पड़े, जिनमें ख़ुद शिंदे का राहत और पुनर्वास, संजय राठौड़ का खाद्य और औषधि प्रशासन और अब्दुल सत्तार का कृषि मंत्रालय शामिल हैं।

“भाजपा में 75 साल की उम्र वाले नेता रिटायर हो जाते हैं। लेकिन कुछ लोग (शरद पवार पर तंज) यह बात नहीं समझते हैं। आईएएस अफ़सर 60 साल की उम्र में रिटायर हो जाते हैं। आप (शरद पवार) 83 साल के हो गये हैं। क्या अभी भी रुकने वाले नहीं हैं? हमें आशीर्वाद दीजिए। हम आपकी लम्बी ज़िन्दगी की कामना करेंगे।’’

अजित पवार

उप मुख्यमंत्री 

“कुछ लोगों (अजित-प्रफुल्ल) पर भरोसा करने में गलती हुई, अब नहीं दोहराएँगे। वे मुझे रिटायर होने के लिए कहने वाले कौन होते हैं? मैं अब भी काम कर सकता हूँ। क्या आप जानते हैं कि मोरारजी देसाई किस उम्र में प्रधानमंत्री बने? मैं प्रधानमंत्री या मंत्री नहीं बनना चाहता। लेकिन केवल लोगों की सेवा करना चाहता हूँ।’’

शरद पवार

वरिष्ठ नेता, एनसीपी

“वे (भाजपाई) महाराष्ट्र के ख़िलाफ़ हैं। उन्होंने पहले शिवसेना और अब एनसीपी को तोड़ दिया। वे महाराष्ट्र को तोडऩा चाहते हैं।’’

उद्धव ठाकरे

अध्यक्ष यूबीटी

सेवा विस्तार पर सवाल

एक प्रसिद्ध अंग्रेजी कहावत है कि ‘सीज़र की पत्नी को संदेह से परे होना चाहिए।’ अर्थात् यदि कोई किसी प्रसिद्ध या प्रमुख व्यक्ति या संस्थान से जुड़ा है, तो उसे संदेह की किसी भी स्थिति से बचना चाहिए। याद करें कि सीज़र ने अपनी पत्नी पोम्पिया को यह कहते हुए तलाक़ दे दिया था कि ‘मेरी पत्नी को संदेह के दायरे में भी नहीं आना चाहिए।’

सन् 2021 और सन् 2022 में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) प्रमुख को एक के बाद एक सेवा विस्तार देने के लिए केंद्र सरकार की खिंचाई करते वाली सर्वोच्च न्यायालय की हालिया टिप्पणियों में कहा गया है कि ये दोनों अवैध और अमान्य बिन्दु संदेह की सूई की ओर इशारा करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रवर्तन निदेशक एस.के. मिश्रा को 31 जुलाई को पद छोड़ देने को कहा है।

सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 2021 में सरकार को निर्देश दिया था कि वह उस साल नवंबर के बाद ईडी निदेशक को कोई विस्तार न दे। इस साल मई में फिर न्यायालय ने ईडी प्रमुख को तीसरा विस्तार देने के लिए सरकार को फटकार लगायी थी। न्यायालय ने कहा था- ‘क्या संगठन में कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है, जो उनकी जगह काम कर सके? क्या एक व्यक्ति इतना अपरिहार्य हो सकता है?’

सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने यह स्पष्ट कर दिया है कि ‘यह सरकार की इच्छा पर निर्भर नहीं है कि मौज़ूदा अधिकारियों को सेवा विस्तार दिया जा सकता है। यह केवल सम्बन्धित नियुक्ति समिति की सिफ़ारिशों के आधार पर ही किया जा सकता है।’ सर्वोच्च न्यायालय ने एक आदेश जारी किया था कि ईडी प्रमुख को कोई और विस्तार नहीं दिया जाएगा। हालाँकि केंद्र ने यह दावा करते हुए मिश्रा को बरक़रार रखा कि विस्तार प्रशासनिक कारणों से ज़रूरी था और वित्तीय कार्रवाई कार्य बल (एफएटीएफ) द्वारा भारत के मूल्यांकन के लिए महत्त्वपूर्ण था।

सीबीआई और ईडी प्रमुखों के लिए सेवानिवृत्ति आयु से इतर दो साल का सुनिश्चित कार्यकाल तय होता है। वर्तमान ईडी प्रमुख को पहली बार 19 नवंबर, 2018 को दो साल के लिए निदेशक नियुक्त किया गया था। बाद में 13 नवंबर, 2020 के एक आदेश में केंद्र सरकार ने नियुक्ति पत्र को पूर्वव्यापी रूप से संशोधित किया और उनका दो साल का कार्यकाल तीन साल में बदल दिया गया। सरकार ने पिछले साल एक अध्यादेश जारी किया और बाद में क़ानून पारित किया, जिसके तहत ईडी और सीबीआई प्रमुखों का कार्यकाल दो साल के अनिवार्य कार्यकाल के बाद तीन साल तक बढ़ाया जा सकता है।

प्रमुख जाँच एजेंसी की विश्वसनीयता बार-बार ख़राब हुई है; क्योंकि विपक्षी दल अक्सर केंद्र पर ईडी- जो ऐसी एजेंसी हैं, जो धनशोधन और विदेशी मुद्रा क़ानूनों के उल्लंघन के मामलों की जाँच करती है और जिसके पास राजनीतिक हिसाब-किताब तय करने के लिए ‘निरंकुश’ शक्तियाँ हैं; के दुरुपयोग का आरोप लगाते रहे हैं। अधिकारियों की नियुक्ति या विस्तार पर विवाद ने मामले को और भी बदतर बना दिया है। अब क़ानूनों और नियमों को गंभीरता से लागू करने की ज़िम्मेदारी केंद्र पर है, ताकि दोनों एजेंसियों की कुशल और विवाद-मुक्त कार्यप्रणाली सुनिश्चित की जा सके। यह धारणा नहीं बननी चाहिए कि ईडी मनमाने ढंग से लोगों को उठा रही है और उनकी जाँच कर रही है। शीर्ष न्यायालय की टिप्पणियों ने निश्चित रूप से सरकार और जाँच एजेंसी प्रवर्तन निदेशालय पर यह प्रमाणित करने की ज़िम्मेदारी डाल दी है कि उसकी साख अन्य सब चीज़ों से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है।

हिंसा में तबाह हो रहा मणिपुर

डबल इंजन की भाजपा सरकार को सर्वोच्च न्यायालय ने याद दिलाया दायित्व

शैलेंद्र कुमार ‘इंसान’

मणिपुर हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। रिपोर्ट लिखे जाने तक हिंसा में 142 लोग मारे जा चुके थे। 460 से अधिक घायल हो चुके थे। लगभग 6,745 लोग हिरासत में लिये जा चुके थे। 5,995 लोगों पर एफआईआर दर्ज हो चुकी थी। आगजनी के 5,000 से अधिक मामले दर्ज हो चुके थे। कुकी तथा नगा समुदाय की जनजाति एकता रैली निकालने पर 3 मई से मैतई समुदाय के हमले से हिंसा फैली। राज्य में करोड़ों की निजी तथा सरकारी सम्पत्ति का नुक़सान हो चुका है। 9-10 जुलाई की रात को मणिपुर के पश्चिम कांगपोकपी क्षेत्र में हिंसक झड़प में एक पुलिसकर्मी शहीद हो गया तथा 10 लोग घायल हो गये। राज्य के चुराचांदपुर ज़िले की एक्सिस बैंक से हिंसक भीड़ द्वारा एक करोड़ से अधिक नक़दी तथा अन्य सामान की लूट हुई है।

हिंसा रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को दख़ल देनी पड़ी है। सर्वोच्च न्यायालय ने मणिपुर में मौज़ूद सभी पक्षों से शान्ति बनाये रखने की अपील की है। साथ ही राज्य के लोग से ऐसे भाषण देने से बचने को कहा है, जिनसे राज्य में हिंसा भडक़ सकती है। अल्पसंख्यक कुकी समुदाय वाले इलाकों में सेना और केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती की माँगों पर प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि देश के इतिहास में पिछले 70 साल में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय सेना को इस तरह का कोई निर्देश जारी नहीं किया है। सशस्त्र बलों पर असैनिक नियंत्रण को न समाप्त करें। भारत के प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि नागरिकों की सुरक्षा करना केंद्र सरकार और राज्य सरकार का दायित्व है।

यह वास्तविकता भी है कि मणिपुर में भडक़ी हिंसा को रोकने में भाजपा की डबल इंजन की केंद्र तथा राज्य की सरकारें नाकाम हैं। इस हिंसा की चपेट में आम लोग, पुलिस, सेना, सरकारी सेवाएँ देने वाले भी हैं। सैन्य संगठनों पर हमले हो रहे हैं। लगभग 45,000 पुलिसकर्मी अपनी सुरक्षा के लिए दो धड़ों में बंटे हैं। मैतई समुदाय के पुलिसकर्मी इंफाल घाटी में जा रहे हैं, जहाँ मैतई समुदाय की संख्या अधिक है तथा कुकी-नगा समुदाय के पुलिसकर्मी कुकी-नगा समुदाय बहुल पहाड़ी क्षेत्रों की ओर जा रहे हैं। आईपीएस राजीव सिंह मणिपुर के पुलिस प्रमुख बने, तो उन्होंने पाया कि लगभग 1,200 पुलिसकर्मी ड्यूटी से ही गायब हैं। इसका मतलब पुलिस वाले भी भयभीत हैं। सरकार भी पुलिस वालों पर ही हिंसा का $गुस्सा उतारती दिख रही है। आरोप है कि पुलिस ने हिंसा को समय पर नहीं रोका। मैतई समुदाय की अनुसूचित जनजाति में शामिल होने की माँग से भडक़ी हिंसा धार्मिक हिंसा में बदल चुकी है। हिंसा के लिए कुकी समुदाय को अधिक दोषी बताने की राजनीति हो रही है। हो सकता है कि इसकी वजह मैतई समुदाय की संख्या अधिक होना हो, जो हिन्दू समुदाय है। परन्तु इंडिजिनस ट्राइबल लीडर फोरम ने कुकी समुदाय के लोगों से उन्हें गुमराह करने के लिए माफी माँगी है। इधर लोगों ने भाजपा के ख़िलाफ़ मसाल रैली निकाली है।

सैनिकों पर भी तरह-तरह के आरोप लग रहे हैं। इससे बचने तथा हिंसा रोकने के लिए सैन्य संगठनों ने इन क्षेत्रों में सेना के एक अधिकारी तथा एक मजिस्ट्रेट को तैनात करने की माँग की है। अब सुरक्षा बलों को सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम-1958 (अफस्पा) के तहत अशान्त अधिसूचित 19 थाना क्षेत्रों में हिंसा रोकने में कठिनाई आ रही है। यह कानून सेना को संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों में अधिकार प्रदान करता है। वास्तव में यह कानून म्यांमार से घुसपैठ रोकने तथा सीमावर्ती क्षेत्र में उग्रवादी घटनाएँ रोकने के लिए लगाया गया था। परन्तु इस कानून से आम लोगों की हत्याओं के आरोप लगते रहे हैं। इसी अफस्पा कानून को हटाने की माँग करने पर मणिपुर की आंदोलनकर्ता इरोम शर्मिला को बहुत प्रताडि़त किया गया था। कई साल के संघर्ष के बाद उनकी जान चली गयी। स्थानीय लोगों ने हमेशा अफस्पा क़ानून का विरोध किया है। अब सेना अफस्पा हटे क्षेत्रों में दोबारा अफस्पा कानून लगाने की माँग कर रही है। सेना का यह भी आरोप है कि उसके ख़िलाफ़ मीडिया तथा सोशल मीडिया पर निराधार आरोप लग रहे हैं। सैन्य अधिकारियों ने मणिपुर बार एसोसिएशन के जनता के उत्पीडऩ के साक्ष्य साझा करने तथा सेना के $िखला$फ अपनी शिकायतें दर्ज कराने के बयान पर चिन्ता जतायी है।

इधर मणिपुर उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन ने सर्वोच्च न्यायालय से कहा है कि राज्य में भारी संख्या में रोहिंग्या मुसलमानों की घुसपैठ हिंसा की सबसे बड़ी वजह है; इसलिए घुसपैठ रोकी जाए। कुछ विशेषज्ञ भी यही मान रहे हैं कि मिजोरम तथा मणिपुर के रास्ते रोहिंग्या मुसलमान घुसपैठ कर रहे हैं, जिसके चलते हिंसा भडक़ी हुई है। केंद्र सरकार ने लोगों की जानकारी का ब्यौरा तैयार कराने के निर्देश जारी किये हैं।

हालाँकि निष्पक्षता से अगर कहें, तो मणिपुर हिंसा में अभी तक मणिपुर हिंसा में स्थानीय मुसलमानों अथवा रोहिंग्या मुसलमानों के शामिल होने के साक्ष्य नहीं हैं। परन्तु अगर मुसलमानइस हिंसा का हिस्सा बने, तो इसका रूप बदल जाएगा। कोई बड़ी बात नहीं कि मणिपुर में आरक्षण को लेकर फैली जातीय हिंसा हिन्दू-ईसाई हिंसा से होते हुए हिन्दू-मुस्लिम हिंसा का रूप ले ले। इसलिए केंद्र सरकार तथा राज्य सरकार को इसे तत्काल रोकना चाहिए। अगर हिंसा रोकना उनके वश से बाहर है अथवा संभव नहीं है, तो राज्य सरकार को बर्खास्त करके मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लगा देना चाहिए। परन्तु सार्वजनिक रूप से मणिपुर जाने से प्रधानमंत्री मोदी कतरा रहे हैं, जाना तो दूर वह मणिपुर का नाम तक लेने से बच रहे हैं। कुछ राजनीतिक दलों की माँग है कि नैतिकता के तौर पर मणिपुर सरकार को बर्खास्त करना चाहिए तथा गृह मंत्री अमित शाह को भी इस्तीफ़ा देना चाहिए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी ध्यान रखना चाहिए कि अब मणिपुर हिंसा रोकने में उनकी नाकामी की चर्चा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी हो रही है। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं तथा दूसरे देशों ने चिन्ता जतायी है कि बड़ी-बड़ी बातें करने वाले प्रधानमंत्री मोदी अपने ही देश के एक राज्य के हालात ठीक करने में नाकाम साबित हुए हैं। इससे पहले अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेटी ने कहा था कि मणिपुर हिंसा मानवीय चिन्ता का विषय है। यदि स्थिति से निपटने के लिए भारत मदद माँगे, तो अमेरिका उसकी मदद के लिए तैयार है। हास्यास्पद है कि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा रूस-यूक्रेन युद्ध रोकने के दावे उनके मंत्री करते रहे हैं; परन्तु आज वह मणिपुर हिंसा तक नहीं रोक पा रहे हैं। क्या यह खुद प्रधानमंत्री के लिए शर्म की बात नहीं है?

