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संघर्ष की पगडंडी पर 30 साल

बीते 17 और 18 जुलाई को नर्मदा घाटी से आए सरदार सरोवर बांध के हजारों विस्थापित और उनके समर्थकों ने ‘आएंगे दिल्ली, बजाएंगे ढोल, जगाएंगे सरकारों को’ के नारे के बीच राजधानी के जंतर-मंतर पर धरना दिया. मांग की गई कि विस्थापितों का समुचित पुनर्वास हो जिसके तहत पैसे की जगह सभी को जमीन के बदले जमीन और घर बनाने के लिए उचित मुआवजा दिया जाए. रैली में केंद्र सरकार के उस फैसले को लेकर भी सवाल उठाए गए जिसके तहत बांध की ऊंचाई 17 मीटर बढ़ाने की बात की गई है. आंदोलनकारियों ने केंद्र सरकार को चेतावनी दी है कि अगर ऐसा हुआ तो वे चुप नहीं बैठेंगे और जलसमाधि लेंगे.

30 साल पहले इस आंदोलन का नारा था ‘कोई नहीं हटेगा बांध नहीं बनेगा’ लेकिन इतने बड़े आंदोलन और प्रतिरोध के बावजूद सरदार सरोवर बांध बना. अब भी विस्थापितों को बसाने, उन्हें मुआवजा दिलवाने, इसमें हो रहे भ्रष्टाचार और बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने की लड़ाई जारी है. इस दौरान रैलियां, धरने, अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल, विरोध प्रदर्शन, सार्वजनिक सभाएं और पदयात्राएं की गईं. दूसरी तरफ सरकारों की ओर इस आंदोलन को कुचलने की कोशिश भी लगातार जारी रही. आंदोलन ने इन सालों में सफलताएं भी अर्जित की हैं. इसी वजह से सरदार सरोवर परियोजना और अन्य बांधों के मामले में विस्थापन से पहले पुनर्वास की व्यवस्था, पर्यावरण व अन्य सामाजिक प्रभावों पर बात की जाने लगी है. इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसने विचार के स्तर पर पर्यावरण और वर्तमान विकास के मॉडल पर सवाल उठाया और इसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना दिया है.

नर्मदा नदी पर नर्मदा घाटी विकास परियोजना के तहत 30 बड़े और 135 मध्यम आकार के बांध बनाने की योजना बनाई गई थी. जिसमें सरदार सरोवर बांध, महेश्वर बांध आदि विशालकाय परियोजनाएं  शामिल हैं. 1985 में इस परियोजना के लिए विश्व बैंक ने 450 करोड़ डॉलर का लोन देने की घोषणा की थी. 1989 में परियोजना के विरोध में नर्मदा बचाओ आंदोलन एक जन आंदोलन के रूप में सामने आया. आंदोलन ने इस परियोजना पर कई गंभीर सवाल खड़े किए और मांग की कि बांध निर्माण का काम रोक कर इस पर पुनर्विचार किया जाए. अपने तीस साल के सफर में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने पुनर्वास के साथ-साथ बांध के पर्यावरणीय, जैविकीय व इससे उपजने वाली बीमारियों से स्वास्थ्य पर होने वाले असर जैसे मुद्दों को उठाया है.

1994 wesddfमें परियोजना को कर्ज देने वाले विश्व बैंक के एक दल ने नर्मदा घाटी का दौरा करने के बाद अपनी रिपोर्ट में कहा कि सरदार सरोवर परियोजना गड़बड़ियों से भरी है. परियोजना से पर्यावरण पर क्या फर्क पड़ेगा इसका ठीक से आकलन तक नहीं किया गया है और मौजूदा तरीके से विस्थापन और पुनर्वास का काम पूरा नहीं हो सकता. इस रिपोर्ट के बाद विश्व बैंक को परियोजना के लिए दिया जाने वाला कर्ज वापस लेना पड़ा. आंदोलन के लिए यह बड़ी जीत थी. इसके बावजूद भारत सरकार ने बांध निर्माण का काम जारी रखा जबकि इसी साल केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय के एक विशेषज्ञ दल ने भी अपनी रिपोर्ट में परियोजना में हो रही पर्यावरण की भारी अनदेखी पर सवाल उठाया था. दिसंबर 2006 में सरदार सरोवर बांध बनकर तैयार हो गया. नरेंद्र मोदी ने इसका उद्घाटन किया. उस समय वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे. आंदोलन से जुड़े लोगों का कहना है कि इस बांध से करीब 3 लाख 20 हजार लोग प्रभावित हुए हैं.

नर्मदा नदी पर ही बने इंदिरा सागर बांध की बात करें तो इसके डूब क्षेत्र में कुल 255 गांव थे. इन्हीं में से खंडवा के पास मध्य प्रदेश का 700 वर्ष पुराना कस्बा ‘हरसूद’ भी था. ‘हरसूद’ को सन 2004 के मानसून में डूब जाना था इसलिए वहां के लोगों को उसी साल 30 जून को जबरन, बिना समुचित पुनर्वास की व्यवस्था किए उजाड़ दिया गया. नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथ देशभर के समाजसेवी, मानव अधिकार कार्यकर्ता, पर्यावरणविद, लेखक, बुद्धिजीवी, फिल्म व मीडिया क्षेत्र के लोग, छात्र-छात्राएं, महिलाएं, आदिवासी, किसान जुड़े हुए हैं. बुकर पुरस्कार से सम्मानित लेखिका अरुंधती रॉय भी इससे जुड़ी रहीं. उन्होंने इस मुद्दे पर ‘द कॉस्ट ऑफ लिविंग’ नाम से एक किताब भी लिखी. 2006 में आमिर खान ने विस्थापितों के पुनर्वास के समर्थन में मेधा पाटकर का समर्थन किया था और प्रदर्शनकारियों से मिलने भी गए, जिसके बाद उनका जबरदस्त विरोध किया गया. यहां तक कि गुजरात के सिनेमाघरों में उनकी फिल्म ‘फना’ पर भी रोक लगा दी गई.

2011 में सुप्रीम कोर्ट ने नर्मदा बचाओ आंदोलन को झूठे शपथ-पत्र पेश करने पर फटकार लगाई थी. यह आंदोलन के लिए एक बड़ा झटका था. हालांकि अदालत द्वारा आंदोलन के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई नहीं की गई. अदालत ने यह फटकार इंदौर के जिला जज की ओर से की गई जांच के परिणामों को देखने के बाद लगाई थी. जांच परिणामों पर आधारित रिपोर्ट में कहा गया था कि आंदोलन से जुड़े लोगों ने अपने हलफनामे में जो दावे किए हैं वे पूरी तरह झूठे हैं. हालांकि आंदोलन करने वालों का कहना था, ‘देवास जिले के जिन पांच गांवों को लेकर शपथ-पत्र पेश किया गया था, वहां के सारे लोग आदिवासी थे, जो कि डूब रहे थे. उनकी मांग थी कि उन्हें नकद नहीं जमीन चाहिए और अगर जमीन नहीं मिलेगी तो वे नहीं हटेंगे.’ मामला हाईकोर्ट गया तो हाईकोर्ट ने भी कहा कि इन्हें जमीन दी जाए. बाद में एनवीडीए (नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण) ने कहा कि चूंकि यहां पांच करोड़ रुपये की लागत से एक पुल बनाया जा रहा है, इसलिए इनके पुनर्वास की कोई जरूरत नहीं, लेकिन जमीन अधिग्रहित की जा चुकी थी. इसलिए मामला फिर सुप्रीम कोर्ट गया. वहां एनबीए (नर्मदा बचाओ आंदोलन) की ओर से कहा गया, ‘लोगों की जमीन छिन गई है. अब उनके पास इसका कानूनी अधिकार भी नहीं है, जबकि एनवीडीए का कहना था कि जमीन हमने नहीं ली है.’ मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इंदौर के जिला जज को जांच कर अपनी रिपोर्ट देने को कहा था. जिला जज ने अपनी रिपोर्ट ने कहा था, ‘जमीन एनवीडीए ने नहीं ली है यह आदिवासियों के ही पास है.’ इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एनबीए कोर्ट को गुमराह कर रहा है और उसे फटकार पड़ी, जबकि एनवीडीए की ओर से जमीन अधिग्रहित की गई थी. बाद में एनबीए ने इसका रीजॉयंडर (जवाबी दावा) देने की भी कोशिश की लेकिन कोर्ट ने इसे स्वीकार नहीं किया.

खैर, आंदोलन के दौरान नेतृत्व के काम करने के तरीके और नजरिये में फर्क भी देखने को मिला. आंदोलन से जुड़े कुछ लोग इसे विभेद या मनमुटाव न मानते हुए एक तरह से काम के बंटवारे के रूप में देखते हैं. वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग ऐसे भी हैं जो दूसरी राय रखते हैं. इनका मानना है कि आंदोलन में जिस तरह काम के क्षेत्र का बंटवारा हुआ है वह नेतृत्व की सीमा को दर्शाता है, क्योंकि इस अनौपचारिक विभाजन के बाद भी उनके काम करने की पद्धति, सोच और शैली में कोई फर्क देखने को नहीं मिला है. नाम व झंडा भी पुराना ही है. इसका मतलब जो विभाजन हुआ है उसके पीछे व्यक्तिवादी नजरिया है. एक तरह से यह मध्य वर्ग के अहम का टकराव और द्वंद्व है.

निश्चित तौर से आंदोलन की कुछ सीमाएं भी रही होंगी. वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता योगेश दीवान कहते हैं, ‘यह मुद्दा आधारित आंदोलन था. ऐसे आंदोलनों की एक सीमा होती है. ऐसे आंदोलन में समाज के बाकी सवाल जैसे वर्ग, जाति, लिंग छूट जाते हैं. इसकी वजह यहां राजनीतिक प्रकिया का अभाव होना है, जिसका असर नेतृत्व, कार्यकर्ताओं और इसके काम पर देखने को मिलता है. इससे आंदोलन की वैचारिक समझ पुख्ता नहीं हो पाती और राजनीतिक रूप से अस्पष्टता देखने को मिलती है. इसमें मुद्दे के आधार पर कोई भी शामिल हो सकता है. नतीजे में हम देखते हैं कि जिन क्षेत्रों में आंदोलन मजबूत है, वहां दक्षिणपंथी ताकतें हावी हैं.’

कई लोगों का मानना है कि इस आंदोलन के इतने लंबे समय तक चलने की पीछे एक वजह यह भी है कि इसे मध्यमवर्गीय किसानों का समर्थन रहा है. एक उदाहरण सन् 1994 का दिया जाता है जब दिग्विजय सिंह ने यह प्रस्ताव दिया था कि बांध की ऊंचाई 436 फीट तक कर देंगे. इस प्रस्ताव से निमाड़ तो बच रहा था लेकिन नीचे के आदिवासी क्षेत्र डूब रहे थे, हालांकि बाद में इस प्रस्ताव को मान लिया गया.

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आंदोलन का प्रभाव

तीस साल बाद मुड़कर देखें तो पहला सवाल यही उठता है कि यह आंदोलन किस हद तक अपने मकसद को हासिल करने में कामयाब रहा? तमाम विरोध और प्रतिरोध के बीच बांध तो बन गया और लड़ाई का दायरा सिमट कर उचित पुनर्वास और मुआवजे तक आ पहुंचा, लेकिन क्या आंदोलन को इस सीमित नजरिये से ही देखा जाना चाहिए? रहमत भाई ने 11 साल तक आंदोलन के साथ एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में काम किया है और खुद भी बांध प्रभावित हैं. मंथन अध्ययन केंद्र से जुड़े रहमत का कहना है, ‘अगर 30 साल बाद आंदोलन का समग्रता में मूल्यांकन करें तो भले ही हम बांध बनने से नहीं रोक पाए हों लेकिन इसके व्यापक प्रभाव पड़े हैं. अब जबरिया विस्थापन करना उतना आसान नहीं रह गया है. आंदोलन से पहले विस्थापन के मामलों में जमीन के बदले जमीन की नीति नहीं थी. नर्मदा बचाओ आंदोलन ने जब विस्थापन के मुद्दे को उठाना शुरू किया तो असंवेदनशीलता इस हद तक थी कि सरकार के पास इससे प्रभावित होने वाले लोगों को लेकर कोई आंकड़ा तक नहीं था. आंदोलन की वजह से ही सरकार सरदार सरोवर बांध के मामले में जमीन के बदले जमीन की नीति लाने को मजबूर हुई. हालांकि इसमें भी कई खामियां हैं. इसी तरह से स्थानीय स्तर पर देखें तो इस आंदोलन का प्रभाव विस्थापन के मुद्दे के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में भी देखने को मिलता है. इससे समुदाय का दूसरे मुद्दों पर भी सशक्तिकरण हुआ है. उनमें सामाजिक जागरूकता आई है और अब लोग स्वयं अपने अधिकारों के लिए आगे आने लगे हैं.’

वर्षों से भोपाल गैस पीड़ितों की लड़ाई लड़ रहे अब्दुल जब्बार भी कुछ इसी तरह की राय रखते हैं. उनका कहना है, ‘बांध तो बन गया लेकिन इससे बड़े बांधों को लेकर सवाल खड़ा करने में सफलता मिली है और बड़े बांधों के क्या नुकसान हो सकते हैं, इसका संदेश देश ही नहीं देश से बाहर भी गया है. इसे कम करके नहीं आंका जा सकता है. जिन सैकड़ों गांवों के लोग इस आंदोलन में शामिल हुए उन्होंने यह जाना कि आंदोलन क्यों जरूरी है और सरकार अगर गलत करती है तो क्यों और कैसे लड़ना चाहिए.’

शुरुआती दौर से ही एनबीए से जुड़े रहे खेड़ूत मजदूर चेतना संगठन के संयोजक शंकर तड़वले कहते हैं, ‘इस आंदोलन ने देशभर के कार्यकर्ताओं को जोड़ने और दूसरे आंदोलनों को प्रेरणा देने का काम भी किया है. आंदोलन से देश के सामने यह बात आ सकी कि विस्थापन के बाद लोगों को किस तरह की त्रासदी झेलनी पड़ती है. इसके बाद ही सरकारें विस्थापन के बाद पुनर्वास को लेकर अपनी सोच बदलने पर मजबूर हुईं.

नर्मदा बचाओ आंदोलन के वरिष्ठ कार्यकर्ता और धार जिले के खापरखेड़ा गांव के डूब प्रभावित देवराम कनेरा कहते हैं, ‘पिछले तीस सालों से हम अपनी जान को हथियार बनाकर लड़ रहे हैं. इस वजह से शायद यह इकलौता आंदोलन है, जिसमें उजड़ने के बाद लोग जमीन के बदले जमीन पाने में कामयाब रहे हैं. सरकार 88 पुनर्वास स्थल बनाने को भी मजबूर हुई है. यह सब आंदोलन से ही संभव हो सका है. हम 12 अगस्त से फिर सत्याग्रह कर रहे हैं.’

बड़वानी जिले के डूब क्षेत्र में आने वाले गांव छोटा बरदा के निवासी और नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ता महादेव भगवान दास का कहना है, ‘हम भले ही बांध बनने से नहीं रोक पाए हों लेकिन अब तक हम यहां संघर्ष की वजह से ही टिके हुए हैं. अगर आंदोलन नहीं होता तो हम 15-20 साल पहले ही उजाड़ दिए गए होते.’ आंदोलन के भविष्य को लेकर उनका कहना है, ‘हमें मुआवजे के बलबूते नहीं रहना है. हम जीवन की लड़ाई लड़ रहे हैं और इसे आगे भी जारी रखेंगे.’

नर्मदा बचाओ आंदोलन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता और भीलखेड़ा गांव (बड़वानी) के कैलाश अवास्या का कहना है, ‘तीस साल बाद भी लोग हटे नहीं बल्कि पूरी ताकत के साथ डटे हुए हैं. लोग यह लड़ाई सिर्फ अपने लिए नहीं सभी गांवों के लिए लड़ रहे हैं, हम आगे भी लड़ते और संघर्ष करते रहेंगे.’

आंदोलन से जुड़े मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव शरदचंद्र बेहार कहते हैं, ‘इस आंदोलन ने तथाकथित विकास के मॉडल के खिलाफ पहली बार आवाज उठाई. यह पहला उदाहरण था जिसने यह रास्ता दिखाया कि कैसे बड़ी विकास परियोजनाओं का भी विरोध किया जा सकता है. इससे पहले ऐसी परियोजनाओं को सिर्फ अच्छा ही माना जाता था. विकास के इस स्याह पक्ष को सरकार के साथ-साथ जनता भी नजरअंदाज करती थी. इस पक्ष को सामने लाना और उसे स्थापित करना ही इस आंदोलन की पहली बड़ी उपलब्धि रही है. दूसरी उपलब्धि यह है कि इसने बताया कि बड़े बांधों के दुष्प्रभावों से मात्र इंसानों को ही नुकसान नहीं होता है बल्कि इसका डूब क्षेत्र बनने से जमीन, वहां का इतिहास, स्थानीय पेड़-पौधे, पर्यावरण, संस्कृति भी डूबते हैं. इस तरह से बड़े बांधों से होने वाले मानवीय, सामाजिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक आघात को विमर्श के केंद्र में लाने में इस आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. इसके प्रभाव से ही यह संभव हो सका कि अब नाभिकीय और खनन जैसी बड़ी परियोजनाओं के खिलाफ लगातार आंदोलन हो रहे हैं. इसने उन्हें रास्ता दिखाने का काम किया है. यह इस आंदोलन की ही साख थी कि जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व बांध आयोग बना तो मेधा पाटकर को भी सदस्य बनाया गया.’

 

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गहरे जख्म छोड़ गया देश का सबसे बड़ा विस्थापन

विजय मनोहर तिवारी

एक साल पहले इंदिरा सागर बांध के इलाके में एक बार फिर जाने का मौका मिला. तब मुझे 2004 के मानसून के विकट दिन याद आ गए. इस परियोजना में करीब 250 गांव डूबे. हरसूद नाम का छोटा सा शहर जून 2004 में डूब क्षेत्र में आया था. दुनिया भर के मीडिया ने तब दिखाया था कि एक हजार मेगावाट बिजली हजारों परिवारों के लिए किस कदर अंधेरा लेकर आई थी. ज्यादातर लोग मामूली मुआवजा लेकर निकले या निकाले गए. हरसूद वालों के लिए छनेरा नाम की जगह पर एक उजाड़ पथरीला मैदान दिया गया था, जहां बीच बारिश में विस्थापितों को अपने घर बनाने थे. सब कुछ बेहद अमानवीय ढंग से हुआ.

10 साल के कांग्रेस राज में बांध एक तरफा ढंग से बनता गया. पुनर्वास के नाम पर कुछ हुआ नहीं था. 2003 में उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा की सरकार मध्य प्रदेश में बनी. विकास का राग अलापने वाली सरकार के लिए हरसूद देश में विस्थापन और पुनर्वास का एक शानदार मॉडल बनाने का मौका था, जो बेलगाम और भ्रष्ट अफसरशाही के हाथों उसने गंवा दिया गया. खाने-कमाने वाली राजनीति के खेल में नेता बेगुनाह नहीं थे. पदों की अंधी होड़ में उन्हें ऐसी कोई ट्रेनिंग ही नहीं दी जाती, जब उन्हें सिखाया जाए कि आम आदमी के हितों से जुड़े इस तरह के संवेदनशील मसलों पर वे किस तरीके से पेश आएं. ज्यादातर नेताओं के पास अपना कोई नजरिया ही नहीं है. वे इतने ईमानदार भी नहीं हैं कि अफसर डर से खुद बेईमानी न करें. यह विस्थापन इनके मकड़जाल में उलझी एक दर्दनाक कहानी है.

