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ड्रग्स तस्करी का अड्डा बनता जा रहा गुजरात

पिछले चार दिन पहले गुजरात एसओजी और पीसीबी ने सूरत के हजीरा और रांदेर इलाक़ों से तीन ड्रग्स तस्करों को गिरफ़्तार किया। इन ड्रग्स तस्करों के पास से क़रीब 8.319 किलोग्राम हाई क्वालिटी वाली अफ़ग़ानी चरस बरामद हुई, जिसकी अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के हिसाब से क़रीब 4.15 करोड़ रुपये क़ीमत आँकी गयी। पुलिस के हाथ आने तक तस्कर क़रीब एक किलोग्राम चरस बेच चुके थे। तस्कर समुद्री रास्ते से ड्रग्स तस्करी का धन्धा करते हैं।

इसके अलावा एसओजी ने रांदेर के पालनपुर पाटिया से एक ड्रग्स तस्कर को गिरफ़्ता किया। पुलिस को इस तस्कर के पास से भी क़रीब 2.173 किलोग्राम हाई क्वालिटी की अफ़ग़ानी चरस बरामद मिली। जग्गू से पूछताछ के आधार पर एसओजी ने दो तस्करों को 6.146 किलोग्राम हाई क्वालिटी अफ़ग़ानी चरस के साथ गिरफ़्ता किया।

गुजरात में ड्रग्स तस्करी, शराब तस्करी कोई नयी बात नहीं है। यहाँ की पुलिस हर साल करोड़ों की ड्रग्स और शराब बरामद करती है। मुंद्रा बंदरगाह पर क़रीब 3,000 किलो ड्रग्स बरामद होने के क़िस्से तो अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बनने के बाद दुनिया ने जाना कि गुजरात में ड्रग्स के धंधे में कथित रूप से बड़े-बड़े लोग शामिल हैं। लेकिन इसके अलावा गुजरात एसओजी और पीसीबी की पुलिस टीमें हर साल करोड़ों रुपये के नशीले पदार्थ बरामद करती हैं।

एक पुलिसकर्मी ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि मैडम गुजरात में नशे का कारोबार बहुत बड़ा है। गुजरात के रास्ते ड्रग्स की तस्करी महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली तक होती है। इस धंधे में बड़े-बड़े लोग लिप्त हैं। मगर उनके ख़िलाफ़ सुबूत नहीं मिलते। जो ज़्यादातर वही तस्कर पुलिस के हाथ लग पाते हैं, जो लोगों को सप्लाई देते हैं। कभी कोई थोड़ा बड़ा तस्कर पकड़ा जाता है; लेकिन बहुत बड़े तस्करों के भेद वो भी नहीं खोलते। ड्रग्स तस्करी का अगर रिकॉर्ड देखें, तो सूरत प्रिवेंशन ऑफ क्राइम ब्रांच तथा स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप ने इसी साल 23 जुलाई को सुवाली बीच के पास से क़रीब 9.590 किलोग्राम हाई क्वालिटी अफ़ग़ानी चरस बरामद की थी। यह चरस समुद्री रास्ते से गुजरात लायी गयी थी। इस अफ़ग़ानी चरस की क़ीमत क़रीब 4.79 करोड़ रुपये आँकी गयी थी। पुलिस ने तस्कर के पास से एक तमंचा भी बरामद किया।

इसी 22 सितंबर को एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया कि पुलिस ऑपरेशन ने राजस्थान से कच्चे माल की तस्करी करने और सूरत के बाहरी इलाक़े में नशीली दवाओं के लिए एक विनिर्माण कारख़ाना स्थापित करने की कुछ तस्करों की विस्तृत योजना को विफल कर उन्हें गिरफ़्ता कर लिया है।

इस मामले में गिरफ़्ता आरोपी एमडी के नाम से विख्यात मेथमफेटामाइन और अन्य सिंथेटिक दवाओं का अवैध उत्पादन करते थे। इस कार्रवाई में राजस्थान से एमडी ड्रग्स बनाने वाला क़रीब 10.500 किलोग्राम कच्चा माल पुलिस ने ज़ब्त किया है। अवैध बाज़ार में इस कच्चे माल की अनुमानित क़ीमत क़रीब 8 से 9 करोड़ रुपये आँकी गयी। तस्करों ने यह बात क़ुबूल की कि इससे पहले वे बहुत बड़ी मात्रा में एमडी बनाते रहे हैं और इससे पहले उन्होंने 12 किलोग्राम कच्चा माल ख़रीदा था। इनमें से एक आरोपी को इस गिरफ़्तारी से काफ़ी पहले मुम्बई की क्राइम ब्रांच ने गिरफ़्तार किया था।

पिछले दिनों केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के लोकसभा क्षेत्र सानंद के केरला जीआईडीसी में स्थित एक फार्मास्यूटिकल कम्पनी में क़रीब 500 किलो ड्ग्स एनसीबी टीम ने पकड़ी। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के हिसाब से इस ड्रग्स की क़ीमत क़रीब 10,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा आँकी गयी। इस प्रतिबंधित ड्रग्स की भारत में क़रीब एक करोड़ रुपये प्रति किलोग्राम और विदेशों में क़रीब 15 से 20 करोड़ रुपये प्रति किलोग्राम आँकी गयी।

गुजरात में ड्रग्स तस्करी को लेकर विपक्ष विधानसभा में भी सवाल उठाता रहा है। अमित शाह के संसदीय क्षेत्र में ड्रग्स की इतनी बड़ी खेप पकड़े जाने पर कांग्रेस नेता अमित चावड़ा ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में आरोप लगाया था कि ‘केंद्रीय गृह मंत्री के लोकसभा क्षेत्र में इतनी बड़ी मात्रा में ड्रग्स पकडऩे वाले अधिकारियों का तत्काल प्रभाव से तबादला कर दिया गया। तबादले से शक पैदा होता है कि ड्रग्स के इस बड़े कारोबार का मालिक कोई प्रभावशाली सफेदपोश है, जिसे सरकार बचाना चाहती है।’ कांग्रेस नेता ने यह भी कहा कि ‘सानंद के केरल जीआईडीसी से ड्रग्स ज़ब्त होने के बावजूद सरकार, पुलिस और प्रशासन चुप हैं। ये चुप्पी चिन्ताजनक है। पूरे देश में और ख़ासकर गुजरात में बड़े-बड़े ड्रग कार्टेल चल रहे हैं। गुजरात ड्रग्स के लिए लैंडिंग हब के साथ-साथ प्रोसेसिंग हब भी बनता जा रहा है। साफ़ है कि फार्मास्युटिकल कम्पनियों की आड़ में ड्रग्स का एक पूरा नेटवर्क चल रहा है। हाल ही में सावली में बड़ी मात्रा में ड्रग्स की ज़ब्ती की गयी थी और इसके पहले भी वापी में करोड़ों रुपये की ड्रग्स की ज़ब्ती से यह स्पष्ट है कि गुजरात अब ड्रग लैंडिंग, प्रोसेसिंग और निर्यात का केंद्र बन रहा है।’

देश की संसद में ड्रग्स मुद्दे पर पिछले दिनों पूछे गये एक सवाल के जवाब में केंद्र की मोदी सरकार ने बताया कि सन् 2006 से सन् 2013 तक देश भर में 22,45,000 रुपये की ड्रग्स ज़ब्त की गयी थी। जबकि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सन् 2014 से सन् 2022 तक देश में 62,60,000 रुपये की ड्रग्स पकड़ी गयी। यानी क़रीब एक बराबर समय में कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार के मु$काबले भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार में 180 प्रतिशत ज़्यादा ड्रग्स तस्करी हुई।

13 मार्च, 2023 को गुजरात हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति निखिल केरियल ने राज्य सरकार और डीजीपी को नोटिस जारी किया था। गुजरात हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति केरियल ने पूछा था कि एक अंग्रेजी अख़बार के मुताबिक ड्रग्स पेडलिंग में बच्चों का उपयोग हो रहा है। क्या यह ख़बर सही है? अगर सही है, तो इसमें कितनी सच्चाई है? एफिडेविट के ज़रिये सरकार जवाब दे कि वह इस मामले में क्या कर रही है?

गुजरात हाईकोर्ट के इस नोटिस के अगले ही दिन इस मामले को न्यायमूर्ति निखिल केरियल की बेंच से ट्रांसफर करके कार्यवाहक मुख्य न्यायमूर्ति ए.जे. देसाई को सौंप दिया गया। कार्यवाहक मुख्य न्यायमूर्ति ए.जे. देसाई ने सरकार के एफिडेविट के जवाब के बाद इस मामले को ही डिस्पोज कर दिया।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, सन् 2016 से मार्च, 2023 तक के सात साल के समय में गुजरात में क़रीब 40,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा की ड्रग्स पकड़ी गयी है। इसके अलावा 4 मई 2023 को गुजरात के कच्छ से क़रीब 1.700 किलोग्राम मेथमफेटामाइन ड्रग्स पकड़ी गयी। राष्ट्रीय बाज़ार में इसकी क़ीमत क़रीब 1.7 करोड़ रुपये से दो करोड़ रुपये तक आँकी गयी। इसके बाद 13 मई, 2023 राजकोट के खंडेरी स्टेडियम से 214 करोड़ रुपये की क़ीमत की क़रीब 30 किलोग्राम ड्रग्स पुलिस ने बरामद की। इसके अगले ही दिन यानी 14 मई 2023 को जामनगर नेवी इंटेलिजेंस और एनसीबी ने क़रीब 2,500 किलो ड्रग्स बरामद की, अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इस ड्रग्स की क़ीमत 12,000 करोड़ रुपये आँकी गयी थी।

गुजरात में ड्रग्स तस्करी के ये आँकड़े बताते हैं कि गुजरात ड्रग्स तस्करों का हब बन रहा है, जिस पर समय रहते काबू पाया जाना चाहिए। युवाओं और बच्चों का भविष्य बर्बाद करने वाले ड्रग्स तस्करों से आज निपट पाना आसान नहीं रह गया है। इसके लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को मिलकर काम करना होगा। एक अनुमान के मुताबिक, देश में हर साल 5,00,000 से ज़्यादा बच्चे ड्रग्स की लत पकड़ रहे हैं। इन बच्चों को बचाना सरकारों और पुलिस प्रशासन की ज़िम्मेदारी तो है ही, लोगों की ज़िम्मेदारी भी है।

आधी आबादी को आधा न्याय

महिला आरक्षण विधेयक संसद में पास होने के बाद भी फ़िलहाल नहीं होगा लागू

नये संसद भवन में कांग्रेस नेता सोनिया गाँधी ने विपक्ष की तरफ़ से चर्चा की शुरुआत करते हुए लोकसभा में महिलाओं को राजनीति में 33 फ़ीसदी आरक्षण वाले नारी शक्ति वंदन विधेयक पर ओबीसी महिलाओं को आरक्षण से बाहर रखने पर सवाल उठाते हुए इस विधेयक को तत्काल प्रभाव से लागू करने की माँग की, तो भाजपा की तेज़ तर्रार सदस्य उमा भारती ने भी क़ानून में ओबीसी महिलाओं के लिए आरक्षण की माँग की। निश्चित ही उनके तेवर भाजपा के लिए परेशानी खड़ी कर सकते हैं।

सबसे विचित्र बात यह है कि यह क़ानून आज से छ: साल बाद 2029 में कहीं जाकर लागू हो पाएगा। ऐसे में सवाल उठता है कि भाजपा ने लम्बी प्रक्रिया का बहाना बनाकर क्या महज़ चुनाव में लाभ लेने के लिए इस विधेयक को अभी पास करवा दिया? यदि कांग्रेस व उसके विपक्षी सहयोगियों ने विधेयक पास होने के बावजूद महिला आरक्षण लटकाने को मुद्दा बना दिया, तो भाजपा को लाभ की जगह नुक़सान भी हो सकता है। ऊपर से विधेयक में ओबीसी को बाहर रखने का मुद्दा भी भाजपा के ख़िलाफ़ जाता है।

भाजपा को सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में महिलाओं के क़रीब 50 फ़ीसदी वोट मिले थे और पार्टी इन्हें बचाए रखने की क़वायद के लिए ही यह विधेयक चुनाव से पहले लायी, भले आरक्षण छ: साल बाद ही लागू हो। सन् 2019 में जब भाजपा दोबारा सत्ता आयी थी, तब महिलाओं का भाजपा से मोह भंग नहीं हुआ था। लेकिन अब चार साल बाद महँगाई और अन्य मुद्दों के चलते महिलाओं का भाजपा से मोह भंग हुआ है। भाजपा में इससे चिन्ता है। रोज़गार नहीं मिलने से युवा पहले ही भाजपा से दूर हुए हैं। ऐसे में भाजपा के पास महिला आरक्षण ही एक ऐसा हथियार था, जिससे वह महिलाओं को पार्टी से दूर जाने से रोक सकती थी। हालाँकि कुछ जानकार कहते हैं कि राजनीति में आरक्षण बहुत सीमित मात्रा में महिलाओं को आकर्षित करता है, क्योंकि 70 फ़ीसदी से ज़्यादा महिलाओं का राजनीति से सीधा कुछ लेना-देना नहीं होता। हाल के वर्षों में महिलाओं में राजनीति की तरफ़ रुझान बढ़ा है; लेकिन आज भी महिलाओं के लिए सबसे बड़े मुद्दे महँगाई और रोज़गार हैं। आज भी गाँवों / पंचायतों (स्थानीय निकाय) में जहाँ महिला आरक्षण लागू है, वहाँ भी महिलाओं की वास्तव में रोल बहुत सीमित है; क्योंकि परदे के पीछे उनके पति या पुरुष साथी ही फ़ैसले करते हैं।

फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि बड़े स्तर पर 33 फ़ीसदी आरक्षण मिलने से महिलाओं को अपनी आवाज़ बुलंद करने का अवसर मिलेगा। वे अपने मुद्दों को और मज़बूती से सामने ला पाएँगी और उनके हल का दबाव भी सत्ताओं पर बढ़ेगा। हाल के वर्षों में महिला आरक्षण को लेकर स्वर तेज़ हुए हैं। सन् 2004 में जब कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी तो महिला आरक्षण की सम्भावना सबसे मज़बूत दिखी थी। इसका कारण यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गाँधी का महिलाओं के प्रति रुझान था। यह सोनिया गाँधी ही थीं, जिन्होंने पहले विदेश सेवा की अधिकारी मीरा कुमार को लोकसभा अध्यक्ष बनवाया। साथ ही राज्यसभा में नज़मा हेपतुल्ला को उप सभापति बनाया। इसके बाद प्रतिभा पाटिल देश की पहली महिला राष्ट्रपति भी उनके ही कारण बनीं। सोनिया गाँधी ने कहा था कि वह अपने दिवंगत पति राजीव गाँधी के महिलाओं को ज़्यादा अधिकार देने के सपने को पूरा कर रही हैं। हालाँकि यूपीए के अपने ही कुछ साथियों के विरोध के कारण यूपीए सरकार महिला आरक्षण विधेयक को राज्यसभा में पास करवाने के बावजूद लोकसभा में पेश नहीं कर सकी। यदि ऐसा हो पाता, तो 2010-11 में ही महिला आरक्षण लागू हो गया होता।

भाजपा की सफलता

इसमें बिलकुल भी संदेह नहीं कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा कहीं ज़्यादा योजना के साथ संसद में विधेयक लाती है और उनका पास होना भी सुनिश्चित करती है। पहले जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 ख़त्म करने जैसा विवादित विधेयक पास करवाना इसका उदाहरण है। अब उसने महिला आरक्षण विधेयक भी संसद में पास करवा लिया। निश्चित ही यह विधेयक शुद्ध चुनावी हथियार है। लेकिन यह भी सच है कि दशकों से लटका यह विधेयक पास हो गया है; भले मोदी सरकार इसे अभी लागू नहीं कर रही है। भाजपा और ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह इस विधेयक को ख़ुद की कोशिश बताया, उससे ज़ाहिर है कि वह विपक्ष को इसका बिलकुल भी श्रेय नहीं लेने देना चाहते हैं।