अ$फसोस की बात है कि मणिपुर में हिंसा रोकने में नाकाम भाजपा नेता पश्चिम बंगाल के मुद्दे पर घडिय़ाली आँसू बहा रहे हैं। पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनावों में हुई हिंसक झड़पों की जाँच के लिए केंद्र सरकार ने वहाँ फैक्ट फाइंडिंग कमेटी भेज दी है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस पर कड़ी आपत्ति जतायी है। उन्होंने केंद्र सरकार से पूछा है कि मणिपुर के दो महीने से अधिक समय से हिंसा में जलने, असम में एनआरसी के दौरान हिंसा भडक़ने, उत्तर प्रदेश में उत्तर प्रदेश में 67 प्रतिशत सीटों पर मतदान न कराने तथा पहलवान बेटियों पर अत्याचार होने के दौरान फैक्ट फाइंडिंग कमेटी कहाँ थी? ममता बनर्जी ने कहा है कि पश्चिम बंगाल में पिछले दो साल में 154 टीमों ने दौरा किया है।

मणिपुर हिंसा की अगर बात करें तो वहाँ मैतई समुदाय को बल मिला हुआ है। राज्य की लगभग 38 लाख की आबादी में लगभग 53 प्रतिशत मैतई हैं तथा 40 प्रतिशत नगा व कुकी हैं, जो अधिकतर पहाड़ी क्षेत्रों में रहते हैं। राज्य के कुल 60 विधायकों में 40 विधायक भी मैतई समुदाय से ही हैं, बा$की 20 विधायक ही नगा तथा कुकी समुदायों के हैं। राज्य में अब तक के शासन में कुल 12 मुख्यमंत्री हुए हैं, जिनमें से दो ही अनुसूचित जनजाति से रहे हैं। वर्तमान मुख्यमंत्री बीरेन सिंह भी मैतई समुदाय से हैं। हिंसा में शामिल गुटों में मैतई गुट में कोऑर्डिनेटिंग कमेटी ऑन मणुपुर इन्टेग्रिटी, अरम्बई टेंगोल, मैतई लिपुन तथा पीपुल्स लिबरेशन आर्मी जैसे गुट शामिल हैं, वहीं कुकी गुट में कुकी नेशनल आर्मी, जोमी रिवल्यूशनरी आर्मी, कुकी रिवॉल्यूशनरी आर्मी, कुकी स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन गुट शामिल हैं। हालाँकि जनसंख्या में अधिक होने के बावजूद मैतेई मणिपुर के 10 प्रतिशत राज्य 80 प्रतिशत जनसंख्या में हैं, जबकि राज्य का 90 प्रतिशत क्षेत्र नगा, कुकी बहुल है। बस इसी 90 प्रतिशत क्षेत्र में मैतई समुदाय अधिकार चाहता है, जहाँ आधिपत्य के लिए इस समुदाय के लोगों को जनजाति में शामिल होने का रास्ता समझ आया है, जिसके चलते हिंसा भडक़ी।

कुकी तथा नगा जनजातियों को लगता है कि अगर मैतई समुदाय को भी जनजाति का दर्जा मिल गया, तो कुकी तथा नगा समुदाय के नौकरियों के बचे हुए अवसर भी उनके हाथ से निकल जाएँगे। उनके पास ले-देकर प्राकृतिक संसाधन, विशेषकर पहाड़ बचे हैं, जो छिन जाएँगे। वर्तमान में हिंसा बहुल क्षेत्रों मे मणिपुर के तेंगनुपाल, बिष्णुपुर, चुराचांदपुर, पूर्वी इंफाल, पश्चिमी इंफाल, अमेंगलोंग, सेनापति, उखरूल, कंगपोकपी, कामजोंग, जिरिबाम, नोनी, थौबल, काकचिंग, फेरर्जों तथा चंदेल ज़िले शामिल हैं। हिंसा रोकने के लिए बीएसएफ के जवान पुलिस तथा दूसरे सैन्य संगठनों के साथ मिलकर सर्च ऑपरेशन चला रहे हैं। 40,000 से अधिक केंद्रीय सुरक्षा बल राज्य में तैनात हैं, जिसमें असम राइफल्स, बीएसएफ, भारतीय सेना, सीआरपीएफ, आईटीबीपी के जवान हैं।

हिंसा प्रभावित मणिपुर के 12,300 से अधिक लोग मिजोरम में विस्थापित हैं। इन लोगों को राहत के नाम पर मणिपुर तथा केंद्र सरकार की ओर से सहायता नहीं मिल रही है। मिजोरम सरकार में मुख्यमंत्री जोरमथांगा ने अपने राज्य में शरण पाए मणिपुर के लोगों की जरूरतें पूरी करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी तथा गृह मंत्री अमित शाह से 10 करोड़ रुपये की माँग मई में की थी। परन्तु मिजोरम को कोई मदद नहीं मिली है। मणिपुर हिंसा कब रुकेगी, कब मिजोरम में शरण पाने वाले मणिपुर निवासी अपने घरों को लौटेंगे, इन प्रश्नों के उत्तर किसी के पास नहीं हैं।

राज्यों में नये गठबंधन तलाशती भाजपा

संगठन और सरकार में फेरबदल की क़वायद से भी चुस्ती लाने की हो रही कोशिश

दक्षिण में कांग्रेस से मिल रही कड़ी चुनौती को देखते हुए भाजपा ने 2024 के लिए गठबंधनों पर ध्यान देने, संगठन की मज़बूती और हिन्दी पट्टी पर फोकस करने की रणनीति बनायी है। कई प्रदेशों में नये अध्यक्ष बनाने के अलावा केंद्र में मंत्रियों को हटाकर संगठन में ज़िम्मा देने के अलावा राज्यों में विरोधी दलों में महाराष्ट्र जैसी टूट-फूट कराना भी इस रणनीति का हिस्सा है। बहुत-से लोग मानते हैं कि विरोधी दलों को तोडक़र अपने साथ मिलाने की उसकी कोशिश भाजपा को महँगी भी पड़ सकती है। हालाँकि विरोधी दलों को आशंका है कि भाजपा आने वाले समय बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में चुनाव से पहले दूसरे दलों में सेंध लगाने का षड्यंत्र कर रही है।

भाजपा ने हाल में चार प्रदेशों पंजाब, तेलंगाना, में नये अध्यक्ष बनाये हैं, जिनमें पंजाब के सुनील जाखड़ सहित दो कांग्रेस की पृष्ठभूमि से हैं। भाजपा के भीतर संगठन में मुख्य पदों पर धीरे-धीरे ऐसे नेताओं की भरमार हो रही है, जो कांग्रेस की पृष्ठभूमि से हैं। ऐसे में भाजपा के लिए वर्षों से ज़मीन पर मेहनत कर रहे नेताओं में निराशा भर रही है।

पार्टी में ऐसे कई नेता हैं, जो यह मानते हैं कि यदि यही चलता रहा, तो भाजपा में आयातित नेताओं का बहुमत हो जाएगा और पार्टी विचारधारा का नाम-ओ-निशान नहीं बचेगा। दिल्ली में विधायक रहे पार्टी के वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा- ‘देखिए, कुछ लोग पार्टी विचारधारा या देश की तरक़्क़ी के कारण पार्टी में आना चाहते हैं, वो तो ठीक है। लेकिन जिस तरह बड़े स्तर पर दूसरे दलों के लोगों को हम ले रहे हैं, उससे भाजपा का वास्तविक स्वरूप ख़त्म हो जाएगा।’

केंद्र में सत्ता में होने के बावजूद भाजपा में अजीब-सा भय है। हाल के विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद भाजपा कई मोर्चों पर ख़ुद को असुरक्षित महसूस करने लगी है। इनमें सबसे बड़ा उसके ब्रांड प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताबड़तोड़ चुनावी सभाओं के बावजूद पार्टी को सफलता न मिलना है। पार्टी के पास आज भी ऐसा कोई नेता नहीं है, जो मोदी सरीखी लोकप्रियता रखता हो। लिहाज़ा भाजपा की यह चिन्ता अपनी जगह सही भी है।

भाजपा की दूसरी दिक्क़त मुद्दों को लेकर है। पार्टी ने कमोबेश हर चुनाव में हिन्दुत्व के मुद्दे को उभरने की ऐसी आदत डाल ली है कि उसे और कुछ सूझता ही नहीं। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री मोदी भी इस मोह से बच नहीं पाते। कर्नाटक इसका उदाहरण है, जहाँ मोदी अपने चुनाव भाषणों की शुरुआत ‘बजरंग बली की जय’ से करते दिखे थे। इसका कोई लाभ पार्टी को नहीं मिला। हिन्दी पट्टी में हो सकता है कि इस तरह के नारे जनता को किसी हद तक अपील करें। लेकिन महँगाई, बेरोज़गारी जैसे मुद्दों के बीच यह चीज़े वहाँ भी ज़्यादा लम्बी नहीं चल सकतीं।

किसके बदलने की उम्मीद?

भाजपा आजकल संगठन में फेरबदल की नीति भी अपना रही है। केंद्र के बड़े मंत्रियों निर्मला सीतारमण, पीयूष गोयल, भूपेंद्र यादव, किरेन रिजिजू, गजेंद्र सिंह शेखावत, अर्जुन मेघवाल, एस.पी. सिंह बघेल जैसे केंद्रीय मंत्रियों, जिन्होंने हाल में पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा से मुलाकात की थी; को मंत्री पद से हटाकर संगठन में भेजे जाने की तैयारी की चर्चा पार्टी में उच्च स्तर पर है। केंद्रीय मंत्री मनसुख मांडविया या पुरुषोत्तम रुपाला को गुजरात, प्रह्लाद पटेल या नरेंद्र सिंह तोमर को मध्य प्रदेश में पार्टी की कमान देने की चर्चा है।

हाल में उसने कुछ राज्यों में प्रदेश अध्यक्ष पद पर नियुक्तियाँ की हैं। इन नियुक्तियों में भाजपा ने राज्यों की आबादी, जाति और समुदायों को ध्यान में रखा है। जैसे पंजाब में उसने हिन्दू वोट को ध्यान में रखते हुए एक साल पहले ही कांग्रेस से भाजपा में आये सुनील जाखड़ को अध्यक्ष बनाया है। पार्टी के लिए पंजाब में का$फी विकट स्थिति है; जबकि उसके पास कांग्रेस से आये पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी हैं, जो भाजपा के टिकट पर विधानसभा का चुनाव तक हार गये थे।   

पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने हाल में 10 नेताओं को राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य नियुक्त किया है। इसमें इस साल में चुनावी राज्यों तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के वरिष्ठ नेताओं को तरजीह दी है। इनमें हिमाचल में अध्यक्ष रहे सुरेश कश्यप, बिहार में अध्यक्ष रहे संजय जायसवाल, छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ नेता विष्णु देव साय, पंजाब में अध्यक्ष रहे अश्विनी शर्मा, तेलंगाना में अध्यक्ष रहे बंदी संजय कुमार और वरिष्ठ नेता सोमबीर राजू, झारखण्ड में अध्यक्ष रहे दीपक प्रकाश, राजस्थान के वरिष्ठ नेता किरोड़ी लाल मीणा और राजस्थान में अध्यक्ष रहे सतीश पुनिया शामिल हैं।

हाल में पार्टी ने केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी को राजस्थान, मध्य प्रदेश में भूपेंद्र यादव, छत्तीसगढ़ में मनसुख मांडविया और मध्य प्रदेश में रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव को प्रभारी का ज़िम्मा दिया है।

गुजरात के मुख्यमंत्री नितिन पटेल और हरियाणा के कुलदीप बिश्नोई, छत्तीसगढ़ में ओम माथुर, पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर केरल / तेलंगाना, सुनील बंसल तेलंगाना (चुनाव प्रभारी), आंध्र प्रदेश में डी पुरंदेश्वरी और झारखण्ड में बाबूलाल मरांडी प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किये गये हैं। जी. किशन रेड्डी तेलंगाना के नये प्रदेश अध्यक्ष होंगे। मरांडी को भाजपा ने आदिवासी वोटों को देखते हुए झारखण्ड में अध्यक्ष का ज़िम्मा दिया है। भाजपा कांग्रेस के इस प्रचार से चिंतित है, जिसमें वह राज्यों में समान मागरिक संहिता (यूसीसी) को आदिवासियों के ख़िलाफ़ बता रही है। आरएसएस से जुड़े रहे संथाल समुदाय के मरांडी राज्य के पहले मुख्यमंत्री भी रहे हैं। आदिवासियों की कुल आबादी में संथाल समुदाय का हिस्सा 34 $फीसदी के क़रीब है। डी. पुरंदेश्वरी को आंध्र प्रदेश का ज़िम्मा देकर भाजपा ने एक प्रयोग किया है। वह पूर्व मुख्यमंत्री एनटी रामाराव की बेटी हैं और 10 साल पहले तक कांग्रेस में थीं। विशाखापत्तनम से लोकसभा सदस्य पुरंदेश्वरी की खासियत उनके भाषण देने की कला है।

किससे बढ़ रहीं नज़दीकियाँ?

माना जा रहा है कि भाजपा तेलंगाना में केसीआर से नज़दीकियाँ बढ़ा रही है। भाजपा कई राज्यों में नये गठबंधनों पर काम कर रही हैं, जिनमें तेलंगाना भी लगता है। कहा तो यह भी जाता है कि केंद्रीय मंत्री जी. किशन रेड्डी से पहले बंदी संजय अध्यक्ष थे, जो लगातार तेलंगाना की केसीआर सरकार के ख़िलाफ़ मुखर रहे हैं। भाजपा चूँकि वहाँ केसीआर से तालमेल की कोशिश में है, वहाँ अध्यक्ष को बदल दिया गया है।

यहाँ यह भी दिलचस्प है कि केसीआर की बेटी के कविता का नाम दिल्ली के बदनाम शराब घोटाले में भी जुड़ा है। कई लोग मानते हैं कि हाल के महीनों में केसीआर का भाजपा के ख़िलाफ़ चुप्पी साधना और विपक्षी महागठबंधन से दूर रहने के पीछे भी यही कारण है। यदि उन पर दबाव बढ़ा, तो तो उनके एनडीए में शामिल होने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।

इसके अलावा पार्टी कर्नाटक में जेडीएस से गठबंधन की तैयारी में दिखती है। जेडीएस के नेता एच.डी. कुमारस्वामी इस तरह से साफ़ संकेत दे रहे हैं। हाल के विधानसभा चुनाव में जेडीएस को सीटों का बड़ा नुक़सान उठाना पड़ा था और उसके वोट बैंक का बड़ा हिस्सा कांग्रेस में चला गया था। चूँकि भाजपा इस चुनाव में 65 ही सीटें जीत पायी थी, जेसीएस से गठबंधन करके वह लोकसभा चुनाव से पहले ज़मीन मज़बूत करना चाहती है।

बारिश का कहर, ग़लती किसकी?