दिग्विजय सिंह ने दस साल एकछत्र राज किया था. पिछले 12 साल में भाजपा सरकार में तीन मुख्यमंत्री हुए. शिवराजसिंह चौहान को दस साल से ज्यादा हो गए. उन्हें तीन बार लगातार अच्छे-खासे बहुमत से चुना गया. हांलाकि किसी के भी राज में इस तरह कोई खास कदम नहीं उठाए गए. आप आज भी हरसूद, छनेरा, काला पाठा, चैनपुर और सतवास के पुनर्वास स्थलों पर जाकर देख सकते हैं कि इस सरकार को मिली ताकत यहां किसी के कुछ काम नहीं आई. मुझे अफसोस के साथ यह स्वीकार करना पड़ रहा है कि यह विस्थापन हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र की नाकामी की एक घृणित मिसाल है.

भ्रष्ट अफसरों के लिए यह इलाका एक टकसाल बन गया था. जांच एजेंसियों ने 13 अफसरों को रिश्वत लेते हुए पकड़ा था. वे उन चील-गिद्धों की तरह पेश आए जो अपने हिस्से का मांस नोचने के लिए जमीन पर पड़े मुर्दों के ऊपर मंडराते हैं. यहां डेढ़ लाख की बेदखल आबादी उनके लिए पौष्टिक आहार की तरह उपलब्ध थी. ढाई हजार से ज्यादा भुक्तभोगी खंडवा की अदालत में सालों तक चक्कर लगाते रहे. ऐसे कई परिवार हैं, जो बीते 11 सालों में तीन-तीन शहरों में बसने की नाकाम कोशिश में लगे रहे हैं. हरसूद के एक प्रतिष्ठित परिवार से आने वाले आरटीआई एक्टीविस्ट धर्मराज जैन ने आरटीआई के जरिए एक कामयाब लड़ाई लड़कर अपना हक हासिल तो कर लिया मगर इसमें एक पूरी पीढ़ी बर्बाद हो गई. दस साल में बांध से 2500 करोड़ रुपये की बिजली बनी. छह साल का मुनाफा ही करीब 1800 करोड़ रुपये का था. यह आंकड़ा इसलिए ध्यान देने योग्य है, क्योंकि यहां से बेदखल हुए लोगों को उनकी संपत्तियों का कुल मुआवजा मिला था सिर्फ 1170 करोड़ रुपये. इसमें हरसूद शहर का मुआवजा था मात्र 68 करोड़ रुपये!

नर्मदा बचाओ आंदोलन के सुविधाहीन और सक्रिय कार्यकर्ताओं ने इस अमानवीय और लोगों के दिलों पर गहरे जख्म छोड़कर गए विस्थापन को गुमनाम नहीं रहने दिया. बांध पूरा बनने के बावजूद 91 गांवों में भूअर्जन ही शुरू नहीं हुआ था. नर्मदा बचाओ आंदोलन ने हाईकोर्ट की शरण ली. बांध में पानी पूरा न भरने के लिए याचिका लगाई गई. विस्थापितों की बात सरकार ने नहीं, अदालत ने सुनी. चीफ जस्टिस रवींद्रन ने कहा कि सरकार को यह हक ही नहीं था कि वह इन गांवों के लोगों को जाने के लिए कहें. पूरे इलाके में ऐसी अनगिनत उलझनें थीं, जिनमें हजारों लोग फंसे हुए थे. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में लंबित तीन याचिकाएं नर्मदा बचाओ आंदोलन की टीम को विस्थापन के दस साल बाद भी व्यस्त बनाए रहीं. जो कुछ भी ठीक हुआ वह आलोक अग्रवाल, शिल्वी, चितरूपा जैसे कार्यकर्ताओं के संघर्ष का नतीजा है, जिन्हें मध्य प्रदेश के व्यापमं ब्रांड सरकारी तंत्र ने हमेशा हतोत्साहित किया.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्होंने हरसूद विस्थापन का कवरेज करते हुए इसे करीब से देखा और इसे अपनी किताब ‘हरसूद 30 जून’ में संकलित किया है)

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किस हाल में ‘माई’ के लाल

Lalu Prasad yadav interacting with media. Photo/Prashant Ravi30 अगस्त को पटना के गांधी मैदान में स्वाभिमान रैली का आयोजन था. नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के मेल-मिलाप और सीटों को लेकर आपसी तालमेल के बाद पहला बड़ा साझा राजनीतिक आयोजन. नीतीश को एक बार फिर से मुख्यमंत्री बनाने के लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए दिल्ली से चलकर सोनिया गांधी भी पटना पहुंची थीं. लालू प्रसाद यादव और दूसरे कई बड़े नेता भी साथ थे. तपती दुपहरी के साथ गांधी मैदान लोगों से पटता जा रहा था. सड़कों पर चलने की जगह नहीं थी. कहीं नाच, कहीं बैंड बाजा, हर ओर लोगों का हुजूम. हर हाथ में झंडा, जुबां पर नारा.

आयोजन नीतीश को केंद्र में रखकर था, सो जाहिर-सी बात है कि नीतीश कुमार का पोस्टर-बैनर ज्यादा से ज्यादा लगा हुआ था. कांग्रेस को यह मौका अरसे बाद मिला था, या यूं कहिये कि करीब ढाई दशक पहले भागलपुर दंगे के बाद से बिहार में धीरे-धीरे खात्मे के राह पर अग्रसर होकर लगभग खत्म हो चुकी कांग्रेस के लिए यह सुनहरा मौका था, सो उसने भी कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी. कांग्रेसियों ने भी खूब झंडे, बैनर-पोस्टर लगाए थे. लेकिन इन सभी झंडे-बैनर-पोस्टर पर लालू यादव का बैनर-पोस्टर भारी पड़ रहा था. गांधी मैदान में और पटना की सड़कों पर भी. टमटम पर लालटेन रखकर पटना की सड़कों पर चल रहे राजद कार्यकर्ता आकर्षण का केंद्र थे. तो वर्षों बाद पटना के लोग सड़कों पर लौंडा नाच भी देख रहे थे.

सिर्फ रैली के दिन ही नहीं, उसके ठीक पहले 29 अगस्त की रात से ही पटना रैली के रंग में रंगा हुआ नजर आ रहा था. वर्षों बाद पटना के कई इलाके रात भर नाच-गाने और तरह-तरह के आयोजनों से गुलजार थे. इससे पहले यह सब तब होता था, जब लालू यादव अपने उफान के दिनों में रैलियां करवाया करते थे. स्वाभिमान रैली के बहाने लालू पुराने दिनों की ओर लौट रहे थे. सिर्फ तैयारियों के स्तर पर नहीं, बल्कि जब वे स्वाभिमान रैली को संबोधित करने आए तो वर्षों बाद अपने पुराने रंग में दिखे. लालू प्रसाद आखिरी वक्ता के तौर पर माइक के सामने आए थे. ऐसा क्यों हुआ कि सोनिया गांधी के रहते भी प्रमुख वक्ता के तौर पर लालू प्रसाद यादव आखिर में आए. नीतीश, जिनके नाम पर यह आयोजन था, वह भी क्यों पहले ही बोलकर निकल लिये, यह भी समझ में नहीं आया. शरद यादव, जो खुद को लालू का निर्माणकर्ता बताते नहीं अघाते, उन्हें तो काफी पहले ही बोलने का मौका देकर बिठा दिया गया था.

लालू जब बोलने लगे तब सबको समझ में आया कि क्यों इतने दिग्गजों के बीच में भी वह सबसे महत्वपूर्ण तरीके से पेश किए गए. लालू ने नरेंद्र मोदी और भाजपा को निशाना पर लेना शुरू किया. मोदी की नकल उतारकर मोदी के ही अंदाज में जवाब देने की कोशिश की. लालू ने एक प्रसंग के बहाने ऊंची जातियों पर निशाना साधा और जोर देकर कहा, ‘सब कान खोलकर सुन ले, यह 1990 के पहले वाला बिहार नहीं है.’ जाति आधारित जनगणना की बात कहकर उन्होंने अपना एजेंडा भी साफ कर दिया और ‘जंगलराज’ की बजाय अपने शासनकाल को ‘मंडलराज’ और आने वाले शासनकाल को ‘मंडलराज पार्ट टू’ की संज्ञा दी.

रैली के बहाने भारी भीड़ को देख गदगद लालू प्रसाद एक लय में बोलते रहे, उन्होंने लगे हाथ नीतीश कुमार को डरपोक बताते हुए इस बात का आश्वासन भी दिया कि नीतीश को मन में धुकधुकी रखने की जरूरत नहीं है, हम उन्हें ही सीएम बनाएंगे. ऐसा कहकर लालू प्रसाद सोनिया को भी बताना चाहते थे कि उन्होंने जिस लालू को अछूत मानकर दूरी बना ली हैं, वह अहम है और जिस नीतीश का साथ दे रही हैं, उसके पास लालू के रहमोकरम पर  आगे की राजनीति करने के अलावा कोई चारा नहीं है. वे भूल गए कि मंडल की राजनीति का सिर्फ यदुवंशियों से ही वास्ता नहीं होता, उसमें पिछड़े-दलित सब होते हैं और बिहार की राजनीति अब बदल चुकी है. पिछड़ों का भी विस्तार होकर ‘अतिपिछड़ा’ समूह बन चुका है और दलितों में ‘महादलित’ नाम का एक नया खेमा खोज लिया गया है.

लालू बार-बार बताते रहे कि भाजपा के लोग यदुवंशियों को भटकाना चाहते हैं, मगर उन्हें भटकना नहीं है. फिर उन्होंने कृष्ण का वंशज होने का वास्ता देकर यदुवंशियों को अपने साथ ही रहने की बात कही. कृष्ण से भी संतोष नहीं हुआ तो उन्होंने यदुवंशियों को समझाने के लिए भैंस का भी सहारा लिया और कहा, ‘जब जादव का बेटा को भैंस पटकिये नहीं पाता है तो नरेंद्र मोदी क्या पटकेगा, तैयार रहना है.’ लालू अपनी धुन में थे. शरद यादव और मुलायम सिंह यादव का न जाने कितनी बार उन्होंने नाम लिया. हर तरीके से लालू प्रसाद यदुवंशियों पर जी भरकर बोल चुके थे, लेकिन शायद इतने से उन्हें संतोष नहीं हुआ तो उन्होंने आखिरी में यदुवंशियांे को संबोधित करते हुए  सवाल पूछ ही लिया, ‘बताओ साथ दोगे न! दोगे या नहीं! अगर देना है तो खुलकर दो, नहीं देना है तो वह भी कह दो!’ लालू अपने भाषण में मजबूत बने रहे. वाहवाही बटोरते रहे. हर लाइन के बाद तालियों की गड़गड़ाहट होती रही लेकिन जैसे ही वह आखिरी वाक्य तेज आवाज में बोलना शुरू किया और जब यदुवंशियों को साथ देने का वास्ता देने लगे तो तालियों की गूंज कम हो चली थी. उस वक्त उनकी मजबूत आवाज में मजबूरी झलकने लगी थी. एक किस्म का डर. यह पहली बार हो रहा था कि लालू प्रसाद को अपने कोर वोट बैंक के सबसे बड़े समर्थक यादवों से सार्वजनिक तौर पर पूछना पड़ा कि साथ दोगे या नहीं! यह अकारण नहीं था. लालू प्रसाद के पहले स्वाभिमान रैली के बहाने असरे बाद मंच पर आईं उनकी पत्नी और राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने भी अपने भाषण में यदुवंशियों की चिंता करते हुए पप्पू यादव पर निशाना साधा. पप्पू को कोसने के बहाने वह यदुवंशियों को एकजुट करने में ऊर्जा लगाते हुए दिखीं.

उधर, रैली के एक दिन पहले ही तारिक अनवर और एनसीपी जैसे जैसी पुरानी सहयोगी पार्टी को दरकिनार कर पांच सीटें समाजवादी पार्टी के हवाले करके लालू प्रसाद यादव मतदाताओं को अपनी ओर करने का इंतजाम कर चुके थे. स्वाभिमान रैली में नए नवेले समधी बने उत्तर प्रदेश के नेता व मुलायम सिंह यादव के भाई शिवपाल सिंह यादव की प्रशंसा कर, बार-बार उनका नाम लेकर भी वह यादव खेमे में और यादवी राजनीति में अपने विस्तार का संकेत दे चुके थे.

बहरहाल स्वाभिमान रैली खत्म हुई और लालू प्रसाद ही उसके चैंपियन बने. नीतीश कुमार और सोनिया गांधी अहम होते हुए भी उतने चर्चित नहीं हो सके, वाहवाही नहीं बटोर सके, जो लालू प्रसाद के खाते में आया. इस वाहवाही में यह सवाल वहीं दबकर रह गया कि आखिर क्यों लालू प्रसाद को यदुवंशियों से भी साथ देने के लिए पूछना पड़ा?

स्वाभिमान रैली के दिन तो वह सवाल नहीं पूछा जा सका लेकिन उसके बाद बिहार के राजनीतिक गलियारे का एक अहम सवाल यही रहा? पूरे भाषण में लालू प्रसाद की यही लाइन ऐसी थी जिससे भाजपाई खेमे में खुशी की लहर दौड़ पड़ी थी. भाजपा इसलिए खुश हुई क्योंकि लालू प्रसाद ने पहली बार स्वीकार किया कि वे जितने मजबूत दिख रहे हैं, उतने ही मजबूर भी होते जा रहे हैं. यदुवंशी उनके हाथ से निकल रहे हैं. खुशी की दूसरी वजह यह रही कि लालू ने यदुवंशियों पर खुद को इतना ज्यादा केंद्रित किया कि भाजपा और राजग खेमे को इसी में संभावना के सूत्र दिखने लगे. भाजपा और राजग के नेता चाहते थे कि लालू प्रसाद खुलकर यादवों की राजनीति के पक्ष में आएं. वे पूरी ऊर्जा लगभग 15 प्रतिशत आबादी वाले यादव मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में लगाएं. अतिपिछड़ों, दलितों, महादलितों पर कम से कम बोलें. अगर लालू प्रसाद ऐसा करेंगे तो दूसरी ओर बैकफायर करने की गुंजाइश खुद बनेगी. यादव जितने एकजुट होंगे, दूसरी गैरयादव, पिछड़ी व दलित जातियां खुद-ब-खुद दूसरे छोर पर ध्रुवीकृत होंगी. ऐसा पहले भी बिहार की राजनीति में देखा और आजमाया जा चुका है. नीतीश कुमार यादवों को राजनीति में अलग कर ही, गैर यादव पिछड़ों व दलितों को एकजुट कर दस सालों तक सत्ता की सियासत के सफर में लंबी रेस का घाेड़ा साबित होने में सफल रहे हैं.

बहरहाल अब सवाल ये उठता है कि क्या वाकई लालू यादव का कोर वोट बैंक दरक रहा है? इसका जवाब इतना आसान नहीं लेकिन इतना कठिन भी नहीं. लालू प्रसाद को अपने कोर वोट बैंक की चिंता है तो यह बेवजह भी नहीं है. लालू के कोर वोट बैंक में यादव (वाई) और मुसलमान (एम) रहे हैं, जिसे बिहार में ‘माई (एमवाई)’ समीकरण कहा जाता रहा है. इन्हीं को साधकर लंबे समय तक वह बिहार में प्रभावी रहे हैं और इन्हीं के सहारे राबड़ी देवी से लेकर तमाम दूसरे प्रयोग भी करते रहे हैं. मधेपुरा व दानापुर जिसे अब पाटलीपुत्र संसदीय क्षेत्र कहा जाता है और छपरा, ये इलाके ऐसे रहे हैं, जहां से ‘माई’ के ये लाल खुद या अपने परिजनों को चुनाव लड़वाते रहे हैं लेकिन यादव बहुल होने के बावजूद एक-एक कर ये इलाके उनके हाथों से निकल चुके हैं. विधानसभा क्षेत्र में राघोपुर, सोनपुर जैसे इलाके का चयन लालू प्रसाद करते रहे हैं, जो यादव बहुल हैं लेकिन इन सीटों पर भी राबड़ी बुरी तरह हार चुकी हैं. यादव के गढ़ में लालू प्रसाद लगातार हारते रहे हैं तो उनकी चिंता वाजिब ही है.

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एक वजह यह भी है कि लालू प्रसाद अब आगे की सियासत खुद के बजाय अपने दोनों बेटों तेजप्रताप और तेजस्वी को राजनीति में जमाने के लिए कर रहे हैं. तेजप्रताप और तेजस्वी में वह तेज-ओज नहीं, जिसके सहारे वे लालू के स्वाभाविक उत्तराधिकारी बन सके. लालू प्रसाद जानते हैं कि वे अगर सक्रिय राजनीति के जमाने में अपने बेटों को स्थापित नहीं कर सके तो फिर आगे उनके बेटों का भी वही राजनीतिक हश्र होगा, जो बिहार के और दूसरे मुख्यमंत्रियों की संतानों का होता रहा है. अधिक से अधिक विधायक-सांसद बनकर राजनीतिक जीवन काटते रहे हैं. लालू अपने बेटों के लिए भी अपना कोर वोट बैंक को बचाए-बनाए रखना चाहते हैं लेकिन इस बार कोर वोट बैंक के दोनों ही समूह में उनके सामने बड़ी चुनौती है.

हाल के वर्षों में एक-एक कर सारे यादव नेता लालू को छोड़कर अलग खेमे में जा रहे थे, मुस्लिम वोटों में भी नीतीश कुमार के जरिये बिखराव हो चुका था. लेकिन इस बार नीतीश कुमार के साथ आने बाद मुसलमान मतों के बिखराव की नई चुनौती सामने आ गई है, जो एक तरीके से आगे के लिए खतरनाक भी है. यह लालू प्रसाद के लिए बड़ा खतरा है, नीतीश कुमार के लिए कम.नीतीश कुमार राजनीति में सत्ता की सियासत साधने के लिए इधर से उधर भटकने वाले नेता माने जाते रहे हैं लेकिन लालू प्रसाद के साथ स्थिति दूसरी है. वह सांप्रदायिकता विरोधी नेता माने जाते रहे हैं. अगर मुस्लिमों का वोट एक बार उनके आधार से खिसक गया तो फिर भावी राजनीति ही खतरे में पड़ जाएगी. और इस बार 16.5 प्रतिशत आबादी वाले मुस्लिम वोट पर सीधे तो नहीं लेकिन परोक्ष तौर दूसरे किस्म की चुनौतियां सामने आई हैं.

सीमांचल इलाके में तारिक अनवर अब लालू-नीतीश-कांग्रेस के गठबंधन के साथ नहीं. तारिक साॅफ्ट मुसलमान चेहरा माने जाते रहे हैं, उनका अपना आधार रहा है. धनबल के कारण चंपारण इलाके में साबिर अली एक अहम नेता रहे हैं. पहले वह नीतीश के साथ थे. बीच में भाजपा के साथ गए थे. विवाद हुआ था तो भाजपा का साथ छोड़ दिया. अब फिर भाजपा के साथ है. इन सबके बीच ओवैसी का बिहार में आगमन अलग कहानी लिखने की राह पर है. 25 सीटों पर लड़ने की घोषणा कर उन्होंने दूसरे दलों के लिए परेशानी खड़ी कर दी है. वे मुसलमानों का भी वोट एक हद तक काटेंगे लेकिन उससे ज्यादा हिंदुओं के ध्रुवीकरण में सहायक साबित हो सकते हैं. ये नई चुनौतियां हैं, जो मुसलमान वोटों को लेकर महागठबंधन के सामने हैं और उससे लालू प्रसाद का चिंतित होना स्वाभाविक है.