भाजपा महिला विधेयक पास करवाने को उज्ज्वला रसोई गैस योजना, मुफ़्त महिला शौचालय और नल से जल जैसी पिछली महिला सम्बन्धी योजनाओं से भी जोड़ेगी। गृह मंत्री अमित शाह कह चुके हैं कि यह क़ानून 2029 तक ही लागू हो पाएगा। ज़ाहिर है महिलाओं को अभी लम्बा इंतज़ार करना पड़ेगा। चूँकि यह काफ़ी लम्बा होगा, कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल आने वाले चुनावों में इसके लिए भाजपा को घेर सकते हैं। इस दौरान कौन-सी सरकारें केंद्र में सत्ता में आएँगी, यह भी अभी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि कम-से-कम दो चुनाव तो इस दौरान पड़ेंगे ही। लिहाज़ा कहा जा सकता है कि आरक्षण के नाम पर महिलाओं को फ़िलहाल तो बहुत लम्बा इंतज़ार ही मिला है। लेकिन यह तय है कि इस साल होने वाले विधानसभाओं और 2024 (या जब भी हों) के लोकसभा चुनाव में भाजपा महिला आरक्षण विधेयक पास करवाने की बात को भुनाने की पूरी कोशिश करेगी।

भाजपा अगले चुनाव को बड़ी चुनौती के रूप में देख रही है। उसे लग रहा है कि कांग्रेस उभर सकती है। कांग्रेस के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन से उसे मुश्किल चुनौती मिल सकती है। दूसरे विभिन्न सर्वेक्षण बताते हैं कि कांग्रेस नेता राहुल गाँधी की रेटिंग (जनता में स्वीकार्यता) हाल के महीनों में बढ़ी है। ज़ाहिर है, जिस राहुल गाँधी को भाजपा नेता विपक्ष की सबसे कमज़ोर कड़ी बताते रहते हैं। वहीं राहुल गाँधी वास्तव में भाजपा के लिए सबसे गम्भीर चुनौती हैं।

ऐसे में भाजपा चुनाव के लिए अपने थैले में एक से अधिक तुरुप के पत्ते रखना चाहती है। महिला आरक्षण क़ानून के अलावा राम मंदिर को वह अपना बड़ा हथियार बनाएगी। इसके अलावा उसने एक राष्ट्र, एक चुनाव, कृष्ण जन्म भूमि और समान नागरिक संहिता का राग भी छेड़ रखा है, ताकि अपने मुद्दों का वज़न बढ़ा सके। भले इन दोनों मुद्दों को वह भविष्य के चुनावों में इस्तेमाल के लिए रखे। ऐसे में कांग्रेस और इंडिया गठबंधन या अन्य विपक्षी दलों के सामने इन मुद्दों की बड़ी चुनौती तो रहेगी ही। देखना यह होगा कि वे मोदी सरकार के ख़िलाफ़ 10 साल की एंटी-इंकम्बैंसी को भुना पाते हैं या नहीं? उन्हें भाजपा के ब्रांड चेहरे नरेंद्र मोदी के अलावा इन मुद्दों से निपटना पड़ेगा।

संसदीय प्रणाली का नया अध्याय

संसद का विशेष सत्र नये संसद भवन में हुआ। सत्र के पहले दिन पुराने भवन में तमाम सदस्यों ने भावुकता से पुराने लम्हों को याद किया, वहीं इस भवन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर भी प्रकाश डाला। बाद में प्रधानमंत्री मोदी ने प्रस्ताव किया कि पुराने संसद भवन को अब संवैधानिक भवन कहा जाए। सदस्यों का सामूहिक फोटो सेशन भी हुआ। इसके बाद पैदल चलते हुए सभी सदस्य नये भवन पहुँचे, जहाँ आगे की कार्यवाही हुई। नये संसद भवन के साथ भारतीय संसदीय प्रणाली का नया अध्याय शुरू हुआ है।

निश्चित ही नये संसद भवन में आने वाली सरकारों की तरफ़ से नये क़ानूनों, सामाजिक, आर्थिक और वैधानिक विषयों के नये मापदंड स्थापित होंगे। भविष्य में नयी पीढ़ी के जो सदस्य चुनकर आएँगे, उनके लिए पुराने संसद भवन का इतिहास अध्ययन और जिज्ञासा का विषय होगा। नये संसद भवन का नाम इतिहास में इसलिए भी दर्ज हो गया कि इसकी पहली ही बैठकों में महिला आरक्षण विधेयक आया और पास हुआ। इस विधेयक के लागू होने के बाद संसद के स्वरूप में महत्त्वपूर्ण बदलाव दिखेंगे, क्योंकि लोकसभा में महिला सदस्यों की संख्या 82 से बढक़र 181 हो जाएगी।

क्या है महिला आरक्षण विधेयक?

बिल में महिला आरक्षण की अलग से कोई व्यवस्था नहीं की गयी है और दलित और आदिवासियों के लिए जितनी सीटें लोकसभा और विधानसभा के लिए आरक्षित हैं, उनमें से 33 फ़ीसदी इस समुदाय की महिलाओं के लिए निर्धारित हो जाएँगी। ओबीसी के लिए आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है, जो यूपीए के विधेयक में थी। हालाँकि ओबीसी आरक्षण की माँग के चलते यह विधेयक इतने समय लटका रहा। इस विधेयक के तहत महिला आरक्षण 15 साल के लिए मिलेगा। उसके बाद इसे जारी रखने के लिए फिर से विधेयक लाना होगा।

वर्तमान में लोकसभा में 82 महिला सदस्य हैं, जो कुल सदस्यों का महज़ 15 फ़ीसदी हैं। उधर राज्यसभा में 31 महिला सदस्य हैं, जो कुल सदस्य संख्या का सिर्फ 13 फ़ीसदी है। राज्यों की बात करें, तो विधानसभाओं में महिलाओं की उपस्थिति 10 फ़ीसदी से भी कम है। भले स्वतंत्रता आन्दोलन में महिलाओं की बड़ी भागीदारी रही थी, उन्हें राजनीति में बहुत बेहतर प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है। सन् 1977 में जे.पी. आन्दोलन के बावजूद संसद में महिला प्रतिनिधित्व महज़ 3.5 फ़ीसदी रहा था, जो अब तक का सबसे कम है।

महिला आरक्षण विधेयक का पहला ड्राफ्ट सन् 1996 में तैयार किया गया था। हालाँकि शुरुआत से ही इसे विवादों ने घेर लिया। कारण थी पुरुष मानसिकता, जो महिलाओं को ज़्यादा अधिकार देने के ख़िलाफ़ थी। सन् 1998 में जब केंद्र में इंद्र कुमार गुजराल की सरकार थी, उनकी ही पार्टी के भीतर विधेयक को लेकर विद्रोह हो गया। लिहाज़ा विधेयक ही पेश नहीं हो सका। इसके बाद उसी साल अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने भी विधेयक पेश करने की कोशिश की; लेकिन समाजवादी पार्टी के सांसदों ने विधेयक की प्रतियाँ सदन में ही फाड़ डालीं। सन् 2000 में उस समय के क़ानून मंत्री राम जेठमलानी ने विधेयक पेश तो किया; लेकिन पास नहीं हो पाया। इसके बाद प्रधानमंत्री वाजपेयी ने 3 मार्च, 2002 को महिला आरक्षण पर सहमति के लिए सर्वदलीय बैठक बुलायी; लेकिन इस पर भी सहमति नहीं बन पायी। एक बार फिर समाजवादी पार्टी और राजद ने इसमें पिछड़ों के लिए कोटे की माँग करके इसका विरोध किया। इसके बाद सन् 2010 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार इकलौती सरकार थी, जो महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में पास करवाने में सफल रही; लेकिन लोकसभा में नहीं करवा पायी। उस समय राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक को एक के मुक़ाबले 186 मतों के भारी बहुमत से पारित किया गया था।

अब जब यह विधेयक संसद में पास हो गया है। कांग्रेस की माँग है कि इसे तत्काल अमल में लाया जाए। साथ ही वह जातीय जनगणना की माँग है, ताकि ओबीसी महिलाओं को भी आरक्षण का प्रावधान करके लाभ दिया जा सके। उधर भाजपा इसे मोदी सरकार की प्राथमिकता से जोड़ रही है। लेकिन यह भी सच है कि नये विधेयक में सबसे बड़ा पेच यह है कि यह परिसीमन के बाद ही लागू होगा। परिसीमन इस विधेयक के पास होने के बाद होने वाली जनगणना के आधार पर होगा। साल 2024 में होने वाले आम चुनावों से पहले जनगणना और परिसीमन क़रीब-क़रीब असम्भव है। इस फॉर्मूले के मुताबिक, विधानसभा और लोकसभा चुनाव समय पर हुए, तो इस बार महिला आरक्षण लागू नहीं होगा। यह साल 2029 के लोकसभा चुनाव या इससे पहले के कुछ विधानसभा चुनावों से लागू हो सकता है।

महिला आरक्षण का इतिहास

महिलाओं के लिए राजनीति में आरक्षण की पहली माँग सन् 1931 में उठी थी, जब बेगम शाह नवाज़ और सरोजिनी नायडू ने इसे लेकर ब्रिटिश प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर महिलाओं के लिए राजनीति में समानता की माँग की थी। इस दौरान संविधान सभा की बहसों में भी महिलाओं के आरक्षण के मुद्दे पर चर्चा हुई।

सन् 1971 में नेशनल एक्शन कमेटी ने भारत में महिलाओं के घटते राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर चिन्तन के लिए बैठक की। सदस्यों ने स्थानीय निकायों में महिला आरक्षण का समर्थन किया। इसके बाद कई राज्यों ने स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण का रास्ता खोला। सन् 1988 में महिलाओं के लिए नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान ने पंचायत स्तर से संसद तक महिलाओं को आरक्षण की सि$फारिश की। इसी का नतीजा था कि राजीव गाँधी सरकार के समय पंचायती राज संस्थानों और सभी राज्यों में शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण अनिवार्य करने वाले 73वें और 74वें संविधान संशोधनों की नींव रखी गयी। इन सीटों में से एक-तिहाई सीटें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।

इसके बाद सन् 1993 में 73वें और 74वें संविधान संशोधनों में पंचायतों और नगर निकायों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित की गयीं। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड और केरल सहित कई राज्यों ने स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 फ़ीसदी आरक्षण लागू किया है।

चुनाव की बात करें, तो सन् 2009 में ओबीसी के भाजपा को 22 फ़ीसदी, कांग्रेस को 24 फ़ीसदी, जबकि क्षेत्रीय दलों को 54 फ़ीसदी वोट मिले। इसी तरह सन् 2014 में भाजपा को 34, कांग्रेस को 15 और क्षेत्रीय दलों को 51 फ़ीसदी वोट मिले। उधर सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 44, कांग्रेस को 15 जबकि क्षेत्रीय दलों को 41 फ़ीसदी वोट मिले थे। ऐसे में ओबीसी वोट चुनाव में महत्त्व रखता है। लिहाज़ा महिला आरक्षण में इस समुदाय को नज़रअंदाज़ करने का भाजपा को नुक़सान हो सकता है।

सारे दलों को इस विधेयक का समर्थन करना पड़ा है। यही लोग हैं, जो पहले विधेयक फाड़ा करते थे। आज उनको विधेयक को समर्थन करना क्यों पड़ा? क्योंकि देश भर में पिछले 10 साल में महिलाएँ शक्ति बनकर उभरी हैं। हमने संसद में पहुँचने से पहले देश में सामथ्र्य बना दिया। आपकी शक्ति ने रंग दिखा दिया कि सभी राजनीतिक दलों को इस काम में जुडऩा पड़ा। शायद ईश्वर ने इस और ऐसे कई पवित्र काम के लिए मोदी को ही चुना है।’’

नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री

महिला आरक्षण अच्छा क़दम है; लेकिन इसमें दो शर्तें लगायी गयी हैं। इसे लागू करने से पहले जनगणना और परिसीमन कराना होगा। इन्हें करने में बहुत साल लगेंगे। सच्चाई यह कि महिला आरक्षण को आज से ही लागू किया जा सकता है। भाजपा को इन दोनों शर्तों को हटा देना चाहिए। यह कोई जटिल मामला नहीं है; लेकिन सरकार यह नहीं करना चाहती। सच्चाई ये है कि यह आज से 10 साल बाद लागू होगा। यह भी नहीं मालूम कि होगा या नहीं होगा। महिला आरक्षण एक डायवर्सन टैक्टिक है। इसके ज़रिये ओबीसी जनगणना से लोगों का ध्यान भटकाया जा रहा है। मुझे पता लगाना है कि ओबीसी हिन्दुस्तान में कितने हैं। जितने भी हैं, उन्हें भागीदारी मिलनी चाहिए।’’

राहुल गाँधी

कांग्रेस नेता

कांग्रेस तत्काल लागू कर देती आरक्षण!

कांग्रेस इसे तत्काल लागू करने की माँग कर रही है। इस पत्रकार की जानकारी के मुताबिक, वह लोकसभा चुनाव में इसे सत्ता में आते ही लागू करने की बात अपने चुनाव घोषणा-पत्र में ला सकती है। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने इस पत्रकार को नाम न छापने की शर्त पर बताया- ‘पार्टी इसे 2010 में ही लागू कर देती, यदि यह लोकसभा में भी उस समय पास हो गया होता। हमने फ़ैसला कर लिया था। लेकिन दुर्भाग्य से यह नहीं हो पाया था। सोनिया जी का भी इस क़ानून को लागू करने पर बहुत ज़ोर था। अब हम आने वाले चुनाव के लिए अपने घोषणा-पत्र में इसे सत्ता में आते ही लागू करने का वादा कर सकते हैं।’

चूँकि विधेयक पास हो चुका है, इसलिए सत्ता में आने पर कांग्रेस को इसे लागू करने में कोई दिक्क़त नहीं होगी। विधेयक संसद में पास होने के अगले ही दिन कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके महिला आरक्षण अगले लोकसभा चुनाव में ही लागू करने की माँग की। उनसे पहले सोनिया गाँधी पहली विपक्षी सदस्य थीं, जिन्होंने संसद के भीतर महिला आरक्षण विधेयक के समर्थन में आवाज़ बुलंद की। ज़ाहिर है इस विधेयक को पास करवाकर चुनाव में लाभ लेने की भाजपा की कोशिश को कांग्रेस अपने तरी$के से भोथरा करने की तैयारी में है। कांग्रेस पहले ही इसे पार्टी (यूपीए) का विधेयक बताकर श्रेय लेने की कोशिश कर चुकी है।

विदेशों में महिला आरक्षण

वैसे तो भारत में महिलाओं की आबादी 48 फ़ीसदी से भी ज़्यादा है; लेकिन राजनीति में उनकी हिस्सेदारी (वर्तमान विधेयक पास होने से पहले) महज़ 17 फ़ीसदी ही है। महिलाओं के संसंद में प्रतिनिधित्व के लिहाज़ से भारत की 185 देशों में आज 141वीं रैंकिंग है। यह 15 फ़ीसदी है, जो हमारे पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल से भी कम है। हाँ, हाल में संसद में पास हुआ क़ानून लागू होने से स्थिति ज़रूर बदलेगी। दुनिया के कई देशों में महिलाओं के लिए संसद में 50 फ़ीसदी आरक्षण का प्रावधान है, जिनमें फ्रांस और दक्षिण कोरिया शामिल हैं।