उत्तर भारत समेत दक्षिण भारत के कई राज्यों विकट बारिश से लोगों में हाहाकार मची हुई है। अनुमानित 12 राज्यों में बाढ़ की स्थिति के चलते आमजन एवं किसान बेहाल हैं। पूरे देश में अब तक लाखों एकड़ फ़सल बर्बाद हो चुकी है, जिसके चलते किसान हर बार की तरह भगवान को याद करते हुए अपने भाग्य को कोस रहे हैं। वहीं नेता एक-दूसरे पर ग़लती थोपने एवं कीचड़ उछालने में लगे हैं।

किसान रामेश्वर सिंह ने उदासी भरे स्वर में कहा कि भैया, हम तो तबाह हो गये। ग़रीबों की तो भगवान भी नहीं सुनते। कहाँ जाएँ, जीवन तबाह हो गया हमारा। हर वर्ष कोई-न-कोई फ़सल तबाह हो जाती है। भगवान के कोप से बची हुई फ़सल को सांड, नीलगायें एवं बंदर नहीं छोड़ते। किसान का जीवन तो आग पर चलने जैसा है।

उत्तर प्रदेश ही क्या देश के अधिकतर किसानों की पीड़ा रामेश्वर सिंह की तरह ही है। इस बार कई वर्ष के बाद ऐसा हुआ है कि देश के अनेक राज्यों में अत्यधिक बारिश के कारण जनजीवन त्रस्त हुआ है। देश की गंगा नदी, यमुना नदी, सतलुज नदी, घाघरा नदी, ब्रह्मपुत्र नदी, भाकड़ा नदी, गंडक नदी. नर्मदा नदी, कोसी नदी, व्यास नदी, सतलुज नदी. चंबल नदी एवं हिंडन नदी समेत दर्ज़नों छोटी नदियाँ उफान पर हैं।

समाचारों एवं सूचनाओं से प्राप्त जानकारी बताती है कि उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, दिल्ली, हरियाणा, चंडीगढ़, पंजाब, मध्य प्रदेश, पूर्वी राजस्थान, बिहार, झारखण्ड, असम, विदर्भ, गोवा, सौराष्ट्र, कच्छ, सिक्किम, पश्चिम बंगाल, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मिजोरम, मणिपुर, त्रिपुरा, कर्नाटक एवं केरल में इस बार अत्यधिक बारिश हुई है। इसके अतिरिक्त आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, मध्य महाराष्ट्र, मराठावाड़ा, ओडिशा, छत्तीसगढ़ एवं तमिलनाडु में औसत बारिश हुई है। मौसम विभाग की मानें, तो बारिश अभी और होगी। कई राज्यों में ऑरेंज अलर्ट एवं कई राज्यों में रेड अलर्ट जारी हो चुका है।

बताया जाता है कि इस बार अरब सागर में बने चक्रवात बिपरजॉय के चलते यह तबाही हुई है। चक्रवाती तूफ़ान बिपरजॉय गुजरात के समुद्री तटों से जून के आरंभ में टकराया था, जिसके चलते गुजरात के समुद्र किनारे बसे लोगों को बड़ी हानि उठानी पड़ी थी। इस चक्रवाती तूफ़ान से सौराष्ट्र समेत उत्तर गुजरात में तूफ़ान एवं बारिश ने सभी को डरा दिया था।

तूफ़ान के लगभग दो सप्ताह बाद बारिश आरम्भ हुई, तो रुकने का नाम नहीं ले रही है। किसान फ़सलों की तबाही पर रो रहे हैं, तो मज़दूर वर्ग काम न मिलने से भूखों मरने की स्थिति में है। नदी किनारे बसे गाँवों में पानी भरने के अतिरिक्त दूर के गाँवों एवं शहरों तक में पानी भर गया है। सैकड़ों छोटी सडक़ों समेत कई हाईवे के जलमग्न होने के समाचार पढऩे एवं सुनने को मिल रहे हैं।

बड़े बुजुर्ग कह रहे हैं कि ऐसी तबाही कई वर्षों बाद आयी है। हर राज्य में जान एवं माल की हानि के समाचार आ रहे हैं। राज्यवार हालात सुनकर हर कोई स्तब्ध है। राकेश कुमार का कहना है कि प्राकृतिक आपदा से कोई नहीं लड़ सकता ये मनुष्य के वश में है ही नहीं। जो लोग एवं नेता लोग बाढ़ को लेकर राजनीतिक पेच लड़ाने में आनंद ले रहे हैं, उन्हें बाढग़्रस्त क्षेत्रों में जाकर पीडि़तों की सहायता करनी चाहिए।

उत्तर प्रदेश में हाईवे डूबा

उत्तर प्रदेश के अधिकतर जनपदों में बाढ़ की स्थिति है। कन्नौज हाईवे पर पानी भर गया। गंगा, यमुना, चंबल, राप्ती, कोसी, घाघरा, हिंडन एवं अन्य कई नदियों में बाढ़ के हालात है। नोएडा, गौतमबुद्ध नगर, ग़ाज़ियाबाद, बुलंदशहर, मुज़फ्फ़रनगर, मेरठ, हापुड़, अमरोहा, बाग़पत, शामली, मुरादाबाद, बरेली, रामपुर, बदायूँ, संभल, पीलीभीत, शाहजहाँपुर, आगरा, फ़िरोज़ाबाद, मैनपुरी, मथुरा, अलीगढ़, एटा, हाथरस, कासगंज, इटावा, औरैया, लखनऊ, वाराणसी, जौनपुर, कानपुर, भदोही, मिर्जापुर, ग़ाज़ीपुर, गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया, गोरखपुर जनपदों में नदियाँ उफान पर हैं। गंगा, यमुना समेत कई नदियाँ ख़तरे के निशान से ऊपर बह रही हैं। नदियों के किनारे बसे गाँवों, क़स्बों व शहरों से हज़ारों लोगों को बचाव कार्य के तहत निकालकर शिविरों में ले जाया गया है।

उत्तराखण्ड में भी भारी बारिश

भारी बारिश के चलते पर्वतीय राज्य उत्तराखण्ड में भी कई स्थानों पर जन-जीवन पटरी से उतर गया है। बाढ़ एवं बारिश के चलते चारधाम यात्रा मार्ग प्रभावित है। गंगोत्री हाईवे पर एवं गंगानाली में लगभग 2,000 से अधिक काँवडिय़ों के फँसने की सूचना है। इसे देखते हुए काँवडिय़ों को रोका जा रहा है। बदरीनाथ हाईवे तोताघाटी एवं कौडिय़ाला लम्बे समय तक बंद रहा। टिहरी, रुद्रप्रयाग, चमोली, बदरीनाथ में सडक़ें एवं हाईवे अवरुद्ध हैं। चमोली में विभिन्न स्थानों पर 3,000 से अधिक तीर्थयात्रियों को रोकना पड़ा है।

स्थानीय लोगों एवं अंदर फँसे तीर्थयात्रियों को सुरक्षित स्थानों पर भेजा गया है। पातालगंगा में पहाड़ी से लगातार दो तीन दिन भारी पत्थर गिरे हैं। गढ़वाल में पाँच हाईवे, चार राज्यमार्ग और 170 संपर्क मार्ग समेत 179 सडक़ें अवरुद्ध होने की सूचना है। सैकड़ों गाँवों का संपर्क जनपद मुख्यालयों से कटने की सूचना है।

उत्तराखण्ड में भी करोड़ों की हानि की सूचना है। काँवडिय़ों को उत्तरकाशी के पौराणिक घाट से गंगाजल भरना पड़ रहा है। राज्य में कई स्थानों पर भूस्खलन, पड़ाड़ खिसकने के समाचार हैं। संवेदनशील क्षेत्रों में विशेष परिस्थिति में ही वाहनों की आवाजाही हो पा रही है।

इस बारिश में पिछले महीने ही 20 लाख रुपये के व्यय से कर्णप्रयाग-गैरसैंण राज्यमार्ग पर बनकर तैयार हुई आदिबदरी में पुरातत्व विभाग के विश्राम गृह की सुरक्षा दीवार ढह गयी। टिहरी झील का जलस्तर सामान्य से 14 मीटर अधिक बढक़र 778 मीटर के आसपास पहुँच गया था। भागीरथी एवं भिलंगना नदियों से प्रतिदिन 1,600 क्यूमैक्स पानी टिहरी झील में गिरने की सूचना है। उत्तराखण्ड के संवेदनशील एवं अतिसंवेदनशील क्षेत्रों को $खाली कराया जा रहा है।

दिल्ली के लालक़िले तक पानी

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली एवं राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रों में कई स्थानों समेत लालक़िले तक बाढ़ का पानी घुसने की सूचना है। यमुना नदी का जलस्तर बढऩे से दिल्ली के निचले हिस्सों में पानी भरे जाने के समाचार मिल रहे हैं।

इस बार बारिश एवं हरियाणा के हथनी कुंड से पानी छोड़े जाने के चलते यमुना नदी का जलस्तर ख़तरे के निशान 205 मीटर को पार करते हुए 208 मीटर से ऊपर पहुँच गया। इससे लाल किले समेत कई निचली बस्तियों में पानी घुस जाने के समाचार हैं। दिल्ली में अनेक दल राहत कार्य में लगे होने के समाचार हैं। 2700 राहत शिविरों में दिल्ली के बाढग़्रस्त लोगों को पहुँचाया गया है।

दिल्ली सरकार में मुख्यमंत्री एवं मंत्री राहत कार्यों में लगे होने की सूचनाएँ हैं। रिंग रोड पर बाढ़ का पानी आने से आईएसबीटी, कश्मीरी गेट में हिमाचल, पंजाब, चंडीगढ़, हरियाणा और उत्तराखण्ड से आने-जाने वाली बसों का परिचालन प्रभावित हुआ है। बाढग़्रस्त क्षेत्रों में स्कूल बंद होने की सूचना है।

समाचारों में बताया गया है कि दिल्ली में दिल्ली में 33 वर्षों बाद यमुना नदी ने भयावह रूप धारण किया है। कहा जा रहा है कि 1978 में यमुना नदी का जलस्तर 207.49 मीटर पर पहुँचा था। मगर बाढ़ तो इससे पहले एवं बाद में भी लगभग छ:-सात बार दिल्ली में आयी है, ऐसा समाचारों में कहा जा रहा है। मगर यमुना नदी में जलस्तर बढऩे का 45 साल का रिकॉर्ड टूटा है।

समाचारों से पता चला है कि दिल्ली के 10 से अधिक क्षेत्रों में पानी घुस गया है। हरियाणा द्वारा हथिनी कुंड बैराज से सीमित पानी छोडऩे की अपील दिल्ली के मुख्यमंत्री को केंद्र सरकार से करनी पड़ी है। हरियाणा ने डूबने से बचने के लिए हथिनी कुंड बैराज के सभी 18 गेट खोल दिये थे, जिससे दिल्ली बाढ़ की चपेट में आ गयी।

हरियाणा के सैकड़ों गाँव जलमग्न

हरियाणा में बारिश से हाहाकार मची हुई है। हरियाणा के मैदानी क्षेत्रों में वहाँ बहने वाली यमुना नदी, घग्गर नदी एवं मारकंडा नदी ने विकराल रूप धारण कर लिया है। इससे हरियाणा के सात जनपद एवं उनके 554 गाँव बाढ़ की चपेट में हैं। हरियाणा के पंचकूला, अंबाला, यमुनानगर, करनाल, पानीपत, कैथल एवं कुरुक्षेत्र, पलवल, सिरसा, जींद, फ़तेहाबाद, फ़रीदाबाद जनपदों के कई गाँव जलमग्न हैं।

हरियाणा सरकार बाढग़्रस्त क्षेत्रों से लोगों को निकालकर राहत शिविरों में पहुँचाने में जुटी है। नदियों के अतिरिक्त हरियाणा के हथनी कुंड बैराज में भी जलस्तर ख़तरे के निशान से ऊपर चल रहा है। अगर इस कुंड का पानी यमुना में नहीं छोड़ा जाता, तो कहा जा रहा है कि आधा हरियाणा डूब जाता। हरियाणा के कई जनपदों एवं उनके गाँवों का संपर्क टूट जाने के समाचार हैं। भारी बारिश, बाढ़ एवं जलभराव के चलते हरियाणा में 10 लोगों की मृत्यु की सूचना है। बाढ़ की स्थिति यह है कि अंबाला छावनी भी जलमग्न हो गयी। हज़ारों एकड़ फ़सलों के तबाह होने की सूचनाएँ हरियाणा से हैं।

पंजाब एवं चंडीगढ़ में मुसीबत

पंजाब एवं चंडीगढ़ में कई क्षेत्रों में बाढ़ का पानी प्रवेश करने के समाचार हैं। दोनों राज्यों की अनेक सडक़ें जलमग्न हैं। कई गाँवों एवं कुछ शहरों में घरों में पानी भर गया है। पंजाब में बने भाखड़ा नागल बाँध का जलस्तर 22 फुट के लगभग बढऩे की सूचना है। 1,621 फुट ऊँचाई वाले इस बाँध के गेट का स्तर 1,645 फुट है। इस बाँध में 20 फुट अतिरिक्त जलस्तर झेलने की क्षमता है। इस बाँध का जलस्तर बढऩ से धीमी गति से पानी छोडऩा पड़ रहा है, जिसके चलते लुधियाना के सतलज बेल्ट, आनंदपुर साहिब एवं रोपड़ सहित अन्य जनपदों में जन-धन की हानि होने की संभावना है। अभी तक पंजाब के 14 जनपदों के 1,058 से अधिक गाँव बाढ़ की चपेट में हैं।

सबसे अधिक बुरे हालात रोपड़ जनपद के हैं, जिसे बचाने के लिए भाखड़ा ब्यास बाँध प्रबंधन समिति ने पानी न छोडऩे का निर्णय लिया। पंजाब के बाढग़्रस्त क्षेत्रों मे बचाव कार्य चल रहा है। सैकड़ों लोगों को राहत शिविरों में पहुँचाए जाने की सूचना है। पंजाब में 200 एकड़ से अधिक फ़सलों के ख़राब होने के समाचार हैं। कई सडक़ों के टूटने एवं धंस जाने की भी सूचनाएँ हैं। पंजाब के फ़िरोजपुर में 2,08,597 क्यूसैक पानी हरि के हेड से छोड़े जाने के समाचार हैं, जिसके चलते कई गाँवों में पानी आ गया है। पंजाब की नदी सतलुज का जलस्तर भी ख़तरे के निशान से ऊपर बताया जा रहा है।

लुधियाना में बुड्ढा दरिया का जलस्तर बढऩे से तबाही के हालात होने के समाचार मिले हैं। राज्य के कुछ क्षेत्रों में लोगों को सचेत रहने को कहा गया है। चंडीगढ़ में भी भारी बारिश के चलते कई सडक़ें धंसने के समाचार हैं। कुछ क्षेत्रों में जलापूर्ति प्रभावित होने के समाचार हैं।

अन्य कई राज्य भी चपेट में

इस वर्ष लगातार हो रही भारी बारिश के चलते देश के अन्य कई राज्यों में भी बाढ़ के हालात हैं। राजस्थान के अजमेर, भीलवाड़ा, बूंदी, चित्तौडग़ढ़, राजसमंद, टोंक एवं उदयपुर जनपदों में भारी बारिश होने से कुछ शहरों एवं इन सभी जनपदों के हज़ारों गाँवों में पानी घुसने के समाचार हैं। राजस्थान में भी फ़सलों को नुकसान पहुँचा है। राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में बचाव कार्य चल रहा है।