चुप-चुप क्यों हैं लालू

स्वाभिमान रैली में लालू ने जमकर बोला और जोरदार तरीके से अपने विरोधियों को ललकारा भी. इसके बावजूद पार्टी में इस बात की चर्चा है कि मोदी के लगातार उन पर हमला बोलने के बाद भी लालू शांत क्यों हैं. इतना ही नहीं गठबंधन के उनके सहयोगी नीतीश कुमार भी उनका पक्ष न लेते हुए सिर्फ अपने प्रचार-प्रसार में लगे हुए हैं. इससे राजद कार्यकर्ताओं में गुस्सा भी नजर आ रहा है.

जुलाई महीने में जिस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पटना में आकर सरकारी योजनाओं का शिलान्यास करने के बाद मुजफ्फरपुर में पहली बार चुनावी शंखनाद करने वाले थे, उसी शाम की बात है. पटना के विधायक आवास वाली चाय की दुकान पर लगने वाली चौपाल में कई राजद कार्यकर्ता उत्तेजना में थे. बोलेरो-स्कॉर्पियो से चलने वाले छिटपुटिया नेता भी. सब चिट्ठी तैयार कर रहे थे. लालू प्रसाद यादव के नाम. चिट्ठी में कुछ यूं लिखा था, ‘माननीय अध्यक्ष श्री लालू प्रसाद यादवजी, आप कब तक चुप रहेंगे! आप क्यों नहीं कुछ बोल रहे. नीतीश कुमार जान-बूझकर भाजपा के सामने आपको गाली खाने के लिए परोस रहे हैं और खुद की छवि बड़े-बड़े होर्डिंग-पोस्टर में और गीतों में चमका रहे हैं लेकिन आपके साथ कहीं फोटो तक नहीं लगा रहे. खुद के डीएनए को बिहार का डीएनए बताने में ऊर्जा लगाए हुए हैं लेकिन उनके इशारे पर भाजपा वाले आपको गाली दे रहे हैं, आपको जंगलराज का पर्याय बता रहे  हैं, तब भी वे आपके पक्ष में एक लाइन तक नहीं बोल रहे, सिर्फ अपना दामन बचाने में लगे हुए हैं.’

ऐसी ही कई बातों को मिलाकर चिट्ठी तैयार हुई. तय हुआ कि लालू प्रसाद यादव के यहां जाकर इसे देना है. उनसे सामूहिक तौर पर आग्रह करना है कि वे अपना मुंह खोलेें, कुछ बोलें. लेकिन यह होने से पहले ही वहां एक सीनियर टाइप बुजुर्गवार नेता ने सबको गणित समझाया कि नीतीश कुमार को करने दो, जो कर रहे हैं. भाजपा को देने दो गालियां, जितना जी में आए, चुनाव हमारे नेता लालू प्रसाद यादव के इर्द-गिर्द ही होना है और नीतीश को हमारे पीछे चलना होगा, अभी भले ही आगे-आगे फुदक रहे हों. बुजुर्गवार नेता ने बहुत ही तसल्ली और कायदे से समझाया कि भाजपा जितना ज्यादा लालू प्रसाद को निशाने पर लेगी, हमें फायदा होगा. लोकसभा चुनाव में जो कोर मतदाता इधर-उधर बिखर गए थे, वे भी साथ में जुट जाएंगे. और नीतीश कुमार को तो इसलिए पीछे आना होगा कि वे बिना लालू प्रसाद यादव कर क्या सकते हैं इस बार के बिहार चुनाव में? सांप्रदायिकता पर खुलकर बोल नहीं पाएंगे, क्योंकि ऐसा बोलेंगे तो भाजपा वाले नोच लेंगे उन्हें कि सांप्रदायिक थे तो 17 साल से साथ क्यों थे? तब सांप्रदायिक नहीं थे, जब केंद्र से लेकर बिहार में सत्ता की मलाई काट रहे थे! नीतीश कुमार जातीय समीकरणों पर खुलकर बोल ही नहीं पाएंगे, क्योंकि उन्हें वह सूट नहीं करेगा. वे खुद को सुशासन और विकास पुरुष के दायरे में ही रखेंगे और इससे उन्हें वोट मिलने वाला नहीं. तो इसके लिए भी उन्हें लालू प्रसाद यादव के पीछे चलना होगा.

ऐसी ही कई बातों को बुजुर्ग नेताजी ने समझाया और जो चिट्ठी लिखी गई थी, उसे वहीं रोक लिया गया. उस दिन लालू प्रसाद के समर्थकों में गुस्सा इसलिए था, क्योंकि पटना के वेटनरी कॉलेज में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बोलने के पहले नीतीश कुमार ने उस रोज कहा था, ‘जिस रेलपथ पर प्रधानमंत्री आज हरी झंडी दिखाकर परिचालन कर-करवा रहे हैं, उस पर अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने में ही परिचालन हो गया होता, अगर उनकी सरकार छह माह और रह गई होती. नीतीश कुमार ने लगे हाथ यह भी कहा कि यह उसी समय की परियोजना है, जिस समय अटलजी की सरकार में वे रेल मंत्री थे लेकिन यह बीच में लटका ही रह गया. उसके बाद सबने देखा-सुना था कि पटना के वेटनरी कॉलेज में किस तरह नरेंद्र मोदी ने नीतीश कुमार की बातों के एक छोर को पकड़कर फिर लालू प्रसाद को निशाने पर ले लिया था.’

वहीं नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘नीतीश जी ठीक कह रहे हैं. यह रेल परियोजना तब ही चालू हो गई होती लेकिन बाद में जो बिहार से ही रेल मंत्री बने, उन्हें अपने राज्य में रेल का विकास याद ही नहीं रहा, वे राजनीति में उलझे रहे.’ और भी तरीके से नरेंद्र मोदी लालू प्रसाद को निशाने पर लेते रहे. नीतीश कुमार वहीं बैठकर चुपचाप सुनते रहे. सुनने के अलावा कोई चारा भी नहीं था, क्योंकि यह बोलने का अवसर नीतीश कुमार ने ही दिया था. बात वहीं खत्म नहीं हुई. उसके बाद नरेंद्र मोदी ने मुजफ्फरपुर में जाकर नीतीश कुमार के डीएनए की बात हवा में उछाली, साथ ही लालू प्रसाद यादव की पार्टी को रोज जंगलराज का डर वाला नाम दिया. इसके बाद शाम को पटना में नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी के सवालों का जवाब देना शुरू किया. डीएनए वाले मसले को  लेकर सेंटी-सेंटी बयान दिए, ललकार लगाए लेकिन लालू प्रसाद यादव को जितने तरीके से निशाने पर नरेंद्र मोदी ने लिया, उस पर उन्होंने कुछ नहीं कहा. एक बार भी नहीं. राजद कार्यकर्ताओं व नेताओं के गुस्से की वजह यही थी. अखरन और गुस्सा होना स्वाभाविक भी था, क्योंकि उस दिन यह पहली बार नहीं हुआ था, बल्कि नीतीश कुमार से गठबंधन होने के बावजूद जिस तरह से नीतीश कुमार लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी से अलगाव-दूराव का भाव बनाते रहे हैं, उससे इस किस्म का गुस्सा उपजना स्वाभाविक भी है.

नीतीश कुमार ने जितने चुनावी अभियान चलाए, वे उनके लिए या जदयू के लिए ही रहे. इतना ही नहीं, नीतीश कुमार ने राजद द्वारा गठबंधन के नेता व सीएम पद के लिए उम्मीदवार के तौर पर खुद का नाम घोषित होने के पहले ही, खुद के पोस्टरों से पटना को पाट दिया था और उस वक्त जब नीतीश से यह पूछा गया था कि अभी लालू प्रसाद यादव ने आपको नेता घोषित भी नहीं किया है तो खुद को कैसे मुख्यमंत्री के तौर पर घोषित कर दिया? इस पर उनका जवाब था कि जो भी पोस्टर-होर्डिंग लगे हैं, वह किसी ने लगा दिए हैं, इससे उनका कोई लेना-देना नहीं लेकिन बाद में लोगों ने जाना कि वे होर्डिंग व पोस्टर खुद नीतीश कुमार की सहमति से उनके सलाहकार प्रशांत किशोर ने लगवाया था. वही पोस्टर अब पटना समेत पूरे राज्य में सबसे ज्यादा चमक रहे हैं. बीच में ऐसी कई बातें होती रहीं, जिस वजह से राजद कार्यकर्ताओं का गुस्सा नीतीश कुमार पर लगातार बढ़ता रहा और उस शाम चौपाल में चिट्ठी लिखकर लालू प्रसाद यादव को देने और नीतीश से कुट्टी कर लेने का दबाव बनाने की कोशिश करना, उसी गुस्से का सम्मिलित प्रस्फुटन था.

सवाल यह है कि बिहार की राजनीति के रग-रग से वाकिफ और नीतीश की राजनीति को भी सबसे बेहतर तरीके से समझने वाले लालू प्रसाद यादव क्या इन बातों को नहीं जानते, जो उनके कार्यकर्ता-नेता जानते हैं और जिन वजहों से गुस्से में रहते हैं? अगर जानते हैं तो फिर क्यों लालू प्रसाद यादव जानकर भी इससे मुंह मोड़े हुए हैं और इस विषय पर एक बार भी कुछ नहीं बोलना चाहते!

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इसका जवाब बहुत साफ है. उस जवाब की बहुत हद तक झलकियां चायवाली उस चौपाल में उस बुजुर्गवार नेता ने दे दी थीं, लेकिन मामला सिर्फ उतना भर ही नहीं है. लालू प्रसाद यादव जानते हैं कि वे खुद राजनीतिक जीवन में मुश्किलों और चुनौतियों से तो घिरे हुए ही हैं लेकिन नीतीश उनसे ज्यादा बेबस और लाचार हैं इसलिए नीतीश चाहे जितनी बातें कर लें, आखिर में नीतीश उस मुहाने पर खड़े हो चुके हैं, जिस मुहाने से मंजिल की ओर जाने के लिए सिर्फ और सिर्फ लालू प्रसाद यादव का साथ लेना और एक समय-सीमा के बाद उनकी शर्तों को मानना उनकी मजबूरी होगी. इसका एहसास भी लालू प्रसाद यादव ने स्वाभिमान रैली में करवाया. वे न सिर्फ स्टार वक्ता के तौर पर आखिर में मंच पर उतरे बल्कि उन्होंने सबके सामने कहा कि नीतीश अगर मुख्यमंत्री बनेंगे तो उनकी ही मेहरबानी से. ये कहकर वह अपने कोर मतदाताओं को निश्चिंत करवाना चाहते थे कि वे किंगमेकर रहेंगे. लेकिन लालू प्रसाद को इस बात का अहसास है िक इस बार की बिहार की लड़ाई उनके लिए भावी पीढ़ी की राजनीति के वजूद को बनाए और बचाए रखने की लड़ाई है. वे जानते हैं कि वे खुद इस बार के चुनाव मैदान में तो नहीं ही होंगे और यह कोई नई बात नहीं होगी लेकिन वे बहुत खुलकर राजनीति भी नहीं कर पाएंगे, क्योंकि कोर्ट-कचहरी का पहरा उन पर रहेगा और खुलकर राजनीति करने पर उनकी जमानत रद्द हो सकती है, जिसकी धमकी भाजपा नेता सुशील मोदी दे चुके हैं.

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लालू प्रसाद जानते हैं कि बीते लोकसभा चुनाव में उनके कोर मतदाताओं के समूह में से एक यादवों में भी भाजपा ने सेंधमारी कर दी है. यादवों के बिखराव को अगर वे इस बार नहीं रोक पाए या अपनी ओर नहीं समेट पाए तो अपने दोनों बेटों तेजस्वी और तेजप्रताप को ऐसी विरासत सौंपेंगे, जिसमें मुश्किलें ही मुश्किलें होंगी और संभावनाओं के सारे द्वार बंद रहेंगे. लालू प्रसाद यह भी जानते हैं कि बिहार में यादवों के पांच गढ़ मधेपुरा, दानापुर, छपरा और राघोपुर-सोनपुर जैसे इलाकों में वे और उनके परिवार के लोग बुरी तरह से हार का सामना कर चुके हैं, इन क्षेत्रों में उनका किला दरक चुका है. वह यह भी जानते हैं कि वे लाख कोशिशों के बावजूद राबड़ी देवी और मिसा को खड़ा नहीं कर सके तो इस बार की जरा-सी चूक तेजस्वी और तेजप्रताप को भी हाशिये पर धकेल देगी. नीतीश कुमार आनेवाले कल में अपनी सत्ता बचाने के लिए किसी ओर भी जा सकते हैं, इसका भी लालू का आभास है. किसी ओर का मतलब भाजपा से भी हाथ मिला सकते हैं लेकिन ऐसा करने के लिए लालू प्रसाद यादव के पास विकल्प कम होंगे. इसलिए लालू प्रसाद सब कुछ देख-सुन-समझकर भी नीतीश द्वारा लालू से अलगाव-दुराव का भाव दिखाते हुए सिर्फ खुद को ही स्थापित करने की प्रक्रिया में लगे रहने के बावजूद चुप्पी साधे रहे. इस सब के बाद लालू प्रसाद यह भी जानते हैं कि आज चाहें नीतीश कुमार जितनी भी पैंतरेबाजी कर लें, खुद को स्थापित करने की कोशिश कर लें लेकिन अगर चुनाव बाद उनकी पार्टी राजद जदयू के मुकाबले जरा भी मजबूत स्थिति में आती है तो फिर नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के सारे सपने को भी वे ध्वस्त कर देंगे. एकबारगी स्थिति ऐसी बनेगी कि नीतीश कुमार को एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई में से एक को चुनना होगा. लालू प्रसाद इस चुनाव में जितनी लड़ाई भाजपा या एनडीए से लड़ रहे हैं, उतनी ही बड़ी लड़ाई अपने संगी-साथी नीतीश कुमार से भी लड़ रहे हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि भाजपा से लड़ने में तो वे पहले भी सक्षम रहे हैं और आगे भी रह सकते हैं लेकिन उनकी बुनियाद को नीतीश कुमार ने ही कमजोर किया है और उन्हें राजनीति में इस स्थिति में पहुंचाया है कि उनके नाम की चर्चा के साथ कुविकास, जंगलराज से लेकर तमाम किस्म के विशेषण जरूर लगाए जाते हैं. नीतीश कुमार ने अपनी पूरी राजनीति लालू को ही दुश्मन बनाकर खेली और लालू प्रसाद के कारण ही वे सुशासन से लेकर विकास पुरुष तक के प्रतीक बने. नीतीश ने ही पिछड़ी राजनीति में गैर यादव जातियों को गोलबंद कर एक नया समीकरण बनाया और सुरक्षित राजनीतिक भविष्य के लिए पिछड़ो में भी ‘अतिपिछड़ों’ का बंटवारा कर लालू प्रसाद की बची-खुची संभावनाओं पर प्रहार किया था. नीतीश कुमार ने ही दलितों को ‘महादलित’ जैसे फ्रेम में बांधकर लालू प्रसाद के एक और बड़े कोर समूह को विखंडित किया और मुस्लिमों में भी ‘असराफ मुसलमान’ बनाम ‘पसमांदा मुसलमान’ की राजनीति कर उसमें बिखराव के बीज डाले. लालू प्रसाद यह सब जानते हैं और जानते हैं कि अगर भविष्य में उन्हें अपनी भावी पीढ़ी की राजनीति को बचाए रखना है तो नीतीश की राजनीतिक धारा को भी उतना ही कमजोर करना होगा, जितना की भाजपा की धारा को. यह सब और इस बार के चुनाव में खुद के महत्व को जानते हुए भी लालू प्रसाद इसलिए नीतीश कुमार के साथ बने हुए हैं, बने रहेंगे, क्योंकि हाल और हालात उनके अनुकूल नहीं हैं.

बेशक लगातार राजनीतिक तौर पर नीतीश की वजह से कमजोर होने, भाजपा की वजह से यादव वोटों में सेंधमारी होने, कांग्रेस द्वारा लगातार तिरस्कृत होने, तमाम तिकड़म-समझौते करने और राजनीतिक-रणनीतिक ताकत लगाने के बावजूद यादवों के गढ़ पाटलीपुत्र और छपरा में मिसा और राबड़ी की हार और विरासत के लिए घर के अंदरूनी कलह से लेकर बाहरी तौर पर पप्पू यादव द्वारा खुलेआम चुनौती मिलने के बाद लालू प्रसाद के सामने मुश्किलों का पहाड़ है. लेकिन अतीत के आंकड़े और वर्तमान में उपजी राजनीतिक स्थितियों ने उन्हें उस मजबूत स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है, जहां से लालू प्रसाद के पास खोने के लिए छोटा-सा दायरा है लेकिन पाने के लिए फिर से जीवित होकर बिहार में सदाबहार बड़ी ताकत बनने की संभावना भी.

अतीत के आंकड़े बताते हैं तमाम विपरीत परिस्थितियों, लोकप्रियता घटने, भाजपा-जदयू जैसी पार्टियों के साथ रहने के बावजूद, अपने सबसे बुरे दौर में भी वोट प्रतिशत के मामले में लालू बड़ी ताकत बने रहे हैं. 2004 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद को 30.67 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे, जो किसी भी पार्टी से ज्यादा थे. 2009 के लोकसभा चुनाव में राजद को 19.31 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे, 2014 के लोकसभा चुनाव में राजद को 20.1 प्रतिशत वोट मिले, जो नीतीश को मिले वोट से करीब पांच प्रतिशत ज्यादा थे. इसी तरह 2005 में अक्टूबर में हुए विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव की पार्टी को 23.45 प्रतिशत वोट मिले थे, जो किसी भी पार्टी से ज्यादा थे. इसी तरह 2010 के चुनाव में राजद को 18.84 प्रतिशत वोट मिले थे, जो भाजपा से करीब दो प्रतिशत ज्यादा था. ऐसे ही कई और आकंड़े लालू प्रसाद को भविष्य में भी मजबूत बने रहने के संकेत देते हैं. व्यक्तिगत तौर पर भी लालू प्रसाद के वोट का दायरा नीतीश की तुलना में ज्यादा माना जाता है. नीतीश कुमार  ने अपनी राजनीतिक पारी में दोनों ही बार बिना किसी सहारे के अपने दम पर चुनाव लड़ने की कोशिश की है और दोनों में ही वह एक फिसड्डी नेता साबित हुए हैं.

भाजपा से जुड़ाव से पहले 90 के दशक में जब नीतीश कुमार ने अकेले अपने दम पर समता पार्टी बनाकर विधानसभा चुनाव लड़ा, तो सात सीट पर उनकी पार्टी सिमट गई थी, जबकि उस वक्त झारखंड भी बिहार का हिस्सा हुआ करता था और वर्तमान से 81 सीटें ज्यादा हुआ करती थीं. बाद में 2014 के लोकसभा चुनाव अकेले लड़े तो दो सीटों पर सिमट गए. ऐसे में लालू प्रसाद उन पर भारी पड़ते हैं.