अर्जेंटीना, मैक्सिको और कोस्टा रिका की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 36 फ़ीसदी से ज़्यादा है। पाकिस्तान में सन् 2002 में जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ सरकार ने इसे 33 फ़ीसदी कर दिया। बांग्लादेश की संसद की 350 सीटों में 50 महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। नेपाल में तो सन् 2007 से ही महिलाओं के लिए 33.09 फ़ीसदी आरक्षण है। अमेरिका और ब्रिटेन में महिला आरक्षण नहीं; लेकिन उनका प्रतिनिधित्व बिना आरक्षण के भी क्रमश: 29 और 35 फ़ीसदी है। दुनिया में एक-तिहाई देश ऐसे हैं, जहाँ महिलाओं का प्रतिनिधित्व 33 फ़ीसदी है। महिलाओं के आधे प्रतिनिधित्व के मामले में न्यूजीलैंड और यूएई जैसे देश हैं। इस मामले में सबसे ऊपर रवांडा है, जहाँ 61 फ़ीसदी महिलाओं का प्रतिनिधित्व है।

आत्ममूल्यांकन करे भाजपा

शिवेंद्र राणा

चंद्रयान, जी20 के चमक-दमक से लेकर नारी शक्ति वंदन बिल के शोर में घोसी उपचुनाव की हार की समीक्षा दब गयी या सत्ताधारी दल द्वारा रणनीतिक रूप से दबा दी गयी। ये एक साधारण-सा तथ्य है कि केंद्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। वरना वर्तमान प्रधानमंत्री गुजरात का अपना गढ़ छोडक़र उत्तर भारत की सांस्कृतिक राजधानी काशी यूँ ही नहीं आये थे।

देश में हर अच्छी चीज़ के लिए प्रधानमंत्री को श्रेय देने वाले भाजपाई घोसी की हार पर मौन हैं। हालाँकि इस समय भाजपा के कार्यकर्ताओं की स्थिति वैचारिक रूप से बड़ी विकट है। उन्हें पता ही नहीं है कि किसका विरोध करना है और किसका समर्थन? कल तक जिस दारा चौहान द्वारा भाजपा-संघ के कटु विरोध के कारण भाजपाइयों के बीच उन पर लानत-मलानत भेजने की होड़ थी, अब उन्हीं चौहान को पालकी पर ढोना पड़ रहा है। भाजपा ने जो दुर्गति अपने कॉडर की कर रखी है, वह किसी भी दूसरी पार्टी के कार्यकर्ता की नहीं है।

इस समय भाजपा देश भर के अवसरवादियों और भ्रष्ट राजनीतिक तत्त्वों की सबसे बड़ी आश्रयदाता है। चूँकि वह सत्ता के स्वर्णिम काल में है, इसलिए येन-केन-प्रकारेण सत्ता में बने रहने की नैतिकताविहीन परिकल्पना उसके शुभ-अशुभ के मूल्यांकन की क्षमता को बाधित कर रही है। सत्ता का ज्वार इतना तीव्र है कि पार्टी अपने उन कार्यकर्ताओं एवं नेताओं को भी अपमानित करने से नहीं चूक रही, जिन्होंने अपना पूरा जीवन, सर्वस्व पार्टी के लिए होम कर दिया। सन् 2014 से पहले जो पार्टी और विचारधारा के संघर्ष के लिए सदन से सडक़ तक संघर्षों में प्राणपण से जुटे रहे, सत्ता मिलते ही उन्हें नये नेतृत्व ने न सिर्फ़ ठोकर मारी, बल्कि निरंतर अपमानित भी किया।

इसके विपरीत पार्टी अपनी विचारधारा से नितांत अपरिचित ही नहीं, बल्कि अपने कटु आलोचकों के लिए रेड कॉर्पोरेट बिछाने को व्यग्र है। इससे भाजपा कार्यकर्ताओं ही नहीं, बल्कि संघ के स्वयंसेवकों में भी असन्तोष और असहजता की स्थिति पैदा हो गयी है। घोसी उपचुनाव में दारा चौहान को प्रत्याशी घोषित करना और कार्यकर्ताओं की नाराज़गी भी हार का एक प्रमुख कारण था। अत: इन्हीं वजहों को लेकर कॉडर अब नेतृत्व के समक्ष प्रश्नवाचक मुद्रा में है, जिसे टालना न संघ के लिए सम्भव है और न भाजपा के लिए।

अब यहाँ मातृ संगठन के रूप में संघ की भूमिका बढ़ जाती है; लेकिन उसकी वैचारिक स्पष्टता की महिमा अपरंपार है। उत्तर प्रदेश में सांगठनिक कील-काँटे दुरुस्त करने के उद्देश्य से संघ प्रमुख मोहन भागवत भी तीन दिवसीय लखनऊ दौरे पर रहे। लेकिन इन मुद्दों पर उन्होंने वही रटा-रटाया बयान दिया, जो उन समेत संघ का शीर्ष नेतृत्व पिछले कई वर्षों से देता आ रहा है। जैसे कि ‘जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा। संघ का काम किसी को हराना या जिताना नहीं है। संघ का कार्य हिन्दू समाज को जागृत और संगठित करना है। भाजपा का अपना एजेंडा है। वह जो करेगी, उसी तरह का उसे प्रतिफल मिलेगा। आगे कैसे करना है। इस पर भी उन्हें गम्भीरता से सोच-विचार करना चाहिए। संघ उसमें दख़ल नहीं देगा।’

अब देखिए, सन् 2015 में भी दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के हाथों अपमानजनक पराजय के बाद भी भागवत ने ऐसा ही बयान दिया था कि ‘भाजपा जैसा करेगी, वैसा ही भरेगी। उसका आकलन उसके कार्यों से किया जाएगा। संघ का इससे कोई लेना-देना नहीं है।’ लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही है? अल्फ्रेड नोबेल कहते हैं- ‘कृषि के बाद पाखण्ड हमारे युग का सबसे बड़ा उद्योग है।’

इसमें कोई दो-राय नहीं कि भारत में सामाजिकता हो या सांस्कृतिक आन्दोलन अथवा राजनीति सबमें पाखण्ड की अभिव्यक्ति चरम पर है। यदि संघ का भाजपा के कार्यों से कोई लेना-देना नहीं है, तो फिर प्रश्न यह है कि लोकसभा-विधानसभा या चाहे कोई भी चुनाव हो, संघ पूरे दल-बल के साथ भाजपा के साथ सक्रिय क्यों दिखता है? यदि संघ भाजपा सरकारों के कार्यशैली पर कोई नियंत्रण रखने में सक्षम नहीं है, उसकी जवाबदेही नहीं तय कर सकता, तो फिर उसे भाजपा के पक्ष में मतदान की अपील और राजनीतिक लामबंदी पैदा करने का क्या अधिकार है? पर ऐसे सवालों का संघ के पास वही यांत्रिक बयान होगा, जिस पर चर्चा खीझ पैदा करेगी। ज़िम्मेदारी के बिना अधिकार के विचार को संघ नेतृत्व ही परिभाषित कर सकता है; क्योंकि उसके कार्यों एवं बयानों में जो विरोधाभास है, उसका विश्लेषण आम आदमी के बूते की बात नहीं है।

घोसी उपचुनाव में दलित और पिछड़े तो ख़िलाफ़ थे ही, सवर्ण जातियाँ, जिनका वोट भाजपा अपनी बपौती मानती रही है; उसका एक बड़ा भाग विपक्ष के खाते में गया है। हालाँकि देश में हर छोटी-बड़ी घटना के लिए मोदी-मोदी की जय-जयकार करने वाले भाजपाई उपचुनाव की हार पर चर्चा नहीं करना चाहते। अगले आम चुनाव के लिए यह हार एक बड़ा संदेश है। मोदी के देवत्व के नारों में भाजपाई बिग्रेड चाहे जितना झुठलाए, किन्तु सत्य यही है कि जनता का एक बड़ा वर्ग इस सरकार की कार्यशैली और उसके कई बेतुके फ़ैसलों चिढ़ा हुआ है। इसलिए जितना भाजपाई 2024 की राह आसान बता रहें हैं, वह भ्रमपूर्ण स्थिति है। उन्हें भी पता है कि अगले आम चुनाव की राह में कई मुश्किलें हैं। इसमें भी कोई शक नहीं कि एंटी-इनकम्बेसी के सहारे कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष अब धीरे-धीरे मज़बूत हो रहा है। लेकिन कैसे? इसकी मुख्य वजह सत्तारूढ़ दल का अहंकार है। सत्ता का तामस सँभालना अत्यंत दुष्कर है। भाजपा भी इसका अपवाद नहीं। अटल-आडवाणी के काल में संजोये जद(यू), शिवसेना एवं अकाली दल जैसे पुराने सहयोगी एक-एक करके छिटकते गये। अब नयी सहयोगी बनी अन्नाद्रमुक ने भी अपना हाथ छुड़ा लिया। राजनीतिक समीकरण इसकी एक वजह हो सकती है; लेकिन भाजपा का सत्ताजनित अहंकार इसका एक बड़ा कारण है। यह अहंकार का भाव सिर्फ़ पार्टी तक सीमित नहीं है, बल्कि उसके मातृ संगठन संघ तक में प्रविष्ट हो चुका है।

अपने लखनऊ यात्रा के दौरान संघ प्रमुख का अपने कॉडर के लिए संदेश था- ‘स्वयंसेवक का आचरण और व्यवहार ठीक हो। उनके व्यक्तित्व में सादगी हो। समाज में उनकी प्रामाणिकता हो। तभी लोग संघ के प्रति आकर्षित होंगे और उसकी विचारधारा से जुड़ेंगे।’ लेकिन वास्तविकता थोड़ी अशुभ है। पिछले एक दशक में संघ के पदाधिकारियों के व्यवहार परिवर्तन को देखिए, अहंकार से भरे हुए; सत्ता की शक्ति के प्रदर्शन में लिप्त; भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति आकर्षित; लेकिन सार्वजनिक जीवन में सादगी का पाखण्ड प्रदर्शित करते हुए। यह वास्तविकता है। बल्कि बड़े स्तर के पदाधिकारियों की स्थिति यह है कि कार्यालय में उनसे मिलने आये आगंतुकों से बात करने तक को वह अपना अपमान समझते हैं। जबकि एक समय था, जब संघ के प्रचारकों का त्याग, सौम्यता और कायिक-वाचिक निष्ठा उनके वैचारिक विरोधियों के बीच भी सराहनीय एवं आदर के साथ चर्चा का विषय बनी रहती थी। इसकी एक दूसरी वजह भी है। संघ की स्थापना के मूलभूत विचारों में कभी भी सत्ता भागीदारी की संकल्पना नहीं रही है; लेकिन अब तो संघ का शीर्ष नेतृत्व न सिर्फ़ राजनीतिक भाषणबाज़ी में लगा है, बल्कि खुलेआम राजनीतिक गतिविधियों को प्रोत्साहन भी दे रहा है। यह उस प्रक्रिया का परिणाम है, जो पिछले एक दशक से अधिक समय से प्रभाव में है। गृहस्थ जीवन के विचार का त्याग करते हुए आजीवन राष्ट्र की सेवा के बोध से स्वयं को समर्पित करने वाले स्वयंसेवकों के बजाय संघ की सांगठनिक संरचना में बड़ी संख्या में राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा रखने वाले लोगों का प्रवेश हुआ।

एक समय जनसंघ से लेकर भाजपा तक की राजनीतिक गतिविधियों में सहयोग के लिए ठेलकर भेजे जाने वाले पदाधिकारियों की जगह ऐसे वर्ग का प्रसार हो चुका है, जो संघ को राजनीतिक प्रतिष्ठा, संसद से लेकर विधानमंडलों तक जाने का एक माध्यम समझता है। वह संघ के अपने दायित्व से मुक्त होकर भाजपा के साथ जुडऩे को लालायित है। स्पष्ट शब्दों में कहें, तो संघ अब अघोषित राजनीतिक गतिविधियों के ऐसे केंद्र में परिवर्तित हो चुका है, जिसने अपने मूलभूत सांस्कृतिक सेवा के भाव को कहीं पीछे छोड़ दिया है। यही वजह है कि 2024 का आम चुनाव एक मायने में बहुत $खास होने वाला है। इसने संघ के सांस्कृतिक संगठन होने के मुखौटे को उतार दिया है। संघ बिरादरी न सिर्फ़ खुलकर चुनावी भाषा बोल रही है, बल्कि चुनावी रण में खुले में ताल ठोक रही है। शास्त्रीय नियमों के अनुसार, किसी भी संगठन की औसत आयु एक शताब्दी यानी सौ साल की होती है। सन् 1925 में स्थापित संघ भी अपने स्थापना की शताब्दी पूर्ण करने के समीप है। क्या सांस्कृतिक निष्ठा और राष्ट्रवाद के प्रति समर्पित संघ पतनशीलता की ओर अग्रसर है? क्या यह संघ के नैसर्गिक सिद्धांतों एवं कार्यशैली में गिरावट का संकेत है? $खैर, यह एक अलग चर्चा का विषय है। लेकिन इससे संघ-भाजपा के ऊपर एक दशक की एकछत्र सत्ता के दुष्प्रभाव को स्पष्ट देखा-समझा जा सकता है। मातृ संगठन की वैचारिक निष्ठा में गिरावट का प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव भाजपा समेत उसके दूसरे आनुषांगिक संगठनों पर भी पड़ रहा है।

ऐसा नहीं है कि उपरोक्त विश्लेषण से दक्षिणपंथी बौद्धिक जगत परिचित नहीं है। असल में वर्तमान सत्ताधारी दल के नेता और कार्यकर्ता हों या संघ के कॉडर और पदाधिकारी सभी जानते हैं कि वर्तमान सरकार की दशा और दिशा दोनों ख़राब हैं। लेकिन कोई भी सार्वजनिक रूप से यही कहने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है; और जो यह प्रयास कर रहे हैं, उन्हें पार्टी और संगठन में अपमानित किया जाता है। जॉर्ज ऑरवेल कहते हैं- ‘समाज जितना ही सच्चाई से दूर होता जाएगा, उतना ही सच बोलने वालों से नफ़रत बढ़ती जाएगी।’

यही स्थिति संघ-भाजपा की है। वैसे संघ-भाजपा के काडर को एक बात के लिए दाद देनी होगी कि उनके एक बड़े वर्ग में असन्तोष होते हुए भी दिल पर पत्थर रखकर सरकार की अच्छी या अनर्गल हर बात का पुरज़ोर समर्थन कर रहे हैं। निर्मल वर्मा लिखते हैं- ‘आदमी को पूरी निर्ममता से अपने अतीत में किये कार्यों की चीर-फाड़ करनी चाहिए, ताकि वह इतना साहस जुटा सके कि हर दिन थोड़ा-सा जी सके।’ लेकिन आत्ममूल्यांकन के लिए भी आत्मसजगता बौद्धिक चेतना की आवश्यकता होती है। अत: सत्ता सुख के सागर में अबाध गोते लगा रहे वैचारिक तिलांजलि दे चुके वर्ग से इसकी उम्मीद मूर्खता होगी। लेकिन यदि सत्ताधारी वर्ग इस दिशा में थोड़ा प्रयत्न कर सके, तो भारतीय राजनीति के लिए शुभ होगा।

(लेखक पत्रकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)