बाढग़्रस्त क्षेत्रों से 1,000 से अधिक लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया गया है। पश्चिमी राजस्थान के 10 जनपदों में औसत बारिश से अनुमानित 220 गुनी बारिश हुई है। कुछ पशुओं एवं लोगों की मौत की भी सूचना है। भारी बारिश एवं बाढ़ के चलते राजस्थान 3,000 से अधिक गाँवों की लम्बे समय तक बिजली गुल रहने की सूचना है। महाराष्ट्र में भी भारी बारिश से कई गाँवों में विकट हानि हुई है। इस राज्य में औसत स्तर से अधिक बारिश हो चुकी है। महाराष्ट्र के कोंकण में रेड अलर्ट जारी है। इसके अतिरिक्त मुंबई, पुणे, राजगढ़, ठाणे, पालघर, रत्नागिरी, सिंधुदुर्ग, सतारा, सांगली, नासिक, नंदुरबार, धुले, अहमदनगर, सोलापुर, उस्मानाबाद, लातूर, बीड, छत्रपति संभाजीनगर, जलगाँव, जालना, बुलढाणा, वाशिम, हिंगोली, नांदेड़, यवतमाल, अमरावती, वर्धा, नागपुर, गोंदिया, गढ़चिरौली, चंद्रपुर, अकोला एवं कोल्हापुर में भी भारी बारिश के आसार बताए जाते हैं। भारी बारिश के चलते मध्य महाराष्ट्र के कई जनपदों में येलो अलर्ट की सूचना है।

मध्य प्रदेश के भी कई जनपदों में भारी बारिश हुई है। कई जनपदों के लोगों को सचेत रहने को कहा गया है। इस राज्य की चिलर नदी, नर्मदा नदी का जल स्तर लगातार बढ़ रहा है। राज्य के इंदौर, उज्जैन, धार, रतलाम, मंदसौर, नर्मदा पुरम, सागर, ग्वालियर, चंबल एवं शहडोल सहित 29 जनपदों में भारी बारिश की चेतावनी जारी की गयी है। विदिशा के 20 गाँवों में बाढ़ आने के समाचार हैं। इस जनपद के 25 से अधिक घरों के तबाह होने के समाचार मिले हैं।

बिहार में भी हर वर्ष की तरह कई क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति के समाचार हैं। कोसी नदी, बूढ़ी गंडक नदी एवं अन्य नदियों में बाढ़ के हालात होने की सूचना है। बिहार के पटना, नालंदा, गया, नवादा, बेगूसराय, लखीसराय, भागलपुर, शेखपुरा, जहानाबाद, मुंगेर, खगडिय़ा, बांका, जमुई, पूर्वी चंपारण, पश्चिम चंपारण, सिवान, सारण, गोपालगंज, सीतामढ़ी, मधुबनी, मुज़$फ्फ़रपुर, दरभंगा, वैशाली, शिवहर समस्तीपुर, सुपौल, अररिया, किशनगंज, मधेपुरा, सहरसा, पूर्णिया एवं कटिहार जनपदों के कुछ क्षेत्रों में बाढ़ आयी हुई है। अभी इन जनपदों में और बारिश होने की संभावना जतायी गयी है।

असम में बाढ़ के चलते कई जनपदों में हाहाकार मची हुई है। समाचारों एवं सूचनाओं के पता चला है कि असम के बिश्वनाथ, बोंगाईगाँव, चिरांग, धेमाजी, डिब्रूगढ़, कोकराझार, माजुली, नलबाड़ी, तामुलपुर एवं तिनसुकिया क्षेत्र बाढ़ प्रभावित हैं। राज्य की बेकी नदी, दिसांग नदी, एवं ब्रह्मपुत्र नदी का जलस्तर ख़तरे के निशान से ऊपर होने के समाचार हैं। असम के 19 राजस्व क्षेत्रों के कुल 179 गाँवों के जलमग्न होने की सूचना है। इस राज्य में 2,200 हेक्टेयर से अधिक खेती बर्बाद होने की सूचना है। राज्य के 100 से अधिक गाँव बाढ़ ग्रस्त हैं एवं 231 गाँवों में बाढ़ की स्थिति की सूचना है।

झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मिजोरम, मणिपुर एवं गोवा राज्यों में भी कई स्थानों पर भारी बारिश हुई है। गोवा के कुछ स्थानों पर भूस्खलन की सूचना है। कुछ सडक़ों के धँस जाने की सूचना भी है।

आपदा के कारण व उपाय

प्राकृतिक आपदाएँ प्राचीनकाल से ही आती रही हैं एवं आगे भी आती रहेंगी। मगर कहा जाता है कि इन प्राकृतिक आपदाओं के लिए मनुष्य ही उत्तरदायी है। देश में हर वर्ष अनुमानित 24,00,000 हरे पेड़ काटे जा रहे हैं। मगर वृक्षारोपण प्रतिवर्ष अनुमानित 3,00,000 से भी कम है। पहाड़ी क्षेत्रों में लगातार मानव दबाव बढऩे के चलते वहां अमूमन हर वर्ष आपदाएँ आती रहती हैं। हिमाचल में इस वर्ष मची तबाही का कारण भी यही है।

अत: हम मनुष्यों को प्रकृति संरक्षण करने की ओर ध्यान देना चाहिए। इसके लिए जल संरक्षण, भू संरक्षण, वन संरक्षण करने के अतिरिक्त अत्याधुनिक प्रगति के उन कार्यों को रोकने की आवश्यकता है, जिनसे भूमि की अपनी प्राकृत बनावट प्रभावित होती है। अगर लोगों ने अभी से प्रकृति से खिलवाड़ नहीं रोका, तो भविष्य में परिणाम भयावह हो सकते हैं। इसलिए लोग अपनी इस भूल को सुधारें एवं प्रकृति से छेड़छाड़ की ग़लती न करें।

हिमाचल में विकट तबाही

इस बार हिमाचल प्रदेश में अत्यधिक बारिश ने सबसे अधिक तबाही मचायी है। हिमाचल प्रदेश में 24 जून से बारिश ने ऐसी तबाही मचायी कि सामान्य से अनुमानित 500 प्रतिशत से अधिक बारिश इस राज्य में हुई है। प्रदेश के छोटे-बड़े 40 पुल बह गये। कई बड़े मकानों सहित 420 से अधिक मकान पूरी तरह तबाह गये एवं अनुमानित 2,322 मकानों को हानि पहुँची है। दर्ज़नों छोटे-बड़े वाहनों के बह जाने एवं सैकड़ों वाहनों के क्षतिग्रस्त होने की सूचनाएँ हैं।

पूरे राज्य में लाखों जन, हज़ारों पशु बाढ़ एवं बारिश से प्रभावित हुए हैं। 400 से अधिक पशुशालाएँ नष्ट हुई हैं। राज्य में अनुमानित 60 लाख से अधिक रुपये की पशुधन हानि एवं कई करोड़ की सम्पत्ति की हानि होने का अनुमान लगाया गया है। सैकड़ों लोग के जल प्रलय में फँसे होने की सूचना है, राहत में लगे दल उन्हें सुरक्षित निकालने में लगे हैं। हिमाचल सरकार के आकड़ों की माने तो, राज्य में बारिश के कारण 111 से अधिक लोगों की जान चली गई है, जबकि 16 लोग लापता हैं और 100 लोग घायल हुए हैं। राज्य भर में 492 जानवरों की मौत हो चुकी है। 1,300 सडक़ें बंद हैं, लगभग 4,500 करोड़ का नुकसान हो चुका है।

भूस्खलन एवं बाढ़ के कारण राज्य में 1,189 सडक़ें बंद करने की सूचना है। दर्ज़नों सडक़ें तबाह हो चुकी हैं। 3,737 जगहों पर जलापूर्ति बाधित है। लोक निर्माण विभाग को 710 करोड़ रुपये से अधिक, जल शक्ति विभाग को अनुमानित 1371.53 करोड़ से अधिक, बागवानी विभाग को 75 करोड़ रुपये से अधिक एवं शहरी विभाग को 6.47 करोड़ रुपये से अधिक हानि के समाचार मिले हैं। किसानों को करोड़ों रुपये, पब्लिक वर्क डिपार्टमेंट को 1,261.89 करोड़ रुपये से अधिक की हानि का अनुमान है। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू, मनाली, किन्नौर, मंडी, बिलासपुर, लुहणू एवं अन्य जनपदों में भारी तबाही मची है। 3,000 से अधिक पर्यटकों को निकालकर सुरक्षित स्थानों पर पहुँचा दिया गया है। 5,000 से अधिक स्थानीय लोगों को भी निकालकर राहत शिविरों में पहुँचाने की सूचना है। बचाव कार्य चल रहा है। संवेदनशील एवं अति संवेदनशील क्षेत्रों को खाली करा दिया गया है। हिमाचल प्रदेश सरकार आपदा कोष का मुँह खोल चुकी है। केंद्र सरकार ने भी 180 करोड़ रुपये राज्य में राहत के लिए जारी किये हैं।

क्या एनडीए का हिस्सा बनेगी रालोद?

देश में आम चुनाव के मद्देनज़र राजनीतिक पारा चढऩे लगा है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) किसी भी क़ीमत पर अपने अलाइज की संख्या बढ़ाना चाहती है, जिसमें वह साम, दाम, दंड, भेद का प्रयोग कर रही है। हाल ही में भाजपा द्वारा एनसीपी को तोडक़र उसके मुखिया शरद पवार के भतीजे अजित पवार को अपनी कमज़ोर होती गठबंधन वाली महाराष्ट्र सरकार में मिलाना इसका ताज़ा उदाहरण है। इससे पहले मध्य प्रदेश में अपनी सरकार बनाने के लिए देश की इस सबसे बड़ी पार्टी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस से समर्थकों समेत तोडक़र अपनी सरकार बना ली थी। गोवा और अन्य राज्यों में भी जोड़तोड़ करके सरकार बनायी थी। जो कर्नाटक भाजपा बुरी तरह हारी है, उसमें भी उसने पिछली बार जोड़-तोड़ करके सरकार बनायी थी। अब लोकसभा में जीत की तैयारी के तहत भाजपा के शीर्ष नेता इस जुगाड़ में लगे हैं कि किस प्रकार से छोटे मज़बूत दलों को अपने साथ लेकर 2024 के लोकसभा चुनावों में जीत की रणनीति बना रही है।

इसी रणनीति के तहत भाजपा अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रमुख राजनीतिक दल राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) को अपने साथ मिलाने की जुगत में है। कहा जा रहा है कि कभी भी भाजपा-रालोद गंठबंधन की ख़बरें सामने आ सकती हैं। सूत्रों का कहना है कि जुलाई के पहले सप्ताह में रालोद के अध्यक्ष जयंत चौधरी की मुलाक़ात अमित शाह से हुई थी। जयंत चौधरी ने भाजपा को समर्थन देने की शर्त के रूप में उत्तर प्रदेश में उप मुख्यमंत्री या केंद्र में मंत्री का पद और 7 लोकसभा सीटों की माँग की थी। रालोद की इस माँग को ठुकराते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने विचार करने की बात कही थी। सूत्रों ने बताया कि अमित शाह ने रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी को भाजपा में विलय करने के लिए कहा था। हालाँकि जयंत चौधरी ने भाजपा में विलय करने से मना कर दिया था।

दरअसल बेहद गोपनीय और क़रीबी सूत्रों से मुझे पता चला था कि जयंत चौधरी का समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव से नाराज़ हैं। बस इसकी अधिकारिक तौर पर घोषणा मात्र होनी बाक़ी है। इसमें दो-राय नहीं है कि 2022 के विधानसभा चुनाव के बाद से ही सपा और रालोद में एक प्रकार की तल्ख़ी देखी जा रही है। क्योंकि जिस प्रकार से काफ़ी दबाव के बाद समाजवादी पार्टी ने जयंत चौधरी को राज्यसभा की सीट दी थी, उस दौरान रालोद को समझ में आ गया था कि मामला इतना आसान नहीं है। हालाँकि उसके बाद भी लग रहा था कि रालोद, सपा और कांग्रेस के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं। लेकिन कहा जा रहा है कि सपा और रालोद में लोकसभा सीटों पर असहमति है।

दरअसल रालोद की मुज़फ़्फ़रनगर की महत्त्वपूर्ण लोकसभा सीट पर समाजवादी पार्टी ने बिना चर्चा किये अपने नेता हरेंद्र मलिक को प्रभारी घोषित करके लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए मुख सहमति दे दी है। इससे रालोद सकते में है और यही रालोद व सपा के बीच कड़वाहट का कारण माना जा रहा है। हालाँकि रालोद प्रमुख जयंत चौधरी की जब सपा प्रमुख अखिलेश यादव से बातचीत हुई, तो उन्होंने मुज़फ़्फ़रनगर के अलावा दो-तीन लोकसभा सीटों की माँग की थी। लेकिन अखिलेश मुज़फ़्फ़रनगर सीट पर ख़ुद का प्रत्याशी उतारकर रालोद को मथुरा और बाग़पत की दो सीटें देने के इच्छुक हैं।

इसी प्रकार से वह कांग्रेस के लिए भी सिर्फ़ अमेठी और रायबरेलवी की (दो) सीटें देने के इच्छुक हैं। कहा गया कि मुज़फ़्फ़रनगर सीट न देने से नाराज़ जयंत चौधरी एनडीए में जा सकते हैं। यहाँ तक कहा गया कि भाजपा उन्हें मुज़फ़्फ़रनगर समेत क़रीब पाँच लोकसभा सीटें देने को राज़ी हो सकती है। इसके साथ ही उनके कुछ विधायकों को योगी सरकार में मंत्री पद देगी। गोपनीय सूत्रों ने यहाँ तक बताया कि जयंत चौधरी इन दिनों अंडरग्राउंड हैं और न किसी से बात कर रहे हैं और न मिल रहे हैं। यहाँ तक कि चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ तक से वह नहीं मिल रहे हैं। हालाँकि अभी तस्वीर बिलकुल साफ़ नहीं है। मेरा मानना है कि जयंत चौधरी इतनी आसानी से एनडीए में नहीं जाने वाले, क्योंकि वह भाजपा के मगरमच्छ वाले रवैये को पहचानते हैं। हो सकता है कि वह अखिलेश यादव पर मुज़फ़्फ़रनगर सीट के लिए इस प्रकार दबाव बना रहे हों। हालाँकि अगर भाजपा जयंत चौधरी को मना रही है, तो मुझे लगता है कि जयंत चौधरी को जाना चाहिए और उत्तर प्रदेश सरकार में कृषि मंत्री बनना चाहिए, और एमएसपी लागू कर किसानों का भला करना चाहिए। क्योंकि रालौद किसानों के समर्थन से ही मज़बूत है और किसानों का भला बिना सत्ता में रहे नहीं किया जा सकता।

बहरहाल आज की भाजपा का स्वभाव बन चुका है कि वह किसी पार्टी को अपने साथ लाने के लिए या उसे सत्ता की सीढ़ी बनाने के लिए उस पार्टी को मनाने के अलावा अपने अन्य संसाधनों और हथियारों का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकती। अब तो यह बात सरेआम चर्चा में है कि भाजपा कथित तौर पर केंद्रीय जाँच एजेंसियों का प्रयोग भी इस प्रकार के काम में कर रही है। राजनीति के जानकार यही कह रहे हैं कि भाजपा के शीर्ष नेता रालोद को अपने साथ लाने के लिए ऐसा कुछ भी कर सकती है। क्योंकि भाजपा के नेताओं को सत्ता हासिल हो, तो वो यह भी नहीं देखते कि सामने वाली पार्टी या उससे नेता कितने भ्रष्टाचारी हैं, कितने किस मानसिकता के हैं। जम्मू-कश्मीर में पीडीपी जैसी पार्टी के साथ भाजपा का मिलकर सरकार बनाना इसका एक बड़ा उदाहरण है।