अतीत की बातों को छोड़ दें तो भी लालू प्रसाद के पास वर्तमान में भी कई ऐसी संभावनाएं हैं, जिसके जरिये वे इस बार के बिहार चुनाव में केंद्र बने रहेंगे. नीतीश कुमार डीएनए और बिहारी अस्मिता जैसे मामले को उछालकर बिहार के वोटरों को गोलबंद करने में लगे हुए हैं. बिहारी अस्मिता एक ऐसा मामला रहा है, जिसे नीतीश कुमार पिछले दस सालों से चलाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन वह कभी परवान नहीं चढ़ सका है. दूसरी ओर लालू प्रसाद यादव ने सीधे-सीधे मंडल पार्ट-2 का बिगुल बजा दिया है. लालू ने सीधे-सीधे जातिगत व सामाजिक न्याय की राजनीति का एलान किया है. जातीय जनगणना को सार्वजनिक करने की मांग को लेकर वे धरना से लेकर रोड मार्च तक कर चुके हैं. लालू प्रसाद ने इस बार के चुनाव में अपना एजेंडा साफ कर दिया है िक वे पुराने समीकरणों की वापसी चाहेंगे. वे अपने वोटों के बिखराव को रोकने के लिए मंडल, सामाजिक न्याय के बहाने जातिगत ध्रुवीकरण चाहेंगे. इसके लिए वे सवर्णों का खुलेआम विरोध करेंगे.

लालू प्रसाद जानते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव में सवर्णों से बार-बार माफी मांगने, सवर्णों के मठों में रात-रात भर घूमकर चंदा देने, अच्छी-अच्छी बातें बोलने के बावजूद सवर्णों ने उनका साथ नहीं दिया था तो इस बार के विधानसभा चुनाव में उसकी संभावना तो और दूर-दूर तक नहीं. इसलिए वे ऐसा करेंगे और यह उन्हें फायदा भी पहुंचाएगा. हालांकि नीतीश इससे खुद की छवि को ध्यान में रखते हुए अनकंफर्ट महसूस करेंगे लेकिन उनके पास दूसरा रास्ता नहीं होगा. लालू प्रसाद अपनी ताकत जानकर ही नीतीश कुमार से साफ कर चुके हैं कि उन्हें बराबरी का सीट चाहिए. नीतीश 2010 के विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी के लिए अर्जित सीट का वास्ता देकर लालू प्रसाद को कम सीटों पर सिमटाना चाहते थे लेकिन लालू प्रसाद ने पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में नीतीश की स्थिति की याद दिलाकर उन्हें बैकफुट पर जाने को मजबूर किया. लालू प्रसाद आगे की राजनीति भी जानते हैं कि अगर सीटों के बराबर बंटवारे में उन्हें नीतीश से ज्यादा सीटें मिल गईं तो फिर वे बिहार की राजनीति का मुहावरा भी बदलने की कोशिश करेंगे और नीतीश कुमार के संगी-साथी यह जानते हैं कि लालू प्रसाद के मजबूत होने के बाद भाजपा से ज्यादा मुश्किलें नीतीश कुमार के लिए ही आने वाली हैं.

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लेकिन इतनी संभावनाओं के बावजूद, मजबूरी में ही मजबूती की संभावना बनने के बावजूद लालू प्रसाद के पास जो छोटी-छोटी चुनौतियां हैं, उससे ही पहले पार पाना होगा. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘चुनौतियां और संभावनाएं तो राजनीति में आती-जाती रहती हैं लेकिन यह सच है कि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार का समर्थक समूह अथवा वोट बैंक ऐतिहासिक बिखराव की ओर है. न तो यह गोलबंदी एक दिन में हुई थी, न बिखराव की स्थिति एक दिन में आई है. एक लंबी प्रक्रिया के बाद बिखराव की स्थिति बनी है और ऐसे में लालू प्रसाद को सिर्फ अपने बिखराव पर ही पूरी ऊर्जा लगानी होगी. वे नया कुछ हासिल  नहीं कर पाएंगे लेकिन वे बिखराव को जितना ज्यादा रोक पाएंगे, उतना ही सफल होंगे.’

नीतीश-लालू दोनों के साथ लंबी राजनीतिक पारी खेल चुके बिहार के चर्चित नेता और पूर्व सांसद शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘लालू प्रसाद की भूमिका सामाजिक न्याय की राजनीति में नीतीश कुमार की तुलना में सदा ही ज्यादा रही है. लालू प्रसाद इस बार नीतीश के लिए खेवनहार बन सकते हैं, उसकी संभावना कम है. ज्यादातर चुनौतियां लालू प्रसाद के लिए हैं. उनके लिए चुनौती अपनी जाति की राजनीति में भी है.’

बेशक आज लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव जैसे तीन प्रमुख यादव नेता एक साथ, एक छोर पर हैं और यह परिघटना वर्षों बाद हुई है लेकिन बिहार में शरद यादव और मुलायम सिंह यादव की ज्यादा चलती नहीं है. बिहार में कई दूसरे ताकतवर यादव नेता आज लालू प्रसाद से दूसरे छोर पर हैं. नंदकिशोर यादव पहले से ही भाजपा में हैं और प्रमुख नेता रहे हैं. अब लालू के अहम संगी साथी और उनकी बेटी मिसा भारती को हराकर संसद पहुंचे रामकृपाल यादव भी भाजपा के साथ हैं. भोजपुर के इलाके में एक छोटे दायरे में ही पकड़ रखने वाले ददन पहलवान दूसरी ओर हैं. लालू प्रसाद के चर्चित साले साधु यादव भी अपनी पार्टी बनाकर अलग ताल ठोंक रहे हैं. इन सबके बाद पप्पू यादव भी अब लालू प्रसाद के साथ नहीं हैं, जिनकी कोसी इलाके में पकड़ मानी जाती है और भाजपा की आंधी में भी लोकसभा चुनाव में अगर कोसी के इलाके में भाजपा का प्रभाव नहीं जम सका था तो उसमें पप्पू यादव की ही भूमिका महत्वपूर्ण मानी गई थी. पप्पू यादव कहते हैं, ‘व्यक्तिगत तौर पर लालू प्रसाद मेरे लिए आदरणीय हैं लेकिन वे जिस तरह की राजनीति करना चाहते हैं, हम उसके विरोध में खडे़ हुए हैं.’ लालू प्रसाद कहते थे, ‘रानी के पेट से नहीं मेहतरानी के पेट से भी राजा जनमेगा’, तो फिर क्यों वे अपने ही परिवार के बाहर नहीं सोच पा रहे. पहले राबड़ी देवी को लाए. बाद में बेटी को लाना चाहा. अब बेटों को आगे करना चाह रहे हैं. वे क्यों यादवों को अपनी जागिर समझ रहे हैं. पप्पू कहते हैं, ‘जिस नीतीश कुमार की वजह से यादव जंगलराजी जाति बने, उसी नीतीश कुमार के साथ मिलकर लालू प्रसाद कौन-सी राजनीति करना चाहते हैं, यह साफ नहीं है.’ हालांकि पप्पू यादव अपनी राजनीतिक भाषा बोल रहे हैं. वे लालू प्रसाद से अलग हुए हैं तो विरोध में बोलेंगे ही, लेकिन उन्होंने एक मसला उठाकर लालू को परेशानी में डाल दिया था. पप्पू ने कहा था कि अगर विरासत परिवार को ही सौंपनी है तो मिसा को क्यों नहीं? बेटों को क्यों? यह लालू प्रसाद के सामने एक ऐसा सवाल था, जिसका जवाब देना उनके लिए आसान नहीं था. हालांकि लालू प्रसाद ने पप्पू को जवाब दिया और कहा कि उनके बेटे ही उनकी विरासत को संभालेंगे.

लालू प्रसाद ने भले ही यह कह दिया हो कि उनके बेटे ही उनकी विरासत को संभालेंगे लेकिन सूत्र बताते हैं कि इसे लेकर परिवार में भी कोई कम कलह नहीं है. उनकी बेटी मिसा भारती, जो पिछले लोकसभा चुनाव में जोरशोर से दानापुर से मैदान में उतरी थी और जिनकी जीत सुनिश्चित कराने के लिए लालू प्रसाद यादव ने दानापुर क्षेत्र के दबंग और जेल में बंद रितलाल यादव तक से समझौते किये थे, वह मिसा चुनाव नहीं जीत सकी थीं. मिसा भले चुनाव नहीं जीत सकी थी लेकिन लोगों ने यह माना था कि लालू की उत्तराधिकारी उनके परिवार में वही हो सकती हैं, क्योंकि वह क्षेत्र में जिस अंदाज में प्रचार कर रही थीं, उससे उनमें बहुत संभावना दिखी थी. लेकिन लोकसभा चुनाव हारने के बाद मिसा दरकिनार कर दी गई हैं. राबड़ी देवी पोस्टरों पर चमक रही हैं लेकिन वह चुनाव नहीं लड़ेंगी, ऐसा ऐलान हो चुका है. लालू प्रसाद के दोनों बेटे चुनाव मैदान में उतरेंगे, इसका एेलान भी हो चुका है लेकिन उनके उतरने पर क्या होने वाला है, इसके संकेत भी मिल चुके हैं.

बहरहाल, महुआ विधानसभा क्षेत्र में जैसे ही लालू प्रसाद के बेटे ने अपने को वहां का प्रत्याशी घोषित किया, सबके सामने ही राजद कार्यकर्ता आपस में सिरफुटव्वल और गालीगलौज कर दिखा चुके हैं कि लालू अपने परिवार को इतनी आसानी से अब थोप नहीं सकते. महुआ में लालू प्रसाद के सामने ही कार्यकर्ताओं की लड़ाई होती रही और वह कुछ कर सकने की स्थिति में नहीं रह गए थे. बस तमाशबीन भर बने हुए थे. लालू प्रसाद के लोग जानते हैं कि मिसा को एक झटके में दरकिनार कर, दोनों बेटों को दो सीटों से लड़वाकर लालू प्रसाद अपने परिवार की राजनीति को अगर शांत भी कर लेते हैं तो टिकट बंटवारे के समय ऐसे कई ‘महुआकांड’ उन्हें झेलने पड़ सकते हैं और राजद में होने वाली बगावत का असर उनकी पूरी रणनीति पर पड़ेगा. पप्पू यादव का समर्थन कर भाजपा इसलिए ही आगे बढ़ा रही है कि लालू प्रसाद के जो बगावती होंगे, उन्हें वे अपनी पार्टी में लेकर मजबूती से चुनाव में उतार देंं, ताकि वोटों का बंटवारा हो और लालू प्रसाद का कुनबा बिखर सके. भाजपा के लिए नीतीश नहीं लालू ही चुनौती हैं, इसलिए भाजपा नीतीश से ज्यादा लालू पर ही वाक प्रहार कर रही है और पूरे चुनाव में करती भी रहेगी.

‘मोदी बिहार का जितना दौरा करेंगे, उतना फायदा हमें मिलेगा’

Sharad Yadav by Shailendra (7)-webजनता दल (यूनाइटेड) नेता और राज्यसभा सांसद शरद यादव संसद में किसी विषय पर चल रही बहस को रहस्यमयी तरीके से भटकाने के लिए जाने जाते हैं. हाल ही में जब संसद में बीमा विधेयक पर बहस चल रही थी, तब अचानक शरद यादव ने लीक से हटकर गोरी त्वचा और दक्षिण भारतीय महिलाओं की नृत्य क्षमता के बारे में बोलना शुरू कर दिया. इस घटना से न सिर्फ उनके हंसी-मजाक में प्रवीण होने के बारे में पता लगा बल्कि उनके हठी होने का भी प्रमाण मिला. राज्यसभा में विधेयक के पारित होने से पहले ही वे सदन से बाहर चले गए. इस घटना से ये  भी साफ हुआ कि जदयूू अध्यक्ष की  दिलचस्पी मुद्दे पर चल रही बहस में न होकर अप्रासंगिक विषयों में थी.

अगले कुछ महीनों में बिहार विधानसभा चुनाव हैं और इसके मद्देनजर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने मिलकर चुनाव लड़ना तय किया है. चर्चा है कि दोनों के बीच बढ़ रही नजदीकियों को लेकर शरद यादव असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. इस अफवाह को सिरे से खारिज करते हुए वे कहते हैं, ‘हाल के दिनों में जदयू और राजद का करीब आना बहुत अच्छी बात है. यह महागठबंधन राज्य में राजनीति की दिशा बदल देगा. हम लोगों के बीच लंबे समय तक दूरी बनी रही पर अब हम मित्र हैं और मिलकर काम करेंगे, जैसा हम पहले करते रहे हैं. ये गठबंधन हमारे लिए अच्छा है.’

जदयूू और राजद के बीच लंबे समय तक दूरी बन जाने की वजह से उनकी पार्टी को काफी नुकसान हुआ है और वे इसे स्वीकारते भी हैं, ‘जदयू और राजद के गठबंधन को लेकर पार्टी के कार्यकर्ता खुश हैं. इसका असर चुनाव परिणामों पर भी दिखेगा. दोनों दलों के बीच दरार पड़ने का सर्वाधिक लाभ  (भाजपा) को मिला है. कई सालों की इस दरार का खामियाजा हमें पिछले चुनावों में हार के बतौर उठाना पड़ा था. 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपीए की असफलता की वजह से ही उन्हें पूर्ण बहुमत मिल सका.’

हालांकि जब उनसे जदयू और राजद के बीच 80 के दशक में बने गठबंधन और फिर 90 के दशक में दोनों दलों के बीच  आई दूरी के बारे में सवाल पूछा तो टालते हुए उन्होंने कहा, ‘यह बहुत पुरानी बात है इसलिए उस बारे में बात करना ठीक नहीं होगा. दोनों ही पार्टियों की विचारधारा एक ही है और अब दोनों साथ हैं.’

जीतन राम मांझी के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ‘उन्होंने  संविधान के किसी नियम का अनुसरण नहीं किया. उन्हें वित्त और राजकोष की कोई समझ नहीं है. हमें उनसे उम्मीद थी और यही वजह थी कि उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी दी गई थी. मुख्यमंत्री का पदभार संभालते ही उन्होंने पार्टी की विचारधारा को ही भुला दिया.’

जीतन राम मांझी द्वारा गठित पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (एचएएम) और भाजपा के बीच हुए गठजोड़ के बारे में शरद यादव कहते हैं, ‘हमें उनके (मांझी) दलित वोट बैंक की फिक्र नहीं है. वे दरअसल कांग्रेस में थे और बाद में हमारे साथ आ गए तो पार्टी ने उनके पक्ष में वोट किया और फिर हम लोगों ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया.’

पिछले दिनों बिहार विधान परिषद चुनावों में पार्टी के लचर प्रदर्शन को लेकर शरद यादव ज्यादा चिंतित नहीं हैं. उनका मानना है कि चुनावों में धन का दुरुपयोग लोकतंत्र की सेहत के लिए ठीक नहीं है और इससे हुए नुकसान की भरपाई मुश्किल है. वे बताते हैं, ‘उन चुनावों से हमारा ज्यादा लेना-देना नहीं था. हमने कभी भी ऐसे चुनावों में दिलचस्पी नहीं ली है. भाजपा ने वोट के लिए पैसे दिए. उन्होंने पैसा बांटकर चुनाव में जीत हासिल की.’

यादव के अनुसार, आज की तारीख में चुनाव केवल पैसों से नहीं बल्कि जाति के आधार पर भी लड़ा जा रहा है. जदयू अध्यक्ष का कहना है, ‘चुनाव हर चीज को मिलाकर लड़ा जाता है. सामाजिक गैर-बराबरी और आर्थिक गैर-बराबरी की समस्या बरकरार है. यह सब सालों से चलता आ रहा है. जो लोग जाति आधारित राजनीति करते हैं, वे हर तरह के फायदे में हैं. वे हाशिये के लोगों, शोषितों और वंचितों के बारे में कभी बात नहीं करते हैं. हमारी पार्टी सभी के बारे में बात करती हैं लेकिन वे केवल हिंदू और मुस्लिमों के बारे में बात करते हैं.’

शरद यादव का कहना है कि वोट बैंक का किसी पार्टी से नाता नहीं होता है. ‘2014 के आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा को सफलता इसलिए मिली क्योंकि सपा और बसपा के बीच दरार थी. अगर ऐसा नहीं होता तो आम चुनावों के नतीजे कुछ अलग ही होते.’

भाजपा को शिकस्त देने के सवाल पर वे कहते हैं, ‘ये संभव है कि मोदी लहर हो लेकिन बिहार में इन बातों का असर नहीं पड़ेगा. एक बात तो तय है कि केवल वाक-चातुर्य से देश नहीं चल सकता. 2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान किए गए वायदे अभी तक पूरे नहीं किए गए हैं. भाजपा के नेता भाषण देते समय सिर्फ अटल बिहारी वाजपेयी की नकल कर रहे हैं. हमारे पास जय प्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया जैसे नेताओं की विरासत है लेकिन हम किसी की नकल नहीं करते.’

नरेंद्र मोदी के बारे में उनका कहना है, ‘मोदी जितना ज्यादा बिहार के दौरे पर जाएंगे, उसका उतना फायदा हम लोगों को मिलेगा.’

नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के गठजोड़ की वजह से बिहार में भाजपा को चुनौती तो मिलेगी. देखना दिलचस्प होगा कि आगामी विधानसभा चुनाव के दौरान शरद यादव की उम्मीदें पूरी होंगी या फिर आम चुनावों की तरह मोदी लहर का ही जादू चलेगा.

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सबको दशरथ की कहानी अविश्वसनीय क्यों लग रही थी जबकि 60 के दशक में पहाड़ काटने का काम शुरू कर 22 सालों की अथक मेहनत से दशरथ मांझी पहाड़ काटकर रास्ता बना चुके थे.

दशरथ को जीते-जी उनके काम के लिए वह सम्मान कहां मिला!  मृत्यु के कुछ साल पूर्व से उन्हें सम्मान मिलना शुरू हुआ. अखबारों में, मीडिया में खबर आई, बावजूद इसके एक बड़ा खेमा ऐसा भी था, जो दशरथ को उसके इस विराट कार्य का श्रेय नहीं देना चाहता था. पहाड़ काट देने के बाद भी मीडिया का एक खेमा यह कहता रहा कि दशरथ ने यदि पहाड़ काटा तो कटने के बाद निकलने वाला पत्थर कहां गया! उसकी छर्री कहां गई? वन विभाग ने पहाड़ काटने पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं की? आदि. संभ्रांत व सामंतमिजाजी समाज ने तो कभी चाहा ही नहीं कि प्रेम के ऐसे उद्दात स्वरूप का श्रेय मांझी को जाए, इसके लिए वह आखिरी समय तक माहौल बनाने में लगा रहा. मुझे तो लगता है कि बाद के दिनों में दशरथ मांझी ने आध्यात्मिकता में मन इसीलिए लगा लिया था कि शायद उन्हें सर्वमान्यता मिले. वे कबीरपंथी हो गए थे लेकिन तब भी श्रेष्ठतावादी व शुद्धतावादी समाज उन्हें वह मान्यता नहीं दे सका.

लेकिन सुनते हैं कि नीतीश कुमार ने तो उन्हें अपनी कुर्सी पर बिठाया था?

यह सब तो बहुत बाद की बात है. 1982 में दशरथ मांझी पहाड़ काट चुके थे लेकिन उन्हें सम्मान तीन दशक बाद मिलना शुरू हुआ.