संसद की गरिमा ताक पर

जिस संसद को संविधान और देश की गरिमा का प्रतीक और लोकतंत्र का मंदिर माना जाता है, जिस संसद की गतिविधियों पर पूरे देश और दुनिया की नज़र रहती है; उसी संसद भवन में सत्र सभा सजते ही हर दिन लोकतंत्र का चीर हरण होता है। इस बार जिस प्रकार से नये संसद भवन में लोकतंत्र का यह चीरहरण हुआ, वैसा चीरहरण संसद की गतिविधियों को कवर करने के मैंने अपने तीन दशक से ज़्यादा के पत्रकारिता करियर में नहीं देखा। 18 सितंबर, 2014 को जिस संसद भवन की सीढिय़ाँ चढऩे से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने माथा टेका था, लोकतंत्र के उसी नये भवन में पहले ही विशेष सत्र में चौथे दिन गालियों की बोछार सुनायी दी।

यह अभद्रता भाजपा तीन बार के विधायक और दो बार सांसद रमेश बिधूड़ी ने बसपा सांसद दानिश अली से की। हैरानी की बात यह है कि सत्ताधारी दल के सांसद की ओए-तोए की अभद्र भाषा पर न तो अभी तक प्रधानमंत्री ने कुछ कहा है और न ही लोकसभा अध्यक्ष ने बिधूड़ी के ख़िलाफ़ कार्यवाही करते हुए विपक्षी सांसदों की तरह बाहर का रास्ता दिखाया है। बस, बिधूड़ी के अभद्र बयान को रिकॉर्ड से हटा लिया है। लोकसभा अध्यक्ष और भाजपा ने उन्हें कारण बताओ नोटिस भेज दिया है। लेकिन दूसरी ओर इनाम के रूप में बिधूड़ी को राजस्थान के टोंक की चुनावी ज़िम्मेदारी मिल गयी।

दरअसल दक्षिणी दिल्ली से भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी जब मोदी सरकार की तारीफ़ चंद्रयान-3 की सफलता को लेकर कर रहे थे, तभी बसपा सांसद दानिश अली ने सवाल उठा दिया। बस इसी को लेकर बिधूड़ी ने ग़ुस्से में कहा- ‘ओए-ओए उग्रवादी! ऐ उग्रवादी! बीच में मत बोलना। ये आतंकवादी-उग्रवादी है। ए कटुए। ये मुल्ला आतंकवादी है। इसकी बात नोट करते रहना। अभी बाहर देखूँगा इस मुल्ले को।’

हैरत इस बात की है कि जब रमेश बिधूड़ी संसद की गरिमा तार-तार कर रहे थे, तब उनकी पार्टी के दो सांसद डॉ. हर्षवर्धन सिंह और रविशंकर प्रसाद और कई अन्य सांसद हँस रहे थे। जब हर्षवर्धन से इस बारे में पूछा गया कि वह बिधूड़ी के बयान को सुन नहीं सके। रालोद ने डॉ. हर्षवर्धन की मुस्कुराहट को लेकर सवाल उठाये हैं। बिधूड़ी ने जिस तरह सडक़छाप भाषा का लोकसभा में इस्तेमाल किया, उसके लिए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने खेद जताया। उन्होंने कहा कि अगर बिधूड़ी ने ऐसा कुछ कहा है, जिससे बसपा सांसद की भावनाएँ आहत हुई हैं, तो मैं इस पर खेद व्यक्त करता हूँ। लेकिन वहीं किसी भाजपा नेता या सांसद ने न तो रमेश बिधूड़ी का विरोध किया और न ही उन्हें अभद्र शब्दों का प्रयोग करते हुए रोका। जब बिधूड़ी सडक़छाप अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल अपने ही समकक्ष के ख़िलाफ़ इस्तेमाल कर रहे थे, तब अध्यक्ष की आसंदी पर कोडिकुन्नील सुरेश बैठे थे। उन्होंने दानिश अली से बार-बार बैठने को कहा। बिधूड़ी को भी चुप रहने को कहा; लेकिन वह चुप नहीं हुए और बसपा सांसद से अभद्रता करते रहे।

मैंने संसद की सैकड़ों कार्यवाहियाँ लाइव देखी हैं; लेकिन इस तरह की भाषा पहले कभी नहीं सुनी। जो भाजपा नेता और उनके कार्यकर्ता अपनी पार्टी या अपने किसी नेता के ख़िलाफ़ किसी टिप्पणी पर ज़मीन सिर पर उठा लेते हैं, वे आज चुप हैं। जब रमेश बिधूड़ी लोकतंत्र के मंदिर के अंदर अभद्रता कर रहे थे, तो विपक्षी नेता हैरान थे कि नये संसद के पहले ही सत्र में भाजपा सांसदों की गुंडागर्दी का यह हाल है, तो फिर आगे क्या होगा?

सवाल यह भी है कि प्रधानमंत्री मोदी और अन्य भाजपा नेता जिस संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहते हैं, उसी लोकतंत्र के मंदिर में जब रमेश बिधूड़ी एक चुने हुए सांसद को उग्रवादी कहते हैं। उसके साथ ओए-तोए की भाषा का इस्तेमाल करते हैं। उस सांसद को उसके धर्म के आधार पर अभद्र बोलते हैं और बाहर देख लेने की धमकी देते हैं; तब प्रधानमंत्री मोदी ने इस पर कुछ क्यों नहीं कहा? जबकि प्रधानमंत्री मोदी इस संसद के उद्घाटन भाषण में सभी सांसदों से अपील कर रहे थे कि सभी सदस्यगण संसद की गरिमा का ख़्याल रखें। इससे पहले भी प्रधानमंत्री मोदी विपक्ष के तीखे सवाल पूछने और हंगामा करने को लेकर कई बार संसद में बोल चुके हैं और इसे संसद और चुनी हुई सरकार की तौहीन बताकर दुहाई देते रहे हैं। लेकिन अब उन्होंने एक शब्द भी नहीं बोला।

क्या संसद की गरिमा रखने का उत्तरदायित्व केवल विपक्षी सांसदों का ही है? क्या प्रधानमंत्री को विपक्ष के सवालों और हंगामे से ही परहेज़ है? जबकि उनके सांसद हंगामा भी $खूब करते हैं और अब तो अभद्रता की हदें भी उनके सांसद रमेश बिधूड़ी ने पार कर दीं।

इसी संसद में मोदी सरकार से तीखे सवाल पूछने और उसे कई मुद्दों पर घेरने के लिए कई विपक्षी सांसदों को संसद से लोकसभा अध्यक्ष झट से बर्खास्त कर देते हैं। चाहे वो आम आदमी पार्टी के पूर्व सांसद भगवंत मान रहे हों, चाहे वर्तमान में संजय सिंह, राघव चड्ढा, कांग्रेस के राहुल गाँधी, अधीर रंजन चौधरी हों या किसी अन्य राजनीतिक दल के दूसरे सांसद हों। लेकिन अब लोकसभा अध्यक्ष को सबसे अभद्र और भद्दी भाषा इस्तेमाल करने वाले सत्ता पक्ष के सांसद बिधूड़ी के ख़िलाफ़ कार्रवाई करते नहीं बन रहा है। क्या लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला सत्ताधारी दल के दबाव में हैं? या उनकी कोई और वजह है? या लोकसभा अध्यक्ष के पद पर किसी की कृपा से विराजमान हैं? या उन पर सरकार का दबाव है कि वह सिर्फ़ और सिर्फ़ विपक्षी सांसदों के ख़िलाफ़ ही कार्रवाई करेंगे; सत्ता पक्ष के सांसदों पर नहीं?

क्या उन्हें इस बात का भी ख़याल है कि संसद के अंदर इस तरह की भाषा का देश पर क्या असर होगा? क्या वह वाक़ई संविधान की रक्षा कर रहे हैं? और जिस संविधान की मोदी सरकार हमेशा दुहाई देती है, क्या वह उस संविधान की रक्षा कर रही है? सरकार को क्यों सडक़ों पर अपने ऊपर हुए अत्याचारों के ख़िलाफ़ लड़ाई लडऩे वाले किसान और महिला पहलवान देशद्रोही नज़र आते हैं? और क्यों खुलेआम संविधान की प्रतियाँ फाडऩे और जलाने वाले देशभक्त नज़र आते हैं? सवाल यह भी है कि जब सांसदों के साथ भाजपा नेताओं का खुलेआम दुनिया के सामने में ऐसा व्यवहार है, तो देश के उन लोगों के साथ वह कैसा व्यवहार करते होंगे, जिनसे उन्हें चिढ़ है?

आज अचानक सन् 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद लोगों के साथ अभद्रता, अत्याचार और मारपीट की असंख्यों घटनाएँ नज़रों के सामने तैरने लगी हैं। इनमें गोरक्षा के नाम पर मॉब लिंचिंग की सैकड़ों घटनाएँ भी हैं। किसानों पर अत्याचारों की सैकड़ों घटनाएँ भी हैं। बेटियों से बलात्कार और उनकी हत्याओं की दर्ज़नों घटनाएँ अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बनी रही हैं। दलितों पर अत्याचार की सैकड़ों घटनाएँ भी इसी प्रकार से अख़बारों में हम आये दिन पढ़ते रहते हैं। हिंसा और गृहयुद्ध जैसे हालातों का तो कहना ही क्या? मणिपुर आज भी सुलग रहा है। इन सब घटनाओं पर भाजपा नेताओं और ख़ासतौर पर प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी से क्या ज़ाहिर होता है? क्या यह है मान लिया जाए कि इस देश में ओहदेदार सांसद भी सुरक्षित नहीं है, तो आम लोगों की सुरक्षा की क्या उम्मीद की जा सकती है?

बहरहाल अभद्र भाषा को लेकर रमेश बिधूड़ी को संसद और देश के साथ-साथ बसपा सांसद से भी माफ़ी माँगनी चाहिए। राज्यसभा सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने बिधूड़ी के संबोधन का एक हिस्सा अपने ट्विटर हैंडल पर शेयर करते हुए लिखा है- ‘कोई शर्म नहीं बची है।’ असदुद्दीन ओवैसी ने भी वीडियो शेयर करते ट्वीट किया- ‘इस वीडियो में चौंकाने वाला कुछ नहीं है। भाजपा एक अथाह खाई है, इसलिए हर दिन एक नया निचला स्तर मिल जाता है। मुझे भरोसा है कि इसके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं होगी। सम्भावना है कि आगे इसे भाजपा दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाएगा। आज भारत में मुसलमानों के साथ वैसा ही सुलूक हो रहा है, जैसा हिटलर के जर्मनी में यहूदियों के साथ किया जाता था। मेरा सुझाव है कि नरेंद्र मोदी जल्द इस वीडियो को अरबी में डब करें और अपने हबीबियों को भेजें।’ वहीं कांग्रेस नेता राहुल गाँधी इस घटना के बाद बसपा सांसद से मिलने उनके आवास पर पहुँचे। मायावती ने अपने सांसद पर इस तरह की अभद्रता को लेकर एक्‍स पर लि‍खा- ‘दिल्ली से भाजपा सांसद द्वारा बीएसपी सांसद दानिश अली के ख़िलाफ़ सदन में आपत्तिजनक टिप्पणी को हालाँकि स्पीकर ने रिकॉर्ड से हटाकर उन्हें चेतावनी भी दी है। किन्तु पार्टी द्वारा उनके (बिधूड़ी के) विरुद्ध अभी तक समुचित कार्रवाई नहीं करना दु:खद / दुर्भाग्यपूर्ण।’ पिछले कुछ सालों से आरोप लग रहे हैं कि बसपा सुप्रीमो और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती भाजपा के साथ ही खड़ी हैं। इतने पर भी भाजपा सांसद द्वारा बसपा सांसद की इस तरह संसद के अंदर तौहीन करने पर आश्चर्य तो होता ही है; लेकिन सबसे ज़्यादा ताज्जुब मायावती की चुप्पी पर होता है। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि मायावती भाजपा से डरी हुई हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वाक़ई मायावती भाजपा के आगे सरेंडर कर चुकी हैं?

हालाँकि ऐसा नहीं है कि रमेश बिधूड़ी ने पहली बार किसी से अभद्रता की है। उनकी बदज़ुबानी के चर्चे पहले भी संसद के अंदर और बाहर दोनों जगह मशहूर रहे हैं। मसलन एक बार जब एक बच्चे की स्कूल की समस्या लेकर उसके माँ-बाप सांसद बिधूड़ी के पास पहुँचे, तो उन्होंने उनसे कहा कि बच्चे पैदा क्यों किये फिर? बहरहाल संसद में बिधूड़ी की अभद्रता को लेकर बसपा सांसद दानिश अली लोकसभा अध्यक्ष को पत्र में लिखकर रमेश बिधूड़ी के ख़िलाफ़ कार्यवाही की माँग की है। साथ ही यह भी कहा है कि अगर रमेश बिधूड़ी के ख़िलाफ़ कार्यवाही नहीं होती है, तो वह खुद ही सदस्यता छोड़ देंगे। बसपा सांसद ने कहा कि वह लोकसभा में प्रक्रिया और कामकाज के संचालन के नियमों की धाराओं के तहत यह नोटिस देना चाहते हैं और रमेश बिधूड़ी के ख़िलाफ़ लोकसभा अध्यक्ष से कार्यवाही का अनुरोध करते हैं। लेकिन अगर लोकसभा स्पीकर इस गम्भीर मामले पर संज्ञान न लेते हुए कार्रवाई नहीं करेंगे, तो आगामी लोकसभा चुनावों में सत्ताधारी दल को मुस्लिम वोटरों के ग़ुस्से का सामना करना पड़ सकता है। खैर, भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी द्वारा लोकसभा में दिये गये बयान से आम जनमानस में बहुत-ही ख़राब संदेश गया है, जिससे देश की गरिमा के साथ-साथ लोगों को पीड़ा पहुँची है। सत्ताधारी दल के सांसद की निचले स्तर की अभद्र भाषा दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह घटना लोकतंत्र के मंदिर की सबसे शर्मनाक घटना है। इस तरह की भाषा का इस्तेमाल संसदीय सदस्य के ख़िलाफ़ किया गया है, फिर आम लोगों की सत्ता के नशे में चूर इन लोगों की नज़र में क्या इज़्ज़त होगी?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

अपराजेय होना चाहते हैं मोदी!