यह वही पार्टी है, जिसे भाजपा के नेता हमेशा पाकिस्तानी समर्थक, आतंकी समर्थक कहते रहे हैं। इसी तरह अभी कुछ दिन पहले एनसीपी नेताओं, ख़ासतौर पर अजित पवार पर ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था और उसके तीन दिन के भीतर उन्हीं अजित पवार को महाराष्ट्र सरकार में उप मुख्यमंत्री और उनके कई साथियों को मंत्री बना दिया। साफ़ है कि पूर्व भाजपा अध्यक्ष और गृह मंत्री अमित शाह रालोद प्रमुख जयंत चौधरी से दूसरी पार्टियों के दम पर सत्ता हासिल करने के अपने एजेंडे के तहत ही मिले हों।

बहरहाल देश में जिस प्रकार से ऐसी घटनाएँ हो रही हैं, उससे तो यही लगता है कि उत्तर प्रदेश में कई राजनीतिक दलों को भाजपा अपने साथ मिलाने में कामयाब हो सकती है। मुख्य रूप से राष्ट्रीय लोकदल की बात अगर यहाँ करें, तो हमें देखना होगा कि सन् 2017 के चुनाव में मात्र एक विधानसभा की सीट जीतने वाली रालोद 2022 के विधानसभा चुनाव में नौ सीटें जीतने में कामयाब रही थी। पार्टी के बढ़ते जनाधार से भाजपा में सुगबुगाहट है। क्योंकि हाल ही में ज़िला पंचायत चुनाव में ज़िला परिषद् की 27 सीट में राष्ट्रीय लोकदल ने जीती हैं, जो कि इस दल के लिए एक बड़ी बात है। लम्बे समय बाद रालोद को मिली इतनी मज़बूती के चलते भाजपा उसकी ओर देखने को मजबूर हो रही है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश को रालोद का गढ़ माना जाता है। इसमें हमें यह भी देखना होगा कि जबसे चंद्रशेखर आज़ाद का गठबंधन रालोद के साथ हुआ है, तबसे पार्टी में कहीं-न-कहीं और ज़्यादा मज़बूती दिखायी दी है। इसका एक कारण यह भी माना जाता है कि जिस प्रकार से मायावती कमज़ोर हो रही हैं, उसी तरी$के से चंद्रशेखर आज़ाद की लोकप्रियता और पार्टी की शक्ति बढ़ रही है। पिछले दिनों पश्चिम उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ज़िले में चंद्रशेखर आज़ाद के ऊपर गोली चलने से उसकी लोकप्रियता में ख़ासा इज़ाफ़ा देखने को मिला है, जिसका सीधा फायदा उसकी आज़ाद समाज पार्टी को आने वाले लोकसभा चुनाव में मिल सकता है। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि कई स्थानीय दल चंद्रशेखर आज़ाद से गठबंधन करने के लिए बातें आगे बढ़ा रहे हैं।

सूत्रों का कहना है कि एक बड़े दल और कई दूसरे दलों के द्वारा मध्य प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल से भी चंद्रशेखर आज़ाद को अपने लिये कैंपेन करने के लिए अभी से आमंत्रित किया जा रहा है। कर्नाटक चुनाव के बाद देश में उपजी विभिन्न परिस्थितियों और समीकरणों पर राजनीतिक विशेषज्ञों से राय-मशविरा किया जा रहा है।

राजनीतिक विशेषज्ञों और देश में बनी स्थिति और आम लोगों की राय के हिसाब से भिन्न-भिन्न कयास लगाये जा रहे हैं। मसलन, अब भाजपा को चुनाव जीतना आसान नहीं रह गया है। इसलिए इस बड़ी पार्टी के शीर्ष नेता दूसरे दलों के मज़बूत नेताओं के कंधे पर चढक़र सत्ता पाना चाहती है। कुछ लोगों का कहना है कि राजनीति में तो उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। कांग्रेस भी ऐसा कर चुकी है। सभी पार्टियाँ अपने हिसाब से वातावरण का आकलन कर नीति बनाती हैं और आगे बढ़ती हैं। भाजपा भी वही कर रही है, जिसमें उसके सत्ता में बने रहने के आसार हैं।

बरहराल उत्तर प्रदेश में राजनीतिक सरगर्मी तेज़ रहना और विभिन्न प्रकार की गतिविधियों का संचालित होना स्वाभाविक है। क्योंकि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से उत्तर प्रदेश को देश का सबसे क्रांतिकारी राज्य माना जाता है और उत्तर प्रदेश की गतिविधियाँ हर बार व्यापक परिणाम का आधार बनी हैं। अक्सर कहा भी जाता है कि देश की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुज़रता है। इसीलिए उत्तर प्रदेश को केंद्र की सत्ता का दरवाज़ा कहा जाता है। यही कारण है कि भाजपा उत्तर प्रदेश में हर उस पार्टी को अपने साथ लाना चाहती है, जो उसकी लोकसभा सीटें कम करने का माद्दा रखती है।

बहरहाल यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि अब भाजपा अटल बिहारी वाजपेयी के समय वाली नहीं रही। जब साल 1996 में महज़ 13 दिन चलने के बाद ही वाजपेयी सरकार महज़ एक वोट की वजह से गिर गयी थी। तब उन्होंने एक अच्छे नेता का उदाहरण पेश करते हुए लोकसभा में यादगार भाषण देते हुए कहा था कि ‘मुझ पर आरोप लगाया है कि मैंने पिछले 10 दिन में जो भी किया है, वो सत्ता के लोभ के लिए किया है। यह आरोप मेरे हृदय में घाव कर गया है। मैं 40 साल से इस सदन का सदस्य रहा हूँ। लोगों ने मेरा व्यवहार देखा है। जनता दल के सदस्यों के साथ सरकार में रहा हूँ। कभी हमने सत्ता का लोभ नहीं किया और ग़लत काम नहीं किया है। पार्टी तोडक़र सत्ता के लिए नया गठबंधन करके अगर सत्ता हाथ में आती है, तो ऐसी सत्ता को मैं चिमटे से भी नहीं छूना चाहूँगा। मैं मृत्यु से डरता नहीं हूँ।’

मुझे लगता है कि इस समय भाजपा के नेताओं को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के इस कथन को याद करना चाहिए और अपने गिरेबान में झाँककर यह ज़रूर देखना चाहिए कि उसका ज़मीर ज़िन्दा है, या नहीं। हाँ, अगर कोई पार्टी अपनी इच्छा से भाजपा के साथ आना चाहती हो, तो अलग बात है। लेकिन किसी पार्टी को सत्ता के लिए डराकर, धमकाकर, लालच देकर, ख़रीदकर अपने साथ लाना राजनीतिक मर्यादा, नैतिकता और लोकतंत्र की रक्षा, तीनों के लिहाज़ से ठीक नहीं है। उन पार्टियों को भी इससे बचना चाहिए, जो दबाव या लालच में आकर किसी बड़ी और ताक़तवर पार्टी के साथ आती हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक संपादक हैं।)

रूस से दोस्ती का आधार बना तेल

अमेरिका की कोशिशों के बावजूद भारत-रूस सम्बन्धों में नहीं आयी खटास

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाल के अमेरिकी दौरे, जिसमें अमेरिका के नेतृत्व ने दायरे से बाहर जाकर भारत के साथ रिश्तों को बहुत बेहतर दिखाने की कोशिश की; के बावजूद रूस के साथ भारत के रिश्तों पर इसका असर नहीं पड़ा है। इसका सबसे बड़ा सुबूत यह है कि जून में रूस से भारत का तेल आयात रिकॉर्ड 2.2 मिलियन बैरेल प्रतिदिन के स्तर पर पहुँच गया। यही नहीं, रूस की दिग्गज ऊर्जा कम्पनी रोसनेफ्ट ने जुलाई में इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (आईओसी) के एक पूर्व भारतीय निदेशक को अपने बोर्ड में शामिल किया है। भले प्रधानमंत्री मोदी के दौरे के दौरान अमेरिका में काफ़ी तामझाम दिखा हो और भारत के युवा प्रोफेशनल्स का अमेरिका के प्रति ज़्यादा आकर्षण हो, एक सच यह भी है कि कई अन्य देशों की तरह भारत में भी बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो मानते हैं कि अमेरिका सि$र्फ अपने व्यापारिक हित को तरजीह देता है। लिहाज़ा वह बहुत विश्वसनीय नहीं है।

अमेरिका ने प्रधानमंत्री मोदी के दौरे के दौरान जिन 30 एमक्यू-9बी प्रीडेटर ड्रोन की डील भारत से की है, वैसे ही प्रीडेटर ड्रोन उसने यूक्रेन को रूस युद्ध में भी दिये हैं। हालाँकि उनकी क्षमता पर वहाँ गम्भीर सवाल उठे हैं। अब भारत में विपक्ष मोदी सरकार पर 31 ड्रोन की डील में भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहा है। यह सौदा क़रीब 25,000 करोड़ रुपये का है। भारत ने यह ड्रोन चीन के सीमा पर लगातार बढ़ते आक्रामक रुख़ से मुक़ाबले के लिए ख़रीदे हैं। कुछ रक्षा जानकार यह आरोप लगा रहे हैं कि भारत को जो ड्रोन दिये गये हैं, वो तकनीक में आधुनिकतम नहीं हैं। हालाँकि भारत सरकार इन आरोपों को ग़लत बता चुकी है।

हाल के महीनों में मोदी सरकार ने रूस से तेल की बड़े पैमाने पर ख़रीद के बावजूद अमेरिका के साथ रिश्तों को ख़राब नहीं होने दिया है। उसने बीच का रास्ता निकालकर ख़द को तटस्थ दिखाने की कोशिश की है। यहाँ तक की बहुत चतुराई से रूस के यूक्रेन पर हमले के ख़िलाफ़ किसी भी अंतरराष्ट्रीय प्रस्ताव का समर्थन नहीं करके भी यह कहा कि भारत युद्ध को समर्थन में नहीं। लेकिन इस बार प्रधानमंत्री मोदी जून में जब अमेरिका गये, तो वहाँ उनका स्वागत पलकें बिछाकर किया गया। किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री को पहली बार व्हाइट हाउस में डिनर दिया गया। भले ख़द राष्ट्रपति जो बाइडेन मोदी को रिसीव करने एयरपोर्ट नहीं पहुँचे, अन्य मंचों पर मोदी को काफ़ी तरजीह दी गयी। यह आम धारणा बनी है कि रूस से भारत को दूर करने के लिए और चीन के साथ अपनी दुश्मनी के चलते अमेरिका भारत के साथ क़रीबी दिखा रहा है।

इस सबके बावजूद ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि रूस और भारत के बीच सम्बन्ध यथावत हैं। अमेरिका के दौरे से प्रधानमंत्री के लौटते ही रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने मोदी से फोन पर बात की। हाल में भारत के पूर्व विदेश सचिव शशांक को उद्धृत करते हुए रूस की समाचार एजेंसी स्पुतनिक न्यूज की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘अमेरिका भारत-रूस के सम्बन्धों को रोकने में विफल रहा है।’

स्पुतनिक न्यूज की रिपोर्ट के मुताबिक, पूर्व विदेश सचिव शशांक ने कहा कि नई दिल्ली मॉस्को के साथ रिश्तों को महत्त्व देती है। स्पुतनिक से शशांक ने कहा कि अमेरिका भारत को रूस के साथ उसकी दोस्ती और आर्थिक सहयोग से दूर करने में विफल रहा है। दोनों देशों के बीच प्रौद्योगिकी हस्तांतरण जारी है। शशांक ने कहा कि आत्मनिर्भर भारत अभियान को आगे चलाने के लिए भारत रूस से आपूर्ति शृंखलाओं पर काम कर रहा है। रूस और भारत के बीच सहयोग केवल रक्षा और प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्र तक सीमित नहीं होना चाहिए।

शशांक ने स्पुतनिक से यह भी कहा कि रूस बहुत सारे संसाधनों को नियंत्रित करता है और रक्षा क्षेत्र में एक लीडर है। अन्य क्षेत्रों में भी रूस भारत के साथ सहयोग कर सकता है। स्पुतनिक न्यूज के मुताबिक, शशांक ने कहा कि अमेरिकी लोगों को मालूम है कि भारतीय पेशेवर कार्य बल को सभी अमेरिकी और यूरोपीय कम्पनियों द्वारा महत्त्व दिया जाता है, इसलिए वह इस स्थिति का प्रयोग करने की कोशिश कर रहे हैं। हाल ही में भारत में अमेरिकी राजदूत ने कहा कि इस साल अमेरिका लगभग 10 लाख भारतीयों को वीजा देगा। अगर रूस कुछ ऐसा करे, तो यह भी अच्छा होगा।

पूर्व विदेश सचिव ने कहा कि चूँकि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन विचारों का आदान-प्रदान जारी रखे हुए हैं। लिहाज़ा साफ़ है कि भारत और रूस दोनों अपनी साझेदारी को बहुत महत्त्व देते हैं। स्पुतनिक न्यूज के मुताबिक, शशांक ने यह भी कहा कि हालाँकि भारत अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के साथ सहयोग बढ़ा रहा है, फिर भी भारत के लिए रूस के साथ विशेष रिश्ते बिलकुल महत्त्वपूर्ण हैं।

तेल का रिकॉर्ड आयात

स्पुतनिक न्यूज इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में रूसी तेल का आयात जून महीने में रिकॉर्ड ऊँचाई पर पहुँच गया है। उद्योग के आँकड़ों से पता चलता है कि अब रूस से आयात सऊदी अरब और ईराक से सामूहिक रूप से ख़रीदे गये तेल के आँकड़े को भी पार कर गया है। एनालिटिक्स फर्म केप्लर में क्रूड विश्लेषण के प्रमुख विक्टर कटोना को उद्धृत करते हुए उसने कहा कि जून में तेल आयात की दैनिक मात्रा बढक़र 2.2 मिलियन बैरल प्रतिदिन हो गयी, जो लगातार 10वें महीने बढ़ रही है। रिपोर्ट के अनुसार, राज्य के स्वामित्व वाली इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन पिछले दो महीनों में रूसी कच्चे तेल की सबसे बड़ी ख़रीदार रही है, इसके बाद रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड है।

यही नहीं, हाल में रूसी ऊर्जा दिग्गज रोसनेफ्ट ने इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (आईओसी) के एक पूर्व निदेशक को अपने बोर्ड में नियुक्त किया है। इससे संकेत मिलता है कि वह भारत के साथ व्यापार सम्बन्धों को बढ़ावा देने पर विचार कर रही है। रूसी फर्म के एक बयान के अनुसार, जी.के. सतीश, जो 2021 में आईओसी में व्यवसाय विकास के निदेशक के रूप में सेवानिवृत्त हुए, रोसनेफ्ट के 11 मज़बूत निदेशक मंडल में नियुक्त तीन नये चेहरों में से एक हैं। उनकी पेट्रोलियम उत्पाद विपणन, पेट्रोकेमिकल्स, एलएनजी और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में विशेषज्ञता है। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के भरोसेमंद इगोर आई. सेचिन रोसनेफ्ट के सीईओ और प्रबंधन बोर्ड के अध्यक्ष हैं।