 आपकी तो कई बार बात-मुलाकात हुई होगी. पहाड़ काटने की सही घटना क्या है?

वे कई बार मिले. हम एकभाषी थे तो आत्मीयता से मगही में बात होती थी. वे मेरे दफ्तर में भी आते थेे. पहाड़ में रास्ता पहले से था पर बहुत ही संकरा. वे पहाड़ के उस पार खेत में काम करने जाते थे. उनकी पत्नी फगुनी देवी उसी संकरे रास्ते से उनके लिए खाना-पीना लेकर खेत में जाया करती थीं. एक दिन वह जा रही थीं कि  उस संकरे रास्ते में फंस गईं. खाना-पानी सब गिर गया. दशरथ का प्यास के मारे हाल-बेहाल था लेकिन पानी उन तक पहुंच नहीं सका. उन्होंने पत्नी की हालत देखी और उसी दिन तय किया कि कोई न कोई रास्ता तो निकालना होगा. फगुनी के लिए भी और उन तमाम महिलाओं के लिए भी, जो रोज खेत पर खाना-पानी लेकर आती हैं. दशरथ ने उसी दिन से अपनी रोजमर्रा की मजदूरी को जारी रखा लेकिन समय निकालकर पहाड़ को काटना भी शुरू कर दिया और 22 सालों में उस रास्ते को बना दिया. दशरथ फगुनी से प्रेम करते थे लेकिन फगुनी के बहाने कई स्त्रियों की मुश्किलें भी उनके सामने थीं. यही सच है, प्रेम व्यक्तिगत होता है लेकिन जब वह समूह का हो जाता है तो क्रांति हो जाती है. दशरथ ने क्रांति ही की. दुनिया में कोई मजदूर ऐसा नहीं होगा, जो अपनी मजदूरी करते हुए छेनी-हथौड़ी से ऐसा कीर्तिमान कायम कर दे, प्रेम की ऐसी निशानी बना दे.

आपने बताया सभी ने दशरथ की कहानी हटाकर सिर्फ जेहल की कहानी को प्रकाशित किया. जेहल की कहानी इतनी पावरफुल थी कि कई लोग उस पर फिल्म बनाने को तैयार थे लेकिन आप साथ में दशरथ की कहानी रखकर ही फिल्म बनाने की सलाह दे रहे थे. जेहल की कहानी भी बताइए.

जेहल भी गया जिले के अतरी प्रखंड इलाके के ही थे. वे मुसहर जाति के थे. दुल्लू सिंह जमींदार थे, जिनके यहां जेहल बनिहारी (मजदूरी) करते थे. जेहल की शादी दुल्लू सिंह ने अपनी ससुराल की राजमुनी से करवा दी. राजमुनी के पिता नचनिया थे और उसकी मां दुल्लू सिंह के ससुर की रखनी (रखैल) थीं, तो जेहल की पत्नी के आने के बाद दुल्लू सिंह ने कहा कि तेेरी मां को मेरे ससुर ने रखनी रखा था तो हम राजमुनी को रखेंगे. जेहल बेचारा क्या बोलता लेकिन राजमुनी ने विद्रोह कर दिया. एक दिन अचानक वह घर से निकल गई. रास्ते में जेहल मिला, जो टेउंसा बाजार से अपने मालिक के लिए गांजा लेकर आ रहा था. राजमुनी ने अपने पति से कहा, ‘वह जा रही है लेकिन एक दिन लौटकर आएगी, अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जिएगी, लेकिन तुम्हारे साथ ही’. राजमुनी वहां से भागकर बनारस में एक थियेटर कंपनी में नाचने लगी. इस बीच लोग जेहल को चिढ़ाते रहते थे कि तुम्हारी पत्नी तो गया में कोठे पर दिखी थी. कोई कुछ और कहता पर जेहल सबकी बात चुपचाप सुनता. वह मेरे पास भी आता था, मुझसे पूछता कि आपकी भी पत्नी है, वह भी तो भाग गई होंगी. पत्नी तो भाग ही जाती है न! जेहल बहुत ही मासूम इंसान था.

राजमुनी जिस थियेटर कंपनी में काम करती थी, वह एक बार राजगीर के मलमास मेले में आई. राजमुनी को फिर से दुल्लू सिंह ने देख लिया, वह बलात फिर उसे ले जाने लगे, इस बार राजमुनी ने दुल्लू की हत्या कर दी और फिर भाग गई. एक बार फिर से जेहल को किसी ने चिढ़ा कर कह दिया कि उसकी राजमुनिया तो नदी के उस पार मजार पर चादर चढ़ाने आई है, अभी-अभी दिखी है वहां. जेहल भागते-भागते नदी किनारे आया. नदी के उस पार जाने का कोई रास्ता नहीं था. उसने उस पार, राजमुनी के पास जाने के लिए भादों की उफनती हुई नदी में छलांग लगा दी, नदी से फिर उसकी लाश ही निकली. और संयोग कुछ ऐसा हुआ कि कुछ देर बाद सच में राजमुनी को लेकर दारोगा उसके गांव में पहुंचा. राजमुनी उसके पास रहने आई थी लेकिन जेहल जा चुका था. राजमुनी ने उसके पांवों के पास ही अपनी चूडि़यां तोड़ीं. मैंने समानांतर रूप से दशरथ और जेहल की प्रेम कहानी को लेकर ‘आदिमराग’ लिखी थी, यह बताने के लिए प्रेम का दायरा सिर्फ निजी स्तर पर होता है तो उसकी निष्पत्ति कैसी होती है और जब प्रेम समूह से जुड़ता है तो उसका स्वरूप कैसा होता है.

आपने यह कहानी भी प्रकाश झा को दी थी?

प्रकाश झा जी प्रेम पर फिल्म नहीं बनाना चाहते. उनके विषय दूसरे होते हैं. उन्होंने बेबीलोन पर बात की. एक बार दिल्ली बुलाया, मैंने 18 घंटों में एक कहानी लिखी- ‘अभिशप्त’. तीन साल बाद उस पर ‘मृत्युदंड’ फिल्म बनी. बासुभट्टाचार्य को भी जेहल की कहानी पसंद थी.

 आप मुंबई जाते नहीं, मुंबई आपकी शर्तों पर आता नहीं. यह जिद क्यों?

कोई जिद नहीं है. मैं खुद को िक्रएटिव बनाए रखने के लिए काम करता हूं, मुंबई के लिए नहीं. ‘पुरुष’ फिल्म के दौरान राजकुमार संतोषी ने एक फिल्म की कहानी मांगी थी. मैंने हां कह दिया था लेकिन फिर मुंबई नहीं गया. मुझे होटलों में रहकर स्क्रिप्ट और कहानी लिखना पसंद नहीं. मैं अपनी जमीन पर रहकर काम करना चाहता हूं. जिससे मन मिलेगा, काम करूंगा, नहीं तो कोई बात नहीं. मैंने कभी अपनी आकांक्षाएं उतनी बड़ी की ही नहीं कि मेरे मन पर मंुबई का मोहपाश भारी पड़ जाए. एक बार विक्रम चंद्र ने कहा कि आप गया में क्या कर रहे हैं, आपको मुंबई में होना चाहिए. मैंने उनसे कहा कि आप मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के लिए लिखते हैं तो आप लंदन में क्या कर रहे हैं? बात हंसी-हंसी में खत्म हो गई.

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आपकी जानकारी में दशरथ मांझी पर और किन लोगों ने फिल्म बनाने की कोशिश की?

हमेशा ही कोई न कोई बात करता रहा. रुबीना गुप्ता ने तो डॉक्यूमेंट्री भी बनाई. उस डॉक्यूमेंट्री के लिए मैंने एक कविता भी लिखी, ‘ बोल देने से नहीं होता है प्रेम. क्रांति महज इतन नहीं है कि बोल दो नारा. उठा लो शस्त्र. प्रेम करना सीखो. जैसे यह श्वेत पुष्प जीना सीखता है रक्त समुदाय के साथ. मेरे भीतर.’

और भी कई लोगों ने कोशिश की. कुछ तो कहते हैं िक उन्होंने  दशरथ मांझी से जीते-जी लिखवा लिया था कि वे लिख दे कि उन पर फिल्म बनाने का अधिकार सिर्फ उनका ही होगा लेकिन केतन मेहता इसमें बाजी मार ले गए. दशरथ मांझी पर साहित्य हमेशा उपलब्ध रहा लेकिन साहित्य के क्रूर यथार्थ को लोक की रुचि के अनुसार सत्य में ढालने का काम ही तो निर्देशक का होता है, सिनेमा वही तो करता है और उस कहानी को केतन फिल्म के जरिये दर्शकों के सामने रखी.

 

आपने कहा कि होटलों में रहकर कहानियां लिखने से वह बात नहीं आ पाती. क्या आज की फिल्मों के साथ ऐसा ही है?

नहीं, ऐसा कैसे कह सकते हैं. एक से एक फिल्में आ रही हैं. अच्छी कहानियां लिखी जा रही हैं. अनुराग कश्यप की फिल्में हैं, राजकुमार हिरानी की फिल्में हैं और भी कई कहानियां हैं. दम लगा के हईशा, मसान… कई फिल्में आई हैं लेकिन मल्टीप्लेक्स के दौर में बड़े स्टार को ध्यान में रखकर कहानियां लिखी जाने लगीं तो फिल्मों का मामला गड़बड़ा गया. बड़े स्टार साल में कितनी फिल्में कर सकते हैं और स्टार हैं ही कितने! इसलिए स्टार के दायरे से फिल्मों को निकालना होगा. वह निकलने भी लगा लेकिन फिर वही प्रेम और शादी के इर्द-गिर्द फंसता गया. प्रेम, शादी के इतर की दुनिया भी है, जो सिनेमा का इंतजार कर रही है. सिनेमा में कुछ निर्देशक उस इतर दुनिया को तो सामने ला रहे हैं लेकिन अब भी गांव की वापसी का रास्ता नहीं दिख रहा. गांव को भी तो वापस लाना होगा.

गांव भी तो अब पहले जैसे नहीं रहे?

क्या बात कर रहे हैं आप? देखिए चलकर, एक से एक गांव मिलेंगे और उन गांवों में एक से एक कहानियां मिलेंगी. मध्ययुगीन क्रूरता अब भी मिलेगी.

केतन की फिल्म की स्क्रिप्ट आपने देखी होगी. क्या वे असल दशरथ मांझी को लेकर आ रहे हैं?

मैंने कहा न कि सहमति-असहमति कई बिंदुओं पर हो सकती है लेकिन केतन को बधाई दीजिए िक वे इसे कर रहे हैं. तीन दशक तक फिल्म इंडस्ट्री के लोग इस कहानी को अविश्वसनीय ही मानते रहे और अब केतन ने इसे पूरा किया है. बाकी कई बिंदुओं पर असहमति हो सकती है, वह अलग बात है. अब जब यह फिल्म चल रही है तो याद रखिए कि दशरथ जैसे मामूली लोगों को लेकर बायोपिक फिल्मों का दौर लौटेगा और तब कई मांझियों की कथा सेल्यूलॉयड के जरिये सामने आएगी. गांव-कस्बों में एक से बढ़कर एक नायक हुए हैं, जिनकी कहानियां दुनिया को प्रेरित कर सकती हैं. जैसे दशरथ की कहानी में खास है कि एक मजदूर ने प्रेम की ऐसी निशानी दी कि शहंशाह का प्रेम हाशिये पर चला गया, वैसी ही कई कहानियां हैं अपने देश में.

‘मैं खुद को क्रिएटिव बनाए रखने के लिए काम करता हूं, मुंबई के लिए नहीं’

18-web आप विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं, ऐसे में लेखन की प्रेरणा कहां से मिली?

हम लोग मूल रूप से बिहार के ‘बाढ़’ कस्बे के रहने वाले हैं. वहीं पढ़ाई-लिखाई हुई. मेरे पिताजी राजकमल चौधरी (प्रसिद्ध मैथिल और हिंदी लेखक) के पिता के साथ शिक्षक थे. बिहार के एक उपन्यासकार अनूप लाल मंडल के साथ भी उन्होंने काम किया. पिताजी भी लिखते थे. इसका असर मुझ पर और मेरे बड़े भाई पर भी पड़ा. आठवीं क्लास से मैं भी बाल कविताएं लिखने लगा. बाल भारती आदि में कविताएं छपने लगीं. मैट्रिक पास किया तो बड़ों के लिए कविताएं लिखने लगा. फिर इंटर पास करने के बाद मैं और बड़े भाई मिलकर ‘कथाबोध’ नाम की पत्रिका निकालने लगे. शे.रा. यात्री, नरेंद्र कोहली जैसे लेखकों ने उस वक्त हमारी पत्रिका में लिखा बाकी जो बेहतरीन कहानीकार होते थे, हम लोग उनकी कहानियां छापते थे. जो स्थानीय लेखक थे, जिनकी कहानियां नहीं छपती थीं, उनकी किताबें भी सहयोग के तौर पर छापते थे, इस तरह लेखन से लगाव होता गया.

आप कविताएं लिखते थे लेकिन पहचान कथाकार की है. कथा की दुनिया में कब प्रवेश किया?

जब से कथाबोध पत्रिका निकालने लगा तभी से कहानियों की समझ होने लगी थी. ग्रेजुएशन के पहले साल में मैंने ‘और सीढि़यां टूट गईं…’ शीर्षक से एक कहानी लिखी. वह कहानी ‘रेखा’ पत्रिका में प्रकाशित हुई. उसके बाद ‘अपर्णा’, ‘कात्यायनी’ आदि पत्रिकाओं में कहानियां भेजने लगा. कहानियां तो लिखने लगा लेकिन कविता से न तो सरोकार कम हुआ, न लिखना बंद किया.

यानी कि तब से लगातार लिख रहे हैं!

नहीं. अभी तो लिखना शुरू ही किया था कि दूसरे किस्म की परेशानी सामने आ गईं. हम भाइयों ने जिस पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया था, वह एक साल बाद बंद हो गई. इस बीच पिताजी की तबियत ज्यादा खराब हुई तब उन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया. बड़े भाई की भी तबियत खराब रहने लगी. घर में आर्थिक संकट था. मैंने तब कॉलेज में नया-नया दाखिला लिया था. संकट के उस दौर में मैंने सब छोड़-छाड़कर अर्थोपार्जन की ओर ध्यान लगाया और एक साथ पांच-छह ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया. उससे जो आमदनी होती थी, उससे अपनी पढ़ाई भी करता था और घर की देखरेख भी.

इस तरह लेखन छूट जाने पर एक लंबा गैप रहा. लेखन से एक लंबे समय तक दूरी बनी रही. वह तो जब बीएससी आखिरी साल में पढ़ रहा था तो राजकमल चौधरी का एक पत्र आया, जिसमें लिखा था कि वे बाढ़ आने वाले हैं. नीलम सिनेमा हॉल के मैनेजर को भी बता दीजिएगा कि आने वाला हूं. आप और क्या-क्या लिख रहे हैं, यह भी देखूंगा और यह भी बताइए कि आप लेखन के अलावा और क्या करते हैं? तब मैं क्या जवाब देता कि अब लेखन छोड़कर सब करता हूं. बीएससी के बाद साइंस टीचर के रूप में मेरी नौकरी राजगीर के पास एक गांव में लगी. मुझे बुलाकर ले जाया गया, क्योंकि उस समय साइंस टीचर कम मिलते थे, उनकी बड़ी इज्जत भी होती थी लेकिन उस गांव में सांप्रदायिक तनाव इतना रहता था कि मैं नौकरी छोड़कर चला आया. फिर रिजर्व बैंक फील्ड सर्विस में नौकरी की लेकिन 11 बाद वहां से भी नौकरी छोड़नी पड़ी. बाद में प्रखंड सांख्यिकी पर्यवेक्षक के तौर पर मेरी नौकरी लगी और पटना जिले के बाढ़ को छोड़कर घोसी में नौकरी करने आ गया. वही घोसी इलाका मेरे कथालेखन का गुरु बना और आज भी कथालेखन के क्षेत्र में उसी इलाके को मैं अपना गुरु मानता हूं.

वह इलाका कैसे गुरु हुआ?

वहां जिस पद पर आया था, उसके लिए पूरे इलाके को घूमना जरूरी था. घूमता रहा तो फिर से कथाकार मन जागृत हो गया. मैं हर 15वें दिन एक कहानी लिखकर ‘कहानी’ पत्रिका के संपादक संपत राय को भेजता था. वह मेरी हर कहानी लौटा देते और लिखते कि शैवाल तुम में बड़ी आग है लेकिन इस आग को एक आकार कैसे दिया जाए, फिलहाल मैं नहीं समझ पा रहा इसलिए यह कहानी लौटा रहा हूं. उनके बार-बार लौटाने के बाद भी मैंने लिखना नहीं छोड़ा. उसी क्रम में 1976 में ‘दामुल’ कहानी मैंने भेजी और वह वहां छप गई. घोसी में रहते हुए ही मैंने ‘कहानी’ पत्रिका को कहानी भेजने के साथ ही, ‘रविवार’ पत्रिका मंे ‘गांव’ नाम से कॉलम लिखना शुरू किया. गांव में मेरी एक कहानी ‘अर्थतंत्र’ भी छप चुकी थी, साथ ही धर्मयुग में ‘समुद्रगाथा’ कहानी भी छपी थी.

कविताओं से कहानियों की दुनिया, फिर फिल्म लेखन की प्रेरणा कहां से मिली?

‘रविवार’ में एक पत्रकार अरुण रंजन थे. 1980 के करीब बिहारशरीफ में दंगा हुआ था. सभी पत्रकार बिहारशरीफ जा रहे थे. मैं भी अरुण रंजन के साथ गया. सबने रिपोर्ट वगैरह लिखी, मैंने बिहारशरीफ दंगे पर कुछ छोटी-छोटी कविताएं लिखीं. कविताएं छपीं. तब बिहारशरीफ दंगे पर प्रकाश झा एक डॉक्यूमेंट्री बना रहे थे. उन्होंने मुझे पत्र लिखा कि वे अपनी डॉक्यूमेंट्री में मेरी कविताओं का इस्तेमाल करना चाहते हैं. इस तरह प्रकाश झा से मेरे रिश्ते की शुरुआत हुई. बाद में उनसे खतो-किताबत का रिश्ता बन गया. उन्होंने फिल्म के लिए और कहानियां मांगी, मैंने दे दीं. समुद्रगाथा भेजी, उन्हें पसंद आईं. फिर कालसूत्र कहानी पर बात हुई. ‘दामुल’ की कहानी कालसूत्र नाम से ही प्रकाशित हुई थी. तीन साल तक  ‘दामुल’ पर काम चला और बाद में 1985 में फिल्म आई तो सबने देखा-जाना. उस साल राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में उसे सर्वोच्च फिल्म का पुरस्कार भी मिला. उसके बाद ‘सारिका’ में एक कहानी प्रकाशित हुई थी ‘बेबीलोन’, प्रकाशजी उस पर भी फिल्म बनाना चाहते थे, बात भी हुई थी लेकिन किसी वजह से वह रुक गई.

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प्रकाश झा के साथ इतनी फिल्मों पर बात की, साथ मिलकर दामुल जैसी फिल्म भी दी. फिर आगे बात क्यों नहीं बन सकी?