शैलेंद्र कुमार ‘इंसान’

लोकसभा चुनाव 2024 की तैयारी में प्रधानमंत्री मोदी और उनकी टीम पूरे जी-जान से लगे हैं। राजनीति के जानकार कह रहे हैं कि ये मोदी के लिए अंतिम बड़ा चुनाव है। जीते तो भी, और हारे तो भी। अपनी छवि को बेदाग़ रखने की कोशिशों के साथ आगामी चुनावों की जीत में लगे प्रधानमंत्री मोदी ने सरकार में अपने सभी विश्वसनीयों को हमेशा की तरह लगा दिया है। जहाँ तक भ्रष्टाचार का सवाल है, तो मोदी सरकार की छवि प्रधानमंत्री मोदी और उनके मंत्रियों के तमाम दावों के बाद भी बेदाग़ नहीं बन सकी है। हाल ही में आयी केंद्रीय सतर्कता आयोग (कैग) की कुछ रिपोट्र्स ने कई मंत्रालयों के काले चिट्ठे खोल दिये और मोदी सरकार की छवि चमकाने की कोशिशों पर पानी फिर गया।

भ्रष्टाचार की सबसे अधिक शिकायतें प्रधानमंत्री मोदी के सबसे क़रीबी अमित शाह के गृह मंत्रालय के कर्मचारियों के ख़िलाफ़ थीं। केंद्र सरकार के विभागों और संगठनों में सभी श्रेणियों के अधिकारियों और कर्मचारियों के ख़िलाफ़ वर्ष 2022 में ही कुल 1,15,203 शिकायतें आयीं, जिनमें अकेले गृह मंत्रालय के कर्मचारियों और अधिकारियों के ख़िलाफ़ 46,643 शिकायतें मिलीं। हालाँकि केंद्र सरकार ने कैग की रिपोर्ट को अनदेखा किया है, वहीं केंद्रीय सडक़ और परिवहन मंत्रालय ने सडक़ घोटाले के आरोप को नकार दिया है।

मगर मोदी सरकार किसी भी हाल में अपनी नाकामियों और आरोपों को छुपाते हुए अपने शासन में हुए बड़े कामों के सहारे जनता के बीच उतरना चाहती है। मोदी सरकार यह जानती है कि अगर एक ओर उसकी कुछ उपलब्धियाँ हैं, तो दूसरी ओर उसकी कमज़ोरियाँ भी इन उपलब्धियों से कहीं ज़्यादा हैं। यही वजह है कि उसे जल्दबाज़ी में महिला आरक्षण विधेयक विशेष सत्र बुलाकर संसद के दोनों सदनों में पास कराना पड़ा।

लोकसभा चुनाव 2024 और उससे पहले पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में जीत के लिए भाजपा मेगा प्लान तैयार कर चुकी है। राजनीति के जानकार कह रहे हैं कि सबसे ज़्यादा दबाव उन राज्यों के प्रभारियों पर होगा, जहाँ भाजपा की स्थिति कमज़ोर है। जिस राज्य में स्थिति जितनी ज़्यादा कमज़ोर होगी, उस राज्य के नेताओं पर उतना ही जीत का दबाव प्रधानमंत्री मोदी का होगा। जानकार कह रहे हैं कि भाजपा ने पहली बार पार्टी के कामकाज को उत्तरी क्षेत्र, दक्षिणी क्षेत्र और पूर्वी क्षेत्र के हिसाब से तीन हिस्सों में बाँटा है, ताकि सरलता से जीत मिल सके। परन्तु इस बार की जीत उसके लिए इतनी आसान नहीं है। लेकिन भाजपा की ओर से दावा किया जा चुका है कि तीसरी बार भी केंद्र में भाजपा आ रही है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही एक बार फिर प्रधानमंत्री बनेंगे। आगामी सभी चुनावों में जीत सुनिश्चित करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा, कई बड़े नेता और मंत्री लगातार बैठकें कर रहे हैं। जनता के बीच जाने का सिलसिला भी जारी हो चुका है।

आरोप हैं कि विपक्षी दलों को बदनाम करने, आरोपित करने और विपक्ष के मज़बूत नेताओं, सांसदों, विधायकों को डराने-धमकाने का काम भाजपा अंदर-ही-अंदर कर रही है। परन्तु भाजपा के गिरते वोट बैंक को वापस लाने की कोशिश में भाजपा नेता जितनी शिद्दत से लगे हैं, उतनी ही शिद्दत इस आख़िरी बड़ी जीत के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी लग गया है। लखनऊ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के द्वारा बैठक करना इसका एक प्रमाण है। लोकसभा चुनाव 2024 को प्रधानमंत्री मोदी की जीत का आख़िरी चुनाव इसलिए कहना उचित है, क्योंकि अमित शाह समेत कई बड़े भाजपा नेता संकेत दे चुके हैं कि 2024 के बाद देश में चुनाव नहीं होंगे। इसके अतिरिक्त प्रधानमंत्री मोदी की उम्र को देखकर भी यही माना जा रहा है कि 2024 का चुनाव उनके लिए आख़िरी लोकसभा चुनाव होगा। यह इसलिए, क्योंकि 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 75 साल के क़रीब हो जाएँगे और आगामी लोकसभा चुनाव अब सीधे 2029 में ही होगा और उस समय प्रधानमंत्री मोदी लगभग 80 साल के होंगे। ज़ाहिर है वह 80 साल में चुनाव लडऩा उचित नहीं समझेंगे। आगे क्या होगा, इसकी चिन्ता छोडक़र भाजपा की पूरी टीम जीत के लिए कोशिशों में जुलाई से ही जुटी हुई है। इसी के मद्देनज़र मध्य प्रदेश दौरे के बाद प्रधानमंत्री ने अपने आवास 28 जून को भी हाई लेवल बैठक की थी।

सूत्रों के मुताबिक, इस बैठक में 2023 के आख़िर में होने वाले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव को लेकर चर्चा हुई थी। परन्तु कुछ जानकार कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री ने इस बैठक में राज्यों के विधानसभा चुनावों के अतिरिक्त सभी नेताओं को 2024 के लोकसभा चुनावों में जीत की तैयारी में जी-जान से जुट जाने का आदेश दिया है। जिन नेताओं को बड़ी ज़िम्मेदारी दी गयी है, उनमें गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा, भाजपा के संगठन मंत्री बी.एल. संतोष जैसे क़द्दावर नेता हैं। जानकारों के मुताबिक, अगर ज़रूरत पड़ी, तो मोदी चुनावी तैयारियों के लिए संगठन में फेरबदल करने के मूड में हैं। संगठन में कई बदलाव होने के अतिरिक्त मंत्रिमंडल में भी चुनाव से पहले फेरबदल के संकेत हैं। राजनीति के कुछ जानकार प्रधानमंत्री मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ में मनमुटाव के दावे भी कर रहे हैं। योगी आदित्यनाथ प्रधानमंत्री बनने की चाह रखते हैं। परन्तु भाजपा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की जोड़ी उन्हें आगे आता नहीं देखना चाहती है। स्पष्ट है कि अगर कोई दूसरा चेहरा प्रधानमंत्री पद की दावेदारी करता है, तो प्रधानमंत्री मोदी के लिए यह एक बड़े झटके की तरह होगा।

हालाँकि अभी तक भाजपा में किसी भी नेता की यह हिम्मत नहीं हुई है कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कृपा के बिना चुनाव मैदान में उतर सके। इसलिए भाजपा ने दावा किया है कि मोदी एक बार फिर देश के प्रधानमंत्री बनेंगे। अगर यह दावा सही साबित हुआ, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के पहले ग़ैर-कांग्रेसी नेता होंगे, जो लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री चुने जाएँगे। परन्तु मोदी के लिए ये चुनाव पिछले चुनावों की तरह आसान नहीं हैं। जी20, चंद्रयान-3, सूर्य पर आदित्य का प्रक्षेपण, महिला आरक्षण और कई अन्य योजनाओं को भुनाने में लगी भाजपा को अब इंडिया (ढ्ढ.हृ.ष्ठ.ढ्ढ.्र.) गठबंधन से डर लगने लगा है। इसी डर के चलते प्रधानमंत्री मोदी संविधान में से इंडिया शब्द हटाने का निर्णय ले चुकी है। मगर विपक्ष के पास मोदी जैसा क़द्दावर नेता नज़र नहीं आ रहा है। राहुल गाँधी को उनके सामने का चेहरा माना जा रहा है, परन्तु विपक्षी गठबंधन ने अभी तक किसी चेहरे को प्रधानमंत्री मोदी के प्रतिद्वंद्वी के तौर पर जनता के सामने नहीं रखा है। कुछ जानकार विपक्षी गठबंधन के आपसी मतभेद के चलते कह रहे हैं कि इंडिया गठबंधन बहुत दिन तक नहीं रह सकेगा।

हालाँकि ऐसा लगता नहीं है और इस बार एनडीए के ख़िलाफ़ इंडिया गठबंधन कम मज़बूत नहीं है। पिछले समय में हुए गुजरात विधानसभा के चुनावों में 2019 प्रचंड जीत के बाद भाजपा नेता मोदी को अपराजेय मानने लगे हैं। परन्तु भाजपा इस एक जीत को बड़ा करके दिखा रही है, नहीं तो इसी दौरान हिमाचल को भाजपा ने ही गँवाया है। परन्तु प्रधानमंत्री मोदी का डर इतना ज़्यादा बढ़ गया है कि वह आगामी चुनाव में जीतकर एक बार फिर प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं। उन्होंने इस बार 15 अगस्त को लाल क़िले से साफ कहा कि वह अगली बार भी लाल क़िले से तिरंगा फहराने फिर आएँगे।

प्रधानमंत्री मोदी के इस बयान से राजनीतिक पार्टियों ने ढेरों प्रश्न खड़े कर दिये। अब प्रधानमंत्री मोदी वाराणसी दौरे पर पहुँचकर वहीं के निवासियों को कई योजनाओं के तोहफ़े दे रहे हैं। उन्होंने काशी संसद सांस्कृतिक महोत्सव में भी भाग लिया। पूरे उत्तर प्रदेश में बने 16 अटल आवासीय विद्यालयों का भी प्रधानमंत्री मोदी ने उद्घाटन किया।

राजनीति के जानकार मानकर चल रहे हैं कि प्रधानमंत्री मोदी का वाराणसी दौरा माँ गंगा से आशीर्वाद लेने के लिए है। विदित हो कि प्रधानमंत्री मोदी वाराणसी से ही सांसद हैं। तीसरी बार अगर वह प्रधानमंत्री बनते हैं, तो वह और ताक़तवर नेताओं में शुमार होंगे। जो लोग ये कह रहे हैं कि मोदी ही फिर से प्रधानमंत्री बनेंगे, वे केंद्र की सत्ता में फिर से मोदी के आने के लिए अभी से उनके लिए प्रार्थनाएँ कर रहे हैं। इन सब गतिविधियों को देखकर प्रधानमंत्री मोदी का सीना और चौड़ा हो जाता है। हालाँकि देश में मोदी के ख़िलाफ़ एक हवा चल रही है, जिसे लेकर वह चिन्तित भी हैं। परन्तु वह राजनीति में एक अपराजेय नेता की तरह हर चुनाव जीतकर इतिहास में अमर होने की चाह रखते हैं; जिसे पूरा करने के लिए ही वह सभी हथकंडे अपना रहे हैं।

सीटों के तालमेल पर जल्दबाज़ी में नहीं कांग्रेस

इण्डिया गठबंधन की चार बैठकों के बाद भी इस मुद्दे पर अस्पष्टता

जैसे-जैसे कांग्रेस का आत्मविश्वास लौट रहा है, वैसे-वैसे इण्डिया गठबंधन में सहयोगियों से उसकी सीट शेयरिंग का पेच फँसता और लम्बा खिंचता जा रहा है। सीट शेयरिंग पर तीन मुख्य बैठकों और समन्वय समिति की एक बैठक के बाद भी इण्डिया गठबंधन अभी तक लडऩे वाली सीटों का कोई फार्मूला नहीं ढूँढ पाया है। आम आदमी पार्टी, माकपा, सपा, टीएमसी जैसे दलों के साथ कांग्रेस की सीट वाली पटरी बैठना आसान नहीं है। कांग्रेस यदि इन दोनों दलों से समझौता करती है, तो पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और केरल ही नहीं, बंगाल जैसे राज्यों में उसे अपने कई मज़बूत दावे छोडऩे पड़ेंगे। कांग्रेस यह किसी सूरत में नहीं चाहती। ज़ाहिर है कांग्रेस बहुत सोच समझकर ही सीटों के गणित को अंतिम रूप देना चाहती है, ताकि उसका दबदबा कम न हो। कांग्रेस इस साल होने वाले पाँच विधानसभाओं के चुनाव नतीजों का इंतज़ार करना चाहती है, ताकि वह ज़्यादा ताक़त से सीटों की माँग कर सके।

हाल में सीट शेयरिंग को लेकर इंडिया गठबंधन की समन्वय समिति के 14 नेताओं की एनसीपी प्रमुख शरद पवार के आवास पर बैठक हुई थी। लेकिन जानकारी के मुताबिक, सीट शेयरिंग को लेकर इण्डिया गठबंधन के भीतर बहुत बखेड़े हैं। क्षेत्रीय दल कांग्रेस को बहुत ज़्यादा ताक़त नहीं देना चाहते; क्योंकि वो महसूस करते हैं कि यदि कांग्रेस का उभार हुआ, तो इसकी सबसे ज़्यादा $कीमत उन्हें ही चुकानी पड़ेगी।

कांग्रेस महसूस कर रही है कि जनता में उसके प्रति रुझान बढ़ रहा है। आने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर भी कांग्रेस बहुत ज़्यादा आश्वस्त है। उसे मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के अलावा तेलंगाना में अपनी बेहतर सम्भावनाएँ दिख रही हैं। राजस्थान को लेकर तो हाल में राहुल गाँधी भी कह चुके हैं कि वहाँ मुक़ाबला होगा, भले वहाँ किसी के पक्ष में हवा न हो।

कांग्रेस की सबसे बड़ी दिक़्क़त आम आदमी पार्टी (आप) के साथ होने वाली है। वह पंजाब और दिल्ली में सत्ता में है और ज़्यादा सीटों का दावा कर रही है। कांग्रेस यूँ ही इन राज्यों को आम आदमी पार्टी को तश्तरी में रखकर किसी सूरत में नहीं देगी। इन दोनों राज्यों की कांग्रेस इकाइयाँ भी इस हक़ में नहीं है। ऊपर से आप नेता राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मैदान में उतरने के संकेत दे रहे हैं। कांग्रेस इससे बिफरी हुई है। यदि वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं की बात मानें, तो आम आदमी पार्टी पर कांग्रेस को ज़्यादा भरोसा नहीं। उधर आम आदमी पार्टी की स्थिति कम-से-कम राज्य विधानसभा स्तर पर आज भी मज़बूत दिखती है। आज चुनाव हो जाएँ, तो आम आदमी पार्टी को सत्ता से बाहर करना मुश्किल लगता है। लेकिन लोकसभा सीटों के स्तर पर ज़रूर यह स्थिति नहीं होगी।

कांग्रेस की समस्या माकपा के साथ भी आ रही है। माकपा केरल में सत्ता में है और अगले चुनाव में कांग्रेस वहाँ सत्ता में वापसी की जंग लड़ रही है। वहाँ उसकी सत्ता की लड़ाई है ही माकपा के साथ। दोनों एक-दूसरे के साथ समझौता नहीं कर सकते। कांग्रेस (यूपीए) ने वहाँ सन् 2019 के चुनाव में 20 में से 19 सीटें जीतकर माकपा का स$फाया कर दिया था। अब तो ख़ुद राहुल गाँधी केरल के वायनाड से सांसद हैं। ऐसे में वहाँ कांग्रेस और माकपा में सीटों का समझौता बहुत टेढ़ी खीर है।

हाल में माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने साफ़ कहा है कि उनकी पार्टी हर राज्य में गठबंधन नहीं करेगी। येचुरी ने कहा- ‘ज़रूरी नहीं कि जिन राज्यों में कांग्रेस से हमारी लड़ाई होती है, वहाँ गठबंधन किया जाए। इसलिए हर राज्य में गठबंधन नहीं करेंगे। उन राज्यों में गठबंधन नहीं होगा। हम तो यही कहेंगे कि हम जहाँ भी गठबंधन करेंगे ठोस परिस्थितियों के आधार पर करेंगे।’ अब केरल और पश्चिम बंगाल के अलावा माकपा का अन्य राज्यों में ज़्यादा आधार नहीं है। तो कांग्रेस को माकपा के साथ गठबंधन में क्या मिलेगा? ज़ाहिर है माकपा के साथ गठबंधन दूर की कौड़ी रहेगा।

राज्यों में पेच

इण्डिया गठबंधन में लड़ाई दिल्ली और पंजाब की ही नहीं। बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में भी है और अच्छी-ख़ासी है। उत्तर प्रदेश और बिहार में ऊपर जो शान्ति दिख रही है, वह भीतर नहीं है। इन सभी राज्यों में कांग्रेस ज़्यादा है और सबसे बड़ा कारण है कांग्रेस की राज्य इकाइयाँ जिनका मानना है कि पार्टी बेहतर कर सकती है। दिल्ली, पंजाब और हरियाणा में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की राज्य इकाइयाँ ख़तरनाक तरीक़े से एक-दूसरे से भिड़ी हुई हैं। हरियाणा में कांग्रेस को लग रहा है कि भाजपा-जजपा की गठबंधन खट्टर सरकार से जनता का मोह भंग हो चुका है और वह सत्ता में वापसी की उम्मीद कर रही है।