बता दें रोसनेफ्ट की तेल और गैस क्षेत्रों में जी.के. सतीश की पूर्व कम्पनी के साथ रूस में साझेदारी है। रोसनेफ्ट आईओसी और अन्य भारतीय कम्पनियों को कच्चा तेल भी बेचती है। हाल के महीनों में इसने गुजरात रिफाइनर्स को नेफ्था भेजना शुरू कर दिया है। ऐसे में सतीश की नियुक्ति इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि सतीश के पास भारतीय तेल और गैस बाज़ार की गहरी जानकारी है। रोसनेफ्ट अब तरलीकृत प्राकृतिक गैस (एलएनजी) की बिक्री सहित भारतीय कम्पनियों के साथ अधिक सौदों पर दिलचस्पी दिखा रही है। सितंबर, 2016 से आईओसी बोर्ड में अपने कार्यकाल के दौरान, सतीश इंडियन ऑयल अदानी गैस प्राइवेट लिमिटेड के अध्यक्ष भी थे। रोसनेफ्ट नायरा एनर्जी का भी मेजोरिटी ऑनर है, जो गुजरात के वाडिनार में 20 मिलियन टन प्रति वर्ष की रिफाइनरी संचालित करता है और देश में 6,300 से अधिक पेट्रोल पंपों का मालिक है।

पुराने दोस्त

बेशक भारत के माता-पिता अपने बच्चों को करियर के लिए अमेरिका भेजने का सपना देखते हों, सच यह भी है कि वह रूस को भारत के दोस्त के रूप में अमेरिका से बेहतर मानते हैं। हाल के वर्षों में, $खासकर यूक्रेन युद्ध के बाद अमेरिका ने भारत को रूस से दूर करने की काफ़ी कोशिश की है। लेकिन बाइडन प्रशासन इसमें सफल नहीं हुआ है। भारत ने ‘एक के लाभ से दूसरे का नुक़सान नहीं’ की नीति से काम लिया है। अमेरिका ने नयी रक्षा तकनीक भारत को देने की रणनीति अपनाकर ऐसा करने की कोशिश की है। अमेरिका और भारत रक्षा उद्योगों को नीतिगत दिशा प्रदान करने और नये रक्षा औद्योगिक सुरक्षा रोडमैप पर सहमत हुए हैं। लेकिन भारत ने ऐसा रूस से रिश्तों की क़ीमत पर नहीं किया है।

जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गाँधी, दोनों के समय भारत और रूस के बीच रक्षा साझेदारी का जो अध्याय शुरू हुआ था, वह नरेंद्र मोदी-काल तक यथावत् चल रहा है। सन् 1950 के बाद तत्कालीन सोवियत संघ ने भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड और ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन जैसी सरकारी कम्पनियों की स्थापना में समर्थन और मदद दोनों दिये। यहाँ तक कि जब अमेरिका और उसके सहयोगियों ने जब परमाणु और अंतरिक्ष क्षमताओं को पंख देने की भारत की कोशिशों के चलते उस पर प्रतिबन्ध लगा दिये और अपने दरवाज़े भारत के लिए बंद कर दिये थे, तब भी यह रूस ही था, जिसने भारत की इन क्षमताओं को शुरू करने में मदद की। अगस्त, 1971 में भारत और सोवियत संधि पर हस्ताक्षर किये, जिसके बाद सोवियत संघ ने पाकिस्तान के साथ युद्ध के दौरान भारत का पक्ष लिया।

भारत को सोवियत संघ से ही 1960 के दशक की शुरुआत में मिग-21 लड़ाकू विमान मिले और सैन्य प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण भी हुआ। ब्रह्मोस क्रूज मिसाइलों के साझे उत्पादन से लेकर टी-90 टैंकों के लाइसेंस प्राप्त उत्पादन तक रूस ने ही मदद की।

यही नहीं, भारत का विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रमादित्य, परमाणु पनडुब्बी आईएनएस अरिहंत, कई गाइडेड मिसाइल विध्वंसक और हाल में ख़रीदा गया एस-400 मिसाइल सिस्टम रूस-भारत रक्षा सहयोग का पु$ख्ता प्रमाण है। दिसंबर, 2021 में जब रूस के राष्ट्रपति पुतिन भारत आये थे, तो भारत में 6,01,427 रूसी एके-203 राइफलें बनाने का एमओयू हस्ताक्षरित हुआ। यही नहीं, दोनों देशों ने सैन्य-तकनीकी सहयोग पर समझौते को और 10 साल के लिए बढ़ा दिया। देश के सेनाओं के पास आज जो हथियार हैं, उनमें से क़रीब 85 फ़ीसदी रूस के हैं।

अमेरिका की यात्रा के बाद जब प्रधानमंत्री मोदी स्वदेश लौटे थे, तब एकाध दिन में ही मोदी ने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को फोन किया था। इसमें दोनों नेताओं के बीच आपसी सम्बन्धों को बेहतर बनाने को लेकर बात हुई थी। पुतिन ने इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी के साथ रूस में वागनर ग्रुप के विद्रोह और यूक्रेन से जुड़ी जानकारी भी साझा की थी। उधर प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिका यात्रा को लेकर पुतिन को बताया था। यहाँ पिछले साल अक्टूबर में कैनबरा में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर की प्रेस कॉन्फ्रेंस को लेकर बताना भी महत्त्वपूर्ण है। उनसे पूछा गया था कि क्या यूक्रेन के ख़िलाफ़ रूस के युद्ध को देखते हुए भारत रूस पर अपनी हथियार निर्भरता कम करेगा? तब जयशंकर का जवाब था कि भारत-रूस के सम्बन्ध दीर्घकालिक हैं।

जयशंकर ने यहाँ तक कहा था कि यूएसएसआर या उसके बाद रूस से ख़रीदे जाने वाले हथियारों की सूची काफ़ी लम्बी है। यह सूची समय के साथ लम्बी हुई है क्योंकि पश्चिमी देशों ने भारत को हथियारों की आपूर्ति नहीं की, बल्कि उन्हें वास्तव में हमारे पड़ौस में एक सैन्य तानाशाही (पाकिस्तान) पसंद आयी। जयशंकर ने यह पश्चिम पर यह कटाक्ष पाकिस्तान के साथ शीत युद्ध के दौरान सम्बन्धों के आधार पर किया था।

यदि देखें, तो यूक्रेन युद्ध के बाद कमोबेश हर मंच पर भारत ने रूस की सीधी निंदा से परहेज़ किया है।

ड्रोन ख़रीद पर विवाद

अमेरिका के साथ 31 प्रीडेटर ड्रोन की ख़रीद में विपक्षी कांग्रेस ने भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है। पार्टी प्रवक्ता पवन खेड़ा ने सरकार पर ज़्यादा क़ीमत में ड्रोन ख़रीदने का आरोप लगाया है। उन्होंने दावा किया कि 880 करोड़ रुपये प्रति ड्रोन के हिसाब से 25,000 करोड़ रुपये में 31 ड्रोन ख़रीदा जा रहा है; लेकिन बाक़ी देश इसे इससे 4 गुना कम क़ीमत में ख़रीदते हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि ड्रोन ख़रीद में नियमों का भी पालन नहीं किया गया। उनका दावा है कि केबिनेट कमिटी ऑन सिक्यॉरिटी की बैठक किये बिना इसका सौदा किया गया। अकेले मोदी जी ने डील कर ली।

खेड़ा के आरोप के मुताबिक, जो राफेल डील में हुआ, वही अब प्रीडेटर ड्रोन की ख़रीद में भी दोहराया जा रहा है। जिस ड्रोन को बाक़ी देश चार गुना कम क़ीमत में ख़रीदते हैं, उसी ड्रोन को हम 110 मिलियन डॉलर यानी 880 करोड़ रुपये प्रति ड्रोन के हिसाब से ख़रीद रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति बाइडन के ज्वाइंट स्टेटमेंट के प्वाइंट नंबर-16 में इन ड्रोन का ज़िक्र है। कांग्रेस प्रवक्ता ने कहा कि ड्रोन डील में ट्रांसफर ऑफ टेक्नोलॉजी भी शामिल नहीं है। केंद्र सरकार ने डीआरडीओ को रुस्तम और घातक ड्रोन को बनाने के लिए 1,786 करोड़ रुपये दिये थे। फिर अमेरिका को 25,000 करोड़ दे आये। या तो ये 1,786 करोड़ रुपये ग़लत दिये या फिर 25,000 करोड़ ग़लत दिये। दोनों तो सही नहीं हो सकते। हालाँकि सरकार इन सब आरोपों को ग़लत बता चुकी है।

क्या ख़त्म होगा रूस-यूक्रेन युद्ध?

यूक्रेन की नाटो की सदस्यता भी अधर में लटक गयी है। नाटो के महासचिव जेन्स स्टोल्टेनबर्ग ने 12 जुलाई को कहा कि संगठन के सदस्य देशों के नेता इस बात पर तैयार हुए हैं कि जब सहयोगी देशों में रज़ामंदी होगी और शर्तें पूरी होंगी, तो यूक्रेन को समूह में शामिल करने की अनुमति दी जाएगी। यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की ने इस पर गहरी नाराज़गी जतायी है और इसे बेतुका कहा है।

अमेरिकी के मीडिया हाउस एनबीसी ने हाल में दावा किया है कि रूस और यूक्रेन युद्ध ख़त्म कराने के लिए अमेरिका ने अप्रैल में उच्च स्तरीय बैक चैनल डिप्लोमेसी (ट्रैक 2 डिप्लोमेसी) शुरू की थी। इससे जुड़ी बातचीत के किये पुतिन के क़रीबी विदेश मंत्री लावरोव न्यूयॉर्क गये थे। एनबीसी के मुताबिक अमेरिका की तरफ से पूर्व डिप्लोमैट रिचर्ड हास, जो काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन्स के अध्यक्ष हैं; ने बातचीत में हिस्सा लिया था।

यूरोपीय मामलों के एक्सपर्ट चाल्र्स कुपचान और रूस मामलों के एक्सपर्ट थॉमस ग्राहम भी बातचीत में शामिल हुए थे और यह कोशिश आज भी जारी है। रिपोर्ट में हैरानी वाली बात यह कही गयी है कि यह कोशिश बाइडेन प्रशासन ने शुरू नहीं की, बल्कि नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल को इसकी पूरी जानकारी थी। एनबीसी की यह रिपोर्ट इस लिहाज़ से अहम है, क्योंकि इसी महीने यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की ने स्वीकार किया कि रूस के साथ युद्ध में पश्चिम से हथियारों की धीमी आपूर्ति के कारण यूक्रेन के जवाबी हमले में देरी हुई, जिसके कारण रूस ने क़ब्ज़े वाले क्षेत्रों में अपनी रक्षा को मज़बूत किया है।

जेलेंस्की ने यह भी कहा कि उन्होंने रूस के ख़िलाफ़ बहुत पहले जवाबी कार्रवाई शुरू करने की माँग की थी, जो कि जून में शुरू हुई। जेलेंस्की ने माना कि युद्ध के मैदान में कुछ कठिनाइयों के कारण उनका (यूक्रेन) का जवाबी हमला धीमा हो रहा है। उधर एक रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका की ख़फ़िया एजेंसी सीआईए के प्रमुख विलियम बन्र्स ने रूस के साथ युद्ध में उलझे यूक्रेन की गुप्त यात्रा कर कथित तौर रूस से क्षेत्र वापस लेने के लिए यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की और यूक्रेन के शीर्ष ख़फ़िया अधिकारियों से मुलाक़ात की थी। बन्र्स की इस यात्रा के दौरान साल के आख़िर तक मॉस्को के साथ युद्ध विराम वार्ता शुरू करने की महत्त्वाकांक्षी रणनीति पर भी उनकी बात हुई थी।

रूस की सरकारी समाचार एजेंसी स्पुतनिक न्यूज की वाशिंगटन से एक रिपोर्ट में ख़लासा किया गया है कि सीआईए प्रमुख बन्र्स ने यूक्रेन की गुप्त यात्रा की थी। बन्र्स की यात्रा से परिचित अधिकारियों का हवाला देते हुए स्पुतनिक की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘अमेरिकी मीडिया ने बताया कि जून में यात्रा के दौरान सीआईए निदेशक विलियम बन्र्स ने यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की और यूक्रेन के शीर्ष ख़फ़िया अधिकारियों से मुलाक़ात की। यात्रा का उद्देश्य संघर्ष में यूक्रेन की मदद के लिए डिजाइन की गयी ख़फ़िया जानकारी साझा करने के लिए बिडेन प्रशासन की प्रतिबद्धता की पुष्टि करना था।’

स्पुतनिक न्यूज की रिपोर्ट में योजना से जुड़े लोगों का हवाला देते हुए कहा गया है कि ‘पिछले साल मार्च में बातचीत टूटने के बाद कीव पहली बार मॉस्को के साथ बातचीत शुरू करने का इरादा रखता है।’

रिपोर्ट के मुताबिक, अधिकारियों ने कथित तौर पर बाद में कहा कि उन्हें उम्मीद है कि क्रीमिया को न लेने पर सहमत होकर, रूस पश्चिम से कीव को जो भी सुरक्षा गारंटी दे सकता है, उसे स्वीकार कर लेगा। स्पुतनिक न्यूज के मुताबिक, एक यूक्रेनी अधिकारी ने बताया कि अमेरिका इस बात से सहमत है कि यूक्रेन को मज़बूत स्थिति का आधार बनाकर वार्ता में शामिल होना चाहिए।

आदिवासी संस्कृति में फिट नहीं यूसीसी

केंद्र सरकार की पहल पर देश भर में 22वें विधि आयोग द्वारा समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को लागू करने की बात हो रही है। यूसीसी लागू करने का देश भर के आदिवासी समुदायों और मुस्लिम लॉ बोर्ड ने कड़ा विरोध दर्ज कराया है। आदिवासियों का कहना है कि यूसीसी से उनकी संस्कृति, उनके रीति-रिवाज़ और उनके अधिकारों का हनन होगा। एक अनुमान के मुताबिक, अभी तक पूरे देश से 15 लाख से ज़्यादा आपत्तियाँ यूसीसी के विरोध में आदिवासियों द्वारा ऑनलाइन जमा की गयी हैं। देश भर के कई राज्यों, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, असम, अरुणाचल प्रदेश एवं अन्य राज्यों में यूसीसी का विरोध जनसभाएँ करके, रैलियाँ करके, ज्ञापन देकर एवं लॉ कमीशन के वेबसाइट व ईमेल membersecratary-Ici@gov.in पर आपत्तियाँ भेजकर आदिवासी समुदाय कर रहे हैं।

आदिवासियों के मुताबिक, यूसीसी उनके रीति-रिवाज़ों, उनकी परंपराओं, पद्धतियों, उनके प्रथागत क़ानूनों, स्वशासी क़ानूनों, पहचान एवं अधिकारों के ख़िलाफ़ है। संविधान में उनके सभी मूल्यों को विशेष संरक्षण मिला हुआ है, जो कि यूसीसी के आने पर समाप्त हो सकता है; इसकी आशंका है। आदिवासी समाज का कहना है कि यूसीसी देश की विविधता में एकता पर गंभीर चोट करेगा और देश के समक्ष एक बड़ी संवैधानिक संकट पैदा करेगा।