प्रकाश झा जी के साथ उसके बाद मृत्युदंड फिल्म तो की ही थी मैंने. ऐसा नहीं कि प्रकाश झा से मेरे व्यक्तिगत रिश्ते कभी खराब हुए, अब भी उनसे बात होती है. आज भी मैं उन्हें बड़े गुलाम अली खां ही कहता हूं और वे मुझे फटीकचंद औलिया बुलाते हैं. व्यक्तिगत रिश्तों की गर्माहट बनी हुई है लेकिन फिल्मों में हमारे रास्ते बदल गए. प्रकाशजी ने दूसरी तरह की फिल्मों की ओर रुख कर लिया, उन्होंने बाजार के बड़े रास्ते की ओर रुख कर लिया पर मेरा मन कभी उस बड़े-चौड़े रास्ते के प्रति आकर्षित नहीं हुआ.

दामुल इतनी चर्चित हुई, राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला, मृत्युदंड की कहानी को उस साल की सर्वश्रेष्ठ कहानी की श्रेणी में नामित किया गया, तो क्या मुंबईवालों ने कभी संपर्क नहीं किया?

क्यों नहीं किया! बहुत बार संपर्क किया और मैं लगातार काम करता रहा लेकिन मैं अपनी जमीन छोड़कर काम नहीं कर सकता. जब मैं घोसी रहने गया और बाद में गया आया तो लगा कि अपने जीवन में कम से कम मध्य बिहार की ही बड़ी-छोटी घटनाओं का साहित्यिक दस्तावेजीकरण कर दूं, तो मेरे कर्तव्य के लिए यह बड़ी बात होगी. मैंने ऐसा करने की हरसंभव कोशिश भी की. मध्य बिहार में कोई ऐसी घटना-परिघटना नहीं हुई, जिसे मैंने अपनी कहानियों में नहीं लिया. यह मेरी प्राथमिकता रही लेकिन प्रकाशजी के इतर ‘पुरुष’ फिल्म बनी तो उसकी स्क्रिप्ट लिखी. राजन कोठारी  ने जब ‘दास कैपिटल’ बनाने की सोची तो उनका साथ भी दिया. प्रकाशजी के ही असिस्टेंट और मित्र अनिल अिजताभ ने जब भोजपुरी फिल्म बनाने की सोची तो पहली बार भोजपुरी फिल्म ‘हम बाहुबली’ लिखी और अभी निर्देशकों की मांग के बाद कम से कम चार कृतियों की स्क्रिप्टिंग का काम हो चुका है, उन पर काम चल रहा है. वैसे काम लगातार चलता ही रहा, कभी रुका नहीं.

केतन मेहता की फिल्म  ‘मांझी- द माउंटेनमैन’  के प्रोमो में उन्होंने आपका नाम डायलॉग कंसल्टेंट के बतौर दिया है. उनसे कैसे जुड़े? फिल्म के बारे में क्या राय है?

इसके लिए तो पहले केतन मेहता को बधाई और बहुत शुभकामनाएं कि जिस विषय पर फिल्म बनाने की बात 1980 से बड़े-बड़े निर्देशक करते रह गए, सोचते रह गए, स्क्रिप्ट वगैरह पर काम कर के भी रुक गए, उस फिल्म को लाने का काम केतन ने किया. केतन मेहता बड़े फिल्मकार हैं. 2013 में एक दिन वे पत्नी दीपाजी  (दीपा साही) के साथ मेरे घर आए. गया की बेतहाशा गर्मी में हाथ वाला पंखा लेकर पसीने से तर-ब-तर होकर चार घंटे तक दशरथ मांझी पर बात करते रहे. मुझे जितनी जानकारी थी, मैंने उनसे साझा की. स्क्रिप्ट में कुछ सुझाव-सलाह देने थे, वो दिए. बाद में प्रकाश झा जी का फोन आया कि डायलॉग भी देख लीजिए तो प्रकाशजी की बातों के बाद मैं कुछ बोल नहीं पाता, न आगे-पीछे पूछ पाता हूं. केतनजी बड़े फिल्मकार और नेकदिल इंसान हैं ही, तो डायलॉग्स में जो संभव था, वह भी किया. और अब तो फिल्म ही रिलीज हो चुकी है. फिल्म से सहमति-असहमति की बात अलग हो सकती है लेकिन केतन मेहता के साहस को सलाम करना चाहिए, वरना तीन दशक से अधिक समय से बॉलीवुड की दुनिया दशरथ के कृतित्व व व्यक्तित्व को समझने में ही ऊर्जा लगाती रही.

तीन दशक का क्या अर्थ? पहले किसने कोशिश की?

बात 80 के दशक की है. दामुल बन चुकी थी. उसी वक्त मेरी एक कहानी धर्मयुग में प्रकाशित हुई थी- आदिमराग. उस कहानी के छपने की भी एक कहानी थी. आदिमराग की पूरी कहानी, दो प्रेम कहानियों की थी. एक कहानी दशरथ मांझी की और दूसरी कहानी जेहल की. दोनों की प्रेम कहानी समानांतर रूप से आदिमराग में चलती है. मैं उस कहानी के जरिये सिर्फ यह बताना चाहता था कि किसी भी प्रेम की शुरुआत व्यक्तिगत स्तर पर ही होती है लेकिन जब उसका जुड़ाव समूह से हो जाता है तो वह उद्दात रूप ले लेता है और क्रांति होती है और तब दशरथ मांझी जैसी प्रेम की निशानी पहाड़ काटने के सामने शाहजहां का ताजमहल भी बौना लगने लगता है. मैंने यह कहानी धर्मवीर भारती को भेजी. उन्होंने कहा कि जेहल की कहानी विश्वसनीय है लेकिन दशरथ मांझी वाली कहानी अविश्वसनीय है, इसलिए इसके हिस्से को काटकर छापूंगा. दशरथ की कहानी कट गई, आदिमराग कहानी छपी. उस पर देशभर से प्रतिक्रिया आई.

उसी क्रम में मैं मुंबई गया तो बासु भट्टाचार्य मुझसे मिलने मनमोहन शेट्टी के दफ्तर में आए और बोले कि ‘आदिमराग’ पर फिल्म बनाना चाहता हूं, आप उसकी स्क्रिप्ट पर काम कीजिए. मैंने कहा कि धर्मयुग में आदिमराग कहानी अधूरी  छपी है, पूरी तो मेरे पास है. वह तो सिर्फ जेहल की कहानी है, दशरथ की कहानी को भी जोड़ना होगा. बासु को भी दशरथ की कहानी अविश्वसनीय लगी. बावजूद इसके उन्होंने उस पर काम शुरू करवाया, स्क्रिप्टिंग हुई लेकिन फिल्म बन न सकी. फिर आदिमराग की ही मांग गौतम घोष ने की. उन्होंने संदेशा भिजवाया कि आदिमराग पर फिल्म बनाना चाहते हैं, उन्हें भी मैंने यही कहा िक कहानी अधूरी है, कहानी दशरथ से पूरी होती है. पर उन्हें भी दशरथ की कहानी अविश्वसनीय लगी.

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लौटने लगे हैं लोग मेरे गांव के…

Ghar wapasiउत्तर प्रदेश के कानपुर की अनिता मिश्रा ने जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली से पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी की और ‘गृहलक्ष्मी’ पत्रिका से जुड़ गईं. अचानक एक दिन घर से फोन आया कि उनके पिताजी पक्षाघात के शिकार हो गए. वे अपने पिता की सेवा-सुश्रूषा के लिए कानपुर चली गईं. हालांकि अब पिताजी का साया भी सिर से उठ चुका है. लिखने के शौक ने ही पत्रकारिता के क्षेत्र में धकेला और इसी सिलसिले में वह दिल्ली भी आईं. वे कानपुर तो कुछ समय के लिए गई थीं लेकिन पिताजी के न रहने पर यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि मां की देखभाल और पिताजी द्वारा खड़े किए गए इंटीरियर डेकोरेशन के कारोबार को कौन चलाएगा? अनिता को लिखने का शौक है, सो उनके मन में दिल्ली छोड़कर कानपुर में इंटीरियर डेकोरेशन के कारोबार संभालने को लेकर बहुत लंबे समय तक उनके मन में द्वंद्व चलता रहा.

उन्होंने लिखने का सिलसिला आज भी जारी रखा है और घर के कारोबार की जिम्मेदारी भी बखूबी अपने कंधों संभाल ली है. जमे-जमाए कारोबार के अलावा कानपुर वापसी में कौन-कौन से कारकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई? इस सवाल के जवाब में वे कहती हैं, ‘मुझे दिल्ली में हर आदमी भागता हुआ नजर आता था. दिनचर्या की एेसी-तैसी हो जाती थी. मतलब आप सुबह उगते हुए सूरज से ठहरकर दो मिनट बात नहीं कर सकते और न ही रात में चांद की रोशनी से नहाए आसमान के नीचे टिककर सुस्ता सकते हैं. महीने में जो पगार मिलती है, वह सब मकान, बिजली, पानी, मोबाइल सहित कई तरह के बिल के भुगतान में रफूचक्कर हो जाती है. इन परिस्थितियों के बीच पिताजी की बीमारी की खबर के समय जब मुझे यहां आना पड़ा और जब यहां रुकने या यहां से दिल्ली लौटने के सवालों से मैं टकराई तो थोड़ी मुश्किल और थोड़ी घबराहट जरूर हुई थी, पर आज कोई अफसोस नहीं है. हो भी भला क्यों, अब व्यवसाय और लेखन दोनों के साथ अच्छा तालमेल बिठाना संभव जो हो गया है.’

कानपुर की अनिता से इंदौर (मध्य प्रदेश) के अजय सोडानी के घर लौटने की कहानी बिल्कुल जुदा है. अजय ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में पढ़ाने की पेशकश ठुकराकर अपने प्रदेश में काम करना बेहतर और जरूरी समझा. अजय 1990 के दौर में दिल्ली पहुंचे थे. वे अखिल एम्स में न्यूरोलॉजी की पढ़ाई के लिए आए थे. पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें यहां पढ़ाने का प्रस्ताव भी मिला था, मगर उन्होंने इस प्रस्ताव को ठुकराकर इंदौर में न्यूरोलॉजी पढ़ाने की ठान ली. उस वक्त मध्य प्रदेश में कहीं भी सरकारी-गैरसरकारी मेडिकल कॉलेज में न्यूरो की पढ़ाई नहीं होती थी. लगभग डेढ़ दशक तक उन्हें इस काम को परवान चढ़ाने के लिए संघर्ष करना पड़ा. वे फिलहाल इंदौर के सेम्स मेडिकल कॉलेज एंड पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टिट्यूट में पढ़ा रहे हैं और न्यूरोलॉजी विभाग के अध्यक्ष हैं.

लोगों के अपने वतन, अपने शहर या गांव लौटने की वजह थोड़ी मिलती-जुलती और थोड़ी-थोड़ी जुदा भी हैं. ऐसी कहानी अकेले अनिता या अजय ही नहीं बल्कि लोगों की संख्या हजारों में है. एक आंकड़े के अनुसार देश की एक बीपीओ कंपनी सर्को ग्लोबल सर्विसेज में 47 हजार लोग काम कर रहे हैं और इसके 40 फीसदी कर्मचारी महानगरों से इतर छोटे शहरों में कार्यरत हैं. इस कंपनी में हर महीने 300 नियुक्तियां होती हैं और इन नियुक्तियों के लिए आने वाले आवेदनों में से लगभग सात फीसदी लोग वडोदरा और विजयवाड़ा जैसे छोटे शहरों में अपनी पोस्टिंग की इच्छा जताते हैं. एसार कंपनी की बीपीओ समूह से संबद्घ एजिस कंपनी के एक अधिकारी ने नाम न उजागर करने की शर्त पर बताया कि पिछले डेढ़ साल में लगभग चार सौ आवेदन दिल्ली-गुड़गांव से दूर के अपेक्षाकृत छोटे शहरों मसलन इंदौर, भोपाल, जालंधर, विजयवाड़ा, रायपुर, सिलीगुड़ी, कोच्चि के लिए आए हैं. दिलचस्प यह है कि इन आवेदनकर्ताओं की उम्र 25-35 के आसपास की है.

घर लौटने की चाहत इस कदर बढ़ी है कि कई पीढ़ियों से विदेशों में रह रहे परिवार भी अपनी-अपनी जड़ें तलाशने भारत आने लगे हैं. विदेशों से 2003 में लगभग 60 हजार आईटी पेशेवर भारत के बंगलुरु, दिल्ली, मुंबई और हैदराबाद लौटे थे. असल में दो या तीन पीढ़ी पहले गए भारतीयों के बच्चे जो वहीं पैदा हुए, पले और बड़े हुए हैं. हाल-फिलहाल वे अपनी आर्थिक बेहतरी, सांस्कृतिक अस्मिता की पहचान की खोज में अब वापस लौट रहे हैं. अमेरिका से बंगलुरु लौटीं एक आईटी पेशेवर सविता ने मीडिया से बातचीत में कहा, ‘मेरे पिता 1960 में ही अमेरिका जाकर वहीं बस गए. मैं वहीं पैदा हुई. पली-बढ़ी और पढ़ाई पूरी की. मैं एक बड़ी आईटी कंपनी में अच्छी सैलरी पर काम करती थी लेकिन मुझसे आज भी हर कोई यही पूछता था कि तुम कहां से हो? यह सवाल मुझे भीतर तक कुरेदता रहा. मुझे यह बहुत अटपटा लगता है कि यहां मेरे बाद की और कितनी पीढ़ियों को इस सवाल से टकराना पड़ेगा कि तुम कहां से हो?’

प्रसिद्घ समाजशास्त्री प्रोफेसर आनंद कुमार इस चलन के बारे में ‘तहलका’ कोे बताते हैं, ‘समाजशास्त्र में पलायन या घर लौटने के लिए परिस्थितियां आपको आकर्षित करती हैं या धकेलती हैं. आप इसे ऐसे समझें कि पहले बिहार से 12वीं या बीए पास लड़के दिल्ली आकर ऑटो चलाने से लेकर फैक्टरियों में काम करते थे लेकिन जब वहां उन्हें स्कूलों में नौकरी के अवसर मिले तो वे वापस घर की ओर लौटने लगे. इस तरह कई बार सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियां उठ खड़ी होती हैं और रोजी-रोटी के बहुत अच्छे या थोड़े कम अवसर पाकर भी लोग घर लौटने को तैयार हो जाते हैं.’

विदेशों में बसे ऐसे तमाम लोग हैं जो अपने-अपने देश या अपने देश के महानगरों से छोटे शहरों अथवा अपने गांवों को लौटना चाहते हैं. हम ऐसे ही कुछ लोगों के बारे में बात कर रहे हैं जो अपने गांव या शहरों को लौट चुके हैं और आज वे बेहद संतुष्ट हैं. हालांकि एक सच तो यह भी है कि मजबूरी में पलायन कर चुकी एक बड़ी आबादी ऐसा चाहकर भी कर पाने में अपने को समर्थ नहीं पाती है. दलित-पिछड़े और आदिवासी समुदायों की आबादी का एक बड़ा तबका मजबूरी में अपनी जड़ाें से उखड़कर आसपास के शहरों-महानगरों को पहुंचता है और उसकी विडंबना यह है कि उसमें से ज्यादातर लोगों के पास घर लौटने पर स्वागत करने लायक न जमीन का कोई टुकड़ा होता है और न ही कोई पुश्तैनी पूंजी.

गांव से शहर आने और फिर वापस गांव लौटने की ऐसी ही एक कहानी शिव कुमार की है. शिव, बिहार के एक छोटे से गांव मड़वन के रहने वाले हैं. 40 वर्षीय शिव ने स्नातक किया है. बिहार पुलिस में सिपाही बनने के लिए उन्होंने कई कोशिशें की लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी. इस बीच उनकी शादी हो गई और दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में उन्हें शहर आना पड़ा. लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि दो-ढाई साल शहर में बिताने के बाद शिव को फिर गांव लौटना पड़ा. उनकी दो बेटियां हैं जिन्हें वे गांव के पास के स्कूल में पढ़ाते हैं और खुद अपनी जमीन पर खेती करते हैं.

शिव के अनुसार, ‘2009 में मेरी शादी हुई. शादी के एक साल बाद मैं अपने गांव का खेत-खलिहान छोड़कर दिल्ली आया. यहां निजी गार्ड की नौकरी मिली. दो साल तक गार्ड की नौकरी करने के बाद समझ आया कि इस शहर में तो इतने पैसे में रहना और जीना भी मुश्किल है. इन दो सालों में काम के घंटे बढ़ते गए लेकिन पैसे कभी नहीं बढ़े. इन्हीं वजहों से परेशान होकर 2013 के दिसंबर में मैं वापस अपने गांव लौट आया. दिल्ली जाने से पहले खेत में काम करना अच्छा नहीं लगता था. मेरी पत्नी को भी मेरा खेत में दिन-दिनभर काम करना नहीं सुहाता था लेकिन अब तो हमें खेती से ही कमाना अच्छा लगता है और जिंदगी भी ठीक चल रही है.’

गांव वापस लौटने के बारे में शिव बताते हैं,  ‘यहां ठीक है. बहुत अच्छा नहीं तो बहुत बुरा भी नहीं. दिल्ली में तो बदरपुर और जैतपुर जैसे इलाकों में रहना भी मुश्किल होने लगा था… यहां कम से कम अपना एक मकान है. थोड़ी-सी जमीन है, जीवन चल रहा है. कुछ दिन और दिल्ली में रहे होते तो मुझे टीबी की बीमारी हो जाती. खाने-पीने का कोई ठिकाना नहीं था और बारह-बारह घंटे की नौकरी…’ शिव गांव इसलिए लौटे क्योंकि दिल्ली में जितने पैसे उन्हें मिलते थे, उसमें गुजारा कर पाना मुश्किल होता जा रहा था. जिंदगी पटरी से उतर जाने की चिंता सताती रहती थी.

खड़कपुर मेंे रह रहे 50 वर्षीय राधेश्याम शर्मा को ऐसी कोई दिक्कत नहीं थी. फिर भी दो साल पहले वो अपने पैतृक निवास छपरा लौट आए. राधेश्याम ने आईआईटी खड़कपुर से पढ़ाई की और फिर वहीं अपना व्यवसाय शुरू किया. कई साल व्यवसाय करने के बाद उन्हें लगा कि अगर वो अपना पैसा छपरा में निवेश करेंगे तो उन्हें ज्यादा फायदा होने के साथ प्रतिष्ठा भी मिलेगी. आज राधेश्याम शर्मा छपरा में व्यवसाय कर रहे हैं.

पटरी पर जिंदगी लाने की जद्दोजहद

वहीं समाजसेवी और पर्यावरणविद अनुपम मिश्र एक ऐसे वर्ग के बारे में जिक्र कर रहे हैं जिनके लिए स्थितियां न तो बड़े शहरों में अनुकूल हैं और न ही वहां जहां उनकी जड़ें थीं. वह कहते हैं, ‘विकास के नाम पर बिजली, घर, बांध, सड़क आदि के निर्माण के लिए लोगों को उजड़ने के लिए मजबूर किया जाता है और इनका नए शहर में कोई स्वागत करने वाला नहीं होता है. बड़े शहरों में जब मुश्किलें सताने लगती हैं तब इनके पास अपनी जड़ों की ओर लौटना भी संभव नहीं होता है क्योंकि इनका वहां भी कोई स्वागत करने वाला नहीं होता है. पिछले कुछेक वर्षों में एक ऐसा बड़ा वर्ग सामने आया है जो बड़े शहरों की चकाचौंध को छोड़कर अपने गांव, अपने कस्बे में लौट आया है और वहां वो अपने जीवन को पटरी पर लाने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा है.’