इन सभी राज्यों में कांग्रेस सबसे ज़्यादा उत्तर प्रदेश में कमज़ोर दिखती है। सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ़ एक सीट मिली थी। उसके बाद विधानसभा के पिछले साल में कांग्रेस के हाथ कुछ नहीं आया। इसके बावजूद कांग्रेस उत्तर प्रदेश में 20 सीटों पर लडऩा चाहती है। इसका कारण सन् 2009 के चुनाव नतीजे हैं, जिनमें कांग्रेस को 22 सीटें मिली थीं। तब कांग्रेस अमेठी, रायबरेली, फ़र्रुख़ाबाद, सुल्तानपुर, फ़ैज़ाबाद, कानपुर, अकबरपुर, बहराइच, बाराबंकी, मुरादाबाद, बरेली, धौरहरा, डुमरियागंज, गोंडा, झाँसी, खीरी, कुशीनगर, महाराजगंज, प्रतापगढ़, श्रावस्ती और उन्नाव जीत गयी थी। भले कहा जाए कि उसके बाद काफ़ी कुछ बदल चुका है, कांग्रेस इन सीटों पर उलटफेर तो कर ही सकती है। हालाँकि समाजवादी पार्टी कभी को नहीं चाहेगी कि कांग्रेस को इतनी सीटें देकर ख़ुद को ही वह कमज़ोर कर ले। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में दलित नेता चंद्रशेखर रावण और रालोद नेता जयंत सिंह को साथ ला सकती है।

बिहार की बात करें, तो वहाँ भी पेच जबरदस्त उलझा हुआ है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 25 सितंबर को राजद नेता लालू प्रसाद यादव के साथ गुप्त बैठक की। यही नहीं, नीतीश ने मंत्रिमंडल की बैठक भी की। इससे पहले 02 सितंबर को भी वह लालू से मिले थे। ज़ाहिर है सीटों पर उनकी बात हुई होगी। यह चर्चा भी तेज़ है कि राजद-जद(यू) एक हो सकते हैं। कांग्रेस बिहार में ख़ुद को ज़्यादा सीटों का हक़दार मानती है। बिहार कांग्रेस अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह कह चुके हैं कि बिहार में कांग्रेस की स्थिति बेहतर है। उनके दावे का आधार यह भी है कि पिछले लोकसभा चुनाव में विपक्ष से एक ही प्रत्याशी जीता था और वह कांग्रेस का था। कांग्रेस बिहार में कम-से-कम 9-10 सीटों पर लडऩा चाहती है। लालू यादव और और नीतीश कुमार के अलावा बिहार में वाम दलों का भी दावा है। महागठबंधन में पहले से ही कुछ छोटे दल भी हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन यानी सीपीआई एमएल बिहार महागठबंधन में सात सीटें माँग सकती है। ऐसे में कांग्रेस कैसे ज़्यादा सीटों का रास्ता निकालेगी? यह दिलचस्प होगा।

कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने जहाँ 7 सितंबर, 2022 से 30 जनवरी, 2023 तक 4080 किलोमीटर की भारत जोड़ो यात्रा में पैदल यात्रा की थी; कांग्रेस को लगता है कि उसके प्रति जनता में स्वीकार्यता बढ़ी है। इनमें महाराष्ट्र भी है। कांग्रेस का मानना है कि अब उसका सीटों का हिस्सा एनसीपी और शिवसेना (यूटी) की टक्कर का होना चाहिए। कांग्रेस की इस माँग के पीछे ज़मीनी तर्क भी है; क्योंकि हाल के महीनों में एनसीपी और शिवसेना के कई विधायक टूटकर भाजपा में जा चुके हैं। कांग्रेस ख़ुद को टूट से बचाने में सफल रही है। पिछले चुनाव में शिवसेना ने 18, एनसीपी ने चार सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस ने सिर्फ़ एक सीट जीती थी। लेकिन निश्चित ही परिस्थितियाँ अब बदल चुकी हैं। बंगाल इण्डिया गठबंधन के लिए अगला मुश्किल राज्य है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अधीर रंजन चौधरी, जो पार्टी के लोकसभा में नेता भी हैं; ने 25 सितंबर को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की आलोचना की थी। वह किसी भी सूरत में ममता के साथ नहीं जाना चाहते। ममता कांग्रेस को साथ लेने को तो तैयार हैं; लेकिन वाम दलों को किसी सूरत में नहीं। इस साल हुए दो विधानसभा उपचुनावों में एक बार कांग्रेस और एक बार टीएमसी जीत चुकी है।

कांग्रेस पंजाब में भी आम आदमी पार्टी के सामने खड़ी दिखती है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अमरिंदर सिंह राजा वडिंग ही नहीं, विधानसभा में पार्टी के नेता प्रताप सिंह बाजवा भी आप से गठबंधन के सख़्त ख़िलाफ़ हैं। वडिंग पहले ही आलाकमान को संदेश दे चुके हैं कि प्रदेश इकाई की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कोई फ़ैसला न किया जाए। पार्टी के एक और क़द्दावर नेता नवजोत सिंह सिद्धू भी आम आदमी पार्टी के साथ जाने के ख़िलाफ़ दिखते हैं। आम आदमी पार्टी की पंजाब इकाई और मुख्यमंत्री भगवंत मान भी कह चुके हैं कि पार्टी अकेले लडऩा और जीतना जानती है। पिछले साल के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को 42.3 फ़ीसदी, जबकि कांग्रेस को 23.1 फ़ीसदी वोट मिले थे। वहीं सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 40.6 फ़ीसदी वोट शेयर के साथ लोकसभा की आठ सीटें मिली थीं; जबकि आम आदमी पार्टी को महज़ एक सीट।

हार का भय, जीत का प्रयास 

भारतीय जनता पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव राम मंदिर के उद्घाटन, महिला आरक्षण एवं सनातन धर्म को लेकर जीतना चाहती है। मगर इतने पर भी भारतीय जनता पार्टी को भय है कि वो कहीं चुनाव हार न जाए। इसका कारण बीते दिनों हुए घोसी विधानसभा के उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी की करारी हार है। चर्चा छिड़ गयी है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का उत्तर प्रदेश में प्रभाव कम हो गया है।

मगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत की ओर से लखनऊ में अकस्मात बुलायी गयी समन्वय बैठक में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की विशेष उपस्थिति कुछ और ही संकेत कर रही है। चर्चा है कि योगी आदित्यनाथ अब और अधिक शक्तिशाली होंगे। मगर इसके लिए उन्हें लोकसभा, विधानसभा एवं पंचायती राज तक उत्तर प्रदेश की हर स्तर की सत्ता को बचाकर रखना होगा। 

लोगों की धारणा

भारतीय जनता पार्टी के योगी समर्थक कार्यकर्ता उमेश गंगवार कहते हैं कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का प्रभाव कम नहीं हुआ है। एक सीट उपचुनाव में किसी के जीतने से सत्ता का निर्णय नहीं हो जाता। आगामी लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की प्रचंड बहुमत से जीत होगी एवं केंद्र में दोबारा भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनेगी।

मगर समाजवादी समर्थक योगेंद्र सिंह कहते हैं कि मुख्यमंत्री योगी के कार्यों से जनता सन्तुष्ट नहीं है। उन्हें बुलडोजर चलवाने के अतिरिक्त कुछ नहीं आता। उनके कार्यकाल में विकास शून्य रहा है। जिधर देखो सारी सडक़ें टूटी पड़ी हैं; मगर वाहनों के चालान तीव्रता से हो रहे हैं। हर वस्तु महँगी होती जा रही है। बिजली से लेकर यात्रा किराया तक बेहिसाब बढ़ाया हुआ है। रोडवेज बसों का किराया मुख्यमंत्री के साढ़े छ: साल के कार्यकाल में दोगुने के आसपास पहुँच चुका है। लोगों के पास काम नहीं है। पाँच किलो राशन देकर उसका प्रचार इतना किया जा रहा है कि राशन से अधिक व्यय विज्ञापनों पर हो रहा है। कोई ऐसा समाचार पत्र नहीं है, जिसमें हर दिन योगी सरकार का विज्ञापन न दिखता हो।

वहीं निष्पक्ष बात करने वाले विनोद कुमार कहते हैं कि हमने राज्य में तीन पार्टियों की सरकारें देखी हैं- मायावती की, अखिलेश की एवं आदित्यनाथ की। अगर सही एवं निष्पक्ष समीक्षा की जाए, तो सभी के शासनकाल में कुछ अच्छा एवं कुछ बुरा हुआ है। मायावती के शासन में क़ानून व्यवस्था दुरुस्त थी। जीटी रोड को चौड़ा करने का कार्य आरम्भ हुआ। सडक़ों की व्यवस्था ठीक हुई।

लोगों को नौकरियाँ मिलने लगीं। मगर वहीं नौकरियों में पक्षपात किया गया। एक स$फाईकर्मियों के पदों पर अवश्य जातियों के लोगों को भर्ती करने का खुला निमंत्रण रहा। वहीं मायावती ने अपनी एवं हाथी की मूर्तियाँ लगवायीं। घोटाले भी हुए। अखिलेश के शासन में जीटी रोड का शेष कार्य में शीघ्रता लायी गयी। सडक़ों का अधूरा कार्य पूरा हुआ। पुल बने। असिंचित क्षेत्रों में सिंचाई व्यवस्था करने का कार्य हुआ। मगर वहीं क़ानून व्यवस्था बिगडऩे लगी। भर्तियों में घपला हुआ। (कथित रूप से) भ्रष्टाचार बढ़ा।

अब योगी के शासन में बड़े-बड़े दबंगों पर कार्रवाई हुई। हिन्दुत्व को बल मिला। राम मन्दिर बन रहा है। ज्ञानवापी, मथुरा में मस्जिद जैसे मुद्दे उठे। कई जनपदों एवं जगहों के नाम बदले गये। मगर अपराध बढ़े, भारतीय जनता पार्टी पक्ष के अपराधी खुलेआम अपराध करने लगे। न के बराबर भर्तियाँ हुईं। सरकारी कर्मचारी दु:खी हो रहे हैं। युवा दु:खी हो रहे हैं। बेटियों की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। केवल बयानों में योगी शोहदों के धमका देते हैं; मगर अपराध नहीं रुक रहे। महँगाई बहुत बढ़ी है। सरकार की कमियाँ बताने एवं सरकार के विरुद्ध बोलने वालों को सज़ा मिलती है। पुलिसकर्मी मनमानी कर रहे हैं। सडक़ें गड्ढायुक्त हो चुकी हैं। आत्महत्या के मामले बढ़े हैं। किसानों तक के चालान कटने लगे हैं।

क्या योगी पर है संघ की कृपा?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत के लखनऊ में समन्वय बैठक करने से उत्तर प्रदेश की राजनीति अचानक गरमा गयी है। लखनऊ में हुई बैठक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं भारतीय जनता पार्टी के बीच क्या मंत्रणा हुई, इसे लेकर तरह तरह के कयास ही लग रहे हैं।

समाजवादी पार्टी, कांग्रेस, राष्ट्रीय लोक दल, बहुजन समाज पार्टी एवं अन्य पार्टियों के कान खड़े हो गये हैं। सभी पार्टियों के नेता ये जानना चाह रहे हैं कि इस बैठक में क्या मंत्रणा हुई? मगर असल बात किसी को नहीं पता चल पा रही है। अपुष्ट सूत्रों की मानें, तो यही कहा जा रहा है कि आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर कमर कसी गयी है। मगर कुछ सूत्र यह भी कह रहे हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख योगी आदित्यनाथ को भविष्य में कुछ बड़ा देने वाले हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं उनके निकटतम लोगों की इस अहम बैठक से दूरी से तो कुछ ऐसा ही लगता है।

भागवत की बैठक में मोदी नहीं!

लोगों को आशंका है कि कहीं योगी आदित्यनाथ को अगले प्रधानमंत्री के तौर पर तो नहीं देखा जाने लगा है? हालाँकि ऐसी कोई चर्चा अभी कहीं नहीं है। मगर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के समर्थक कई वर्षों से चुपके-चुपके इस प्रकार की चर्चा अवश्य करते दिख जाते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद केंद्र का शासन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के हाथों में ही जाएगा। मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थक भी उत्तर प्रदेश में कम नहीं हैं, जो स्पष्ट कहते हैं कि योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के लिए ही उपयुक्त हैं, केंद्र की सत्ता सँभालने की योग्यता केवल और केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में ही है।

उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के इन दो गुटों में अंदर-ही-अंदर टूट पड़ी हुई है। इस टूट को अब और बल मिल गया है। इसका कारण यह है कि इधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक प्रमुख मोहन भागवत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एवं उनके कुछ विश्वसनीय लोगों के साथ बैठक की; मगर  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बैठक में नहीं दिखे। वह भागवत की लखनऊ में उपस्थिति के समय ही वाराणसी पहुँच गये।

कहा जा रहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत की बैठक में क्या कुछ हो रहा है? इसका पता लगाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी के दाहिना हाथ माने जाने वाले देश के गृह मंत्री अमित शाह की इस बैठक पर पैनी दृष्टि रही। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस अहम बैठक से दूरी अवश्य बनाए रखी, मगर बैठक की गतिविधियों के भेद न लें, ऐसा नहीं हो सकता। सम्भवत: इसीलिए वह वाराणसी पहुँचे हों। कुछ लोग कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री को अभी किसी से कोई डर नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने वाराणसी में क्रिकेट स्टेडियम के आधारशिला रखी। महिलाओं की सभा को संबोधित किया; उनसे संवाद किया। महिला आरक्षण विधेयक पास होने की बधाई दी। संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में जनसभा को संबोधित किया। अटल आवासीय विद्यालयों का उद्घाटन किया। अपनी उपलब्धियाँ गिनायीं और चलते बने।

वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कार्यक्रम तीन घंटे का था, मगर उसे कार्यक्रमों की सूची को देखते हुए पूर्व में ही बढ़ाकर छ: घंटे का कर दिया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वाराणसी पहुँचने से एक दिन पहले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने वाराणसी में बने लाल बहादुर शास्त्री हवाई अड्डे के विस्तारीकरण के लिए 550 करोड़ रुपये के बजट को स्वीकृति दी। 

अनसुलझे प्रश्न

लखनऊ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत की उपस्थिति के बीच वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पहुँचना एवं अपने कार्यक्रमों को निपटाकर लौट आना, एक अनसुलझी गुत्थी बन गये हैं। प्रश्न उठ रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत से क्यों नहीं मिले? इसे लेकर लोग तरह तरह की बातें कर रहे हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के समर्थक इसे अपने इस प्रिय नेता के लिए सुनहरे भविष्य की आहट के रूप में देख रहे हैं एवं मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे हैं।

राजनीति में रुचि रखने वाले लोग अभी इस तरह की चर्चाओं को विश्वासपूर्ण दृष्टि से नहीं देख रहे हैं। उनका मानना है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध अभी नहीं दिख रहे हैं। अभी हर हाल में वह 2024 में तीसरी बार भी केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनाने की सोच को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। अगर भारतीय जनता पार्टी 2024 में सत्ता में आयी, तो भी कम-से-कम 2029 में योगी आदित्यनाथ केंद्र के लिए चुने जा सकते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी यह बात अच्छी तरह जानते हैं एवं उनकी तैयारियाँ भी उसी तरह की हैं। ये लोग ऐसा भी कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ में मनमुटाव रहता है, जिसके चलते उनके समर्थक भी बँटे हुए दिखते हैं। योगी आदित्यनाथ अगर आज उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, तो यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत की कृपा से हैं।