इस बारे में मनावर विधायक डॉ. हिरालाल अलावा ने भारतीय विधि आयोग (22वीं) के सदस्य सचिव को ज्ञापन सौंपा है। इस ज्ञापन में विधायक हिरालाल अलावा ने लिखा है कि आदिवासी समाज के अपने रीति-रिवाज़ और परंपराएँ हैं और उन्होंने अपनी सामाजिक और राजनीतिक प्रणालियाँ विकसित की हैं। वे अपने स्वयं के प्रथागत क़ानून से अपने सामाजिक जीवन को नियंत्रित करते हैं। उनकी सांस्कृतिक विशिष्टता विविध भाषा, लिपि, पोशाक, नृत्य, संगीत, सामाजिक व्यवस्था, भोजन, रीति-रिवाज़ों और परंपराओं आदि में प्रकट होती हैं। ऐसी विविधताओं के बावजूद वे व्यापक भारतीय संस्कृति में विविधता में एकता के परिचायक हैं। ज्ञापन में उन्होंने आगे लिखा है कि विवाह के सम्बन्ध में आदिवासियों के विभिन्न प्रथागत क़ानून हैं। डॉ. अलावा ने सभी आदिवासी समुदायों की विवाह पद्धतियों का भी ज्ञापन में ज़िक्र किया है। उन्होंने कहा है कि आदिवासी समाज में विधवा और विधुर दोनों के लिए पुनर्विवाह के विकल्प मौज़ूद हैं। तलाक़, पुनर्विवाह के लिए विभिन्न जनजातियों में अलग-अलग रिवाज़ हैं।

इसके अतिरिक्त विधायक हिरालाल अलावा ने कहा है कि भारत के सभी आदिवासी समुदायों में उत्तराधिकार/विरासत की पद्धति भी का$फी विविधतापूर्ण है। अधिकांश पैतृक वंशानुक्रम का तो कुछ मातृवंशीय पद्धति का पालन करते हैं। जबकि कुछ पितृवंशीय-मातृवंशीय के अपवाद भी हैं, जिसे द्विपक्षीय पद्धति कहते हैं। आदिवासियों में संपत्ति की अवधारणा बहुत कठोर है। चल संपत्ति में मवेशी, धान, धन, कपड़े, आभूषण, कृषि उपकरण, आदि शामिल हैं। जबकि अचल संपत्ति में मुख्य रूप से भूमि, खड़े पेड़, कुएँ, टैंक, तालाब आदि शामिल हैं। इस मामले में भी उन्होंने अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग रीति-रिवाज़ों का ज़िक्र किया है और क़ानूनी पेच फँसने की वजह भी बतायी है।

उन्होंने टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य मामलों में सुप्रीम कोर्ट के बयान को कोट किया है, जिसमें कहा गया है कि ‘भारत में धर्मनिरपेक्षता का सार विभिन्न भाषाओं और विभिन्न मान्यताओं वाले विभिन्न प्रकार के लोगों की मान्यता और संरक्षण है, और उन्हें एक साथ रखना है, ताकि सम्पूर्ण अखण्ड भारत का निर्माण करना है। इस प्रकार एक एकजुट राष्ट्र में आवश्यक रूप से एकरूपता की आवश्यकता नहीं है, यह मानवाधिकारों पर कुछ सार्वभौमिक और निर्विवाद तर्कों के साथ विविधता का सामंजस्य बना रहा है।’ 

डॉ. अलावा ने कहा है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसकी वैधता को स्वीकार किया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-15(4) के तहत आदिवासी समुदाय की परंपराओं, रूढिय़ों, रीति-रिवाज़ों एवं विवादों को निपटाने की पद्धतियों को मान्यता दी गयी है और उसका संहिताकरण कर रूढिज़न्य विधि संहिता का प्रावधान है। संविधान की 5वीं अनुसूची एवं 6वीं अनुसूची में दिये गये विशेष प्रावधानों के अनुसार महामहिम राष्ट्रपति या राज्यों के महामहिम राज्यपालों को रूढिज़न्य विधि संहिता को क़ानूनी स्वरूप दिये जाने का अधिकार है। आदिवासियों के परंपराओं, रूढिय़ों, रीति-रिवाज़ों, विवाह, जन्म-मृत्यु संस्कार, उत्तराधिकार एवं प्रथागत क़ानूनों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद-13(3)(क) में भी मान्यता दी गयी है। आदिवासी समुदाय संविधान के अनुच्छेद-244 की 5वीं और 6वीं अनुसूची के तहत संरक्षित है। यूसीसी इसके ख़िलाफ़ है। डॉ. हिरालाल अलावा ने अपने ज्ञापन पत्र में कहा है कि देश के 16 राज्यों में लगभग 75 से अधिक विशेष रूप से कमज़ोर जनजाति समूह आदिम जनजातियों के उत्थान एवं विकास के लिए भारतीय संविधान में संसद एवं विधानमंडलों के नियम-क़ानूनों में विशेष प्रावधान किये गये हैं। भारत की संसद द्वारा पारित पेसा क़ानून-1996 की धारा-4(क), (ख), (ग) और (घ) में जनजातीय समुदाय से सम्बन्धित प्रावधानों की ओर ध्यान खींचते हुए कहा है कि संविधान के भाग-9 के अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी किसी राज्य का विधान-मंडल उक्त भाग के अधीन ऐसे कोई विधि नहीं बनाएगा, जो निम्नलिखित विशिष्टियों में से किसी से असंगत हो, अर्थात् (क) पंचायतों पर कोई राज्य विधान जो बनाया जाए रूढिज़न्य विधि, सामाजिक और धार्मिक पद्धतियों और सामुदायिक संपदाओं की परंपरागत प्रबंध पद्धतियों के अनुरूप होगा। (ख) ग्राम साधारणतया आवास या आवासों के समूह अथवा छोटा गाँव या छोटे गाँवों के समूह से मिलकर बनेगा, जिसमें समुदाय समाविष्ट हो और जो परंपराओं तथा रूढिय़ों के अनुसार अपने कार्यकलापों का प्रबंध करता हो। (ग) प्रत्येक ग्राम में एक ग्राम सभा होगी, जो ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनेगी, जिनके नामों का समावेश ग्राम स्तर पर पंचायत के लिए निर्वाचक नामावलियों में किया गया है। (घ) प्रत्येक ग्राम सभा, जनसाधारण की परंपराओं और रूढिय़ों, उनकी सांस्कृतिक पहचान, सामुदायिक संपदाओं और विवाद निपटान के रूढिक़ ढंग का संरक्षण और परिरक्षण करने में सक्षम होगी।

विधायक डॉ. हिरालाल अलावा ने कहा है कि यूसीसी लाने की योजना पेसा क़ानून 1996 के हित में भी नहीं है। आदिवासी राज्य नागालैंड को अनुच्छेद 371(ए), मिजोरम को अनुच्छेद 371(जी) समेत अन्य कई राज्यों को प्रथागत क़ानूनों पर विशेष सुरक्षा दी गयी है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति के रूप में अधिसूचित किया गया है। वर्तमान में देश में 10 राज्यों में अनुसूचित क्षेत्र चिह्नित हैं। चार राज्यों में ट्राइबल क्षेत्र चिह्नित हैं। इन राज्यों के अलावा अन्य राज्यों में भी आदिवासी बहुल क्षेत्रों को विशेष रूप से चिह्नित किया गया है। ज्ञापन में कहा गया है कि अनुच्छेद-275(1) जनजातीय उपयोजना के तहत आदिवासियों के लिए अलग बजट का प्रावधान है। अनुच्छेद-244(1) पाँचवी अनुसूची के तहत कोई भी क़ानून अनुसूचित क्षेत्र में आदिवासियों के परंपरा, प्रथागत क़ानून, रीति-रिवाज़, इत्यादि में हस्तक्षेप नहीं करेगा। ऐसे में इसकी उपेक्षा कर यूसीसी लागू करने से संवैधानिक संकट पैदा होगा। डॉ. हिरालाल अलावा के अतिरिक्त आदिवासी समन्वय समिति, झारखण्ड के पदाधिकारी देव कुमार धान ने भी एक ज्ञापन जारी कर यूसीसी पर आपत्ति दर्ज करायी है। आदिवासियों के पारंपरिक, सामाजिक, धार्मिक संगठन राजी पाड़हा ने देश के आदिवासियों से यूसीसी के विरोध का आह्वान किया है। वहीं राष्ट्रीय आदिवासी एकता परिषद ने आदिवासियों से 7 अगस्त को भारत बन्द करने का आह्वान किया है।

फैमिली क़ानून को छोडक़र सभी क़ानून यूनिफॉर्म

भारत में भौगोलिक स्तर पर विवाह, विवाह-विच्छेद, उत्तराधिकार, भरण-पोषण, गोदनामा इत्यादि फैमिली क़ानून सम्बन्धी मामले अलग-अलग हैं। ऐसे में यूनिफॉर्म सिविल कोड वहाँ असामान्य या असहज समझा जाएगा। लोगों को स्वीकार करने में कठिनाई आएगी। इसलिए तमाम विविधताओं का सम्मान करके ही भारत को एक राष्ट्र बनाया जा सका एवं आगे भी विविधताओं का सम्मान करके ही इसे अखण्ड रखा जा सकता है। भारत के तमाम हिस्सों में पितृ प्रथा लागू है, जहाँ पुरुष स्त्री को ब्याह कर लाता है और पूरे जीवन भर महिला की भूमिका सेकेंडरी मतलब दोयम दर्जे की रहती है। कई बार अपवाद स्वरूप कुछ पुरुष दो-दो पत्नी रख लेते हैं। इसके ठीक विपरीत मेघालय और लक्षद्वीप में मातृप्रथा है। यहाँ स्त्री पुरुष को ब्याह कर लाती है, और यहाँ पुरुष की भूमिका जीवन भर दोयम दर्जे की रहती है। कई बार स्त्री अपवाद स्वरूप दो-दो शादी कर लेती हैं। प्रॉपर्टी अधिकार से लेकर तमाम दायित्व स्त्री के होते हैं। वहीं हिमाचल प्रदेश के किन्नौर में तो पितृप्रथा होते हुए भी एक स्त्री के कई पति होते हैं।

ऐसे ही तमाम प्रकार के विविध परंपराओं, रीति-रिवाज़, सम्बन्ध, मान्यता ढेरों प्रकार के नियम पूरे भारत में प्रचलित है। ऐसे में यूनिफॉर्म सिविल कोड इन सभी सहज स्वीकार्य प्रथाओं, नियमों, परंपराओं और उनके जीवन को असहज करेगा। उनके रीति-रिवाज़ों को तहस-नहस कर देगा और देश को भीषण असंतोष, विरोध व आंदोलन में झोंक देगा।

यह बात कहने में अच्छी लगती है कि समानता होनी चाहिए; लेकिन यह सच्चाई नहीं है। इसीलिए तो सामाजिक न्याय और तमाम अन्य न्याय की अवधारणा ने जन्म लिया। भावी यूसीसी अपने आपमें ही घोर असमानतावादी है / होगा। क्योंकि यह भी एक तरह से पितृप्रथा को पूरे समाज पर थोप देगा, जो लैंगिक स्तर पर बहुत बड़ी असमानता है। यूसीसी में ऐसा कोई तरीक़ा नहीं है, जो सब कुछ यूनीफार्म कर सके। इसीलिए यूसीसी को अनुच्छेद-44 राज्य के नीति के निदेशक तत्त्व के अंतर्गत रखा गया है और मूल अधिकारों को संविधान में सबसे ऊपर रखकर सबसे महत्त्वपूर्ण माना गया है; ताकि इस पर संविधान का कोई अन्य क़ानून जैसे राज्य के नीति के निदेशक तत्त्व हावी न हो सकें। अनुच्छेद-13(3)(क) और अनुच्छेद-15(4) और इसी मूल अधिकार के आलोक / पालन में अनुच्छेद-244, 275, 342, 344, 370, 371 इत्यादि अनुच्छेद के अलग-अलग उपधारा / उपपैरा में विशेष क़ानूनों को उपबंधित किया गया है। इसलिए विविधताओं का सम्मान करके ही भारत को एक और अखण्ड रखा जा सकता है। अनुच्छेद-14, अनुच्छेद-21 जैसे नियमों के तहत किसी के साथ किसी भी स्तर पर जैसे धर्म, जाति, लिंग, क्षेत्र, जन्म इत्यादि के आधार पर भेदभाव न हो। इसका मतलब यह है कि सभी लोगों के साथ धर्म/जाति/लिंग / क्षेत्र / भाषा / ग़रीबी-अमीरी के आधार पर असमानता का व्यवहार न हो, जो कि होता है।

अत: असमानता को ख़त्म करना, सब कुछ बराबर यानी एक समान करना अनुच्छेद-14 का उद्देश्य है, न कि असमानता के साथ एक समान व्यवहार करना। मुस्लिम लॉ में यदि एक पुरुष को चार पत्नी रखने का नियम है, तो भारत सरकार को सिर्फ़ इसके ख़िलाफ़ एक यूनिफॉर्म भेदभाव रहित क़ानून लाना चाहिए।

यदि ऐसा कोई भेदभाव कहीं और भी हो रहा है तथा लोकतांत्रिक-मानवीय रूप से उसे ठीक नहीं माना जा सकता, तो उसके ख़िलाफ़ भी कोई यूनिफॉर्म क़ानून भारत सरकार को लाना चाहिए। लेकिन सिर्फ़ मुस्लिम लॉ में चार बीवी रखने के नाम पर पूरे देश की विविधता की एकता को नष्ट कर यूनिफॉर्म सिविल कोड की असंतोषजनक आग में पूरे देश को झोंक देना ठीक नहीं है।

फिर चाँद की ओर भारत 

देश की बहुत महत्त्वाकांक्षी परियोजना है चंद्रयान-3

एक समय था, जब भारत की मानवीय कहानियों में बच्चे चाँद (चंद्रमा) को रोटी समझने की भूल करते थे। अब भारत चाँद पर उतरने की तैयारी कर रहा है। भारत के महत्त्वाकांक्षी ‘मिशन मून’ को फिर पंख लगे हैं। इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (इसरो) ने 14 जुलाई को देश के तीसरे मिशन मून ‘चंद्रयान-3’ को कामयाबी के साथ आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन स्पेस सेंटर से प्रक्षेपित (लॉन्च) किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वैज्ञानिकों को इसके लिए बधाई दी। हालाँकि वह इस दौरान फ्रांस की यात्रा पर थे।

40 दिन के बाद 23-24 अगस्त को चंद्रयान-3 के लैंडर और रोवर चाँद के दक्षिण ध्रुव पर उतरेंगे। ये दोनों 14 दिन तक चाँद पर प्रयोग करेंगे। भारत के चाँद मिशन के लिए चंद्रयान-3 बहुत ही महत्त्वाकांक्षी परियोजना है। चंद्रयान-3 को 14 जुलाई को दोपहर 2:35 बजे जब आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन स्पेस सेंटर से लॉन्च किया गया, तो वहाँ उपस्थित वैज्ञानिकों और इसे देखने आये सैंकड़ों लोगों ने हर्षध्वनि के साथ इसका स्वागत किया।

चंद्रयान-2 की लैंडिंग के समय आयी दिक़्क़त और इसके नाकाम होने से लिए सबक़ के बाद वैज्ञानिकों का लक्ष्य चंद्रमा की सतह पर लैंडर की ‘सॉफ्ट लैंडिंग’ का है। सितंबर, 2019 में चंद्रयान-2 मिशन के दौरान लैंडर विक्रम चाँद की सतह पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। यह भारत के लिए बड़ा झटका था।

चंद्रयान-3 स्पेसक्राफ्ट के तीन लैंडर/रोवर और प्रोपल्शन मॉड्यूल हैं। सब उम्मीद कर रहे हैं कि 40 दिन बाद जब चंद्रयान-3 के लैंडर और रोवर चाँद के दक्षिण ध्रुव पर उतरेंगे और 14 दिन तक चाँद पर प्रयोग करेंगे, तो इससे अद्भुत जानकारियाँ दुनिया के सामने आएँगी।

चंद्रयान-3 क्या करेगा?