सबसे बड़ी जरूरत जिंदा रहना

सीएसडीएस के एसोसिएट फेलो चंदन श्रीवास्तव का मानना है कि इंसान की सबसे बड़ी जरूरत है जिंदा रहना. जब उसे गांव-देहात में आजीविका नहीं मिली तो वो शहर की तरफ भागा और आज जब बड़े शहरों में एक तबके के लिए अपना जीवन चलाना मुश्किल हो चला है तो वो वापस गांव या उन शहरों की तरफ लौट रहा है या लौटना चाह रहा है जहां के बारे में उसे लगता है कि वहां वो अपनी जीविका कमा लेगा और अपने जीवन की गाड़ी को सही तरीके से चला पाएगा.

चंदन कहते हैं, ‘विदेशों से वापस देश में आने वालों को या देश में ही बड़े शहरों से छोटी शहरों की तरफ लौटने वालों को दो अलग-अलग तबके में बांट लीजिए. पहला तबका वह है जो वहां अपने पैसे को बढ़ता हुआ देख रहा है. जिसे यह दिख रहा है कि अगर कुछ लाख रुपये वो बिहार के छपरा, हाजीपुर या उत्तर प्रदेश के कानपुर में लगाएगा तो उसे दिल्ली, मुंबई की तुलना में कम पूंजी लगानी पड़ेगी और मुनाफा भी ज्यादा मिलेगा. दूसरा तबका वह है जिसके लिए बड़े शहरों में जीवित रहना ही मुश्किल हो रहा है. उसे लगता है कि अगर वो अपने पैतृक गांव या शहर लौट जाएगा तो उसका जीवन सुधर जाएगा. उसके जीवन की गाड़ी पटरी पर आ जाएगी.’ चंदन यह भी कहते हैं कि अगर उन्हें मौका मिला तो वो खुद जल्द से जल्द अपने पुश्तैनी गांव लौट जाएंगे.

दो तरह के लोग

इस बारे में प्रो. विवेक कुमार कहते हैं, ‘जिनके पास पैसे हैं, गांव में जमीन है… उसके लौटने और जिसके पास कुछ खास नहीं है उसके लौटने में बड़ा अंतर है. एक वर्ग तो ऐसा है जिसने शहर में धन कमा लिया, घर भी बना लिया और फिर वो अपने गांव या कहें कि जहां से भी उसका स्थाई पता है वहां लौटता है. वो वहां भी एक सुंदर घर बनवाता है. वहां जाता है, रहता है. अपने समाज में उठता-बैठता है. ऐसा करने में उसे गर्व महसूस होता है. उसे लगता है कि उसने अपनी अमीरी की झलक वहां तक फैला ली है जहां उसके बाप-दादा रहते थे.’ प्रो. कुमार आगे कहते हैं, ‘इनके अलावा दूसरे वो लोग हैं जिनका जीवन न अपने-अपने गांव-कस्बों में बेहतर था और न ही बड़े शहरों में. अब ऐसे में लगता है कि यार… वहीं ठीक थे, अपना घर तो था. भले झोपड़ी थी, अपनी तो थी. उसे लगता है वहीं चला जाए और मेहनत की जाए.’

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खेत से इश्क, मिट्टी बनी सोना

गिरींद्र नाथ झा, पूर्णिया, बिहार

girindra 03webगिरींद्रनाथ की फेसबुक प्रोफाइल छानेंगे तो कभी वे अपने खेत की मिट्टी को सोना बनाने में व्यस्त नजर आते हैं तो कभी मिट्टी की सौंधी खुशबू में लिपटी हुई पोस्ट में खेती-किसानी की बात करते. दरअसल बहुत लंबा समय दिल्ली और कानपुर में पत्रकारिता की नौकरी करने के बाद वे कुछ साल पहले पूर्णिया के अपने गांव चनका लौट गए अौर वहां रहकर खेती-किसानी में रम गए हैं. दिलचस्प यह है कि उन्होंने लिखने-पढ़ने से अपना नाता बरकरार रखा हुआ है.

असल में गिरींद्र कभी दिल्ली पढ़ने के सिलसिले में आए. स्नातक की पढ़ाई पूरी भी नहीं हुई थी कि सीएसडीएस-सराय के फेलोशिप प्रोग्राम के लिए उनका चयन हो गया. इस फेलोशिप के तहत उन्होंने दिल्ली के प्रवासी कॉलोनियों में टेलीफोन बूथ संस्कृति पर शोध कार्य को अंजाम दिया. इसके बाद उन्होंने पेशे के बतौर पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखा. हाड़-तोड़ मेहनत के बाद छोटी-सी पगार मिलती जिसे महीना शुरू होते ही महानगर की महंगाई चट कर जाती. इस खर्च को पूरा करने के लिए खाली समय में वे अनुवाद का काम भी करने लगे. जिंदगी की भागमभाग से वे अक्सर तंग आ जाते और उनके मन को चौबीस घंटे यह सवाल कुरेदता रहता कि आखिर जिंदगी से उन्हें हासिल क्या हो रहा है? उन्हें अधिकांश समय इसका उत्तर नकारात्मकता की गहरी खाई में धकेलता. वे विकट परिस्थितियों से जूझते और महानगर की भागमभाग और रेलमपेल से लय बिठाने की हरसंभव कोशिश करते. लड़ते-जूझते हुए दिल्ली में उन्होंने नौ साल गुजार दिए.

2009 में गिरींद्र की शादी हो गई. जाहिर है कि अब रोजमर्रा का खर्च और बढ़ गया था. नौकरी और अनुवाद के बाद भी घर का खर्च चलाना मुश्किल होने लगा था. उन्होंने इससे निपटने के लिए यह तय किया कि दिल्ली की तुलना में किसी छोटे शहर को कूच कर लिया जाए. इस कड़ी में उन्हें कानपुर के दैनिक जागरण के टेबलॉयड और उसके डिजिटल कंटेंट नेटवर्क से जुड़ने का मौका मिला तो वे दिल्ली छोड़कर कानपुर चले गए. दिल्ली की तुलना में कानपुर सस्ता शहर था. वहां कुछ साल तक जीवन ठीक-ठाक चलता रहा. इस बीच गिरींद्र एक बच्ची के पिता बन गए और एक बार फिर से पत्रकारिता की छोटी पगार और पारिवारिक खर्च में इजाफा मन को बेचैन करने लगा था.

2012 के अप्रैल की बात है. एक दिन गिरींद्र के घर से फोन आया कि बाबूजी की तबियत बहुत बिगड़ गई है. इस खबर ने उनकी दुविधा के बांध को मानो जोरदार धक्का देकर तोड़ दिया. गिरींद्र के मन की बेचैनी को पत्नी भी समझ रही थीं, इसलिए उन्होंने भी गांव जाने के नाम पर एकबार भी एतराज नहीं जताया और वे अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर पूर्णिया लौट गए. पिता को बेटे की घर वापसी से संबल मिला लेकिन थोड़े समय के बाद वे जबरदस्त मानसिक आघात के शिकार हो गए थे. पिछले दिनों उनका स्वर्गवास हो गया. गिरींद्र को पिता ने खेती-किसानी शुरू करने से पहले उन्हें ग्रामीण परिवेश को समझने की सलाह दी थी. गिरींद्र ने उनकी सलाह गांठ बांधकर रख ली और वे सिर्फ गांव को समझ ही नहीं रहे हैं बल्कि आज वे वहां पूरी तरह रच-बस गए हैं.

गिरींद्र हर रोज सुबह 8 बजे खेत पहुंच जाते हैं और शाम ढलने तक खेती-किसानी को व्यवस्था देने में लगे रहते हैं. वे खेती को अपनी मेधा के बल पर नए तरीके से परिभाषित करने में लगे हुए हैं. एक ओर जहां देश में खेती घाटे का सौदा साबित हो रहा है तो वहीं दूसरी ओर पूर्णिया जैसे कम विकसित इलाके में गिरींद्र जैविक और नए तौर-तरीकों की खेती के बल पर खुद के और इलाके के किसानों का भरोसा खेती में लौटाने में लगे हुए हैं. वे इसमें सफल भी हो रहे हैं. वे अपनी 16.5 बिगहा की जमीन पर दो फसलें एक साथ उपजा रहे हैं. पारंपरिक अनाज के साथ वे मौसमी फलों का भी उत्पादन कर रहे हैं. इसके अलावा अपनी खेती का किस्सा अपने ब्लॉग ‘अनुभव’ पर नियमित लिखते हैं जिसके चलते उनकी खेती देखने के लिए देश ही नहीं विदेश से भी लोग उनके गांव चनका पहुंच रहे हैं.

शहर में लंबा समय गुजारने के बाद गांव में रचना-बसना आसान नहीं होता है. गिरींद्र के लिए भी गांव में टिकने का यह फैसला बहुत मुश्किलों भरा था. गिरींद्र के शब्दों में, ‘पूर्णिया जिले में बिजली आपूर्ति की हालत ठीक होने की वजह से लिखना-पढ़ना आसान हो गया है. मैं यहां से देश की अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं के लिए खेती-किसानी के संकटों पर लगातार लिख पा रहा हूं. नियमित ब्लॉग लिखता हूं. फेसबुक और ट्विटर पर भी खूब सक्रिय हूं.’ गौरतलब है कि राजकमल प्रकाशन के सार्थक उपक्रम के तहत गिरींद्र की लघु प्रेम कथा श्रृंखला की किताब ‘इश्क में माटी सोना’ बहुत जल्द प्रकाशित होने वाली है.

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Continue…. 

 

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छोटे शहर में बसा संगीत का सर्जक

केशव कुंडल, देवास, मध्य प्रदेश

इंटरनेट की वजह से दुनिया छोटी होती जा रही है. इस जुमले को मध्य प्रदेश के एक बहुत छोटे से शहर देवास के केशव कुंडल ने चरितार्थ कर दिखाया है. असल में केशव ने फिल्म और सीरियल में इस्तेमाल होने वाली एक महत्वपूर्ण तकनीक ‘साउंड स्कोर’ का काम देवास स्थित अपने घर से करना शुरू कर दिया है. आमतौर पर इस काम को इससे पहले मुंबई में स्थित स्टुडियो में अंजाम दिया जाता रहा था लेकिन इंटरनेट, आधुनिक यंत्र और केशव की कुशलता ने बॉलीवुड का ध्यान देवास की ओर आकर्षित किया है. सच तो यह है कि बॉलीवुड के अधिकांश लोगों को देवास के बारे में पता ही नहीं है इसलिए केशव को उन्हें देवास की बजाय खुद को इंदौर का बताना पड़ता है.

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यह केशव की मेहनत का ही नतीजा है कि सिर्फ आठ-नौ महीने में उन्होंने आम आदमी पार्टी के लिए संगीत बनाने से लेकर जैकी भगनानी सहित कई सितारों से सजी फिल्मों के लिए बैकग्राउंड स्कोर (दो लोगों के संवाद के बीच प्रभाव डालने के लिए संगीत का इस्तेमाल किया जाता है) देने का काम है. इसका इस्तेमाल गाने में मिक्सिंग के तौर पर भी किया जाता है. केशव ने ऑस्ट्रेलिया और मुंबई जैसी जगहों में मिल रहे मौकों को छोड़कर अपने शहर देवास में रहकर अपने काम को अंजाम देने का जोखिम उठाया तो उनके मां-पिता थोड़े अचरज में पड़ गए. हैरत तो यह है कि वे इंदौर के स्टूडियो की तुलना में पांच से दस गुना ज्यादा फीस की मांग करते हैं लेकिन अच्छी गुणवत्ता की वजह से आज उनके पास काम की कमी नहीं है. परिवार के कई सदस्यों और मित्रों ने केशव को ऑस्ट्रेलिया में ही बसने और काम करने की लाख हिदायतंे दीं लेकिन उन्होंने अपनी जिद के आगे किसी की नहीं सुनी और आज उनके इस फैसले से सभी बहुत खुश हैं. मां संतोष कुंडल आत्मविश्वास से भरकर अपने बेटे के बारे में बताती हैं, ‘जब केशव ने देवास में रहने का फैसला सुनाया तो मुझे अच्छा भी लगा लेकिन लगा कि यहां क्या करेगा? मुझसे और पापा से अक्सर तर्क-वितर्क करता और हमलोगों को समझाने की कोशिश करता लेकिन आज स्टूडियो को स्थापित हुए एक साल भी नहीं हुए और हमारे छोटे से घर में मुंबई से लोग केशव से काम करवाने पहुंचते हैं. मुझे अच्छा लगता है कि मेरा लड़का मेरे पास है और उसका काम भी अच्छा चल रहा है.’

केशव के पिता राजेंद्र प्रसाद कुंडल बिजली विभाग में डिवीजनल इंजीनियर हैं जबकि मां गृहिणी हैं. केशव की स्कूल की पढ़ाई देवास के सरस्वती शिशु मंदिर में हुई. स्कूल की पढ़ाई के बाद उन्होंने देवास स्थित एक कॉलेज से इंजीनियरिंग की डिग्री ली और आगे की पढ़ाई के लिए ऑस्ट्रेलिया चले गए. केशव को स्कूली दिनों से ही संगीत में गहरी दिलचस्पी थी.  ‘तहलका’ से केशव अपनी कॅरिअर की यात्रा साझा करते हुए बताते हैं,  ‘आॅस्ट्रेलिया में पढ़ाई के दौरान और उसके बाद वहां मैं संगीत और साउंड रिकॉर्डिंग के क्षेत्र में काम करे रहे तमाम बड़े लोगों से मिलता रहता और अपने भीतर पनप रही इच्छा को हवा देता रहा. लगभग दो साल पहले इंजीनियरिंग की पढ़ाई ऑस्ट्रेलिया में पूरी करके मैं देवास छुट्टियों में आया था तब आॅस्ट्रेलिया और भारत के रिश्तों को लेकर एक फिल्म बन रही थी. गिरीश मकवाना इस प्रोजेक्ट से जुड़े हुए थे. ऑस्ट्रेलिया में उनके एक शो के दौरान मैं उनसे मिल चुका था. फिर उनका फेसबुक पर एक मैसेज आया कि तुम अगर भारत में हो तो मुझसे संपर्क करो. मुझे सोनू निगम और सुनिधि चौहान का गाना रिकॉर्ड कराना है.’

इस प्रोजेक्ट को हाथ में लेते वक्त केशव ने देवास में अपना स्टूडियो शुरू नहीं किया था. ऑस्ट्रेलिया में केशव ने रेस्तरां में प्लेट धोकर कुछ पैसे जमा किए थे, उस पैसे से अपने डुपलेक्स फ्लैट के ऊपरी माले पर फटाफट 10 लाख रुपये खर्च करके स्टूडियो तैयार करवाया. स्टूडियो के लिए पापा ने भी थोड़ी आर्थिक मदद की. यह पूछने पर कि आपने देवास का विकल्प क्यों चुना? वे कहते हैं, ‘मेरे पास दो विकल्प थे- मुंबई या इंदौर में स्टूडियो खड़ा करने के लिए पैसे लगाता या फिर देवास में उच्च गुणवत्ता वाले उपकरणों के साथ स्टूडियो तैयार करवाता. मैंने जोखिम लिया और देवास को चुना क्योंकि मुंबई में बहुत मारामारी है. अगर आपके पास संपर्क है, बिजली व इंटरनेट की सुविधा है तो इस काम को कहीं भी किया जा सकता है. अभी इसे करते हुए सालभर भी पूरा नहीं हुआ है और मैं औसतन साल का 15 लाख रुपये कमा ले रहा हूं.’

केशव के पास इस समय कैलाश खेर और राजा हसन सहित बहुत सारे लोगों के म्यूजिक  रिकॉर्डिंग प्रोजेक्ट हैं. केशव ने फिल्म ‘वेलकम टू कराची’ में ‘लल्ला लल्ला लोरी…’ गाना रिकॉर्ड किया. ऑस्ट्रेलिया की एक फिल्म ‘कलर ऑफ डार्कनेस’ की रिकॉर्डिंग पूरी हो चुकी है. इसके अलावा जैकी भगनानी अभिनीत फिल्म का भी एक प्रोजेक्ट है. आम आदमी पार्टी का भी एक प्रोजेक्ट है. इसके अलावा उनके पास कई दूसरे बड़े प्रोजेक्ट भी हैं. यह पूछने पर कि अगर आपका काम और बढ़ेगा तब क्या आप मुंबई शिफ्ट होने की सोचेंगे? वे मुस्कराते हैं और आत्मविश्वास से लबरेज होकर कहते हैं, ‘मैं बहुत हुआ तो इंदौर तक शिफ्ट हो सकता हूं. इंदौर यहां से सिर्फ 35 किमी. दूर है. अगर मुंबई ही जाना था तो ऑस्ट्रेलिया आज कौन-सा बहुत दूर है?’

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मेंथा की खेती, दिल्ली को ‘राम-राम’

सुशील कुमार, बाराबंकी, उत्तर प्रदेश

उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के सुशील कुमार घाटे का सौदा हो चुकी खेती से परिवार का भरण-पोषण कर पाने में सक्षम नहीं हो पा रहे थे तो 2008 में कमाने, खाने और बचाने के उद्देश्य से दिल्ली के लिए कूच कर गए. पत्नी और दो बच्चों को गांव में ही छोड़ दिया. दिल्ली पहुंचकर वे मुनिरका में प्लेसमेंट सर्विस दिलाने वाले किसी व्यक्ति से मिले, जिन्होंने 500 रुपये लेकर नौकरी दिलाने की बात की. प्लेसमेंट सर्विस वाले साहब ने उन्हें कुछ दिनों बाद कहा, ‘तुम वसुंधरा (गाजियाबाद) चले जाओ, तुम्हें वहां नौकरी मिल जाएगी.’

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इसके बाद सुशील को गाजियाबाद की एक कॉलोनी में गार्ड की नौकरी मिल गई. वहां लगभग 50 फ्लैट थे जिसकी रखवाली अकेले सुशील को करनी होती थी. 4500 रुपये महीने की तनख्वाह तय हुई, पर यह कभी भी समय पर नहीं मिली. सुशील पैसा बचाने के उद्देश्य से उसी कॉलोनी के किसी कोने में रात गुजार लेते और किसी भी परिवार द्वारा दिया हुआ भोजन खा लेते थे. इन वजहों से उनकी ड्यूटी 24 घंटे की हो गई थी. कभी कोई अवकाश नहीं. चार साल लगातार दिन-रात मेहनत के बाद भी इतनी बचत नहीं हो पाई कि कोई छोटी-मोटी दुकान ही शुरू की जा सके. यहां की जद्दोजहद और परिवार के लिए कुछ खास नहीं कर पाने की हालत में उन्होंने 2012 में घर लौटना तय कर लिया. बकौल सुशील, ‘घर से दूर रहकर भी रोजी-रोटी के लिए कुछ मामूली जुगाड़ भी न हो पाए तो ऐसी नौकरी का क्या फायदा? गांव में परिवार के साथ रहने के लिए एक रोटी कम खाना उन्होंने मुनासिब समझा और दिल्ली को राम-राम कहकर वापस अपने घर चला आया.’