जो भी हो, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख की ओर से लखनऊ में बुलायी गयी समन्वय बैठक बेहद अहम मानी जा रही है। विपक्षी पार्टियाँ इसे लेकर सकते में हैं। उधेड़बुन यह है कि आगामी चुनाव में ज़मीनी स्तर पर भारतीय जनता पार्टी एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता मिलकर कार्य कर सकते हैं। उनकी संख्या बढ़ायी जानी भी तय है। इस बार महिलाओं को भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में जोड़ा जाएगा। इसे ध्यान में रखते हुए उत्तर प्रदेश के सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव को कमर कस लेनी चाहिए।

विदेशी रिश्तों में कड़वाहट

सार्वजनिक रूप से राजनीतिक लड़ाई में उलझे भारत और कनाडा

भारत की अध्यक्षता में दिल्ली में आयोजित जी20 शिखर सम्मेलन के आयोजन के दौरान केंद्र सरकार ने देश को यह संदेश दिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वजह से भारत के विदेशी सम्बन्ध बहुत मज़बूत और अच्छे हो रहे हैं, और भारत का डंका पूरी दुनिया में बज रहा है। लेकिन जी20 में हिस्सा लेने कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो, जो कि निजी विमान ख़राब होने की वजह से दो दिन ज़्यादा भारत में ही रुके रहे; जैसे ही अपने देश कनाडा पहुँचे, भारत से रिश्ते ख़राब होने लगे। उनके कनाडा पहुँचते ही कनाडा ने भारत के साथ व्यापार समझौते पर बातचीत रोक दिया। कनाडा के वाणिज्य मंत्री मैरी एनजी के प्रवक्ता ने यह जानकारी देते हुए कहा कि कनाडा भारत से द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते पर बातचीत रोक रहा है।

यह सब कनाडा के वैंकूवर में तथाकथित खालिस्‍तानी सिख नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्‍या के बाद हुआ। कनाडा ने इस हत्या का आरोप भारत पर लगाते हुए भारतीय राजनयिक को निष्कासित कर दिया, जिसके बाद भारत ने भी कनाडा के राजनयिक को निष्कासित कर दिया। दोनों देशों द्वारा एक-दूसरे के राजनयिकों के निष्कासन से झगड़ा और बढ़ गया है। एनएसडीएल के मुताबिक, अगस्त 2023 के अंत में भारतीय बाज़ारों में कनाडा का 1.77 लाख करोड़ रुपये का निवेश था और इसमें से इक्विटी बाज़ारों में 1.5 लाख करोड़ रुपये का निवेश था।

सिख नेता की हत्या से बढ़े कूटनीतिक और राजनीतिक टकराव से साल के अंत तक सम्पन्न होने वाले एफटीए यानी मुक्त व्यापार समझौते सहित बढ़ते आर्थिक सम्बन्ध ख़राब हो गये हैं। भारतीय कम्पनियों में कनाडा के भारतीय मूल के नागरिकों के पेंशन फंड, बैंकिंग जमा, रियल एस्टेट और इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में निवेश है। यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि कनाडा सिख बहुल है, जिसके चलते हमेशा माना जाता रहा है कि कनाडा में भारत का दबदबा बहुत है। इसके साथ ही कनाडा से भारत को काफ़ी ज़्यादा आय भी होती है; क्योंकि पंजाब से लाखों की संख्या में सिख कनाडा में बसे हुए हैं। लेकिन सिख नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या से कनाडाई सिख तो भारत सरकार से नाराज़ दिख ही रहे हैं, पंजाब में भी इसका असर दिख रहा है। भारत सरकार के इस क़दम से पंजाब की राजनीति में हडक़ंप मच गया है। अकाली नेता सुखबीर सिंह बादल ने कनाडा के साथ भारत के रिश्तों को लेकर प्रधानमंत्री मोदी को पत्र भी लिखने के अलावा गृह मंत्री अमित शाह से मुला$कात की है।  

अब दोनों देशों के राजनयिक सम्बन्ध बिगडऩे से भारत सरकार ने कनाडा में रह रहे अपने नागरिकों को सुरक्षा के ख़तरे की चेतावनी देते हुए ज़्यादा सावधानी बरतने को कहा है। भारत सरकार के विदेश मंत्रालय की तरफ़ से जारी की गयी एक एडवाइजरी में कहा गया है कि कनाडा में रह रहे भारतीय नागरिकों को सतर्क रहना चाहिए, विशेष रूप से छात्रों को सतर्क रहना चाहिए। कनाडा में रहने वाले भारतीयों की संख्या काफ़ी ज़्यादा है। हर साल यहाँ से हज़ारों लोग कनाडा जाते हैं, जिनमें छात्र शामिल हैं।

कनाडा में अप्रवासी भारतीयों की एक बड़ी संख्या है, जो व्यापार, नौकरी के पेशे से जुड़े हैं। कनाडा में बसे भारतीयों की वजह से दोनों देशों के बीच कई दशकों से मज़बूत आर्थिक और निवेश सम्बन्ध रहे हैं, जो लगातार गहरे होते रहे हैं। लेकिन कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की तरफ़ से भारत पर लगाये आरोप और भारत के राजनयिक को हटाने के फ़ैसले से इन रिश्तों में कड़वाहट आयी है। बता दें कि सिख नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या को लेकर ट्रूडो ने आरोप लगाते हुए कहा- ‘भारत सरकार ने एक प्रमुख सिख अलगाववादी नेता की हत्या की साज़िश रची है।’ ट्रूडो के इस आरोप के बाद भारत ने सफ़ाई दी। लेकिन भारत कनाडा में मतभेद बढ़ गये और अब सार्वजनिक रूप से दोनों देश झगड़ रहे हैं। अमेरिका इसमें अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंक रहा है।

विदित हो कि भारत और कनाडा के सम्बन्ध हरदीप सिंह निज्जर की हत्या से ही ख़राब नहीं हुए हैं; इससे पहले जब जून, 2023 में ब्रिटेन में खालिस्तान लिबरेशन फोर्स के प्रमुख अवतार सिंह खांडा की रहस्यमयी मौत हुई थी, तब सिख अलगाववादी नेताओं ने कहा था कि खांडा को ज़हर देकर मारा गया। अलगाववादी सिख संगठनों ने इसे टारगेट किलिंग कहते हुए आरोप लगाया कि भारत सरकार सिख अलगाववादी नेताओं को मरवा रही है। वहीं भारत सरकार ने उस समय लगे इन आरोपों को लेकर अब तक कुछ नहीं कहा है।

दरअसल, भारत में सिखों की आबादी महज़ दो प्रतिशत है। इसमें से भी कनाडा में बसने वाले भारतीय सिखों की संख्या चार प्रतिशत से ज़्यादा है। भारत सरकार का आरोप है कि कनाडा, ब्रिटेन और अमेरिका में रहकर कई सिख संगठन भारत विरोधी गतिविधियाँ चला रहे हैं। कनाडा में खालिस्तान समर्थक आन्दोलन इतना मुखर है कि सिखों के लिए अलग खालिस्तान देश को लेकर कई बार माँग उठ चुकी है। इससे भारत और कनाडा के बीच मज़बूत रिश्ते होते हुए भी हल्की कड़वाहट भरे थे, जो सिख नेता निज्जर की हत्या के बाद पूरी तरह कड़वाहट से भर गये। इस घटना का असर इतना हुआ कि आस्ट्रेलिया में स्थित स्वामीनारायण मंदिर के गेट पर खालिस्तान समर्थन में एक झण्डा लटका दिया गया। यह ख़बर ऑस्ट्रेलिया टुडे अख़बार ने दी।

मीडिया में आयी ख़बरों में कहा गया कि इस बार भी जब जी20 शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने ट्रूडो दिल्ली पहुँचकर मोदी से मिले, उसी दिन कनाडा के वैंकूवर में सिख नेताओं ने भारत से पंजाब को अलग करने के लिए एक जनमत संग्रह कराया। प्रधानमंत्री मोदी ने सिख नेताओं की इस गतिविधि पर खुलकर नाराज़गी जतायी और कनाडा में सिख संगठनों द्वारा भारत विरोधी गतिविधियों पर एतराज़ जताया, जिसके बाद से भारत और कनाडा के रिश्तों में कड़वाहट बढऩी शुरू हो गयी।

सम्मेलन के दौरान ट्रूडो आधिकारिक अभिवादन के दौरान भी कुछ नाराज़ से दिखे। मीडिया ने यहाँ तक दावा किया कि प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रूडो से कहा कि खालिस्तानी समर्थक तत्त्व भारतीय राजनयिकों और भारतीय दूतावासों पर हमले के लिए लोगों को भडक़ा रहे हैं। कनाडा उन्हें रोक पाने में नाकाम रहा है।

मीडिया ने यहाँ तक दावा किया कि कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने कहा- ‘कनाडा हमेशा ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शान्तिपूर्ण प्रदर्शनों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करेगा। ये ऐसी चीज़ है, जो कनाडा के लिए बहुत अहम है। कनाडा उस समय हिंसा को रोकने, नफ़रत को कम करने के लिए भी हमेशा उपलब्ध हैं। ये भी याद रखा जाना चाहिए कि कुछ लोगों की गतिविधियाँ समूचे कनाडाई समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं।’

लेकिन सही ख़बर यह है कि भारत के कनाडा में खालिस्तानी गतिविधियाँ चलने की बात पर ट्रूडो ने भारत पर कनाडा की घरेलू राजनीति को प्रभावित करने का आरोप लगाया। कुछ जानकारों का मानना है कि कनाडा के प्रधानमंत्री जब तक ट्रूडो हैं, तब तक हालात ठीक नहीं हो सकते। ट्रूडो ने इसे निजी मुद्दा बना लिया है, जिसकी वजह उनका वोट बैंक है। अगर वह खालिस्तानी समर्थक सिख संगठनों का विरोध करते हैं, तो उनकी कुर्सी जानी तय है। ट्रूडो खुद को बैकफुट पर देख रहे हैं, इसलिए वह भारत के ख़िलाफ़ मुखर हो चुके हैं।

अर्थव्यवस्था पर होगा असर

भारत और कनाडा के बिगड़ते राजनयिक रिश्तों से दोनों देशों की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा। अगर भारत सरकार के विदेश मंत्रालय की सलाह को मानकर कनाडा में रह रहे भारतीयों ने फ़ैसला लिया, तो कनाडा की अर्थव्यवस्था को नुक़सान होगा। लेकिन इससे भारत को भी नुक़सान होगा; क्योंकि कनाडा से भारत को जो पैसा भारतीय व्यापारियों और वहाँ रहकर नौकरी करने वालों के माध्यम से प्राप्त होता है, उसमें कमी आना तय है।

इसके अलावा भारत की कम्पनियों में कनाडा के भारतीय मूल के सिखों का निवेश कम हो सकता है। इसके अलावा दोनों देशों की पर्यटन से होने वाली आमदनी कम होगी। वहीं जो छात्र भारत से कनाडा पढऩे जाते हैं, उन पर बुरा असर पड़ेगा। हाल ही में कनाडा और भारत के बिगड़ते सम्बन्धों को लेकर कहा जा रहा है कि कनाडा में पढ़ाई कर रहे भारतीय छात्र घबराये हुए हैं।

किन देशों से बिगड़े रिश्ते?

भारत के रिश्ते कनाडा से बिगडऩे के बीच यह देखना ज़रूरी है कि कितने देश ऐसे हैं, जो भारत से दुश्मनी रखते हैं; और कितने देश ऐसे हैं, जो भारत के साथ दोहरी कूटनीतिक चाल चल रहे हैं। भारत के खुले दुश्मनों में चीन, पाकिस्तान, मलेशिया, तुर्की और इंडोनेशिया हैं। वहीं भारत के छिपे हुए दुश्मनों की संख्या इससे कहीं ज़्यादा है। इन छिपे हुए दुश्मनों में कई ऐसे देश हैं, जिनके साथ अच्छे सम्बन्ध होने का प्रधानमंत्री मोदी दावा करते हैं।

दरअसल इन देशों से पिछले कुछ वर्षों में भारत के रिश्ते बिगड़े हैं। प्रधानमंत्री मोदी की ताबड़तोड़ विदेश यात्राओं और विदेशी नेताओं से लगाव के बावजूद रिश्ते बिगड़े हैं; भले ही भारत सरकार इसे स्वीकार न करे। इन देशों में श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश और अफ़गानिस्तान जैसे पड़ोसी देश तो शामिल हैं ही, अमेरिका, इजराइल, रूस और जापान जैसे डिप्लोमैटिक देश भी शामिल हैं।

नक़ली और घटिया दवाओं का कहर

आजकल जेनेरिक दवाओं का प्रचार-प्रसार तेज़ी से हो रहा है। तक़रीबन तीन-चार साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ुद जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा देने की पहल की थी। इसकी वजह ग़रीबों को सस्ती दवाएँ उपलब्ध कराना है। इसके लिए केंद्र की मोदी सरकार ने जन औषधि केंद्र भी खोले। लेकिन अब कुछ शिकायतें आ रही हैं कि जेनेरिक दवाओं से जल्दी फ़ायदा नहीं हो रहा है। जेनेरिक दवाओं पर मूल्य पूरे पड़े हैं; लेकिन इनमें असली दवाओं की अपेक्षा क्षमता कम होती है और इनके दाम सामान्य दवाओं की तरह ही होते हैं, जिन पर छूट देकर उन्हें बेचा जाता है। इससे लोगों को लगता है कि उन्हें दवा सस्ती मिल गयी।

यह तो सामान्य-सी जानकारी है, जो लगभग सभी के पास है। असल मामला नक़ली और घटिया दवाओं का है। भारत में कई मेडिकल स्टोर वाले इन्हीं जेनेरिक दवाओं को असली दवाओं के रेट से बेच रहे हैं। दवा ख़रीदने वालों को पता ही नहीं चल पाता कि उनके साथ क्या धोखा हो रहा है। दरअसल सामान्य दवाओं पर ही मेडिकल स्टोर वालों को 15 से 45 प्रतिशत का फ़ायदा होता है। लेकिन और ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के लालची कुछ मेडिकल वाले असली यानी ब्रांडेड दवाओं के नाम पर जेनेरिक या फिर दूसरी कम्पनियों की दवाएँ मरीज़ों को थमा रहे हैं, जिसके चलते मरीज़ों को फ़ायदा नहीं होता और मेडिकल स्टोर चलाने वाले चाँदी कूट रहे हैं।