चंद्रयान-3 मिशन के साथ कई प्रकार के वैज्ञानिक उपकरण भेजे गये हैं। इनसे लैंडिंग साइट के आसपास की जगह में चंद्रमा की चट्टानी सतह की परत, चंद्रमा के भूकम्प और चंद्र सतह प्लाज्मा और मौलिक संरचना की थर्मल-फिजिकल प्रॉपर्टी की जानकारी मिलने में मदद हो सकेगी। चंद्रयान-3 को चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतारा जाएगा। मिशन को सफल करने के लिए इसमें कई अतिरिक्त सेंसर जोड़े गये हैं। इसकी गति को मापने के लिए इसमें एक लेजर डॉपलर वेलोसीमीटर सिस्टम लगाया है।

चंद्रयान-3 की लॉन्चिंग सफल रहती है, तो भारत ऐसा करने वाला चौथा देश बन जाएगा। इससे पहले अमेरिका, रूस और चीन चंद्रमा पर अपने स्पेसक्राफ्ट उतार चुके हैं। चंद्रयान-3 का बजट क़रीब 615 करोड़ रुपये है। चार साल पहले भेजे गये चंद्रयान-2 की लागत 603 करोड़ रुपये थी। हालाँकि इसकी लॉन्चिंग पर भी 375 करोड़ रुपये ख़र्च हुए थे। पहली बार भारत का चंद्रयान चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरेगा, जहाँ पानी के अंश पाये गये हैं। सन् 2008 में भारत के पहले चंद्रमा मिशन के दौरान की गयी खोज ने दुनिया को चौंका दिया था।

लॉन्चिंग के समय फ्रांस की यात्रा पर गये प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट में लिखा- ‘चंद्रयान-3 ने भारत की अंतरिक्ष यात्रा में एक नया अध्याय लिखा है। ये हर भारतीय के सपनों और महत्त्वाकांक्षाओं की ऊँची उड़ान है। ये महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हमारे वैज्ञानिकों के अथक समर्पण का प्रमाण है। मैं उनकी भावना और प्रतिभा को सलाम करता हूँ।’

“चंद्रयान-3 ने चाँद की ओर अपनी यात्रा शुरू कर दी है। इसका प्रोपल्शन मॉड्यूल चाँद के ऑर्बिट में रहकर धरती से आने वाले रेडिएशन की स्टडी करेगा। मिशन के ज़रिये इसरो पता लगाएगा कि चाँद की सतह कितनी सिस्मिक है। इसके साथ ही चाँद की मिट्टी और धूल की भी स्टडी की जाएगी।“

एस. सोमनाथ

इसरो प्रमुख

राहुल गाँधी का बढ़ रहा राजनीतिक क़द

मोदी सरनेम वाले मानहानि मामले में गुजरात हाई कोर्ट ने राहुल गाँधी की सज़ा बरक़रार रखी है। गुजरात हाई कोर्ट ने सज़ा को निलंबन की याचिका ख़ारिज करते हुए कहा कि राहुल गाँधी के ख़िलाफ़ कम-से-कम 10 क्रिमिनल केस लंबित हैं। हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने अपने फ़ैसले में सावरकर के पोते द्वारा दायर मुक़दमे का ज़िक्र करते हुए कहा कि किसी भी केस में दोषसिद्धि से कोई अन्याय नहीं होगा। ये दोषसिद्धि न्यायसंगत और उचित है। कोर्ट के पिछले आदेश में हस्तक्षेप करने की कोई आवश्यकता नहीं है, इसलिए यह आवेदन ख़ारिज किया जाता है।

गुजरात हाईकोर्ट के फ़ैसले के बाद राहुल गाँधी अब सुप्रीम कोर्ट जाएँगे। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि क्या राहुल गाँधी की सज़ा का फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट पलट देगा? अगर सुप्रीम कोर्ट से राहुल गाँधी को राहत मिलती है, तो वह 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ सकेंगे और उससे पहले ही अगर समय रहा, तो उनकी संसदीय सदस्यता उन्हें वापस मिलेगी, बंगला भी वापस मिलेगा। लेकिन क्या मोदी सरकार ऐसा होने देना चाहेगी? क्योंकि अगर राहुल गाँधी की सज़ा बरक़रार रहती है, तो अगले छ: साल तक उनकी संसद में वापसी नहीं हो सकेगी और मोदी सरकार यही चाहती है।

वकील मिथलेश पटेल कहते हैं कि यह जजमेंट गुजरात हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने सुनाया है। अब अगर हाईकोर्ट की ही डबल यानी बड़ी बेंच भी फ़ैसला बदलते हुए गाँधी की सज़ा को कम कर देती है या पूरी तरह रोक लगा देती है, तो भी उनकी सज़ा माफ़ हो जाएगी और उनकी लोकसभा सदस्यता बहाल हो जाएगी। राहुल गाँधी के पास दोनों ही विकल्प हैं। पहला वह हाईकोर्ट की ही बड़ी बेंच में जाएँ। अगर वह वहाँ भी हार जाते हैं, तो भी उनके पास सुप्रीम कोर्ट जाने का रास्ता रहेगा। लेकिन अगर वह सीधे सुप्रीम कोर्ट जाएँगे, तो उनके पास यही एक विकल्प होगा। लेकिन कहा जा रहा है कि अब राहुल गाँधी सुप्रीम कोर्ट जाएँगे। अगर वहाँ से फ़ैसला पलटा गया, तो यह केंद्र सरकार की बड़ी हार होगी और अगर नहीं पलटा, तो राहुल गाँधी का राजनीतिक करियर बहुत बुरी तरह से प्रभावित होगा। ज़्यादातर चांस हैं कि फिर उन्हें जेल भी जाना पड़ेगा। राजनीतिक जानकार मानकर चल रहे हैं कि गुजरात हाईकोर्ट का फ़ैसला भले ही भाजपा के पक्ष में गया है; लेकिन न तो अभी राहुल गाँधी हारे हैं और न उन्होंने हार मानी है। अभी उनके पास भाजपा की मोदी सरकार की मंशा पर पानी फेरने का एक और बड़ा मौक़ा है।

राजनीतिक जानकारों का यह भी कहना है कि भले ही मोदी सरकार ने पूरी सोची-समझी राजनीति करके भले ही राहुल गाँधी को मुसीबत में डाल रखा है; लेकिन उनके बढ़ते क़द को मोदी और उनका पूरा तंत्र मिलकर नहीं रोक पा रहा है। लोगों के बीच उनकी प्रसिद्धि और प्रशंसा बढ़ती जा रही है। मणिपुर जाने से उनका क़द और बड़ा हो गया है। इसके अलावा उनके गाड़ी मैकेनिक के गैरेज पर जाने, धान रोपने, लोगों के गले लगाने, बच्चों के साथ खाना खाने से लोग ख़ुश हैं और कांग्रेस से रूठे हुए अधिकतर लोग उन्हें अपना हीरो मानने लगे हैं। कहा जा रहा है कि राहुल गाँधी काफ़ी हद तक अब महात्मा गाँधी के रास्ते पर चलने लगे हैं।

वह इस बात की परवाह छोड़ कि उन्हें सज़ा होगी, तो क्या होगा? सिर्फ़ इस बात पर फोकस कर रहे हैं कि देश में लोगों को कैसे जगाया जाए और उन्हें यह समझाया जाए कि उनका और देश का हित किसमें है। राहुल गाँधी अब मोहब्बत की दुकान खोल रहे हैं और खुलकर कह रहे हैं कि नफ़रत की नहीं, अब मोहब्बत की दुकान चलेगी। इशारों-इशारों मे वह भाजपा को नफ़रत की दुकान चलाने वाला और ख़ुद को मोहब्बत की दुकान चलाने वाला बता रहे हैं। राहुल गाँधी ने अपनी सज़ा को लेकर जो भी फ़ैसला कोर्ट का आया है, उसे स्वीकार किया है। उन्होंने सरकार और कोर्ट पर लोगों के बीच जाकर आरोप नहीं लगाये हैं। वो लोगों से सिर्फ़ उनकी बात कर रहे हैं, जैसे कुछ हुआ ही न हो। गुजरात हाईकोर्ट के की टिप्पणी कि राहुल के ख़िलाफ़ 10 क्रिमिनल केस चल रहे हैं; को लेकर लोगों में चर्चा है कि राहुल गाँधी ने ऐसा कौन-सा गुनाह कर दिया है, जो उनके ख़िलाफ़ इतने क्रिमिनल केस चल रहे हैं? उन्होंने नेताओं के चरित्र पर उँगली ज़रूर उठायी है, जो कि कोई आपराधिक मामले नहीं हैं, मानहानि के हो सकते हैं।

जिस मामले में उनकी सज़ा बरक़रार रखी गयी है, वो सन् 2019 का कर्नाटक का मामला है; जहाँ हाल ही में कांग्रेस की बड़ी जीत हुई है। गुजरात में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के विधायक पूर्णेश मोदी ने इस मामले में सूरत की मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट अदालत में याचिका दायर की थी, जिस पर इसी साल बीती 23 मार्च को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धाराओं-499 और 500 (आपराधिक मानहानि) के तहत मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट अदालत ने दोषी ठहराते हुए राहुल गाँधी को अधिकतम दो साल जेल की सज़ा सुनायी थी। इसके ठीक एक सप्ताह के बाद राहुल गाँधी की लोकसभा सदस्यता छीन ली गयी और एक महीने में उनका सरकारी आवास ख़ाली करा दिया गया। लेकिन कर्नाटक में भाजपा की हार से राहुल गाँधी के ख़िलाफ़ की गयी कार्रवाई पर जनता का जवाब भाजपा को मिला। भाजपा जनता के इस जवाब से घबरायी हुई है कि जिस कर्नाटक की वायनाड क्षेत्र की एक लोकसभा सीट उनसे छीनी गयी है, उस एक सीट के बदले भाजपा ने पूरा राज्य गँवा दिया। लेकिन चुनाव आयोग वायनाड सीट पर उप चुनाव करा सकता है। अगर ऐसा राहुल गाँधी पर अंतिम फ़ैसला आने से पहले होता है, और इस सीट पर कोई अन्य उम्मीदवार जीत जाता है, और उसके बाद अगर राहुल गाँधी को राहत मिल जाती है, तो क्या होगा? हालाँकि हो सकता है कि अब चुनाव आयोग इस सीट पर उप चुनाव की जल्दबाज़ी न करें, क्योंकि अब कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है। कहीं ऐसा न हो कि वायनाड सीट पर फिर से राहुल नहीं, तो कोई और कांग्रेसी नेता जीत जाए। अगर ऐसा हुआ, तो भाजपा और केंद्र सरकार की बड़ी किरकिरी होगी। अगर राहुल गाँधी को कहीं से भी राहत नहीं मिल पाती है, तो इसका मतलब यह हुआ कि राहुल गाँधी साल 2024 से लेकर साल 2029 तक के लोकसभा चुनाव में चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। क्योंकि सज़ा मिलने की तारीख़ से छ: साल तक वो चुनाव नहीं लड़ सकेंगे।

कांग्रेस के नेताओं को उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट से राहुल गाँधी को राहत मिलेगी, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट अभी भी किसी दबाव में काम नहीं करता है और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ अपनी न्यायप्रियता के लिए जाने जाते हैं। लेकिन आठ-नौ महीने के भीतर देश में लोकसभा चुनाव होने हैं, जिसे लेकर कांग्रेस में भी राहुल गाँधी के फ़ैसले को लेकर चिन्ता है।

ऐसा माना जा रहा है कि हाल ही में पटना में महागठबंधन की प्रेस कॉन्फ्रेंस में लालू यादव ने दूल्हा बनने के इशारे से राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री पद के लिए तैयार रहने को कहा था। उन्होंने कहा था- ‘आप दूल्हा बनने के लिए तैयार रहिए, हम सभी बाराती बनेंगे।’

लालू प्रसाद यादव के इस बयान से भाजपा में खलबली है। लेकिन अभी तक दूल्हा बनने यानी प्रधानमंत्री बनने से मना करते आये राहुल गाँधी क्या इस बात को समझ चुके हैं कि उन्हें अब पूरे विपक्ष की बाग़डोर सँभालनी है? फ़िलहाल पहले तो उनके संसद पहुँचने का रास्ता खुले, उसके बाद ही वो दूल्हा बनने की तैयारी कर सकते हैं। इसके लिए जनता का मूड भी देखना होगा और राज्यों में चुनावी गणित को समझना होगा।

आगामी संसद सत्र के बाद राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा-2 के शुरू होने की सुगबुगाट है। उनकी पहली भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस को बड़ा फ़ायदा पहुँचा है। भाजपा इस यात्रा को रोकना चाहती थी; लेकिन पिछली बार ऐसा नहीं कर सकी। अब देखना होगा कि राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा-2 का क्या असर होगा? क्या भाजपा इस यात्रा को सहज रूप से संपन्न होने देगी? कांग्रेस राहुल गाँधी के पक्ष में माहौल बनाने का कोई भी मौक़ा नहीं छोडऩा चाहती और राहुल गाँधी को उनकी बहन प्रियंका गाँधी का साथ जिस तरह मिल रहा है, उससे लोगों पर काफ़ी प्रभाव पड़ रहा है। कुछ साल पहले यह बात कही जाने लगी थी कि प्रियंका गाँधी में इंदिरा गाँधी की छवि लोग देख रहे हैं; लेकिन अब लोग ये कह रहे हैं कि प्रियंका गाँधी में नेतृत्व की क्षमता है। वह देश चला सकती हैं। ऐसे में जो लोग यह कह रहे हैं कि राहुल के चुनावों से दूर होने का मतलब है- कांग्रेस ख़त्म, वे शायद भूल रहे हैं कि अगर राहुल गाँधी को चुनाव लडऩे का मौक़ा नहीं भी मिलता है और अगर उन्हें दो साल के लिए जेल भी जाना पड़ा, तो कांग्रेस में प्रियंका गाँधी भाजपा के लिए दूसरा बड़ा काँटा साबित हो सकती हैं।