गांव लौटकर सुशील के सामने यह समस्या पेश आई कि वे क्या करें कि उनकी गृहस्थी की गाड़ी थोड़ी सुगमता से चल सके. ऐसे में उनके गांव के एक डॉक्टर साहब ने उन्हें मेंथा (पुदीना) की खेती शुरू करने की सलाह दी. अब आलम यह है कि उन्हें लगभग पांच बीघे की खेती से सालाना 65-70 हजार रुपये की कमाई हो जाती है. गांव में न किराये का खर्चा, न ही महंगाई का तनाव. बच्चे गांव के स्कूल में ही पढ़ रहे हैं. सुशील इन दिनों अपनी बहन के लिए लड़का देख रहे हैं. पिछले चार साल में मेंथा की खेती से की गई बचत से वह जल्द ही बहन की शादी करने वाले हैं.

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शहर में चाकरी करने से गांव में पढ़ाना बेहतर

आभाष मिश्र, पूर्णिया, बिहार

आभाष मिश्र दिल्ली में अपना जमा-जमाया कॅरिअर छोड़कर इसलिए अपने छोटे-से शहर पूर्णिया में आ बसे क्योंकि उन्हें महानगर की दौड़ती-भागती जिंदगी परेशान करने लगी थी. दरअसल आभाष 1990 में सिविल सेवा की तैयारी के उद्देश्य से दिल्ली आए थे. उन्हें इस परीक्षा के प्रारंभिक दौर में सफलता तो मिली, लेकिन अंतिम दौर में कामयाबी हासिल करने से वे चूक गए.

Abhash mishra

इस असफलता के बाद उन्होंने जिंदगी की गाड़ी आगे बढ़ाने के लिए एक मार्केटिंग कंपनी में नौकरी शुरू कर दी थी. इस कंपनी ने उनकी काबिलियत को पहचाना और उन्हें राजस्थान का मार्केटिंग एंड रिसर्च का प्रमुख बना दिया. कंपनी का काम वे दिल्ली से ही ऑपरेट कर रहे थे. लगभग चार साल उस कंपनी में नौकरी करने के बाद उन्हें हिंदुस्तान लीवर कंपनी में नौकरी का ऑफर मिल गया, तब नौकरी छोड़ने का एक महीने का जरूरी नोटिस देकर वह पूर्णिया अपने घर चले गए. हालांकि किन्हीं कारणों से नई नौकरी की जॉइनिंग की तारीख वाले दिन वह दिल्ली नहीं लौट पाए, इसलिए

उन्होंने जॉइनिंग की तारीख एक सप्ताह आगे खिसकाने के लिए कंपनी से कहा, लेकिन कंपनी ने ऐसा करने से मना कर दिया था.

आभाष याद करते हुए ‘तहलका’ से बताते हैं, ‘नए जुड़ने वाले कर्मचारियों के लिए कंपनी के पास एक सप्ताह इंतजार करने का भी वक्त नहीं था. फिर मुझे इस बात का एहसास हो गया कि बड़े शहर में काम के अवसर ज्यादा जरूर हैं लेकिन यहां शांति-सुकून नहीं है. दफ्तर और घर की दूरी नापते-नापते ही दिन का बारह-चौदह घंटा निकल जाता है. एक दिन की छुट्टी में मैं अगले सप्ताह ऑफिस जाने की ही तैयारी में लगा रहता था. मसलन घर की साफ-सफाई, कपड़े धोने और घर और रसोई के लिए जरूरत का सामान जुटाने में ही सप्ताह की छुट्टी स्वाहा हो जाती. मेरे लिए पूर्णिया के एक स्कूल में बच्चों को पढ़ाने एक विकल्प नजर आ रहा था. इसलिए फिर दिल्ली नहीं लौटा.’

आभाष ने शहर के विद्या विहार स्कूल में बतौर शिक्षक नौकरी शुरू की और वहां एक साल तक अपनी सेवाएं दीं. उसके बाद मीलिया कॉन्वेंट में लगभग नौ साल तक पढ़ाया. शहर के कुछ और स्कूलों को अपनी सेवाएं दीं अब वे इसी शहर के विजेंद्र पब्लिक स्कूल के उप-प्राचार्य हैं. इस स्कूल को उन्होंने बतौर शिक्षक जॉइन किया था. इस स्कूल को स्थापित करने का श्रेय आभाष को भी दिया जाता है. तीन साल पहले उनका एक छात्र ‘कौन बनेगा करोड़पति’ गेम शो में भी शामिल हुआ था और अंतिम पायदान से एक-दो कदम पूर्व तक पहुंचने में कामयाबी पाई थी. सच तो यह है कि उनके बहुत सारे छात्र-छात्राएं अलग-अलग क्षेत्रों में कामयाबी का झंडा गाड़ने में सफल हुए हैं.

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‘दूसरों के लिए जीने की मंशा ने बूंडू में बांध दिया’

रेशमा दत्त, बूंडू, रांची

रेशमा का नाम रांची और आसपास के लोग बहुत सम्मान से लेते हैं. इसकी वजह ये है कि उन्होंने शांति निकेतन से फाइन आर्ट में स्नातक और वडोदरा से स्नातकोत्तर की डिग्री लेने के बाद एक फेलोशिप पर तीन साल के लिए जापान चली गईं. उन्हें कहीं भी अच्छी नौकरी मिल सकती थी, लेकिन जापान  से वह सीधे अपने गांव बूंडू लौट आईं. वजह, बूंडू और आसपास की महिलाओं के लिए उम्मीद का चिराग जलाकर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की तमन्ना उनके मन में बस गई थी. इसके बाद में अपने पैतृक घर से उन्होंने एक को-ऑपरेटिव सोसाइटी ‘आधार महिला शिल्प उद्योग’ की नींव रखकर अपने अभियान को मुकाम तक पहुंचाने में जुट गईं. आज उनकी संस्था में बने उत्पादों की मांग देश के अलग-अलग हिस्सों में है.Reshma 01

रांची से 40 किलोमीटर दूर रांची-जमशेदपुर हाईवेे से थोड़ा अंदर बूंडू में रेशमा सुबह आंख खुलने से लेकर शाम को सूरज ढलने तक आदिवासी, मुस्लिम और गैर-आदिवासी समाज की गरीब महिलाओं से घिरी रहती हैं. वे बीते 15 साल से महिलाओं को काम सिखा रही हैं. वे उन्हें कपड़ा सिलने, मिट्टी (टेराकोटा) की कलात्मक वस्तुएं बनाने, आभूषण बनाने, पत्थर पर पेंटिंग करने का एक महीने का प्रशिक्षण देती हैं. प्रशिक्षित होने के बाद ये महिलाएं यहां काम करने लगती हैं. फिलहाल रेशमा के साथ गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) आने वाली 80 महिलाएं जुड़कर अपना और अपने परिवार आजीविका चलाने में सफल हो गई हैं. संस्था के लिए फंड जुटाने से लेकर यहां तैयार होने वाले उत्पादों को बेचने, महिलाओं के काम में आने वाली बाधाओं से लेकर बही-खाते का हिसाब देखने तक के काम रेशमा अकेले ही देखती हैं. बुंडू के पास ही नेशनल हाईवे पर वे हर रविवार को ‘कला हाट’ लगाती हैं, रांची में कुसुम नाम से एक शोरूम भी खोला है. रेशमा की कला किसी के ड्राइंगरूम की चमक बढ़ाने से ज्यादा गरीब महिलाओं के जीवन को बचाने में ढाल का काम कर रही हैं. उन्होंने कला को महिलाओं के जीवन में बदलाव लाने का हथियार बना लिया है. वे बताती हैं, ‘हमारे साथ की बहुत सारी महिलाएं पढ़ी-लिखी नहीं होती हैं जिसके चलते उन महिलाओं को मेले आदि में उत्पाद खरीदने-बेचने में मुश्किलें आती हैं.’

रेशमा के गांव में बिजली की दिक्कत भी बहुत रहती है. सिर्फ पांच-छह घंटे ही बिजली आती है. बिजली न रहने के कारण दिक्कत पेश आती होगी? वे कहती हैं, ‘अभी कुछ दिन पहले ही हम लोगों ने जेनरेटर की व्यवस्था की है. इस काम के दौरान आई आर्थिक परेशानियों के चलते उन्हें कई बार लगा कि यह सब कुछ छोड़-छाड़ कर कहीं अपने लिए कुछ कर लिया जाए. आज भी कई बार आर्थिक दिक्कतें उठ खड़ी होती हैं, लेकिन अब खुद पर बहुत भरोसा हो चुका है.’ यह पूछने पर कि दिक्कतों के पेश होने पर क्या अब लगता है कि कहीं छोड़कर निकल लिया जाए? वह कहती हैं, ‘अब तो इन झंझटों से ही दोस्ती हो गई. वैसे भी अब मुझे कौन नौकरी देगा!’

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झाड़ू लगाकर कमाए गए दो रुपये आज भी याद हैं

Friendship Day3339-webबात शायद 1996-97 की है. हम अविभाजित उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा जिले में सराईखेत नाम के गांव में रहते थे. पिताजी फौज में थे और मां स्वास्थ्य विभाग में कर्मचारी के बतौर वहीं तैनात थीं. ये वो दौर था जब कुमाऊं-गढ़वाल के उस सुदूर इलाके में मेरे माता-पिता का सरकारी नौकरी में होना अपने आप में एक बड़ी बात थी. मूल रूप से उस क्षेत्र का न होने के बावजूद शायद माता-पिता के व्यवहार और सफलता के कारण ही दूर-दूर तक लोग हमारे प्रति अपनत्व और आदर का भाव रखते थे.

उस समय मनोज नाम का मेरा एक मित्र था, उम्र में शायद मुझसे कुछ बड़ा. वह नेपाली मूल का था. उसके माता-पिता मजदूरी करके गुजारा करते थे. उनका हाथ बंटाने के लिए मनोज भी कबाड़ जमा करता था. हम दोनों की सामाजिक पृष्ठभूमि एक-दूसरे के ठीक विपरीत थी. उम्र इतनी छोटी थी कि भेदभाव, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब जैसे बड़े शब्दों के मायने समझ से परे थे. हम अक्सर साथ घूमते, साथ-साथ खेलते और कई बार घूमते-घूमते मैं उसके साथ कबाड़ ढूंढने भी निकल पड़ता था. गांव में स्कूल था पर अभी मेरी उम्र अभी स्कूल जाने की नहीं हुई थी.

एक रोज खेल-खेल में ही मनोज ने मुझे बताया कि वह हर शाम बस में झाड़ू लगाता है जिसके बदले में उसे दो रुपये मिलते हैं. दो रुपये उन दिनों गांव के एक तीन-चार साल के एक बच्चे के लिए यह बड़ी रकम हुआ करती थी. दो रुपये में तब शायद 10 कंचे आते थे. उत्साह में आकर मैंने भी बस में झाड़ू लगाने की इच्छा जाहिर की और मनोज के साथ चल पड़ा.

शाम को स्टैंड पर बस पहुंची नहीं कि हम उस पर टूट पड़े. उत्साह इतना था कि अभी सवारी निकली भी नहीं थी कि मैंने झाड़ू लगानी शुरू भी कर दी थी. मेरी उत्सुकता देखकर एक सज्जन ने मुझसे नाम पूछ लिया. मैंने झट से नाम बताया और कहा, ‘मुझे काम में देरी हो रही है.’ यह कहकर उनसे बाहर जाने का आग्रह किया.

चंद मिनटों में बस साफ हो गई और दो रुपये का सिक्का लिए मैं और मनोज अपने दूसरे दोस्तों के साथ खेलने निकल गए. चेहरे पर एक अलग-सी चमक छा गई और सिर गर्व से ऊपर हो गया था. भला हो भी क्यों न… आखिर यह मेरी पहली कमाई जो थी. अपनी मेहनत का पैसा जो था!

घर पहुंचा तो देखा बस में मिले सज्जन सामने कुर्सी पर बैठे चाय पी रहे हैं. मुझे देख मां ने कहा बेटा मामा को प्रणाम करो. मेरी तरफ देख वे चौंककर मां से बोले, ‘ये आपका बेटा है? थोड़ी देर पहले तो ये बस में झाड़ू लगा रहा था! एक और लड़का भी था इसके साथ.’ इसके बाद घर में जो महाभारत हुआ उसके बारे में मैं क्या लिखूं… मुझ पर क्या-क्या कहर बरपा होगा, आप समझ ही गए होंगे.

मनोज से मिलने पर पाबंदी लगा दी गई. मैं गुमसुम रहता था. मां को मेरी बढ़ती हुई बेचारगी की चिंता सताने लगी. नतीजा ये हुआ कि स्कूल के प्रधानाचार्य से बात करके यह इंतजाम कराया गया कि मेरी कम उम्र के बावजूद बिना नाम दर्ज किए कक्षा में बैठने की अनुमति मिल गई. मकसद ये था कि स्कूल में रहूंगा तो बच्चों के साथ कम से कम क, ख, ग तो सीख ही लूंगा. बंद मुट्ठी में रखी रेत की तरह वक्त बीतता गया… गांव में अच्छे स्कूल की कमी के कारण मुझे नैनीताल भेज दिया गया और मनोज की यादें दिनों-दिन धुंधली होती चली गईं.

आज इस घटना को हुए करीब दो दशक बीत गए हैं पर कभी-कभी याद आती है मनोज की, बचपन की बेपरवाही और हमारी निश्छलता की. वह मासूमियत जो तमाम सामाजिक कारकों को दरकिनार करते हुए मन को भेदभाव के अंधेरे से दूर रखती थी. मनोज आज न जाने कहां है. पर जब भी नौकरी और तनख्वाह की चर्चा होती है तब मुझे यकायक बस में मनोज के साथ झाड़ू लगाकर दो रुपये कमाने की वह घटना याद आ जाती है. आशा करता हूं मनोज भी कहीं किसी कोने में मेरे इस लेख या समझिये पत्र को पढ़ रहा होगा.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

एक शून्य के बाद दूसरा शून्य

Anil Yadv

इंटरनेट न होने का बहाना भी नहीं चल सकता. यूरोप में भटक रहा हूं. जैसे हमारे यहां गांव में किसी अतिथि के आने पर पानी दिया जाता है वैसे ही यहां किसी घर, होटल या पब में पहुंचने पर वाईफाई मिल जाता है. जिंदगी तकनीक पर इस कदर निर्भर हो चुकी है कि दरवाजों पर सेंसर, किचन में बरतन धोने वाली मशीनें और यांत्रिक मुखमुद्राएं देखते हुए डर लगता है कि क्या जल्दी ही मशीनें आदमी को गुलाम बना लेंगी. तब उसके सुविधाओं के निरंतर आदी होते शरीर और अनिश्चित परिस्थितियों में नया रास्ता खोज लेने वाले स्वतंत्रचेता दिमाग का क्या होगा. इस भय को खंगालने वाली फिल्मों और फिक्शन की रेलमपेल के बीच ऑस्ट्रिया में ऐसे लोगों की बस्तियां बसने लगी हैं जो टेलीविजन, मोबाइल फोन और हर बात के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं करते. हो सकता है कि कभी वहां जाकर अपने ही रचे जंजाल से बचने का रास्ता खोजने वाले मन से मिलने का मौका मिले.

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं विक्रम हूं या नहीं लेकिन हर पखवाड़े मेरा सामना बेताल यानि इस कॉलम से होता है. जवाब नहीं देने पर सिर के छिन्न-भिन्न हो जाने की अपनी प्रसिद्ध शर्त का जिक्र किए बिना वह मुझसे प्रश्न करता है इसबार क्या लिखोगे? मुझे कुछ समझ नहीं आता, सिर्फ सन्नाटे में बेताल की भारी सांसों की आवाज सुनाई पड़ती है, मेरे भीतर पानी की तरह रिसती हुई बेचैनी भरने लगती है. लिखने के मुद्दे इफरात में सामने सजे हैं और कॉलम लिखने वाली कोई मशीन होती तो कितना अच्छा होता, मैं उसे झट से खरीद लेता.

अभी ऐसा नहीं है इसलिए मैं खुद से सवाल करने लगता हूं, तुम इस तत्परता से लिखने वाले होते कौन हो. क्या तुम्हें दुनिया के बारे इतना पता है कि अपने पाठकों को कुछ नया बता सको. क्या सूचना एवं प्रसारण मंत्री समेत प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या जिंदगी भर किसी एक विषय पर ही छेनी चलाने वाले ज्ञानी को भी इतना पता होता है? हर आदमी सीमित ज्ञान और विराट अबोधता के बीच न जाने किस आत्मविश्वास से संतुलन बनाए हुए झूल रहा है. हर बार मुझे यह त्रस्त कर देने वाला झूला दिख जाता है और मेरा दिल बैठने लगता है. हां, हर आदमी दुनिया को ऐसे जैविक कोण से जानता है कि कोई दूसरा वैसे नहीं जान सकता. यहीं एक गुंजाइश दिखती है कि अपने इस नजरिए के बारे में बात हो सकती है. विचारों और अनुभूतियों को साझा करना आदमी की नैसर्गिक जरूरत है. अतीत में कभी उसे इस डर से चुप बैठा नहीं पाया गया कि वह कम जानता है इसलिए नहीं बोलेगा. वह तो इस डर के बारे में ही बात करने लगेगा.

 यहां आकर एक जादू जैसी चीज घटित हुई है. गोरा कम गोरा, भव्य कम भव्य लगने लगा है. नीली आंखें विलक्षण नहीं, आंखों का सिर्फ एक और प्रकार लगने लगी हैं. यूरोप में अपने घर में खड़ा आदमी वैसे आत्मविश्वास से भरा नहीं दिखता जैसे वह भारत में अपने से गरीब, कद-काठी में कमजोर और किंचित चकित लोगों के सामने दिखता है. उसके चेहरे पर अकेलापन और उन प्रपंचों की परछाइयां आती-जाती दिखने लगी हैं जिनसे उनकी जिंदगी दो-चार है. यही सापेक्षता का फंडा समझ में आता है. हर चीज एक-दूसरे की तुलना में ऐसी या वैसी है वरना वह अपने आप में कैसी भी नहीं है.

 एक शाम जर्मनी से इटली के मेलपान्सा एयरपोर्ट पहुंच कर काफी देर तक टूलने के बाद भी मेरी मेजबान अलेस्सांद्रा कांउसेलारो का पता नहीं चला जो मुझे लेने अंजारा गांव से आने वाली थीं. फोन मिलाने पर आवाज आती थी  इल नुमेरो दालेई सेलेत्सियानो नोन्न एजिस्ते (जो नंबर आपने डायल किया है मौजूद नहीं है). थोड़ा वक्त और बीता, कई तरह की बेंचों पर बैठते और मशीनों से परिचय पाते हुए अचानक डर लगा कि एकदम अनजाने इतालवी शहर में अब कहां जाऊंगा. उसी डर के भीतर एक उत्तेजना भी थी कि आज से तुम्हारी वास्तविक यात्रा की शुरुआत होने वाली है. खैर वह मुझे एयरपोर्ट के भीतर तेज कदमों से जाती हुई दिख गईं, वह मुझे खोजने के लिए अनाउंसमेंट कराने जा रही थीं. मैंने पूछा कि आप का नंबर लग क्यों नहीं रहा है. उन्होंने मेरा फोन लेकर नंबर डायल किया और कहा, आपने एक ही जीरो लगाया है, इंटरनेशनल कॉल के लिए दो जीरो लगाने चाहिए थे. मैंने यूरोप से अब तक यही एक चीज सीखी है कि ज्ञान एक शून्य के बाद दूसरा शून्य है.