इस तरह की मेडिकल वाले की हरकत को लेकर डॉक्टर सुधांशु ने अपने एक ताज़ा अनुभव को साझा किया। डॉक्टर सुधांशु ने बताया कि मैंने एक खाँसी-जुकाम से पीडि़त मरीज़ को, जो कि पहले से ही अस्थमा का मरीज़ था मोंट एयर टेबलेट लिखी। लेकिन मेडिकल वाले ने उसे जेनेरिक मोंट एयर थमा दी और उससे सिप्ला की मोंट एयर के दाम वसूल कर लिये। मरीज़ ने पाँच दिन वो दवा खायी; लेकिन उसे कोई आराम नहीं मिला। जब वो दोबारा मेरे पास आया, तो उसने बताया कि उसे कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हो रहा है। मुझे हैरानी हुई कि ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने उसकी बीमारी का सही पता लगाने के लिए उसके चेकअप कराये; लेकिन उनमें कुछ ऐसा ख़ास नहीं था। फिर मैंने उससे कहा कि दवा लेकर मुझे दिखा देना। मरीज़ जब मेरे पास दवा लेकर आया, तो मैं हैरान था। उसके पास सारी दवाएँ जेनेरिक थीं। मैंने उससे कहा कि मेडिकल वाले के पास जाकर दवा वापस कर दो और मेरी बात करा देना। जब मरीज़ मेडिकल वाले के पास पहुँचा, तो वह मरीज़ को समझाने लगा कि दवा बिलकुल ठीक है, बस कम्पनी का फ़र्क़ है। जब मरीज़ ने कहा कि मेरे डॉक्टर से बात कीजिए, तो वह बात करने को राज़ी नहीं हो रहा था। जैसे-तैसे उसने मुझसे बात की, जब मैंने उससे कहा कि आप ओरिजनल कम्पनियों की दवा दीजिए, तो वह थोड़ी-बहुत आनाकानी करते हुए बोला ठीक है। मरीज़ मेरे पास दवा लेकर आया, मैंने दवा देखी और ठीक है कहकर मरीज़ को घर भेज दिया। तीन दिन में मरीज़ को 80 प्रतिशत फ़ायदा हो गया।

डॉक्टर सुधांशु ने बताया कि दरअसल जेनेरिक दवाओं को सरकार ने 40 प्रतिशत रेट पर बेचने की बात कही थी। इसके लिए सरकार ने अलग से जन औषधि केंद्र भी खोले। अब वही दवाएँ कई छोटी दवा कम्पनियाँ बनाने लगी हैं और मेडिकल वालों को ये जेनेरिक दवाएँ 15 से 22 प्रतिशत रेट पर मिलती हैं। इस तरह मेडिकल वालों को इन दवाओं को पूरे रेट पर बेचने पर 85 से 78 प्रतिशत तक का फ़ायदा दिखता है। लेकिन वे भूल जाते हैं कि वे अपने लालच में मरीज़ों से खिलवाड़ कर रहे होते हैं।

आज पूरी दुनिया के मरीज़ नक़ली और घटिया स्तर की दवाओं के शिकार हैं, जिसके कारण हर साल 20 प्रतिशत लोगों को डॉक्टर नहीं बचा पा रहे हैं। 55 प्रतिशत मरीज़ों की बीमारियाँ आसानी से ठीक नहीं हो रही हैं। एक अनुमान के मुताबिक, दवा बाज़ार में 85 प्रतिशत खपत जेनेरिक दवाओं के अलावा नक़ली और घटिया दवाओं की हो चुकी है। नक़ली और घटिया दवाओं के चलते दुनिया में हर साल क़रीब पाँच लाख लोग जान गँवा देते हैं। इस हालत में भारत में जेनेरिक दवाओं का प्रचार-प्रसार लोगों को सस्ती दवा उपलब्ध कराने के चक्कर में किया गया, ताकि लोगों को सस्ते इलाज से ख़ुशी मिल सके; लेकिन सवाल यह है कि इसका मरीज़ों को क्या फ़ायदा मिल रहा है? इलाज तो वैसे भी सस्ता होना ही चाहिए। अगर कम पॉवर की दवाएँ सस्ते में बेची जा रही हैं, तो इसमें मरीज़ों को कौन-सी राहत मिल गयी?

एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की 40 प्रतिशत आबादी तक अच्छी कम्पनियों की दवाओं की पहुँच नहीं है। इसकी वजह इनका बेहद महँगा होना है। जिस 40 प्रतिशत की बात यहाँ हो रही है, वह ग़रीब वर्ग है और उसकी प्रति व्यक्ति औसत आय 100 रुपये प्रतिदिन से भी कम है। जब भी इस वर्ग को कोई सामान्य बीमारी होती है, तो वह उस बीमारी की गोली या तो मेडिकल स्टोर से ख़रीदता है या फिर अपने क़रीब के झोलाछाप डॉक्टर से दवा लेता है, जिसके पास सैकड़े वाली छोटी कम्पनियों की दवाएँ होती हैं। एक बार में मरीज़ से 20 से 40-50 रुपये लेने वाला यह डॉक्टर भी क्या करे? अगर वह प्रामाणिक कम्पनियों की दवाएँ मरीज़ों को देगा, तो ग़रीब मरीज़ दवाओं के पैसे ही नहीं दे सकेंगे। यह ग़रीब और गाँवों के रहने वाले मरीज़ों की ही बात नहीं है, बल्कि क़रीब 15 प्रतिशत मरीज़ शहरों में भी इसी तरह मेडिकल स्टोर से दवा लेकर या छोटे या झोलाछाप डॉक्टरों से दवा लेकर अपनी बीमारियाँ ठीक करने की कोशिश करते हैं।

हालाँकि नक़ली और घटिया दवाएँ बेचने वालों को यह मालूम होना चाहिए कि भारत में ड्रग एंड कॉस्मेटिक (डी एंड सी) अधिनियम, 1940 की धारा-17, 17(ए) और 17(बी) के तहत ख़राब गुणवत्ता वाली दवाएँ बेचना दंडनीय अपराध है। ख़राब गुणवत्ता वाली दवाओं में ग़लत ब्रांड की दवाएँ, नक़ली दवाएँ और मिलावटी दवाएँ शामिल हैं। सन् 2008 के ड्रग एंड कॉस्मेटिक अधिनियम में संशोधन किया गया और भारतीय दवा नियामक प्राधिकरण, जो केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन है; ने नक़ली, अत्यधिक घटिया और छोटे-छोटे दोषों वाली नक़ली दवाओं को क्रमश: ए, बी और सी जैसी तीन कैटेगरी में रखा है। इसमें मानक गुणवत्ता वाले यानी एनएसक्यू उत्पादों को वर्गीकृत नहीं किया है। ए कैटेगरी में नक़ली और मिलावटी दवाएँ शामिल की गयी हैं। इसमें वो नक़ली दवाएँ शामिल की गयी हैं, जिन दवाओं पर दवा बनाने में इस्तेमाल किये गये घटकों को छिपाकर किसी प्रसिद्ध ब्रांड के समान घटक लिखे होते हैं, जिससे मरीज़ों के साथ धोखा होता है। बी कैटेगरी में अत्यधिक घटिया दवाएँ शामिल हैं।

इन दवाओं में टैबलेट या कैप्सूल के लिए सक्रिय संघटक थर्मोलेबल और थर्मोस्टेबल उत्पाद के लिए क्रमश: 70 प्रतिशत  और 5 प्रतिशत अनुमत सीमा से नीचे मिलता है। सी कैटेगरी में इमल्शन क्रैकिंग, फॉर्मूलेशन के रंग में बदलाव, शुद्ध सामग्री में छोटे बदलाव, अवसादन, दवा के वज़न में गड़बड़ी, परीक्षण फेल होना, दवा में मलिनकिरण और असमान कोटिंग, ग़लत लेबलिंग वाले मामूली दोषों वाली दवाओं को शामिल किया गया है। इतने पर भी नक़ली और घटिया दवाओं की बिक्री में भारत का$फी आगे है। इसकी वजह यह है कि भारत में दवाओं की सही पहचान मेडिकल सम्बन्धी पढ़ाई तो करायी जाती है; लेकिन आम लोग दवाओं की कोई ख़ास जानकारी नहीं रखते। इसके साथ-साथ कई डॉक्टर भी कमीशन और ज़्यादा कमायी के चक्कर में नक़ली और घटिया दवाएँ मरीज़ों को देने से नहीं हिचकते।

भारत जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा निर्माता है। वहीं दुनिया में क़रीब 25 प्रतिशत तक नक़ली, घटिया और दूषित दवाएँ आज बिक रही हैं। हालाँकि एक रिपोर्ट तो यहाँ तक दावा करती है कि आज दुनिया के मेडिकल बाज़ार में 30 से 40 प्रतिशत नक़ली, घटिया और दूषित दवाएँ बेची जा रही हैं। भारत में नक़ली और घटिया दवाओं से मौत के आँकड़े नहीं मिलते हैं; लेकिन चीन में हर साल 30 से 40 हज़ार लोग नक़ली और घटिया दवाओं के कारण जान गँवा देते हैं।

जनरल फिजिशियन डॉक्टर मनीष ने बताया कि ब्रांडेड दवाओं की पहचान की कमी और चंद लालची दवा विक्रेताओं, कुछ लालची डॉक्टरों की हरकत की वजह से मरीज़ों को घटिया या नक़ली दवाएँ उपलब्ध होती हैं, जिससे उनको लाभ न होने या कम लाभ होने के अलावा ख़तरा भी बना रहता है। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए और नक़ली या घटिया दवाओं के धंधे में लगे हुए लोगों को प्रतिबंधित करना चाहिए। यह डॉक्टरों की भी ज़िम्मेदारी है कि वो अपने मरीज़ों को ब्रांडेड और सही दवाएँ ही लेने को कहें। मरीज़ों को कुछ पता नहीं होता और वो अपने डॉक्टर पर भरोसा भी करते हैं, इसलिए उन्हें धोखे से बचाना डॉक्टर की ज़िम्मेदारी बनती है।

नक़ली दवाओं के बाज़ार को कम करने के लिए ही फार्मास्युटिकल विभाग, रसायन और उर्वरक मंत्रालय ने राज्य सरकारों के सहयोग से देश भर में जन औषधि अभियान शुरू किया था। लेकिन अब उन दवाओं की पहुँच सामान्य दवा विक्रेताओं तक भी होती जा रही है। जैसा कि डॉक्टर सुधांशु ने बताया कि उनके एक मरीज़ को मेडिकल स्टोर वाले ने जेनेरिक दवा ब्रांडेड दवा के रेट में बेच दी, जिससे मरीज़ को कोई आराम नहीं मिला। इसलिए केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों के ड्रग्स कंट्रोल विभागों को मेडिकल स्टोर वालों की जांच करने की ज़रूरत है। इसके साथ ही केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को भी नक़ली और घटिया दवाएँ बेचने और बनाने वालों के ख़िलाफ़ कड़े नियम बनाने की ज़रूरत है।

खेलों में भी चीन ने दिखाया ओछापन

रुणाचल के तीन खिलाडिय़ों को दिया स्टेपल वीजा, भारत को करनी चाहिए सख़्ती

चीन ने एक नक़्शा जारी कर एक महीना पहले भारत के राज्य अरुणाचल प्रदेश को अपना हिस्सा बताया था। अब उसने अरुणाचल के तीन खिलाडिय़ों को वीजा नहीं दिया, जिस कारण वे वहाँ के राज्य हांगझोऊ में चल रहे 19वें एशियाई खेलों में देश के अन्य खिलाडिय़ों के साथ नहीं जा सके। चीन एक के बाद एक विवाद खड़े करने का आदी रहा है। सीमा पर वह तनाव बनाये रखता है। ऐसे में बहुत-से भारतीय विशेषज्ञ भी मानने लगे हैं कि भारत चीन के साथ भी वैसी ही सख़्ती दिखाए, जैसी सख़्ती उसने कनाडा के ख़िलाफ़ वहाँ के प्रधानमंत्री द्वारा खालिस्तानी कार्यकर्ता की हत्या का आरोप लगाने के विरोध में दिखायी है।

वीजा न देने की चीन की इस हरकत का नुक़सान उन भारतीय खिलाडिय़ों को हुआ, जो पूरी तैयारी करने के बावजूद 19वें एशियाई खेलों में हिस्सा लेने से वंचित हो गये। चीन के इस क़दम पर भारत ने खेल मंत्री अनुराग ठाकुर को चीन न भेजकर विरोध ज़रूर दर्ज किया; लेकिन यह कोई पहली बार नहीं है, जब चीन ने ऐसा किया हो। भारत के तीन खिलाडिय़ों- तेगा ओनिलु, लामगु मेपुंग और वांगसू न्येमान को हवाई अड्डे से वापस लौटना पड़ा। वैसे चीन ने जब अरुणाचल प्रदेश के इन तीनों एथलीट्स को वीजा जारी नहीं किया, तो सोशल मीडिया पर चीन की ख़ूब निंदा हुई। इससे पहले 26 जुलाई को भी विश्व विश्वविद्यालय खेलों के लिए इन्हीं तीनों खिलाडिय़ों को चीन ने नत्थी (स्टेपल) वीजा जारी कर दिया था। विरोध में भारत सरकार ने पूरी वूशु टीम को ही एयरपोर्ट से वापस बुला लिया था। उस समय भी चीन को फ़ज़ीहत झेलनी पड़ी थी। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने इस मुद्दे पर चीन पर निशाना साधते हुए कहा- ‘भारत सरकार को पता चला है कि चीनी अधिकारियों ने पूर्व-निर्धारित तरीक़े से अरुणाचल प्रदेश के कुछ भारतीय खिलाडिय़ों को चीन के हांगझोऊ में होने वाले 19वें एशियाई खेलों में मान्यता और प्रवेश से वंचित करके उनके साथ भेदभाव किया है। भारत दृढ़ता से जातीयता के आधार पर भारतीय नागरिकों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार को अस्वीकार करता है।’

कांग्रेस नेता शशि थरूर ने इस मसले पर कहा- ‘भारत सरकार को माँग करनी चाहिए कि चीन को भविष्य में किसी भी अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिता की मेज़बानी के अधिकार से तब तक वंचित किया जाए, जब तक वह हर मान्यता प्राप्त एथलीट को अनुमति नहीं देता।’ एक्स (पहले ट्विटर) पर अपनी पोस्ट में थरूर ने लिखा- ‘हर कोई हांगझोऊ एशियाई खेलों में भारत के प्रतिदिन जीते जा रहे पदकों का जश्न मना रहा है; लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन ने अपमानजनक तरीक़े से तीन भारतीय एथलीटों को अपने देश में प्रवेश की अनुमति देने से इनकार कर दिया था; क्योंकि वे अरुणाचल प्रदेश में पैदा हुए हैं।’

ओलंपिक काउंसिल ऑफ एशिया (ओसीए) की भूमिका वीजा मामले में चीन सरकार समर्थक रही। ओसीए की ‘एथिक्स कमेटी’ के अध्यक्ष वेई जिजहोंग ने दावा किया- ‘इन भारतीय एथलीटों को चीन में प्रवेश करने के लिए पहले ही वीजा मिल चुका है। चीन ने किसी भी वीजा से इनकार नहीं किया। दुर्भाग्य से इन एथलीट ने इस वीजा को स्वीकार नहीं किया।’ जिजहोंग ने जो वीजा देने का दावा किया, वह स्टेपल वीजा था, जिसका भारत सरकार ने कड़ा विरोध जताया। स्टेपल वीजा के मायने हैं कि अरुणाचल को चीन भारत का हिस्सा न मानकर उसे विवादित क्षेत्र मानता है।

ओछी हरकतें करता रहता है चीन

विशेषज्ञों का कहना है कि भारत सरकार को चीन पर दबाव बनाना चाहिए। चीन से विदेशी कम्पनियाँ इंडोनेशिया और भारत शिफ्ट हो रही हैं। ऐसे में यह सही समय है कि दबाव में चल रहे चीन की हेकड़ी का जबाव उसी भी भाषा में दिया जाए। कनाडा को भारत ने दबाव में लिया है; चीन को भी लिया जा सकता है। वैसे तो विदेश मंत्रालय ने इस मसले पर चीन से कड़ा ऐतराज़ जताया। हालाँकि जानकारों का कहना कि यह काफी नहीं है। चीन की इस दादागीरी को चुनौती देनी चाहिए; क्योंकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। चीन कभी भारत के अरुणाचल प्रदेश को अपने नक्शे में दिखाकर उसे अपना हिस्सा बता देता है; कभी कोई और हरकत कर देता है।